भारतीय मौसम पूर्वानुमान तकनीक की प्रासंगिकता

Submitted by birendrakrgupta on Mon, 10/27/2014 - 00:05
Source
कुरुक्षेत्र, अक्टूबर 2011
भारतीय सभ्यता काफी पुरानी है। काल के इस लम्बे अंतराल में हुए अनुभवों एवं प्रकृति की प्रयोगशाला में नित्य किए गए प्रयोगों पर आधारित प्राप्त ज्ञान ने भारतवंशियों को अत्यंत ही दक्ष मौसम वैज्ञानिक बना दिया है। अपने ऐसे मौसम विज्ञान एवं मौसम पूर्वानुमान से संबंधित ज्ञान के सूत्रों को हमारे वैज्ञानिकों ने अत्यंत ही सरस एवं सुबोध लोकभाषा में सूत्रबद्ध करके प्रचारित करवाया है। इसके परिणामस्वरूप भारतीय मौसम वैज्ञानिक तथ्य अत्यंत ही लोकप्रिय होकर लोक-परंपराओं के रूप में स्थापित हो गए हैं। ऐसे लोकप्रिय भारतीय मौसम वैज्ञानिक तथ्यों को लोकोक्तियों, लोक-गीतों, लोक-कथाओं तथा लोक-साहित्य के रूप में हमारे गांव के लोग भी जानते हैं। इनका (मौसम संबंधित ज्ञान को) वे आज भी अपने स्तर पर प्रकृति में निरीक्षण करते रहते हैं। फलतः वे भी दक्ष मौसम वैज्ञानिक हैं। अपनी निकट प्रकृति में छोटी-छोटी घटनाओं का भी वे गहन विश्लेषण करते हैं। इनके आधार पर वे सटीक मौसम पूर्वानुमान करते हैं। पर्यावरण की दृष्टि से मौसम अत्यंत ही महत्वपूर्ण तत्त्व है, क्योंकि जमीन, जल, जंगल, जंतु तथा वायु पर्यावरण के अन्य घटक मौसम से ही प्रभावित होते हैं। भारत जैसे मानसूनी जलवायु के क्षेत्र में तो वर्ष कई स्पष्ट मौसमों में विभक्त रहता है। सर्दी, गर्मी एवं वर्षा की यहां तीन ऋतुएं होती हैं। ये चार-चार महीनों की होती हैं। हालांकि प्राचीन साहित्यों में बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत तथा शिशिर नामक छः ऋतुओं का उल्लेख किया गया है। ये ऋतुएं दो-दो महीनों की होती हैं। हेमंत (कार्तिक एवं अगहन की तथा शिशिर (पौष एवं माघ) ऋतुओं को मिलाकर सर्दी का मौसम, बसंत (फाल्गुन एवं चैत्र) व ग्रीष्म (वैशाख व ज्येष्ठ) को संयुक्त स्वरूप में गर्मी का मौसम तथा वर्षा (आषाढ़ और सावन) और शिशिर (भादो व आश्विन) ऋतुओं को सम्मिलित रूप से वर्षा ऋतु कहा जाता है।

कार्तिक, अगहन, पूस एवं माघ (नवम्बर से फरवरी तक) महीनों में सर्दी का मौसम रहता है। कार्तिक एवं अगहन की सर्दी तो सुखद रहती है, जिसे हेमंत ऋतु कहा जाता है, परंतु पूस एवं माघ में यह जानलेवा हो जाती है। फाल्गुन, चैत्र, बैसाख एवं जेठ (मार्च से जून तक) में गर्मी का मौसम रहता है। फाल्गुन एवं चैत्र में गर्मी सुखद रहती है। इसे वसंत ऋतु भी कहा जाता है, जबकि बैसाख एवं जेठ में भीषण गर्मी पड़ती है। जेठ की गर्मी तो जानलेवा हो जाती है। आषाढ़, सावन, भादो एवं आश्विन (जुलाई से सितम्बर तक) वर्षा के माह होते हैं। पहले तीन महीनों में भारी वर्षा होती है। इस तरह विभिन्न मौसम के जो अलग-अलग स्वरूप हैं, उनका हमारे पर्यावरण पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता है। ये हमारी अर्थव्यवस्था को भी विभिन्न प्रकार से प्रभावित करते हैं। इसलिए मौसम का पूर्वानुमान काफी लाभप्रद एवं महत्वपूर्ण होता है। आने वाले मौसम के बारे में समय रहते पूर्व में ही जानकारी हो जाने पर भविष्य में पर्यावरण एवं अर्थव्यवस्था संबंधी योजनाएं पहले से ही बनाई जा सकती हैं। भारतीय परंपराओं में मौसम के ऐसे पूर्वानुमानों की अत्यंत ही विकसित तकनीकों की व्यापकता एवं प्रचुरता है।

