वास्को-द-गामा, गोवा! शताब्दियों पहले होलेण्ड के ह्यूगो ग्रोटियस ने स्वतंत्र महासागरों की परिकल्पना देते हुए कहा था कि सभी महासागर विश्व के सभी राष्ट्रों की सम्पत्ति हैं और विश्व का कोई भी देश किसी भी महासागर का किसी भी कार्य के लिये प्रयोग कर सकता है। यह परिकल्पना मानवतावादी आदर्शवाद की कसौटी पर जितनी परिशुद्ध थी, व्यावहारिक तौर पर उतने ही विवाद उत्पन्न करने वाली साबित हुई, क्योंकि दुनिया के प्रायः सभी देश अपने समुद्री भागों के संसाधनों के दोहन की अनुमति नहीं दे सकते थे। यहाँ तक कि विश्व के बहुत से समुद्रतटीय देश समुद्र तथा समुद्र तल से आर्थिक लाभ उठाने के लिये अपनी भूमि से लगे समुद्री क्षेत्र पर अपना क्षेत्राधिकार जताते आए हैं।
कालांतर में समुद्र के कानून के दो बुनियादी सिद्धांत सामने आए, जिनमें एक था कि समुद्रतटीय देशों से संलग्न समुद्र-जल की एक संकीर्ण पट्टी उस तटीय राज्य की विशिष्ट संप्रभुता के अधीन होनी चाहिए और उससे परे सभी गहरे समुद्र स्वतंत्र रूप से दुनिया के सभी देशों के लिये सुलभ होना चाहिए। ये सिद्धांत मूल रूप से व्यापार और नेवीगेशन की स्वतंत्रता के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा की आवश्यकताओं को पूरा करने और सुलझाने के लिये बनाए गए थे। लेकिन वे दोनों क्षेत्रों में सभी गतिविधियों पर लागू होते थे और उनके तहत कानूनी दायरे में मछली पकड़ने की गतिविधियाँ भी शामिल थीं। इस तरह 18वीं शताब्दी में कॉर्नलुई वान बिंकरशोंक की समुद्रतट सीमा निर्धारण की अवधारणा के आधार पर सीमांतवर्ग जल क्षेत्र की संकल्पना सामने आई, जिसमें यह निश्चित किया गया कि किसी देश की सीमांतवर्ग जल क्षेत्र की सीमा सागरीय तट से 3 समुद्री मील की दूरी तक होगी।
अन्तरराष्ट्रीय समुद्री कानून का प्रादुर्भाव
19वीं शताब्दी आते-आते नई वैज्ञानिक तकनीकियों और प्रौद्योगिकियों के विकास के कारण महासागरीय संसाधनों का अतिदोहन होने लगा और दुनिया के विभिन्न देशों के बीच बनी समुद्री आर्थिक परिकल्पनाएँ फिर विघटित होने लगीं। ऐसे में नए सिरे से अन्तरराष्ट्रीय समुद्री कानूनों की मांग उठने लगी। अन्तरराष्ट्रीय विधि व कानून वे नियम होते हैं, जो स्वतंत्र देशों के मध्य परस्पर सम्बन्धों अथवा यहाँ तक कि विवादों के निपटारे के लिये लागू किए जाते हैं। अन्तरराष्ट्रीय कानून किसी देश के अपने भीतरी कानूनों से पूर्णतया भिन्न होते हैं क्योंकि ये कानून वास्तव में उन दोनों देशों के सम्बन्धों के लिये लागू किए जाते हैं न कि उनके नागरिकों के लिये बनाए जाते हैं। हाँ यह अवश्य है कि उन देशों के नागरिकों को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इन अन्तरराष्ट्रीय कानूनों को मानना पड़ता है। अतः ये एक तरह की विधि प्रणाली कहे जा सकते हैं जिनका संबंध व्यक्तियों के समाज से न होकर देशों के समाज से होता है।
