भारतीय संस्कृति में पर्यावरणीय और जल चिंतन

Submitted by Shivendra on Tue, 08/06/2019 - 17:11
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पाञ्चजन्य, 1 जून 2019

भारतीय संस्कृति में पर्यावरणीय और जल चिंतन।भारतीय संस्कृति में पर्यावरणीय और जल चिंतन।

आज वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, मिथेन जैसी गैसों के बढ़ने से कई समस्याएँ पैदा हो रही हैं। इन सबसे बचने के लिए भारतीय ऋषि-मुनियों ने अनेक उपाय बताए हैं, जो वैदिक साहित्यत में मिलते हैं। इन बातों पर अमल करने से ही इस संकट से निपटा जा सकता है।

समसामयिक वैश्विक परिदृश्य में प्राणीमात्र की कुशलता क्या, इस मानव समाज का ही अस्तित्व संकट में दिखाई पड़ता है। इसका प्रमुख कारण पृथ्वी पर बढ़ता पारिस्थितिकीय असंतुलन और पर्यावरणीय समस्या के साथ ही आज मनुष्य की भौतिक सुख-सुविधाओं को बढ़ाने की अदम्य लालसा है। पर्यावरण से सम्बन्धित सभी शाखाएँ स्वीकार करती हैं कि धरा पर उपलब्ध सीमित संसाधनों से असीमित विकास का उद्देश्य रखना अनुचित है। पर्यावरण असंतुलन पर 1992 के रियो सम्मेलन में जैव विविधता के संरक्षण के लिए 155 देशों ने भाग लिया और उसके संरक्षण हेतु एक रूपरेखा तैयार की गई। इसका लक्ष्य जैव-विविधता से पूर्ण पृथ्वी को उसकी जातियों, उपजातियों, पारिस्थितिकी तंत्र और जन्तुओं के निवास स्थान को आनुवंशिक सम्पदा और जैव प्रौद्योगिकी के द्वारा सुरक्षित व सम्पोषित करना है। जैव-विविधता की रक्षा के लिए लोगों को वनस्पतियों का विकास करना होगा कि अपनी-अपनी सीमा में वे जैव-विविधता के संरक्षण के लिए सतर्क रहें। 

भारतीय दर्शन पूरी तरह उस जीवन विज्ञान पर आधारित है, जिसमें भौतिक विज्ञान (अपरा विद्या) और अध्यात्म (परा विद्या) एक-दूसरे के साथ संश्लिट हैं। दोनों के मिलन से ही मानव जाति का सम्यक विकास हो सकता है। वैदिक सूत्र बताते हैं कि मानव और ब्रह्माण्ड में एक सावयवी एवं अनिवार्य समानता है, ‘‘यत पिण्डे तत ब्रह्माण्डे।’’ पाश्चात्य दर्शनों में ''फ्रिटजॉफ काप्रा'' ने इसे गहन पारिस्थितिकी का विषय बताते हुए पर्यावरणीय दृष्टिकोण के रूप में विवेचित किया है,  जिसका सामान्य-सा अर्थ है समग्रता अथवा एकमयता। भारतीय दर्शन में इसे अद्वैत की संज्ञा दी गई है अर्थात यह सृष्टि और उसके अंग एक हैं, ईश्वर और मानव एक हैं, अपरा और परा एक हैं, ब्रह्माण्ड और पिंड एक हैं, प्रकृति और मानव एक हैं। वेद सृष्टि विज्ञान के मुख्य ग्रन्थ हैं। इनमें सृष्टि के जीवनदायी तत्वों की विशेषताओं का काफी सूक्ष्म और विस्तृत विवरण मिलता है। यजुर्वेद में जैव-विविधता के संरक्षण की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण ऋचा मिलती है, जिसमें कहा गया है, वे जो नैतिक मर्यादाओं को स्वीकार करने की इच्छा रखते हों, यह वायु उनके लिए सुखकर हो, जल धाराएँ उनके लिए सुखकर हों, यहाँ तक कि ये वनस्पतियाँ नीति परायण जीवन-यापन करने वाले हम सबके लिए सुखकर हो जाएं, रात हमारे लिए सुखकर हो और भोर भी हमारे लिए सुखकर हो, हे सृष्टिकर्ता! हमारे लिए पृथ्वी और स्वर्ग सुखकर हो जाएं, वन देवता हमारे लिए सुखकर हो जाएं, सूर्य हमारे लिए सुखकर हो जाएं और धेनु हमारे लिए सुखकारी हो जाएं।

मधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः।
माधवीर्नः सन्त्वोषधीः।।
थ रजः। 
मधु द्यौरस्तु नः पिता।
मधुमान्नो वनस्पतिमर्मधुमां अस्तु सूर्यः। 
माध्वीर्गावो भवन्तु नः।।

(यजु.13. 27-27)

उपर्युक्त ऋचा इस तथ्य को स्पष्टतया उद्घाटित करती है कि हमारे वैदिक ऋषि-मुनि प्रकृति और पर्यावरण प्रेमी थे और वे सदैव अपने पर्यावरण को सुरक्षित बनाए रखने के लिए चिन्तित रहते थे। वेदों में यह वर्णित है कि जीवनदायी तत्वों की शुद्धता संरक्षित हो तो जीवन भी सुरक्षित होगा। पर्यावरण का संतुलन जैव-विविधता के संरक्षण पर निर्भर है।
 
लोगाक्ष्य स्मृति में वर्णित सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव भी जैवविविधता के संरक्षण में संपोषी विकास की दृष्टि से मील का पत्थर माना जा सकता है। वैदिक ऋषि यह कामना करते हैं कि मानव अपनी उन्नति (विकास) इस तरह से करें कि इस सृष्टि के समस्त प्राणी (जैव विविधता) सुखी और प्रसन्न हों, कोई भूखा न रहे, सभी शुभ विचार वाले हों और कोई कष्ट में न रहे अर्थात पर्यावरण प्रदूषण का दंश न झेले और पारिस्थितिकीय संतुलन बना रहे। ऐसी सोच सदैव जैव विविधता के संरक्षण पर बल देती है। वैदिक चिंतन का प्रादुर्भाव प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में हुआ। आज जबकि धरती की प्रसवधर्मिता ही दांव पर लग गई है और पृथ्वी, आकाश, जल नदी, वायु वृक्ष, जीव-जन्तु, पशु-पक्षी अर्थात पूरा पारिस्थितिकी तंत्र, जिसमें जैव-विविधता सम्मिलित है, के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, हमारा ध्यान सहज ही वेदों की ओर आकृष्ट होता है। सुविधाओं की चाहत में स्वयं ही पर्यावरण को विषाक्त बनाते आज के इंसान को वेद ही सही मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं। हमारे ऋषि-वैज्ञानिकों ने जनता को पहला पाठ यही सिखाया कि सृष्टि में विद्यमान प्रत्येक जड़-चेतन वस्तु में आत्मिक साहचर्य है। अतः यहाँ कभी प्रकृति के उत्पादनों को मनुष्य से भिन्न नहीं देखा गया। यहाँ तक कि यहाँ प्रकृति के अंगों में देवत्व दर्शन की सनातन परम्परा रही है जिसका अपना ठोस दार्शनिक एवं आध्यात्मिक आधार रहा है। इसलिए यह माना गया कि यदि मानव जाति (जीव-जगत) की सुरक्षा करनी है तो हमें प्रकृति की रक्षा करनी होगी - रक्षये प्रकृति पातुं लोकेकाः।
 
यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में प्रकृति की रक्षा पर जोर दिया गया है। लोक जीवन में वृक्ष पूजा, वन संरक्षण का ही उदाहरण है। घर-घर में नीम, तुलसी का होना, इसी धारणा को पुष्ट करता है। पीपल दिन-रात ऑक्सीजन का उत्सर्जन करता है तथा प्रदूषित वायु को अमृततुल्य बनाता है। गीता में कहा गया है अश्वत्थः सर्वावृक्षाणाम्। बौद्ध मत के ‘विनय पिटक’ में एक कथा आती है। उसके अनुसार बुद्ध ने पीपल काटने को निषेध किया है। जैनागमों में भगवान महावीर ने पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु को जीव रूप में बताया है। उनके मत में पृथ्वी भूत नहीं, अपितु जीव है। अतः उसके प्रति भी आत्मवत होना चाहिए। जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त हो या आचार का वर्णन, इन सभी में वनस्पतिकाय की रक्षा का विशद विवेचन प्राप्त होता है।
 
