भगवान बचाएं परमाणु ऊर्जा से !

Submitted by admin on Sun, 08/01/2010 - 09:00

जिस पदार्थ की राख या बचा हुआ हिस्सा रेडियोधर्मी होकर अगले ढाई लाख वर्षों तक जहरीला बना रहे, ऐसे पदार्थ के जहरीलेपन की सीमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। भारत में पिछले कुछ वर्षों से ऊर्जा के क्षेत्र में परमाणु ऊर्जा को लेकर सुनहरे सपने दिखाए जा रहे हैं। यह आलेख परमाणु ऊर्जा के खतरों के बारे में है। पानी-पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों को सामने लाने का प्रयास यहां किया गया है।

इस वक्त दुनियाभर में 438 परमाणु रिएक्टर कार्यरत हैं। परमाणु ऊर्जा उद्योग के सुझावों के अनुसार जीवाश्म ईंधन पर आधारित ऊर्जा संयंत्रों को परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से बदलने के लिए 1000 मेगावाट के 2 से 3 हजार नए परमाणु संयंत्र निर्मित करना होंगे। इसका अर्थ हुआ अगले 50 वर्षों तक प्रति सप्ताह एक परमाणु ऊर्जा संयंत्र का निर्माण! इस तथ्य के दृष्टिगत कि अमेरिका में सन् 1978 के पश्चात एक भी नया परमाणु संयंत्र स्थापित नहीं हुआ है, यह विचार ही अव्यावहारिक लगता है। अगर हम जीवाश्म आधारित सारे विद्युत संयंत्र बदलने की सोच भी लें तो हमें यह भी याद रखना होगा कि इस स्थिति में आर्थिक रूप से सक्षम परमाणु ईंधन की उपलब्धता मात्र 8 वर्ष तक के लिए संभव हो पाएगी।

वैसे परमाणु उद्योग की अर्थव्यवस्था का अभी तक ठीक-ठाक आकलन ही नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए यूरेनियम संवर्द्धन पर आने वाली लागत पर अमेरिकी सरकार जबरदस्त सब्सिडी देती है। संचालन के दौरान दुर्घटना होने की स्थिति में अमेरिका में मुआवजे की अधिकतम सीमा 600 अरब अमेरिकी डॉलर है। इसमें से मात्र 2 प्रतिशत जवाबदारी निजी क्षेत्र की है शेष 98 प्रतिशत अमेरिकी सरकार द्वारा देय है। इसके अलावा अमेरिका में वर्तमान में कार्यरत सभी परमाणु रिएक्टरों को बंद करने (डी-कमीशन) की लागत भी करीब 33 अरब अमेरिकी डॉलर बैठेगी। इसमें वह लागत मौजूद नहीं है, जो कि रेडियोएक्टिव पानी को आगामी दो लाख पचास हजार वर्ष तक सुरक्षित रखने में आएगी।यह भी कहा जाता है कि परमाणु ऊर्जा प्रदूषण रहित है। परंतु सच इससे बहुत अलग है। अमेरिका में विश्वभर में सर्वाधिक यूरेनियम का संवर्द्धन किया जाता है। वहां ऐसी सुविधा वाले पाडुकाह संयंत्र में इसके संवर्द्धन हेतु 1500 मेगावाट वाले कोयला संयंत्र जितनी विद्य़ुत ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, जिससे बड़ी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है। उपरोक्त एवं ओहियो स्थित एक अन्य संयंत्र पोटर््समाउथ पूरे देश में उत्सर्जित होने वाली क्लोरोलोरोकार्बन (सीएससी) गैस के 93 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जवाबदार हैं। पोटर्समाउथ संयंत्र तो 2001 में बंद हो गया है, लेकिन केंटुकी संयंत्र अभी भी कार्य कर रहा है।

मोंट्रियल समझौते के तहत अब सीएससी गैस के उत्पादन और उत्सर्जन पर रोक लग गई है क्योंकि यह ओजोन को नुकसान पहुंचाने के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी है। वैसे भी यह गैस कार्बनडाईआक्साइड से 20,000 गुना अधिक गरम होती है। वास्तविकता तो यह भी है कि परमाणु ईंधन चक्र के प्रत्येक चरण जैसे खनन व पीसने, परमाणु रिएक्टर व कूलिंग टॉवर का निर्माण, यूरेनियम का 20 से 40 वर्ष की जीवन अवधि की समाप्ति पर, अत्यधिक रेडियोधर्मी रिएक्टर को डी-कमीशन करने में रोबोटों की सहायता, परिवहन एवं बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी अपशिष्ट के भंडारण में अत्यधिक जीवाश्म ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है।