विश्व के समुद्र संबंधी अन्तर्देशीय विवादों अथवा सम्बन्धों के निपटारे के लिये 24 फरवरी से 27 अप्रैल 1958 के बीच जेनेवा में अन्तरराष्ट्रीय समुद्री कानून पर पहला राष्ट्रमण्डल सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में कहा गया कि महाद्वीपीय मग्नतट पर समुद्री खनन उस देश का अधिकार है, जिस देश के तट के साथ वह महाद्वीपीय मग्नतट संलग्न है। लेकिन फिर इससे कई विवाद खड़े हो गए, क्योंकि इससे महाद्वीपीय मग्नतट की परिभाषा स्पष्ट नहीं हो पा रही थी।
अतः 1960 में जेनेवा में ही समुद्री कानून पर दूसरा राष्ट्रमण्डल सम्मेलन, फिर 1973 से 1982 तक राष्ट्रमण्डल द्वारा आयोजित अन्य सम्मेलनों के तहत अंततः एक समुद्री संधि के कानून पर जाकर सभी की सहमति हुई।
संयुक्त राष्ट्र की अन्तरराष्ट्रीय समुद्री क़ानून संधि
वास्तव में संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि एक अन्तरराष्ट्रीय समझौता है जो विश्व के सागरों और महासागरों पर देशों के अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ निर्धारित करता है और समुद्री साधनों के प्रयोगों के लिये नियम स्थापित करता है। 1982 में बनी यह संधि नवंबर 1994 में जाकर विश्व में लागू हो पाई क्योंकि इसमें एक नियम रखा गया था कि जब तक विश्व के 60 देश इस पर हस्ताक्षर नहीं कर देते यह किसी पर लागू नहीं होगी। सन 1994 में गयाना ने साठवें देश के रूप में इस पर हस्ताक्षर किए और तब यह विश्व का अन्तरराष्ट्रीय समुद्र कानून का रूप ले सकी। अंग्रेज़ी में इस संधि को 'यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ़ द सी' (United Nations Convention on the Law of the Sea या UNCLOS) कहते हैं। इस अन्तरराष्ट्रीय समुद्र कानून के तहत शामिल प्रावधानों में क्षेत्रीय समुद्र के लिये 12 समुद्री मील सीमा का निर्धारण, अन्तरराष्ट्रीय जलडमरूमध्य से होकर पारगमन की सुविधा, द्वीप समूह और स्थलरुद्ध देशों के अधिकारों में वृद्धि, तटवर्ती देशों के लिये 200 समुद्री मील अनन्य आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) का निर्धारण और राष्ट्रीय अधिकारक्षेत्र से बाहर गहरे समुद्र में स्थित खनिज संसाधनों के दोहन की व्यवस्थाएँ प्रमुख हैं।
संयुक्त राष्ट्र की अन्तरराष्ट्रीय समुद्री क़ानून संधि में इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (आईएसए) और कमीशन ऑन द लिमिट्स ऑफ कांटीनेंटल शेल्फ (सीएलसीएस) की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (आईएसए) किंग्स्टन, जमैका में स्थित एक अन्तरसरकारी संस्था है, जिसे सभी अन्तरराष्ट्रीय समुद्रतटीय खनिज संबंधी गतिविधियों को व्यवस्थित और नियंत्रित करने के लिये स्थापित किया गया था। 10 जून 1964 को लागू की गई कमीशन ऑन द लिमिट्स ऑफ कांटीनेंटल शेल्फ (सीएलसीएस) महाद्वीपीय मग्नतट की सीमाओं से संबंधित अन्तरराष्ट्रीय कानून के नियमों को संहिताकृत करने के लिये बनाई गई एक अन्तरराष्ट्रीय संधि थी। इस संधि में अतिजलक्षेत्र और हवाई क्षेत्र को नियंत्रित करना; पनडुब्बी केबल्स या पाइपलाइनों को बिछाने या उनका रखरखाव; इन क्षेत्रों में नेवीगेशन, मछली पकड़ने, वैज्ञानिक अनुसंधान और तटीय राज्य की दक्षता; परिसीमन; सुरंग आदि शामिल थे।