अनपढ़ कहे जाने वाले (हालांकि वे अनपढ़ तो हैं, परंतु अज्ञानी नहीं हैं, अपितु वे अत्यंत ही बुद्धिमान व तेजस्वी हैं) अतएव मौसम पूर्वानुमान से संबंधित हमारी पारंपरिक तकनीक, जो लोक-परंपराओं के रूप में पूरे देश में विद्यमान हैं, आज भी न केवल पूरी तरह से प्रासंगिक हैं, अपितु पाश्चात्य आधुनिक मौसम पूर्वानुमान की विद्या की तुलना में ज्यादा ही प्रामाणिक, सटीक, वैज्ञानिक तथा सूक्ष्म हैं (तालिका-1)। मौसम पूर्वानुमान से संबंधित भारतीय लोकपरंपराओं के कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं, लेकिन इसके पूर्व आधुनिक तकनीक पर अधारित मौसम पूर्वानुमान के पाश्चात्य पत्तियों तथा लोक-पर्यवेक्षण पर आधारित भारतीय विधियों के तुलनात्मक विश्लेषण का उल्लेख प्रासंगिक है।

क्रम संख्या

मौसम पूर्वानुमान की पद्धतियों

आधुनिक पाश्चात्य

पारंपरिक भारतीय

1

पूर्णतया संगठित, उत्तम सुसज्जित, अतिशय परिष्कृत व सूक्ष्मतम स्तर तक के परिशुद्धता वाले यंत्रों से युक्त

संपूर्ण भारत के ग्रामांचलों में लोकप्रिय लोकोक्तियों, लोक-गीतों, लोक-संगीतों, लोक-कथाओं तथा लोक-साहित्यों के रूप में बेतरतीब रूप से विद्यमान

2

समस्त अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस उत्तम विकसित आधारभूत संरचनाओं वाली समुन्नत स्थापित प्रयोगशालाएं

अतिशय व्यापक तथा असीमित विस्तार वाली प्रकृति ही प्रयोगशाला

3

मात्र 400 या 500 वर्ष पुराना अत्यल्पकालीन इतिहास

हजारों-हजार वर्षों का सुदीर्घ इतिहास

4

अत्यंत खर्चीला एवं अत्यधिक निवेश की आवश्यकता

निवेशविहीन व नितांत सस्तापन

5

शोधार्थ उच्चस्तरीय प्रशिक्षित विशेषज्ञों की आवश्यकता

गैर-प्रशिक्षित तथा गैर-तकनीकी विशेषज्ञता वाले सर्वसामान्य भी मौसम पूर्वानुमान में सक्षम

6

वर्तमान मौसम वैज्ञानिक आंकड़े ही औजार

हजारों हजार वर्षों के अतिशय लंबे दौर में विकसित पर्यवेक्षण एवं अनुभव ही औजार

7

अतिशय कठिन संचालन

अति सरल विश्लेषण

8

उपकरणीय एवं गणितीय पर्यवेक्षणों पर आधारित परिणाम

मेघों की दशाओं, पवनों की प्रवृत्तियों, जंतुओं तथा पक्षियों के व्यवहारों आदि जैसी प्राकृतिक दशाओं के आधार पर निकाले गए परिणाम

