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विस्फोट, 19 मई 2012
भोपाल गैस त्रासदी के पच्चीस साल पूरे होने के बाद मीडिया के लिए भी अब भोपाल गैस त्रासदी कोई मुद्दा नहीं है। सब कुछ शांत हो चुका है। लेकिन शांत दिखते माहौल के बीच भोपाल गैस त्रासदी पर किताब आई है- इंपीचमेन्ट। यह किताब भोपाल त्रासदी के लिए संघर्ष करने वाली नामी पत्रकार अंजली देशपांडे ने लिखा है। यह किताब बताती है कि कैसे भोपाल गैस त्रासदी को पिछले पच्चीस सालों में हमारी व्यवस्था और एनजीओ वालों ने ऐसा गिद्धभोज बना दिया है। इस किताब और भोपाल गैस त्रासदी में हुई लूट के बारे में बता रहे हैं शेष नारायण सिंह।
इसी दौर में 65 करोड़ की दलाली वाला बोफोर्स हुआ जो कि बाद के सत्ताधीशों के लिए घूसखोरी का व्याकरण बना। इसी दौर में अपने ही देश में दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा हुआ। अमेरीकी कंपनी यूनियन कार्बाइड की भोपाल यूनिट में जहरीली गैस लीक हुई जिसके कारण भोपाल शहर में हजारों लोग मारे गए और लाखों लोग उसके शिकार हुए। भोपाल गैस काण्ड के बाद अपने देश में अमेरीका की तर्ज पर एनजीओ वालों ने काम करना शुरू किया और उन्हीं एनजीओ वालों के कारण भोपाल के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका। 1989 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में 47 करोड़ डॉलर वाला सेटिलमेंट आया था। कुछ बहुत ही ईमानदार लोगों ने उस फैसले को चुनौती दी थी। लेकिन उनको पता भी नहीं चला और दिल्ली में आपरेट करने वाले कुछ अंतरराष्ट्रीय धंधेबाजों ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ चल रहे संघर्ष को को-आप्ट कर लिया।
1989 में आये इस फैसले और उसके खिलाफ दिल्ली में चल रहे संघर्ष में शामिल कुछ ईमानदार और कुछ बेईमान लोगों के काम के इर्द-गिर्द लिखी गयी एक किताब बाजार में आई है इंपीचमेन्ट। नामी पत्रकार अंजली देशपांडे ने बहुत ही कुशलता से उस दौर में दिल्ली में सक्रिय कुछ युवतियों की जिंदगी के हवाले से उस वक्त के राजनीतिक के सन्दर्भ का इस्तेमाल करते हुए एक कहानी बयान की है। मूल रूप से भोपाल की त्रासदी के बारे में लिखी गयी यह किताब उपन्यास है लेकिन इसे केवल उपन्यास नहीं कहना चाहिए। जिन लोगों ने उस दौर में भोपाल और उसके नागरिकों के दर्द को दिल्ली के सेमिनार सर्किट में देखा सुना है उनको इस किताब में लिखी गयी बातें एक रिपोर्ताज जैसी लगेंगी। इस किताब के कुछ जुमले ऐसे हैं जो उन लोगों को सार्वकालीन सच्चाई लगेंगे जिन्होंने दिल्ली के दरबारों में भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द का सौदा होते देखा है।
इस किताब की खास बात यह है कि हमारे समय की तेज तर्रार पत्रकार अंजली देशपांडे ने सच्चाई को बयान करने के लिए कई पात्रों को निमित्त बनाया है। हालांकि किताब का कथानक भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द को पायेदार चुनौती देने की कोशिश के बारे में है लेकिन साथ-साथ सरकार, न्यायपालिका, राजनेता, मौकापरस्त बुद्धिजीवियों और व्यापारियों को आइना दिखा रही औरतों की अपनी जिंदगी की दुविधाओं के जरिये मेरे जैसे कंफ्यूज लोगों को औरत की इज्जत करने