अन्तरराष्ट्रीय समुद्री कानून संधि में भारत
भारत सरकार ने पहले ही 25 अगस्त 1976 को समुद्री क्षेत्र अधिनियम बना लिया था। यह अधिनियम 15 जनवरी 1977 को लागू हुआ था, जिसमें लगभग 20.01 लाख वर्ग किलोमीटर के संपूर्ण अन्नय आर्थिक क्षेत्र के क्षेत्र को राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार में लाया गया था। इस क्षेत्र में भारत को समुद्र में जीवित तथा अजीवित दोनों ही संसाधनों के अन्वेषण तथा दोहन द्वारा उनका उपयोग करने का विशेष कानूनी अधिकार प्राप्त है। इस अनन्य समुद्री क्षेत्र की सुरक्षा तथा राष्ट्रीय विधियों का प्रवर्तन और राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिये भारतीय तटरक्षक की स्थापना की गई थी। भारत ने जून 1995 में संयुक्त राष्ट्र की अन्तरराष्ट्रीय समुद्री कानून संधि (यूएनसीएलओसी) पर हस्ताक्षर किए और साथ ही इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (आईएसबीए) और कमीशन ऑन द लिमिट्स ऑफ कांटीनेंटल शेल्फ (सीएलसीएस) में भी शामिल हुआ। यूएनसीएलओसी के प्रावधानों को भारत में लागू करने का उत्तरदायित्व नोडल एजेंसी के रूप में प्रारम्भ में भारत सरकार के पृथ्वी-विज्ञान मंत्रालय, जो उस समय महासागर विकास विभाग कहलाता था, को सौंपा गया था। तब से अब तक लगातार पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय भारत के प्रतिनिधि के रूप में यूएनसीएलओसी से संबंधित सभी बैठकों में नियमित रूप से भाग लेता है और समुद्री कानून के मामलों में अहम भूमिका अदा कर रहा है।
पृथ्वीविज्ञान मंत्रालय का राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र, गोवा नामक एक स्वायत्त संस्थान यूएनसीएलओसी से सम्बद्ध समस्त राष्ट्रीय प्रयासों में देश के अन्य समुद्री राष्ट्रीय संस्थानों के सक्रिय सहयोग और भागीदारी का समन्वयन करता है।
अनन्य आर्थिक क्षेत्र की संकल्पना
भारत विश्व की पाँचवी बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन चुकी है। वह दिन दूर नहीं जब तकनीक क्रांति के सहारे भारत सुपर पावर बनने को तैयार है। भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में भारत में हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की बहुत बड़ी भूमिका रही है। भारत स्वतंत्रता के बाद से ही अपनी अर्थव्यवस्था के एक और स्वरूप नीली अर्थव्यवस्था (ब्ल्यू इकोनॉमी) के माध्यम से मत्स्य सुरक्षा एवं विशेष आर्थिक क्षेत्रों में दुनिया के विभिन्न देशों के साथ संयुक्त अन्वेषण सहित स्थायी समुद्री संसाधन प्रबंधन में सहयोग की पहल करता आया है।
