हमारे देश में ‘‘डग-डग रोटी, पग-पग नीर’’ की कहावत प्रचलित थी। यानी देश में पानी इतनी प्रचुर मात्रा में था कि देश के हर बाशिंदे की पानी से संबंधित सभी आवश्यकता पूरी जो जाती थी। जल संपदा से संपन्न होने के साथ ही भारत की नदियों का जल निर्मल और पवित्र भी था, जो विभिन्न प्रकार के रोगों का नाश करता था। गंगा के जल को तो अमृत का दर्जा दिया गया है, तो वहीं कृष्ण की यमुना, नर्मदा, सरस्वती का जल भी अर्मत समान था, लेकिन आबादी बढ़ने के साथ-साथ वनों की अंधाधुंध कटाई की गई। इंसानों के रहने के लिए कंक्रीट के जंगल खड़े किए गए। विज्ञान के विस्तार के साथ नए-नए संसाधनों का आविष्कार हुआ। इंसानों के शौक व जरूरतों को पूरा करने तथा बढ़ती आबादी को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए बड़े पैमाने पर उद्योग लगाए गए। इन उद्योगों का कचरा व केमिकल वेस्ट को सीधे नदियों में बहाया जाने लगा। प्लास्टिक के आविष्कार ने इसानों को प्लास्टिक का इस हद तक आदि बना दिया कि धरती के गर्भ से लेकर समुद्र की गहराई व ऊपरी सतह पर तक प्लास्टिक कचरे का अंबार लग गया है। जिससे भूजल जल प्रदूषित होकर नदियों और नदियों से समुद्र में मिल रहा है और अब यही प्लास्टिक इंसानों के शरीर के अंदर भी पहंच गया है। खेती में रसायनों के उपयोग से भोजन के साथ ही भूमि की सतह भी विषाक्त होती जा रही है। आधुनिकीकरण की इस दौड़ में लोगों के साथ ही सरकारों ने भी पर्यावरण को उपेक्षित रखा और इसका निरंतर दोहन करते चले गए। नतीजन देश की 4500 से ज्यादा नदियां सूख गई और जल से संबंधित देश में सभी कहावते केवल इतिहास बनकर रह गई हैं।
आजादी से पहले भारत में करीब सात लाख गांव हुआ करते थे। बंटवारे में पाकिस्तान के अलग देश बनने के बाद लगभग एक लाख गांव पाकिस्तान में शामिल हो गए। हर गांव में करीब पांच जल संरचनाएं हुआ करती थी, यानी आजाद भारत में 30 लाख जल संरचनाएं थीं, लेकिन अति उपयोग व लगातार दोहन और पर्यावरण चक्र बिगड़ने के कारण बीस लाख तालाब, कुएं, पोखर और झील आदि पूरी तरह सूख चुके हैं। दस साल पहले देश में लगभग 15 हजार नदियां हुआ करती थीं, लेकिन 30 प्रतिशत यानी लगभग 4500 नदियां पूरी तरह से सूख कर केवल बरसाती नदियां ही बनकर रह गई हैं। राजस्थान और हरियाणा में 20 प्रतिशत स्थानों का भूजल स्तर 40 मीटर या इससे अधिक नीचे चला गया है, जबकि गुजरात में 12 प्रतिशत, चंडीगढ़ में 22 प्रतिशत और मध्य प्रदेश में 4 प्रतिशत स्थानों का भूजल स्तर 40 मीटर या इससे अधिक चीने चला गया है।
अमेरिका 6 हजार मीटर क्यूब प्रति व्यक्ति वर्षा जल संग्रहित करता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया 5 हजार, चीन 2500, स्पेन 1500 और भारत केवल 200 मीटर क्यूब प्रति व्यक्ति बारिश का पानी जमा करता है। देश की 16 करोड़ से अधिक आबादी की पहुंच साफ पानी से दूर है, जबकि इथोपिया 6.1 करोड, नाइजीरिया 5.9 करोड़, चीन 5.8 करोड़ और कांगो की 4.7 करोड़ जन संख्या की पहुंच साफ पानी से दूर है।
राजस्थान में यदि तालाबों की बात की जाए तो शहरी इलाकों में 772 तालाब और बावड़ियों में से 443 में पानी है, जबकि 329 सूख चुके हैं या इन पर अतिक्रमण है। पेजयल और सिंचाई के उपयोग में आने वाली राजस्थान की 11 प्रमुख नदियों में ज्यादातर बरसाती हैं, लेकिन जल संरचनाओं की जितनी उपेक्षा उत्तर प्रदेश में हुई शायद ही कहीं हुई होगी। उत्तर प्रदेश के 1 लाख 77 हजार कुओं में से पिछले पांच सालों में 77 हजार कुएं सूख चुके हैं। 24 हजार 354 तालाब व पोखरों में से 23 हजार 309 में ही पानी है, तो वहीं 24 में से 12 झीलें बीते पांच सालों में पूरी तरह सूख चुकी हैं। बिहार की स्थिति में इससे इतर नहीं है। बिहार में 4.5 लाख हैंडपंपों में पानी आना बंद हो गया है, यानी ये भूजल गिरने से सूख गए हैं। 