9

परिणाम प्रायः ही अपूर्ण, भ्रामक, अशुद्ध, अवास्तविक तथा अविश्वसनीय

परिणाम प्रायः ही पूर्ण, सत्य, शुद्ध, वास्तविक, अधिकृत तथा विश्वसनीय



इस तालिका के विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जलवायु एवं मौसम के पूर्वानुमान से संबंधित पारंपरिक भारतीय तकनीकों पर आधारित परिणाम प्रायः ही पूर्ण, सत्य, शुद्ध, वास्तविक, अधिकृत तथा विश्वसनीय होते हैं, जबकि आधुनिक पाश्चात्य पत्तियों पर आधारित परिणाम प्रायः ही अपूर्ण, भ्रामक, अशुद्ध, अवास्तविक तथा अविश्वसनीय होते हैं।

वैसे इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक तो आधुनिक मौसम विज्ञान काफी विकसित हो चुका है, परंतु मौसम पूर्वानुमान में उसे कोई विशेष सफलता नहीं प्राप्त हुई है। मौसम विभाग की मौसम संबंधी भविष्यवाणियां कभी सही नहीं भी होती हैं, या कभी-कभी ही सही होती हैं, परंतु पशु-पक्षियों की हरकतों, हवाओं की दिशाओं, आसमान के रंग तथा पेड़-पौधे के ऊपर के परिवर्तनों आदि को देखकर पारंपरिक भारतीय मौसम वैज्ञानिक आगामी मौसम की सटीक भविष्यवाणी करते हैं। ऐसी हजारों-हजार तकनीक संपूर्ण भारत के ग्रामीणांचलों में बिखरे पड़े हैं। यहां उनमें से कुछ के सुविस्तृत विश्लेषण मात्र उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

गौरैया को धूल में लेटने को पारंपरिक भारतीय मौसम पूर्वानुमान की दृष्टि से निकट भविष्य में ही वर्षा के होने की तथा पानी में स्नान करने को वर्षा रहित आगामी मौसम की पूर्व सूचना माना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इन नन्हीं चिड़ियों को आगामी मौसम का पूर्वानुमान हो जाता है, जिसको वे उपरोक्त विधियों से प्रदर्शित कर संदेश प्रेषित करते हैं।

इसी प्रकार पेड़ों पर लटकते बाया नामक पक्षी के घोंसलों के प्रवेशद्वार की दिशा को देखकर भारतीय पारंपरिक जनसामान्य मौसम वैज्ञानिक आगामी वर्षा ऋतु में चलने वाली हवाओं एवं वर्षा की मात्रा का पूर्वानुमान लगाते हैं (चित्र संख्या-1)। ऐसा इसलिए कि इन नन्हें पक्षियों को आगामी वर्षा ऋतु में चलने वाली हवाओं की दिशा एवं वर्षा के अनुपात का पूर्वाभास रहता है। अतएव आगामी बरसाती हवाओं के मार्ग के विपरीत दिशा में ये अपने घोंसलों के मुंह को बनाते हैं। आगामी मौसम में अगर वर्षादायिनी हवाएं मुख्यतया उत्तर से चलने वाली होती हैं तब इन घोंसलों के प्रवेशद्वार दक्षिण की ओर रहते हैं। पूर्वी हवाओं से वर्षा होने की स्थिति में इन घोंसलों के प्रवेशद्वार पश्चिम तथा पश्चिमी हवाओं से वर्षा होने की स्थिति में पूरब की ओर के प्रवेशमार्ग बनाए जाते हैं। विभिन्न दिशाओं से होने वाली वर्षा की स्थिति में घोंसले के नीचे की ओर प्रवेशद्वार बनाए जाते हैं।

घाघ भंड्डरी की कहावतें तो मौसम पूर्वानुमान के सूत्र ही हैं। मौसम की प्रतिकूलता की स्थिति में इनके माध्यम से आर्थिक गतिविधियों से निपटने की सलाह भी दी गई है। पूरे वर्ष के मौसम से संबंधित भविष्यवाणियों के सूत्र एवं तकनीकों का इसमें उल्लेख किया गया है। इनमें से कुछ का वर्णन किया जा रहा हैः-