संयुक्तराष्ट्र की अन्तरराष्ट्रीय समुद्री कानून संधि (यूएनसीएलओसी -III) विश्व के महासागर क्षेत्रों के समस्त पहलुओं को शामिल करते हुए महासागरों पर शासन के लिये एक व्यापक व्यवस्था निर्धारित करती है। अनन्य आर्थिक क्षेत्र (ईईज़ेड) की संकल्पना इस संधि की सर्वाधिक अभिनव विशेषता है, जिसे सबसे बड़ा क्रांतिकारी गुणधर्म भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसके लागू होने के बाद से ही महासागरों के प्रबंधन व संरक्षण पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा है। यूएनसीएलओसी के अनुच्छेद 76 के प्रावधानों के अनुसार किसी देश का अनन्य आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) उस देश की समुद्री तटरेखाओं से 200 समुद्री मील (370 किलोमीटर) तक विस्तारित समुद्री क्षेत्र होता है। अलग-अलग देशों के अनन्य आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) की लंबाई उनके भूगोल के अनुसार अलग-अलग हो सकती है। यदि किसी देश का ईईजेड किसी दूसरे देश के ईईज़ेड पर अतिव्यापित हो रहा है तो ऐसी स्थिति में देशों के बीच वास्तविक ईईज़ेड क्षेत्र का बँटवारा किया जाता है। प्रत्येक देश अपने ईईज़ेड में समुद्री संसाधनों के अन्वेषण, दोहन, विकास, प्रबन्धन एवं संरक्षण करने का पूर्ण अधिकारी होता है। संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि के अनुसार जो तटीय देश अपने महाद्पीवीय मग्नतट की बाहरी सीमा 200 समुद्री मील से अधिक विस्तारित करना चाहता है, तो वह 150 समुद्रीमील और अर्थात कुल 350 समुद्रीमील तक विस्तारित कर सकता है, परन्तु इसके लिये उसे वैज्ञानिक और तकनीकी आंकड़ों सहित सीमाओं का ब्यौरा पेश करना पड़ता है।
भारतीय अनन्य आर्थिक क्षेत्र
अण्डमान व निकोबार द्वीपसमूहों और लक्षदीप द्वीपसमूहों के समुद्रतट समूहों सहित भारत की कुल समुद्री तटरेखा लगभग 7500 किलोमीटर है, जिसके कारण भारत का अनन्य आर्थिक क्षेत्र लगभग 23.7 लाख वर्ग किलो मीटर है। भारत का ईईज़ेड विश्व के बारहवें सबसे बड़े अनन्य आर्थिक क्षेत्र में आता है। भारत के अनन्य आर्थिक क्षेत्र में हाइड्रोकार्बनों के प्रचुर भण्डारों के साथ-साथ इलेमनाइट, रुटाइल, ज़िरकॉन, मोनाज़ाइट एवं मेग्नेटाइट जैसे महत्त्वपूर्ण खनिजों के भण्डार भी मिलते हैं। भारत के ईईज़ेड में उपलब्ध इन समुद्री संसाधनों के इष्टतम उपयोग के लिये भारत सरकार ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत के अनन्य आर्थिक क्षेत्र के स्वास्थ्य बेथिमीट्रिक सर्वेक्षणों के लिये एक परियोजना स्वीकृत की थी। इस परियोजना के माध्यम से मल्टीबीम तकनीकियों द्वारा देश के सम्पूर्ण ईईज़ेड का व्यापक समुद्रतल भूआकृतिक मानचित्र तैयार किया गया है। पूरे ईईज़ेड समुद्रीतल में मिलने वाले तलछटों के नमूने एकत्रित कर उनके वैज्ञानिक विश्लेषणों द्वारा वहाँ की समुद्री संसाधन क्षमताओं का मूल्यांकन करने में अभी भी भारतीय वैज्ञानिक जुटे हुए हैं। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अन्तर्गत राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र (एनसीएओआर), गोवा को इस काम के लिये नोडल एजेंसी के रूप में नामित किया गया है, जो देश के अन्य दो समुद्री संस्थानों राष्ट्रीय महासागर तकनीकी संस्थान (एनआईओटी) और राष्ट्रीय समुद्रविज्ञान संस्थान (एनआईओ) के सहयोग के साथ ईईज़ेड संबंधी समस्त वैज्ञानिक कार्य कर रहा है।