8386 में से 1876 पंचायतों में भूजल स्तर कम हो गया है। बीते 20 वर्षों में सरकारी और निजी तालाबों की संख्या राज्य में 2.5 लाख से घटकर 98 हजार 401 रह गई है। 150 छोटी-बड़ी नदियों में से 48 सूख चुकी हैं। देश के अन्य राज्यों की स्थिति भी इससे इतर नहीं है और उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कनार्टक, तमिलनाडु, दिल्ली, हैदराबाद, महाराष्ट्र सहित देश के अन्य राज्य भी पानी के भीषण संकट से जूझ रहे हैं। जिसका मुख्य कारण वर्षा जल का संरक्षण न करना और कृषि में पानी का अति उपयोग करना आदि हैं।
भारत में सबसे ज्यादा पानी का उपयोग खेती के लिए किया जाता है। उपलब्ध पानी का लगभग 76 प्रतिशत हिस्सा देश में सिचांई के उपयोग में लाया जाता है, जबकि उद्योगों में 7 प्रतिशत, घरों में 11 प्रतिशत और अन्य कार्यों में 6 प्रतिश पानी का उपयोग किया जाता है, लेकिन इस समस्या को दूर करने के लिए भारत में अभी तक वर्षा जल संरक्षण करने की परंपरा विकसित नहीं हुई है। दरअसल भारत में हर साल 4 हजार घन मीटर बारिश होती है। जिसमें से हम केवल 17 प्रतिशत यानी 700 अरब घनमीटर का ही उपयोग करते हैं और 2131 अरब घन मीटर वर्षा जल का वाष्पीकरण हो जाता है, लेकिन वर्षा जल संरक्षण की ओर देश की सरकारों ने भी ध्यान नहीं दिया, जिस कारण वर्षा जल संरक्षण में भारत अन्य देशों से पिछड़ रहा है। यदि आंकड़ों पर नजर डाले तो अमेरिका 6 हजार मीटर क्यूब प्रति व्यक्ति वर्षा जल संग्रहित करता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया 5 हजार, चीन 2500, स्पेन 1500 और भारत केवल 200 मीटर क्यूब प्रति व्यक्ति बारिश का पानी जमा करता है। देश की 16 करोड़ से अधिक आबादी की पहुंच साफ पानी से दूर है, जबकि इथोपिया 6.1 करोड, नाइजीरिया 5.9 करोड़, चीन 5.8 करोड़ और कांगो की 4.7 करोड़ जन संख्या की पहुंच साफ पानी से दूर है। विकराल होती इस समस्या के कारण भारत सरकार ने बीते वर्ष 343.3 करोड़ रुपये खर्च किए थे, जबकि इस वित्त वर्ष 398.9 करोड़ रुपये खर्च किए जाने, जो कि वर्ष 2010 में केवल 62.3 करोड़ ही था, लेकिन हाल ही में नीति आयोग ने भी एक रिपोर्ट में कहा कि 2030 तक 40 प्रतिशत लोगों की पहुंच पीने के पानी तक खत्म हो जाएगी। जिससे करोड़ों रुपया खर्च करने के बाद भी इस बात की गारंटी नहीं दी सकती की देश की जनता को साफ पानी उपलब्ध होगा।
दरअसल, देश को पानी के संकट से पार पाने के लिए जन भागीदारी की आवश्यकता है। किसी और को दोष देने के लिए बजाए देश के प्रत्येक नागरिक को पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्य का समझना होगा। जीवन-शैली में बदलाव लाकर पानी की खपत को कम करना होगा। ज्यादा से ज्यादा वर्षा जल को संग्रहित करने की पंरपरा को विकसित करना होगा। सरकार को चाहिए कि भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए देश में करोड़ों रुपया विभिन्न योजनाओं में व्यय करने के बजाए देशभर में लाखों की संख्या में रिचार्ज कुए बनाए जाए। देश में तालाबों की संस्कृति को विकसित किया जाए। पहाड़ी इलाकों के साथ ही मैदानी इलाकों में वृहद स्तर पर मिश्रित पौधों का रोपण किया जाए। साथ ही इन पौधों का पूरी तरह से संरक्षण भी किया जाए। इसके लिए देश के प्रत्येक नागरिक को भी अपने स्तर पर पहल करनी होगी, और प्लास्टिक जैसी अन्य सभी वस्तुओं का बहिष्कार करना होगा, जो पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हैं, क्योंकि इन सभी वस्तुओं से जल प्रदूषित होता है और हम कितने भी प्रयास करके जल का संरक्षण भले ही कर लें, लेकिन यदि उसे स्वच्छ नहीं रख पाएंगे तो हमारे किसी भी प्रयास का कोई औचित्य नहीं रहेगा। जिससे स्वच्छ जल केवल इतिहास बनकर रह जाएगा।
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