की तमीज सिखाने का प्रोजेक्ट भी इस किताब में मूल कथानक के समानांतर चलता रहता है। नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों के पुरुष वर्चस्ववादी समाज में मौजूद उन लोगों को भी औकातबोध कराने का काम भी इस किताब में बखूबी किया गया है जो औरत की शक्ति को कमतर करके देखते हैं। दिल्ली की भोगवादी संस्कृति में सत्तासीन अफसर की कामवासना का शिकार हो रही औरत भी अपनी पहचान के प्रति सजग रह सकती है और अपने फैसले खुद ले सकती है, यह बात अंजली ने बहुत ही साधारण तरीके से समझा दी है।
अक्सर देखा गया है कि औरत के अधिकार की बात करते हुए वैज्ञानिक समझ वाला पुरुष भी गार्जियन बनने की कोशिश करने लगता है। इस किताब की औरतों को देखा कर लगता है कि उन लोगों की सोच पर भी लगाम लगाने का काम अंजली देशपांडे ने बखूबी किया है। भोपाल के बाद और पीवी नरसिंह राव के पहले भारतीय राजनीति पूंजीवादी दर्शन की शरण में जाने के लिए जिस तरह की कशमकश से गुजर रही थी उसकी भी दस्तक, इम्पीचमेंट नाम की इस अंग्रेजी किताब में सुनी जा सकती है। आज एनजीओ वाले इतने ताकतवर हो गए हैं कि वे संसद को भी चुनौती देने लगे हैं। लेकिन अस्सी के दशक में वे ऐलानियाँ बाजार में आने में डरते थे और परदे के पीछे से काम करते थे। इस कथानक में जो आदमी शुरू से ही भोपाल के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए सक्रिय है वह दिल्ली में पाए जाने वाले दलाली संस्कृति का खास नमूना है। वह कुछ ईमानदार लोगों को इकठ्ठा करता है, उनको बुनियादी समर्थन देता है लेकिन आखिर में पता लगता है कि बाकी लोग तो न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन वह न्याय की लड़ाई लड़ाने के धंधा कर रहा था।
आज तो ऐलानियाँ फोर्ड फाउंडेशन से भारी रकम लेकर एनजीओ वाले संसद को चुनौती देने के लिए चारों तरफ ताल ठोंकते नजर आ जायेंगे लेकिन उन दिनों अमरीकी संस्थाओं से पैसा लेना और उसको स्वीकार करना बिल्कुल असंभव था। खासकर अगर उस पैसे का इस्तेमाल भोपाल जैसी त्रासदी के खिलाफ न्याय लेने के लिए किया जा रहा हो। लेकिन पैसा लिया गया और पवित्र अन्तः करण से लड़ाई लड़ रही औरतों को आखिर में साफ लग गया कि आन्दोलन वासत्व में शुरू से ही सरकारी एजेंटों के हाथ में था और ईमानदारी से न्याय की लड़ाई लड़ रही लड़कियां केवल उसी पूंजीवादी लक्ष्य को हासिल करने के लिए औजार बनायी गयी थीं। उनके कारण ही सुप्रीम कोर्ट और सरकार की मिलीभगत को दी जा रही चुनौती को विश्वसनीय बनाया जा सका। भोपाल के हादसे से भी बड़ा हादसा दिल्ली के दरबारों में हुआ था जब सत्ता में शामिल सभी लोग मिल कर यूनियन कार्बाइड के कारिंदे बन गए थे। पूरी किताब पढ़ जाने के बाद यह बात बहुत ही साफ तरीके से सामने आ जाती है।