भारतीय अनन्य आर्थिक क्षेत्र से लाभ
किसी भी देश का अनन्य आर्थिक क्षेत्र उसके वैश्विकजीवन समर्थन प्रणाली का एक अनिवार्य संघटक और एक सकारात्मक परिसम्पत्ति है, जो उस देश को संपोषित विकास का अवसर प्रदान करता है। भूआकृति और जलवायु कारकों के संयोजन तथा भारतीय तटरेखा से संलग्न नदियों द्वारा आपूर्ति किए जाने वाले पोषक तत्वों के कारण अपवाद स्वरूप भारत का अनन्य आर्थिक क्षेत्र अत्यधिक उत्पादात्मक और जैवविविधता की दृष्टि से बेहद समृद्ध है। चूँकि भारत का अनन्य आर्थिक क्षेत्र बड़ा है और साथ ही भारत हिन्द महासागर के उस मुहाने पर स्थित है, जहाँ से 60-70 % वैश्विक व्यापार होता है।
भारत के समुद्रों से लगे मैंग्रोवों, अंदर पाई जाने वाली प्रवाल भित्तियों, समुद्री घासों और समुद्री मत्स्यजीवों के कारण भारत की समुद्री सम्पदा के विशाल क्षेत्र हैं। भारत काफी समय से सेशेल्स के साथ अनन्य आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) सहित पर्यावरण, हाईड्रोकार्बन, अक्षय ऊर्जा समुद्री खनन आदि विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक सहयोग की नई संभावनाओं पर काम कर रहा है। पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में भारत की ओर से आर्थिक एवं वाणिज्यिक गतिविधियाँ बढ़ी है। समुद्री मित्र पड़ोसी सेशल्स व भारत के संबंध मुख्यतः समुद्री सुरक्षा सहयोग तथा विकास कार्यों में सहयोग पर आधारित हैं। सेशेल्स के पास भी 13 लाख वर्गमीटर का विशाल ईईजेड है। इस ईईज़ेड की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये भारत उसका विश्वसनीय सहयोगी रहा है। भारत की मदद से सेशेल्स में एक अपतटीय राडार टोही प्रणाली लगाने, डॉरनियर 228 टोही विमानों और 'आई एन एस तारसा' गश्ती जल पोत के भारतीय उपहारों को देने के साथ-साथ अनेक विकास परियोजनाएँ चल रही हैं।
भारत में नीली अर्थव्यवस्था
भारत विश्व की पाँचवी बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन चुकी है। वह दिन दूर नहीं जब तकनीक क्रांति के सहारे भारत सुपर पावर बनने को तैयार है। भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में भारत में हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की बहुत बड़ी भूमिका रही है। भारत स्वतंत्रता के बाद से ही अपनी अर्थव्यवस्था के एक और स्वरूप नीली अर्थव्यवस्था (ब्ल्यू इकोनॉमी) के माध्यम से मत्स्य सुरक्षा एवं विशेष आर्थिक क्षेत्रों में दुनिया के विभिन्न देशों के साथ संयुक्त अन्वेषण सहित स्थायी समुद्री संसाधन प्रबंधन में सहयोग की पहल करता आया है। नीली अर्थव्यवस्था से तात्पर्य देश के समुद्र आधारित आर्थिक विकास से है, जिसमें पर्यावरण जोखिम और पारिस्थितिक प्रभाव को सार्थक रूप से कम करते हुए मानव कल्याण हेतु समुद्री संसाधनों का उपयोग किया जाता है। ये समस्त अनुकूल परिस्थितियाँ भारत को नीली अर्थव्यवस्था की ओर प्रेरित करने में सकारात्मक भूमिका निभाती हैं। हालाँकि अभी भारत में नीली अर्थव्यवस्था मजबूत स्थिति में नहीं कही जा