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नेशनल दुनिया, 31 अक्टूबर 2012
प्रकृति से छेड़छाड़ और अत्यधिक दोहन और उससे होने वाले नुकसान की बाते अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जोरदार तरीके से उठती रही हैं लेकिन यह बहस अक्सर विकसित और विकासशील देशों के बीच आरोप-प्रत्यारोप में उलझकर रह जाती है। अब जबकि यह बात वैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप से भी स्थापित हो चुकी है कि प्रकृति और पर्यावरण को बचाकर ही हम ऐसे हादसों का कहर कम कर सकते हैं तो क्यों नहीं आरोप-प्रत्यारोपों से परे हटकर एक ठोस नीति बनाई जाए।
मूसलाधार बरसात, तेज हवाओं और ऊंची लहरों के साथ उठे चक्रवाती तूफान सैंडी ने अमेरिका के पूर्वी तट पर कहर बरपाने के बाद न्यूयार्क और आसपास के राज्यों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। वर्ष 2005 में आए ‘कटरीना’ के बाद अमेरिका में इसे अब तक का सबसे भीषण तूफान बताया जा रहा है। इसीलिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने आपातकाल की घोषणा कर दी है और आपदा नियंत्रण से जुड़ी तमाम एजेंसियों को मुस्तैदी से बचाव कार्यों में जुट जाने का आदेश दिया है। सैंडी के कहर का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मंगलवार को 14 हजार से ज्यादा उड़ाने रद्द कर दी गईं। अनुमान के मुताबिक इस तूफान से 6 करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं। 12 राज्यों के 30 लाख से अधिक घरों में बत्ती गुल है और 10 लाख लोगों को अन्य सुरक्षित स्थानों पर ले जाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि तूफान शांत हो जाने के 10 दिन बाद भी बिजली की बहाली पूरी तरह संभव नहीं हो पाएगी।कोई 85 से 90 मील प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली तेज हवाओं के साथ अमेरिका के पूर्वी तट पर सैंडी ने सोमवार दो दस्तक दी थी और इसके साथ ही 20 लाख घरों में बिजली गुल हो गई थी। तूफान की वजह से 70 के करीब लोगों की जान जा चुकी है तथा इससे अधिक जनहानि की आशंका लगातार बनी हुई है। हैती में ही 50 से ज्याद लोगों के मारे जाने की खबर है। तूफान ने न्यूजर्सी, न्यूयार्क, मैरीलैंड, पेंसिलवेनिया और कनेक्टीकट में भारी तबाही मचाई है। इन राज्यों में जन जीवन पूरी तरह से ठप पड़ गया है। तूफान के कारण अब तक जिस तरह धन और संपत्ति का नुकसान हो रहा है उससे अमेरिका में 2005 मे आए ‘कटरीना’ जैसा मंजर पैदा हो गया है। ‘कटरीना’ के कारण अमेरिका को 41.1 बिलियन डॉलर की संपत्ति (बिमित) का नुकसान हुआ था। हालांकि सैंडी के कारण अब तक आर्थिक नुकसान कितना हुआ है इसका आकलन तो नहीं हो पाया है लेकिन शुरुआती अनुमान के मुताबिक अब तक 72 बिलियन डॉलर (बीमित) का नुकसान हो चुका है।
बहरहाल, अमेरिका में आई इस आपदा को लेकर भी जलवायु और मौसम विज्ञानियों में एक बार फिर से चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है। जलवायु परिवर्तन इस तरह की आपदाओं के लिए किस हद तक जिम्मेदार है इस पर तो अध्ययन जारी हैं लेकिन तमाम मौसम विज्ञानी इस बात पर एकमत हैं कि जलवायु परिवर्तन ‘सैंडी’ जैसी आपदा का एक कारण अवश्य है। ‘सैंडी’ को ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा भी बताया जा रहा है। विश्व भर में चक्रवाती तूफानों की बढ़ती रफ्तार और घटते अंतराल को लेकर जलवायु के जानकारों में मंथन चल रहा है। जाहिर है, प्रकृति के साथ मनुष्य की छेड़छाड़ जैसे-जैसे बढ़ रही है उससे अतिवृष्टि, अनावृष्टि और चक्रवाती तूफानों के आने का सिलसिला बढ़ा है। प्रकृति का कोप देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग रूप और वेग में दिखाई पड़ रहा है। मौसम विज्ञानी मानते हैं कि चक्रवाती तूफान समुद्र, धरती और धरती के बाहर होने वाली गतिविधियों की वजह से आते हैं।
समुद्र के नीचे की परतों (ओशिएनिक प्लेट्स) में जब विस्तार होता है तो इससे ऊर्जा पैदा होती है जिससे समुद्र का तापमान बढ़ जाता है। परतों में विस्तार की प्रक्रिया में ऊर्जा एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित होती है तो समुद्री हलचल की स्थितियां पैदा होती हैं। इस ऊर्जा का वेग जितना अधिक होता है उतनी ही गति के साथ ऊंची लहरें उठने के हालात बनते हैं। समुद्र के नीचे संरचना में कुछ बदलाव तो प्राकृतिक रूप से होते हैं। लेकिन कुछ मानवीय गतिविधियों की वजह से भी आकार लेते हैं। दरअसल, मौसम विज्ञानी इन स्थितियों का दो तरह से अध्ययन कर रहे हैं। पहला यह कि प्राकृतिक बदलावों की वजह से ऐसी आपदाएं किस हद तक होती हैं और दूसरे, मानवीय हस्तक्षेप इनके लिए कहा तक जिम्मेदार हैं। जलवायु के जानकार इस बात को लेकर भी सहमत हैं कि प्रकृति का अत्यधिक दोहन इसके स्वाभाविक चक्र को तोड़ रहा है लिहाजा अगर इसी मोर्च पर काम किया जाए तो चक्रवाती तूफानों जैसी आपदाओं से होने वाली जन-धन की हानि को एक हद तक कम किया जा सकता है।
यह सही है कि प्रकृतिक आपदाओं को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन पिछले हादसों से सबक लेकर कम से कम ऐसा तंत्र विकसित करने की जरूरत है जो समय रहते चेतवानी संभव बनाए ताकि हर तरह का नुकसान कम किया जा सके। प्रकृति से छेड़छाड़ और अत्यधिक दोहन और उससे होने वाले नुकसान की बाते अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जोरदार तरीके से उठती रही हैं लेकिन यह बहस अक्सर विकसित और विकासशील देशों के बीच आरोप-प्रत्यारोप में उलझकर रह जाती है। अब जबकि यह बात वैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप से भी स्थापित हो चुकी है कि प्रकृति और पर्यावरण को बचाकर ही हम ऐसे हादसों का कहर कम कर सकते हैं तो क्यों नहीं आरोप-प्रत्यारोपों से परे हटकर एक ठोस नीति बनाई जाए। आखिर यह समस्या किसी एक क्षेत्र या मुल्क की नहीं, दुनिया की है लिहाजा हादसों से सबक लेकर प्रकृति को बचाने के लिए मिल-जुलकर कदम बढ़ाएं जाएं।