स्थापित सत्ता किस तरह ईमानदार लोगों का शोषण करती है उसको भी समझा जा सकता है। दिल्ली में कुछ लोग ऐसे हैं जो हर सेमिनार में मिल जाते हैं। वे अपने आप को सम्मानित व्यक्ति कहलवाते हैं। हर तरह के अन्याय के खिलाफ बयान देते हैं और बाद में अन्यायी से मिल जाते हैं। 1989 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुए सेटिलमेंट के बाद यह लोग भी सक्रिय हो गए थे और उनके खोखलेपन को भी समझने का मौका यह किताब देती है। किसी भी न्याय की लड़ाई में किस तरह से अवसरवादियों की यह प्रजाति घुस लेती है, उसका भी अंदाज 1989 की इन घटनाओं से साफ लग जाता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निराश दिल्ली में सक्रिय न्याय की योद्धा औरतों ने जब उन जजों के इम्पीचमेंट यानी महाभियोग की बात की तो उसको खारिज करवाने के लिए स्थापित सत्ता ने जो तर्क दिए वह भी पूंजीवादी संस्कृति में मौजूद दलाली के जीनोम को रेखांकित कर देती है उन तर्कों को काट पाना आसान नहीं है।
किताब के एक चरित्र हैं कानून के शिक्षक, प्रोफेसर थापर। वे सवाल पूछते हैं कि किस पर महाभियोग चलेगा उन नेताओं और अफसरों पर जिनको कार्बाइड ने भारी रकम दी? क्या आपको मालूम है कितने नेताओं की पत्नियां न्यूयार्क में खरीदारी करने गयी थीं और उनका सारा भुगतान कार्बाइड ने किया था? क्या आप उन सभी अफसरों पर महाभियोग चलायेगें जो भोपाल की कार्बाइड फैक्टरी में जांच करने गए थे और लौट कर बताया कि सब कुछ ठीक है या उन डाक्टरों पर जिन्होंने सिद्धांत बघारा कि भोपाल में गैस से कोई नहीं मरा था, बल्कि मरने वाले वे लोग हैं जो बीमार थे या वैसे भी मरने वाले थे। या उन अर्थशास्त्रियों पर अभियोग चलायेंगे जो कहते हैं कि कार्बाइड जैसे उद्योगों की हमें बहुत जरूरत है क्योंकि उसी से तरक्की होती है। भोपाल हादसे के बाद उस सहारा पर मौत की छाया पड़ गयी थी लेकिन जिस तरह से दिल्ली के गिद्धों ने उस हादसे को अपनी आमदनी का साधन बनाया वह अंजली देशपांडे की किताब में बहुत ही शानदार तरीके से सामने आया है।
भोपाल के पीड़ितों की मदद करने के नाम पर लोगों ने अपने कैरियर बनाए, भोपाल की पीड़ितों के संघर्ष में भाग लेने के लिए विदेशों से सीधे या परोक्ष रूप से धन की वसूली की। भोपाल के गैस पीड़ितों की बीमारियों तकलीफों, उनके अनुभवों, उनकी उम्मीदों, उनकी निराशाओं तक को अंतरराष्ट्रीय मंचों और सेमिनारों में बाकायदा ठेला लगाकर बेचा गया। सरकारी अफसरों, राजनेताओं, वकीलों, एनजीओ वाले लोगों यहाँ तक कि अदालतों ने भी भोपाल के लोगों की मुसीबतों की कीमत पर खुब मजे किए।
आजादी के बाद इस देश में ऐसी बहुत सारी राजनीतिक जमातें खड़ी हो गयी थीं जिनके नेता आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजों के साथ थे। जवाहरलाल नेहरू के जाने के बाद कुछ चापलूस टाइप कांग्रेसियों ने उनकी बेटी को प्रधानमंत्री बनवा दिया और उसी के बाद देश की राजनीति में सांप्रदायिक ताकतों को इज्जत मिलनी शुरू हो गयी। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने अपने छोटे बेटे को सरकार और कांग्रेस की सत्ता सौंपने की कोशिश शुरू की तब तक अपने देश की राजनीति में राजनीतिक शुचिता को अलविदा कह दिया गया था। इंदिरा गाँधी ने साफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने का फैसला किया। उनके इस प्रोजेक्ट का ही नतीजा था कि पंजाब में सिखों को अलग-थलग करने की कोशिश हुई। उसी दौर में राजनीति में कमीशनखोरी को डंके की चोट पर प्रवेश दे दिया गया। इंदिरा जी के परिवार के ही एक सदस्य को रायबरेली की उस सीट से सांसद चुना गया जिसे उन्होंने खुद खाली किया था। इन महानुभाव ने पहले उनके बड़े छोटे और उसकी अकाल मृत्यु के बाद इंदिरा जी के बड़े बेटे के जरिये राजनीतिक फैसलों को व्यापार से जोड़ दिया। हर राजनीतिक फैसले से कमीशन को जोड़ दिया गया। इसी दौर में कुछ निहायत ही गैरराजनीतिक टाइप लोग दिल्ली दरबार के फैसले लेने लगे।