सावन मास बहै पुरबईया। बेच वर्धा किन गईया।।
अथवा
सावन मास बहै पुरवाई। बरध बेचि बेसाहो गाई।।


इसका सारांश यह हुआ कि गंगा के मैदान में सावन के महीने में अगर हवा पूरब दिशा से चले तो वर्षा नहीं होगी। सावन का महीना गंगा की मध्य घाटी में मध्य जुलाई से मध्य अगस्त तक का माह होता है। इस मौसम में पछुआ हवाओं के चलने से ही वर्षा होती है, क्योंकि दक्षिण-पश्चिम मानसून की बंगाल की खाड़ी शाखा की जल-वाष्पपूरित हवाएं इस क्षेत्र के आकाश में फैली रहती हैं एवं पूरब (बंगाल की खाड़ी) से पश्चिम की ओर चलती हैं। ऐसी स्थिति में पश्चिम (थार के तप्त मरुस्थल) से चलने वाली शुष्क हवाएं जब इस प्रदेश में पहुंचती हैं तब पूरब से चलने वाली वर्षादायिनी हवाओं का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप पूरबी हवाएं ऊपर उठने लगती हैं। इस क्रम में वे काफी ऊपर पहुंच जाती हैं, जहां तापमान की कमी के कारण वे ठंडी होने लगती हैं। इस तरह इन हवाओं के जलवाष्प ठंडे होकर गैसीय अवस्था से जल के कणों में बदल जाते हैं और वर्षा के रूप में भूतल पर गिरने लगते हैं। इस प्रकार यहां भारी वर्षा होती है। इसके विपरीत जब इस मौसम में पूर्वी हवायें चलती हैं तब पश्चिमी हवाओं के अवरोध के अभाव में वे बेरोकटोक पश्चिम की ओर बढ़ती चली जाती हैं और वर्षा नहीं कर पाती हैं (चित्र संख्या - 2 व 3)।

इस मौसम में पछुआ हवाओं के कारण हुई अच्छी वर्षा कृषि-कार्यों के लिए अत्यंत ही लाभदायक होती है, क्योंकि यह इस कृषि प्रधान क्षेत्र में कृषि-कार्यों के प्रारंभ का समय होता है। अगहनी एवं भदई की फसलों के लगाए जाने एवं इनके विकास का यही समय होता है। इनके लिए इस समय वर्षा की नितांत आवश्यकता रहती है। यह धान के रोपणी का भी समय रहता है। इसको काफी पानी की आवश्यकता पड़ती है। इन सबों को इस वर्षा से काफी गति प्राप्त होती है। पश्चिमी हवाओं के अभाव में जब यहां वर्षा नहीं होती है तब इसी मानसूनी वर्षा पर आधारित इस कृषि प्रधान भूभाग में वर्षा विहीनता की स्थिति उत्पन्न होने पर सूखा पड़ जाता है। फलतः फसलोत्पादन बाधित हो जाता है।

इससे निपटने के लिए यहां की कृषि अर्थव्यवस्था के आधार-स्तम्भ के रूप में मान्य बैलों (बर्ध) को बेचकर दुधारू गायों को खरीदने के सुझाव दिए गए हैं। ऐसा इसलिए कि इस प्रतिकूल स्थिति में कृषि-कार्यों के असंचालन से तत्कालीन तौर पर बेकार एवं अनुपयोगी हो गए बैलों की जगह दुधारू गायों से आजीविका के विकल्प तैयार किए जा सकते हैं। अर्थात् गायों से वह (कृषक) अपना निर्वाह कर लेगा।

जो पुरबा पुरबईया पाबै, सुखल नदी में नाव चलाबै।
अथवा
जो पुरबा पुरबईया पाबै, झूरी नदी में नाव चलाबै।
ओरी के पानी बरेड़ी जावै।।