परमाणु उद्योग के इस प्रचार कि यह ऊर्जा पर्यावरण अनुकूल और साफ-सुथरी है, के विरोध में यही कहा जा सकता है कि दोनों ही बातें महज भ्रामक प्रचार ही हैं। परमाणु रिएक्टर प्रतिवर्ष पानी एवं वायु में करोड़ों रेडियोधर्मी समस्थानिक के सूक्ष्म कण छोड़ते हैं। इनका वायुमंडल में प्रवाह पूर्णतया अनियंत्रित है क्योंकि परमाणु उद्योग की निगाह में ये विशिष्ट रेडियोधर्मी तत्व जैविक रूप से नगण्य हैं। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। आयोडीन 131 सेल्लाफील्ड (ब्रिटेन), चेरनोबिल (रूस) और थ्री माईल आईलेण्ड (अमेरिका) से परमाणु दुर्घटना के दौरान निकला था। यह 6 हतों तक रेडियोधर्मी बना रहा और दूध एवं सब्जियों के माध्यम से मानव शरीर के फेफड़ों व अंतड़ियों में पैठ कर गया और अंत में इससे गर्दन में स्थित थायराईड का कैंसर विकसित हुआ। चेरनोबेल के निकट बेलारूस में सन् 1986 से 2000 के मध्य आठ हजार से अधिक बच्चों, किशोरों और वयस्को में थायराईड कैंसर पाया गया। ऐसी मिसाल चिकित्सा इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलती। वही स्ट्रोंटियम-90 की आयु भी 600 वर्ष है और यह गाय एवं बकरी के दूध के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश कर स्तन, हड्डी और खून का कैंसर पैदा कर सकता है। केईसियम 137 की आयु भी 600 वर्ष है और यह जानवरों के मांस में प्रवेश कर जाता है। इसके माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश कर यह सरकोमा नामक मांसपेशियों का कैंसर उत्पन्न करता है। प्लूटोनियम 239 का जीवन ढाई लाख वर्ष का है। यह दुनिया का सर्वाधिक जहरीला पदार्थ है। इसके एक ग्राम के 10 लाखवें हिस्से से भी कम से कैंसर हो सकता है। यह हड्डी और यकृत में लोहे की तरह जम जाता है और कैंसर को जन्म देता है। इसके माध्यम से आनुवांशिक बीमारियां हो सकती हैं, जिससे कि भावी पीढ़ी तक प्रभावित होगी। इसके अलावा क्रिप्टोन, झेनोन, आरगन व ट्रिटियम गैसों से भी आनुवांशिक बीमारियां हो सकती हैं।

विश्व के 438 परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले रेडियाधर्मी कचरे को लेकर सारा विश्व परेशान है। 1000 मेगावाट का परमाणु संयंत्र प्रतिवर्ष 33 टन रेडियोधर्मी कचरा पैदा करता है। अमेरिका के 102 परमाणु संयंत्रों की छत पर स्थित कूलिंग संयंत्रों में 80,000 टन अत्यधिक रेडियोधर्मी कचरा पड़ा है। इसे ठिकाने लगाने के लिए अभी तक भंडारण हेतु स्थान ही नहीं मिल पाया है।

लम्बे समय तक रेडियोधर्मी कचरे को रखना भी अपने आप में एक समस्या है। 1987 में अमेरिकी संसद ने लासवेगास से 150 कि.मी. उत्तर पश्चिम में नेवेदा में स्थित युक्का पर्वत को इस कचरे के भंडारण के लिए चुना था। परंतु अपने ज्वालामुखी स्वभाव व भूकंप अनुकूल भौगोलिक स्थिति के कारण इस स्थान को भंडारण के उपयुक्त नहीं पाया गया। आतंकवादी हमलों के अंदेशे ने भी अब इसके भंडारण में जोखिम बढ़ा दी हैं।रेडिएशन के संपर्क में आने के 5 से 60 वर्ष की अवधि के भीतर कभी भी कैंसर हो सकता है। इसका सर्वाधिक प्रभाव बच्चों, वृद्धों और उन व्यक्तियों पर पड़ता है जिनकी प्रतिरोधक शक्ति का पहले ही ह्रास हो चुका हो। परमाणु ऊर्जा स्पष्टया जहरीली विरासत छोड़कर जाती है। यह वातावरण को गरम करने वाली गैसों को उत्पन्न करती है, साथ ही यह विद्युत उत्पादन के किसी भी अन्य प्रकार या स्वरूप से अधिक खर्चीली है तथा यह कभी भी परमाणु हथियारों को बढ़ावा दे सकती है। (सप्रेस/थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क फीचर्स)

परिचय - हेलन काल्डिकोट फिजिशियन फॉर सोशल रिसपांसिबिलिटी की सह-संस्थापक हैं तथा इन्होंने परमाणु ऊर्जा पर सात पुस्तकों का लेखन भी किया है।