सकती, परन्तु इस दिशा में प्रयास काफी तेजी से की जाने लगी है। चीन की दक्षिण चीन सागर में धौंस व हिन्द महासागर में धमक कहीं न कहीं भारत को बाध्य कर रही है कि अब समय आ गया है कि भारत भी नीली अर्थव्यवस्था को अपनाकर अपनी समुद्री क्षमता विश्वपटल पर प्रदर्शित करे। इसी वर्ष 2017 की शुरूआत में भारत एवं अमेरिका के अधिकारियों ने सागरों की पारिस्थितिकी प्रणालियों की रक्षा करने एवं नीली अर्थव्यवस्था के माध्यम से स्थायी विकास को प्रोत्साहित करने के लिये एक सामरिक एवं वाणिज्यिक वार्ता की थी।
अनन्य आर्थिक क्षेत्र और सागरमाला परियोजना
देश की महत्त्वकांक्षी सागरमाला परियोजना भारत की नीली अर्थव्यवस्था की दिशा में बढ़ाया जा रहा एक सराहनीय कदम है। इसमें सन 2020 तक 60 अरब डॉलर यानी करीब चार लाख करोड़ रुपये के निवेश की आवश्यकता जताई गई है। ऐसा माना जा रहा है कि इसके माध्यम से संभारिक लागत में प्रतिवर्ष छह अरब डॉलर की बचत होगी तथा साथ ही इससे एक करोड़ रोजगार सृजित होंगे। सरकार की सागरमाला परियोजना भारत के लिये बंदरगाह आधारित विकास मॉडल है। इसके तहत नए बंदरगाह स्थापित किए जाएँगे और पुराने को आधुनिक रूप दिया जाएगा। साथ ही इन्हें तटवर्ती तथा द्विपीय क्षेत्रों को आंतरिक क्षेत्रों से जोड़ा जाएगा। सागरमाला परियोजना के तहत अब अनन्य आर्थिक क्षेत्र के गहरे और मत्स्यसम्भावी क्षेत्रों में जाने के लिये मछुआरों को गहरे समुद्र वाले जहाज मिल सकते हैं, क्योंकि सरकार ने गहरे समुद्र के जहाजों की खरीद को सब्सिडी देने की योजना बनाई है, जिसकी लागत लगभग 1 करोड़ रुपये है। इससे भारतीय मछुआरे अपने क्षेत्रीय समुद्री जल की अपेक्षा देश के अनन्य आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) में जाकर अपने गहरे समुद्र के जहाजों द्वारा अधिक से अधिक मछली पकड़ सकेंगे। इससे एक और लाभ यह होगा कि उथले समुद्र से मछलियों सहित अन्य जीवों के अतिदोहन को रोका जा सकेगा और साथ ही भारत अपने अनन्य आर्थिक क्षेत्र के जैव संसाधनों का दोहन कर पाएगा।
जलकृषि तथा समुद्री मत्स्य-उत्पादन वाली “नीली क्रांति”
मछली पालन भी युवाओं के लिये रोजगार का बेहतरीन जरिया हो सकता है। इस दृष्टिकोण से युवाओं की बेरोजगारी को दूर करने के लिये केंद्र सरकार ने मछली पालन को बढ़ावा देने और उसे आसान बनाने के लिये नीली क्रांति योजना शुरू की है। इस योजना के तहत एक हेक्टेयर का तालाब बनाने पर मछली पालकों को पचास प्रतिशत वित्तीय सहायता दी जाती है। वर्ष 2015-16 के अनुमान के अनुसार लगभग 1 लाख करोड़ रुपये का मत्स्य उत्पादन देश में हुआ है। भारत मत्स्य-उत्पादों के निर्यात में 14.8 प्रतिशत की औसत वार्षिक विकास दर के साथ विश्व में प्रथम स्थान पर रहा है। “नीली क्रांति” का उद्देश्य मछली उत्पादन बढ़ाना और 8 प्रतिशत की दर से सालाना उत्पादन हासिल कर 2020 तक 15 मिलियन टन का आंकड़ा छूना है। देश में मात्स्यिकी और जल कृषि में हुई तेज प्रगति से मछली पालकों और किसानों की आमदनी लगातार बढ़ रही है और आने वाले दिनों में यह बड़े पैमाने पर मछली पालकों और किसानों को आर्थिक लाभ पहुँचायेगी। नीली अर्थव्यवस्था के चलन में आने से मत्स्य किसानों की आय मे बढ़ोत्तरी होने के साथ साथ देश के निर्यात तथा सकल घरेलू उत्पाद में प्रगति होगी। इससे निःसंदेह देश में पोषण तथा खाद्य-सुरक्षा की सुनिश्चितता भी बढ़ेगी।
