पर्यावरण प्रतिज्ञा में हम खरे नहीं उतर पाए। दुनिया का एक भी ऐसा देश नहीं है जो यह दम भर सकता हो कि उसने अपनी प्रगति में प्रकृति को भी समान तवज्जो दी है। दशकों पहले जब विकास पर चिंतन हो रहा था तब प्रकृति व उसके उत्पादों को ज्यादा भाव नहीं मिला क्योंकि वह प्रचुरता में थे। शायद उसी समय विकास की परिभाषा तैयार करने में हमसे बड़ी चूक हो गई। यह प्रकृति ही है जिसने समानता से सबको दिया है और इसलिए इसका दंड भी सबको झेलना पड़ेगा। चाहे वह कोई भी देश और समाज हो। भारत में ही बदलते मौसम ने वर्ष 2016 में 1608 लोगों की जान ली। आईएमडी के अनुसार, वर्ष 2016 सबसे गर्म था। वैसे वर्ष 2016 में बिहार, राजस्थान और गुजरात सर्वाधिक गर्म राज्य रहे। अत्यधिक गर्मी के पीछे प्रदूषण भी एक बड़ा कारण बना है। जिस रफ्तार से गाड़ियां सड़कों पर उतरी हैं और अन्य विलासिता के लिए हमने सामान जुटाया है वह सब तापमान बढ़ाने का काम करते हैं।
1 एकड़ का वन उतना ही कार्बन अवशोषित करता है जितना एक कार 41000 किलोमीटर चलने पर पैदा करती है। मतलब एक कार 1 साल में करीब 6 टन कार्बन डाइऑक्साइड उगलती है। एक एयर कंडीशनर जितनी ठंडक पैदा करता है उसका 30 फीसदी योगदान अकेले वृक्ष कर सकते हैं। विकास की होड़ में पर्यावरण को क्षति पहुंचाने के बहुत से रास्ते हमने तैयार किए हैं। एक तरफ जहां ऊर्जा व उत्पादकों की खपत बढ़ रही है, वहीं कचरो का कोई सीधा निदान नहीं दिखाई देता।
मात्र प्रदूषण के कारण दुनिया में हर वर्ष लगभग एक करोड़ 25 लाख लोगों की मौत होती है। यह हाल तब है जब 30 से 35 प्रतिशत लोग ही शहरों में रहते हैं। वर्ष 2050 तक 66 प्रतिशत लोग शहरों में रह रहे होंगे और उनकी आवश्यकताएं लगभग वैसी ही होंगी। उस हालात में प्रदूषण सारी सीमाएं पार कर चुका होगा। आज दुनिया में वायु प्रदूषण मृत्यु के लिए चैथे कारण के रूप में सामने आया है। लगातार हालात ऐसे ही रहे तो यह दुनिया का पहला और बड़ा कारण बन सकता है। अब जब प्रतिदिन इस प्रदूषण से 1000 लोग मारे जाते हैं तो कल्पना की जा सकती है कि आने वाले समय में हालात क्या होंगे ? तेजी से बढ़ती आर्थिकी का जुनून ही हमें बढ़ती आपदाओं की तरफ ले जा रहा है। अन्य देशों की तुलना में भारत प्रदूषण की बड़ी चपेट में है। अपने देश में 13 बड़े शहर प्रदूषण की गहरी चपेट में हैं। अकेले भारत में करोड़ों रुपए का नुकसान प्रदूषण से होता है। इससे ऐसे भी समझा जा सकता है कि अगर आप मुंबई में सांस ले रहे हैं तो वह 100 सिगरेट पीने के बराबर है। यानी आज हम बिना धूम्रपान के ही विषैली हवा लेने को मजबूर हैं। प्रदूषण रोकने में वनों का बड़ा योगदान है, पर इस विकास में वन क्षेत्रों को भी बहुत नकारा गया है। दुनिया में हर साल 15 अरब पेड़ काट दिए जाते हैं। इसके अलावा हमारी कई गतिविधियां वनस्पतियों को सीधे नुकसान पहुंचाती हैं। इनमें अव्यवस्थित कृषि (31 प्रतिशत), उर्जा (3.4 फीसदी), प्रदूषण (3.34 प्रतिशत), प्रकृति में बदलाव (9.26 प्रतिशत), जलवायु परिवर्तन (3.96 प्रतिशत) मुख्य हैं।
हमें जानना चाहिए कि 1 एकड़ का वन उतना ही कार्बन अवशोषित करता है जितना एक कार 41000 किलोमीटर चलने पर पैदा करती है। मतलब एक कार 1 साल में करीब 6 टन कार्बन डाइऑक्साइड उगलती है। एक एयर कंडीशनर जितनी ठंडक पैदा करता है उसका 30 फीसदी योगदान अकेले वृक्ष कर सकते हैं। विकास की होड़ में पर्यावरण को क्षति पहुंचाने के बहुत से रास्ते हमने तैयार किए हैं। एक तरफ जहां ऊर्जा व उत्पादकों की खपत बढ़ रही है, वहीं कचरो का कोई सीधा निदान नहीं दिखाई देता। हमने अपनी नदियों को कूड़ेदान बना दिया है और शहरों के इलाकों को कूड़ा घर और दोनों जगहों का कूड़ा वर्षा के बाद समुद्र में पहुंच जाता है। हर साल लगभग 6 किलोग्राम कचरा समुद्र में बह जाता है। इसमें प्लास्टिक सबसे अधिक है। अपने देश में ही लगभग 500 टन प्लास्टिक पैदा होता है, पर इसका एक फीसदी से भी कम रीसाइक्लिंग के योग्य होता है। बाकी या तो सड़कों के किनारे या खेतों में समुद्र में या फिर जानवरों के पेट में पहुंच जाता है। हमें गंभीर हो जाना चाहिए कि बिगड़ते पर्यावरण से हालात इतने बदतर हो सकते हैं। इनसे हमारे जीवन में क्या उठल पुथल हो सकती है और किस तरह प्रतिकूल आर्थिक सामाजिक अव्यवस्थाएं जन्म ले सकती है, इस पहल में व्यापक बहस से हम कतराए हुए हैं। पर अब इस विषय को कतई भी हल्के रूप में नहीं लिया जा सकता।
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