अर्थात् पूरबा नक्षत्र (अगस्त के आखिरी चरण से सितम्बर के प्रारंभिक चरण तक) में जब हवा मध्य गंगा मैदान में पूरब दिशा से चलने लगती है तो इतनी भारी वर्षा होती है कि सूखी हुई नदी में भी बाढ़ आ जाती है और उस नदी में नाव चलने लगती है। यह मध्य वर्षाऋतु का काल रहता है, जो धान के पौधों के विकास की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण होता है और इसके लिए पर्याप्त मात्रा में पानी की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए पूरब दिशा से ही हवा का चलना काफी महत्वपूर्ण होता है।

इस मौसम में गर्म पछुआ हवाओं का विस्तार गंगा के मैदान में काफी पूरब तक हो जाता है। उसी समय जब बंगाल की खाड़ी से पूर्वी हवाएं चलती हैं तब जैसे ही इन दोनों विभिन्न चरित्र वाली हवाओं का मिलन होता है तो पूर्वा हवा के मार्ग में पछुआ हवाओं द्वारा व्यवधान उपस्थित कर दिए जाने से तथा पूर्वी हवाओं के ऊपर उठकर संघनित हो जाने से इस मैदानी भाग में भारी वर्षा होती है। चूंकि यह काल धान तथा अन्य खरीफ फसलों के विकास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है, जिसके लिए पानी निहायत ही आवश्यक रहता है, इसीलिए इस मौसम की वर्षा अति उत्तम मानी जाती है।

हवाओं की दिशा ज्ञात करने का प्राचीन धार्मिक भारतीय उपकरण


महावीरी पताका या ध्वजा एक ऐसा धार्मिक प्रतीक है जो भारतीय जनमानस के लगभग प्रत्येक घर में रामनवमी पर्व के अवसर पर फहराया जाता है, जिससे हवाओं की दिशा जानी जाती है। यह परम्परा आज भी उत्तर भारत के गांवों में प्रचलित है। लम्बे बांसों में पवनसूत हनुमान के चित्र छाप कर उसमें बांधकर गाड़ने से इस यंत्र का निर्माण होता है। इस महावीरी झंडा को उड़ते देखकर हवा की दिशा का ज्ञान होता है। बिहार के दक्षिणी मैदान में बरसात के मौसम में जब ये पत्ताकें दक्षिण की तरफ उड़ने लगते हैं तब उत्तरंगी (उत्तर से चलने वाली) हवा चलने लगती है तब यहां के किसान सचेत हो जाते हैं, क्योंकि छोटा नागपुर के पठार से निकलने वाली मोरहर-सोरहर जैसे समूह की नदियों में 36 घंटे के अंदर ही बाढ़ आ जाती है, जितने दिनों तक उत्तरंगी हवा चलती है, बाढ़ उतनी ही उग्र रहती है। बाढ़ के आने के समय एवं उसकी उग्रता को ध्यान में रखकर ही इससे निपटने की तैयारी भी कर ली जाती है।

वस्तुतः बरसात के दिनों में बंगाल की खाड़ी से होकर आने वाली मानसूनी पवनें बिहार के उत्तर में स्थित नेपाल हिमालय से टकराकर जब मुड़ती हैं और छोटा नागपुर के पठार से टकराती हैं और ऊपर उठने लगती हैं तब संघृनित होकर छोटा नागपुर के सघन जंगलों में भारी वर्षा करती हैं। वर्षा का यही जल छोटा नागपुर पठार के उत्तरी ढालों से निकलकर बिहार के दक्षिणी मैदान की नदियों में प्रवाहित होने लगता है।वस्तुतः बरसात के दिनों में बंगाल की खाड़ी से होकर आने वाली मानसूनी पवनें बिहार के उत्तर में स्थित नेपाल हिमालय से टकराकर जब मुड़ती हैं और छोटा नागपुर के पठार से टकराती हैं और ऊपर उठने लगती हैं तब संघृनित होकर छोटा नागपुर के सघन जंगलों में भारी वर्षा करती हैं। वर्षा का यही जल छोटा नागपुर पठार के उत्तरी ढालों से निकलकर बिहार के दक्षिणी मैदान की नदियों में प्रवाहित होने लगता है। इतने सही, सटीक, प्रमाणिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण हमारे भारतीय जीवन दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी विद्या में शायद ही उपलब्ध हो। आधुनिक मौसम विज्ञान शायद इतना सही सटीक अनुमान लगाने में समर्थ है या नहीं, यह एक प्रश्नवाचक तथ्य है, जबकि हमारे गांवों के लोगों का यह व्यावहारिक ज्ञान हजारों वर्षों तक प्रकृति के साथ के अंतरंग संबंधों के परिणाम हैं।