मछली उत्पादन में भारत विश्व में चीन के बाद लगातार दूसरे स्थान पर बना हुआ है। देश में लगभग 150 लाख लोग मत्स्य व्यवसाय से जुड़े हुये हैं। श्रिम्प या झींगा मछली में भारत विश्व में प्रथम स्थान रखता है और यह झींगा का सबसे बड़ा निर्यातक भी है। आंकड़ों के अनुसार देश के सभी मत्स्य उत्पादन मिलाकर वर्ष 2015-16 में देश में अनुमानित 10.8 मिलियन टन मछली उत्पादन हुआ, जो कि विश्व के कुल मछली उत्पादन का लगभग 6.4 प्रतिशत है। भारत जल कृषि अर्थात एक्वाकल्चर से मछली उत्पादन करने वाला दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक (42.10 लाख टन) देश है। वैश्विक जलकृषि उत्पादन में यह लगभग 6.3 प्रतिशत का योगदान करता है। पिछले एक दशक में जहाँ विश्व में मछली एवं मत्स्य-उत्पादों के निर्यात की औसत वार्षिक विकास दर 7.5 प्रतिशत रही, वहीं भारत मत्स्य-उत्पादों के निर्यात में 14.8 प्रतिशत की औसत वार्षिक विकास दर के साथ विश्व में प्रथम स्थान पर रहा है।
अब भारत का लक्ष्य है कि जलकृषि तथा समुद्री मत्स्य उत्पादन द्वारा मत्स्य पालकों तथा मछुआरों की आय वर्ष 2022 तक दो गुना करना है। आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि अंतर्देशीय मत्स्यपालन से 72.1 लाख टन मछली उत्पादन कर भारत विश्व में दूसरा स्थान रखता है और भारत अन्तर्देशीय मत्स्य पालन में लगभग 8.0 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर सकता है। भारत सरकार ने लगभग 3000 करोड़ रुपये की एक-छत्र योजना ‘नीली क्रांति: मात्स्यिकी के एकीकृत विकास और प्रबंधन’ की शुरूआत की है। इस योजना में अन्तर्देशीय मात्स्यिकी, जलकृषि, समुद्री मात्स्यिकी समेत गहन समुद्री मत्स्यन, समुद्री मछली पालन और राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्ड (एनएफडीबी) के सभी क्रियाकलाप शामिल हैं। नीली क्रांति के माध्यम से मछली या उसके उत्पादों से होने वाली आय को अगले 5 साल में 33 हज़ार 441 करोड़ से बढ़ा कर एक लाख करोड़ रुपये तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया था।
उपसंहार
मत्स्य क्षेत्र के वाणिज्यीकरण और अत्यधिक पूँजीकरण के साथ घरेलू तथा निर्यात दोनों ही बाजारों में समुद्री उत्पादों की बढ़ती मांग को देखते हुए समुद्री मछलियों का समुचित प्रबंधन करके संपोषित पैदावार सुनिश्चित करने हेतु अनन्य आर्थिक क्षेत्र में मत्स्ययन को समेकित करना और जोखिमग्रस्त क्षेत्रों व प्रजातियों का संरक्षण करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। अनन्य आर्थिक क्षेत्र के समीचीन दोहन द्वारा भारत की नीली अर्थव्यवस्था देश के समृद्ध भविष्य का एक महत्त्वपूर्ण आयाम हो सकती है।