भारतीय दर्शन और संस्कृति में प्रकृति को अत्यन्त प्राचीनकाल से ही आदरपूर्ण और सम्मानजनक स्थान दिया गया है। इसी प्रकार मनुष्य ने धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि के माध्यम से प्रकृति के प्रति अपने भावात्मक दृष्टिकोण का अभिव्यक्तिकरण किया है। वैदिक काल में सृष्टि प्रक्रिया की धारणा से ही हमें प्रकृति और मनुष्य के बीच समन्वयात्मक सम्बन्ध की झलक मिलती है। सृष्टि को यज्ञीय पुरुष की रचना मानकर कहा गया है कि उन्होंने अपने शरीर से पृथ्वी, वायु, जल, प्रकाश और अंतरिक्ष आदि की रचना की है। यहाँ पर मनुष्य को कहीं से विशिष्ट स्थान या अधिकार नहीं दिया गया है। जिससे कि वह अपने को इनसे श्रेष्ठ समझ सके। उसे सभी तत्वों के समान समझा गया है। इसी कारण मनुष्य अपने कल्याण के साथ-ही-साथ अन्य प्राणियों और पौधों की भलाई की कामना करता है। भारतीय समाज के संचालन में हमेशा से एक विश्व दृष्टि रही है। मनुष्य प्रकृति का विजेता नहीं है। प्रकृति केवल उसके उपभोग के लिए रची हुई नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि पवित्र है और पर्यावरण की रक्षा सबका कर्तव्य है। ये बातें आम आदमी में कई सदियों से मान्यता प्राप्त हैं। विश्वोई जाति के लोगों में वृक्षों को बचाने की परम्परा है, जो इसी विश्व दृष्टि का परिणाम है। देश के सभी भागों में पर्यावरण के प्रति यही विश्व-दृष्टि है। तालाब हो या नदी, उसे शुद्ध रखने की प्रेरणा हर जगह दिखाई देती है। वैदिक कालीन मनुष्यों ने पर्यावरण के सभी कारकों के प्रति अपना आदर प्रकट करने हेतु उन्हें दैवी स्वरूपी प्रदान किया। ‘ऋत्’ की अवधारणा से भी वैदिक कालीन ऋषियों की उस धारणओं का पोषण होता है कि वे प्राकृतिक सत्ताओं में संतुलन और व्यवस्था स्थापित करने हेतु देवताओं की आराधना करते थे।
 
उपनिषद में भी अग्नि, जल, वायु, आकाश आदि को सम्मानजनक स्थान प्रदान कर इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन ऋषियों को न केवल पर्यावरण की महत्ता का ज्ञान था, बल्कि वे इसके संरक्षण को भी प्रश्रय देते थे। मनुस्मृति में कहा गया है कि वृक्षों में भी चेतना होती है तथा वे भी सुख-दुख का अनुभव करते हैं। इसको सर जगदीश चन्द्र बोस के प्रयोगों ने यह सिद्ध भी कर दिया है जिसे विश्व समुदाय ने स्वीकार भी कर लिया है। मनुस्मृति के अतिरिक्त भी योगवाशिष्ट तथा अन्य वेदांत दर्शनों में सम्पूर्ण सृष्टि को परमात्मा या ब्रह्म की अभिव्यक्ति माना गया है तथा आंतरिक एकता पर बल दिया गया है।
 