प्राचीन भारतीय ज्ञान एवं मौसम के सटीक पूर्वानुमान के कुछ अन्य तथ्य


प्रकृति की एक संस्कृति होती है कि जब कोई अनहोनी घटना होने वाली रहती है तब उसके लक्षण तत्काल या पहले से ही प्रकट होने लगते हैं। सूखा एवं अकाल भी एक प्राकृतिक घटनाक्रम है। यह सदियों से होता आया है। हमारे ऋषियों-महर्षियों, चिंतकों व ज्योतिषियों ने अकाल या दुर्भिक्ष पर अनेकानेक चिंतन एवं शोध किए हैं जो श्रुति, कृति एवं स्मृति आदि के रूप में विद्यमान हैं। जरूरत है इस ओर देखने, समझने और विश्वास करने की। यहां चंद उदाहरणों से इसे प्रमाणित करने का प्रयास किया जा रहा है।

पारंपरिक भारतीय चिंतकों के अनुसार यदि मानसून की पहली वर्षा में ही नदी-नाले उमड़ जाए तो उस वर्ष अच्छी वर्षा नहीं होती है। वर्षा के दिनों में आसमान लाल अथवा पीला हो जाए तब भी पानी पड़ने की आशा नहीं रहती है। यदि सावन में शुक्रास्त हो जाए तो जानना चाहिए कि अकाल पड़ेगा। यदि रात में कौवा बोले और दिन में सियार तो निश्चित ही अकाल पड़ता है।ऐसा माना गया है कि श्रावण कृष्ण पक्ष पंचमी को यदि तेज हवा चले तो अवश्य ही अकाल पड़ता है। इतना ही नहीं सावन वदी दशमी को यदि रोहिणी नक्षत्र हो तो अन्न महंगा हो जाता है, क्योंकि तब वर्षा नहीं होती है। यदि सावन वदी द्वादशी को कृतिका या मृगशिरा नक्षत्र भोग करता है तब निश्चित ही अकाल पड़ता है। सावन शुक्ल पक्ष सप्तमी को यदि सूर्य उगते ही दिखाई पड़े अर्थात् यदि आकाश में बादल नहीं रहे तब भी निश्चित ही अकाल पड़ता है। जिस वर्ष सावन में पूर्वा हवा और भादो में पछुआ हवा चलती है तब उस वर्ष भी वर्षा बहुत ही कम होती है। सावन के कृष्ण पक्ष में यदि तुला राशि पर मंगल ग्रह हो या कर्क राशि पर बृहस्पति ग्रह हो या सिंह राशि पर शुक्र ग्रह हो तो वर्षा नहीं होती है। भादो की अमावस्या को यदि रविवार हो और उस दिन अगर सूर्यास्त के समय पश्चिम दिशा में इन्द्रधनुष दिखाई पड़े तब संसार में हाहाकार मच जाता है। पारंपरिक भारतीय चिंतकों के अनुसार यदि मानसून की पहली वर्षा में ही नदी-नाले उमड़ जाए तो उस वर्ष अच्छी वर्षा नहीं होती है। वर्षा के दिनों में आसमान लाल अथवा पीला हो जाए तब भी पानी पड़ने की आशा नहीं रहती है। यदि सावन में शुक्रास्त हो जाए तो जानना चाहिए कि अकाल पड़ेगा। यदि रात में कौवा बोले और दिन में सियार तो निश्चित ही अकाल पड़ता है।