अथर्ववेद के भूमि-सूक्त में पृथ्वी को माँ की संज्ञा दी गई है। पृथ्वी को माँ मानने से और संवेदना से ओत-प्रोत होने से पर्यावरण प्रबन्धन के लिए कुछ बचता ही नहीं। भारतीय चिंतन परम्परा में पारिस्थितिकी के संरक्षण हेतु वृक्ष (जंगल) का महत्व मानव जीवन में सर्वाधिक है। यहाँ वृक्षों को देवता मानकर उसकी सेवा करने की सोच अपनाई गई है। आज विशेषज्ञों का मानना है कि पर्यावरण संतुलन एवं जीवन रूपी रथचक्र को सही ढंग से गतिमान रखने के लिए समूचे भूभाग के 33 प्रतिशत क्षेत्र में वृक्ष वनस्पतियों का होना अनिवार्य है, परन्तु अब कुल 6,40,107 वर्ग किलोमीटर ही वन रह गए हैं। भारतीय संस्कृति वस्तुतः वृक्षों से उत्पन्न हुई है। ऋग्वेद की ऋचा कहती है- भूर्जज्ञ उत्तानपदों (10.72.4) अर्थात पृथ्वी वृक्ष से उत्पन्न हुई है। श्रुति है कि ब्रह्मा ने जल्ऋ में बीज बोया और वनस्पति उपजी। ये अवधारणाएँ सृष्टि में वृक्ष के आगमन की सूचनाएँ ही नहीं देतीं, बल्कि उन्हें आदि शक्ति से भी जोड़ती हैं। स्वयं कृष्ण गीता में कहते हैं- अश्र्वत्थः सर्ववृक्षाणां (10/16)। अर्थात मैं वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूँ। आज वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि पीपल का वृक्ष वायु प्रदूषण रोकने में सर्वाधिक सहायक है। आज वायु प्रदूषण को दूर करने में वृक्षों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसका एक आकलन कोलकाता विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉ. तारक मोहनदास ने इंदु टिकेकर द्वारा सम्पादित एक पुस्तक पानी और पेड़ों में जीवन में प्रस्तुत किया है।
 
उनके अनुसार वृक्षों का मुख्य उत्पादन प्राणवायु (ऑक्सीजन) है जिसका उपयोग मानव अपने अस्तित्व के लिए करता है। इसलिए वृक्षों को मानव समाज का सहायक माना जाता है। प्राचीन भारतीय चिंतन परम्परा में जैव-विविधता के संरक्षण हेतु जल प्रबन्धन का सूत्र यत्र-तत्र धर्म ग्रन्थों में बिखरा पड़ा है। जल प्रबन्धन का एक उदाहरण मनुस्मृति में इस प्रकार बताया गया है-

नाप्सु मत्रूं पुरीषं या 
स्टोवनं समुत्सृजेते।
अमेध्यलिप्तमन्यद्वा 
लोहितं वा विषाणि वा। 

(मनुस्मृति 4.56)


अर्थात पानी में मलमूत्र, थूक अथवा अन्य दूषित पदार्थ रक्त या विष का विसर्जन न करें। यदि इस सूत्र वाक्य को वर्तमान विकास की कड़ी में जोड़ा गया होता तो गंगा नदी का जल इतना दूषित न होता। आज स्वच्छ जल पेय के लिए उपलब्ध नहीं है। वैदिक ऋषियों ने स्वस्थ सृष्टि के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता की कामना की है। यह भी परम्परा मिलती है कि सरोवरों में नहाने से पूर्व एक कंकड़ी मारकर सो रही होती गंगा को जगाया जाता था फिर उनका चरण स्पर्श कर जल स्रोत में शारीरिक आचमन किया जाता है।

वैदिक काल में वायुमण्डल को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए यज्ञ अथवा अग्निहोत्र जैसे कर्मकाण्ड की चर्चा मिलती है, जो नित्य दिनचर्या में सम्मिलित था। यह प्रश्न उठता है कि जहाँ प्रकृति के प्रति अपने पर्यावरण के प्रति ऐसी दृष्टि हो, वहाँ भी सम्पूर्ण विश्व के साथ-साथ नए-नए पर्यावरणीय संकट कैसे सामने आ रहे हैं ? इसके उत्तर में सर्वप्रथम यह कहा जा सकता है कि पर्यावरण को किसी एक देश की सीमा से आबद्ध नहीं किया जा सकता है। इस पर समष्टिगत दृष्टि से ही विचार करना उचित है।

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