भारतीय खेती नक्षत्रों की दशाओं पर निर्भर करती है। उत्तर भारत में अगर बैसाख तृतीया को रोहिणी नक्षत्र न पड़े, पूस अमावस्या को मूल नक्षत्र न हो, रक्षा बंधन के दिन श्रावण नक्षत्र एवं कार्तिक पूर्णिमा को कृतिका नक्षत्र न हो तो उस साल धान की उपज नहीं होती है। अक्षय तृतीया के दिन रोहिणी (चौथा) नक्षत्र न हो और श्रावण पूर्णिमा के दिन श्रावण नक्षत्र न हो तो खेत में बीज बोना भी व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि उस वर्ष निश्चय ही अकाल पड़ता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मौसम एवं अकाल की भविष्यवाणियां तथा उनसे निपटने के लिए बताई गई भारतीय मनीषियों की तकनीक काफी उत्कृष्ट है, क्योंकि ये वस्तुतः व्यावहारिक मौसम विज्ञान की अनुपम विधा है।

इससे संबंधित सकारात्मक एवं जनोपयोगी बातों के चिंतन-मनन, बहस तथा विचारों के आदान-प्रदान हमारे गांवों के चौपालों की खास विशेषता थी। गांव के बुजुर्ग अपने अनुभवों के आधार पर हर प्रकार के तथ्यों का विश्लेषण करते थे, परंतु खोखली आधुनिकता की दौड़ में ये सब लुप्त होती जा रही हैं। नई पीढ़ी को इन बातों की जानकारी भी नहीं है। वे सिर्फ रेडियो या टेलीविजन पर मौसम का पूर्वानुमान सुनते हैं, जो व्यावहारिक (Applied) एवं सटीक (Accurate) नहीं होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे आधुनिक मौसम वैज्ञानिक पूरी तरह से पश्चिमी तकनीकों एवं यंत्रों पर निर्भर करते हैं, जबकि उनके पास न तो उतने उत्कृष्ट यंत्र रहते हैं और न वे (मौसम वैज्ञानिक) उतने समर्थ रहते हैं। यह स्थिति तब है जबकि मौसम पूर्वानुमान की भारतीय तकनीक अतिशय ही सटीक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक, सर्वसुलभ एवं अत्यंत ही कम खर्चीली या मुफ्त होती है, क्योंकि ये आकाश के रंग, ग्रह-नक्षत्रों, सितारों की अवस्थिति, हवाओं की दिशाओं, पशुओं एवं पक्षियों के व्यवहारों तथा पेड़-पौधों के तेवरों से पता लगाए जाते हैं। प्राचीन भारतीय विधा में इसकी इतनी सटीक तकनीक विद्यमान है कि मौसम का पूर्वानुमान सफलतापूर्वक काफी पहले ही लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं विपरीत मौसम से निपटने की तकनीक भी विस्तारपूर्वक बताई गई है।

भारतीय विद्याओं के माध्यम से अकाल या सूखा या बाढ़ जैसी आपदाओं का पहले से ही पूर्वानुमान किया जा सकता है। ऐसी स्थितियों का पूर्वानुमान हो जाने पर उनसे निपटने के उपाय पहले से ही किए जा सकते हैं। इन परिस्थितियों में पैदा होने वाली फसलों की खेती की जा सकती है एवं तदनुरूप अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किया जा सकता है। सूखा का पूर्वानुमान हो जाने पर वैसी ही फसलों की खेती की जा सकती है, जो शुष्कता में ही काफी उत्पादन देती हैं। ऐसी फसलों की खेती से पूंजी का नुकसान भी होने से बचता है और अकाल भी कट जाता है। भारत के लिए अकाल कोई नई बात नहीं है। हम इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी झेलते आ रहे हैं। जरूरत है सिर्फ अपने पारंपरिक ज्ञान से लाभ लेने की।

(लेखक पटना विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग में रिसर्च स्कॉलर हैं।)
ई-मेल : shashigeography1987@gmail.com