इसी दौर में 65 करोड़ की दलाली वाला बोफोर्स हुआ जो कि बाद के सत्ताधीशों के लिए घूसखोरी का व्याकरण बना। इसी दौर में अपने ही देश में दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा हुआ। अमेरीकी कंपनी यूनियन कार्बाइड की भोपाल यूनिट में जहरीली गैस लीक हुई जिसके कारण भोपाल शहर में हजारों लोग मारे गए और लाखों लोग उसके शिकार हुए। भोपाल गैस काण्ड के बाद अपने देश में अमेरीका की तर्ज पर एनजीओ वालों ने काम करना शुरू किया और उन्हीं एनजीओ वालों के कारण भोपाल के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका। 1989 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में 47 करोड़ डॉलर वाला सेटिलमेंट आया था। कुछ बहुत ही ईमानदार लोगों ने उस फैसले को चुनौती दी थी। लेकिन उनको पता भी नहीं चला और दिल्ली में आपरेट करने वाले कुछ अंतरराष्ट्रीय धंधेबाजों ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ चल रहे संघर्ष को को-आप्ट कर लिया।
1989 में आये इस फैसले और उसके खिलाफ दिल्ली में चल रहे संघर्ष में शामिल कुछ ईमानदार और कुछ बेईमान लोगों के काम के इर्द-गिर्द लिखी गयी एक किताब बाजार में आई है इंपीचमेन्ट। नामी पत्रकार अंजली देशपांडे ने बहुत ही कुशलता से उस दौर में दिल्ली में सक्रिय कुछ युवतियों की जिंदगी के हवाले से उस वक्त के राजनीतिक के सन्दर्भ का इस्तेमाल करते हुए एक कहानी बयान की है। मूल रूप से भोपाल की त्रासदी के बारे में लिखी गयी यह किताब उपन्यास है लेकिन इसे केवल उपन्यास नहीं कहना चाहिए। जिन लोगों ने उस दौर में भोपाल और उसके नागरिकों के दर्द को दिल्ली के सेमिनार सर्किट में देखा सुना है उनको इस किताब में लिखी गयी बातें एक रिपोर्ताज जैसी लगेंगी। इस किताब के कुछ जुमले ऐसे हैं जो उन लोगों को सार्वकालीन सच्चाई लगेंगे जिन्होंने दिल्ली के दरबारों में भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द का सौदा होते देखा है।
इस किताब की खास बात यह है कि हमारे समय की तेज तर्रार पत्रकार अंजली देशपांडे ने सच्चाई को बयान करने के लिए कई पात्रों को निमित्त बनाया है। हालांकि किताब का कथानक भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द को पायेदार चुनौती देने की कोशिश के बारे में है लेकिन साथ-साथ सरकार, न्यायपालिका, राजनेता, मौकापरस्त बुद्धिजीवियों और व्यापारियों को आइना दिखा रही औरतों की अपनी जिंदगी की दुविधाओं के जरिये मेरे जैसे कंफ्यूज लोगों को औरत की इज्जत करने की तमीज सिखाने का प्रोजेक्ट भी इस किताब में मूल कथानक के समानांतर चलता रहता है। नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों के पुरुष वर्चस्ववादी समाज में मौजूद उन लोगों को भी औकातबोध कराने का काम भी इस किताब में बखूबी किया गया है जो औरत की शक्ति को कमतर करके देखते हैं। दिल्ली की भोगवादी संस्कृति में सत्तासीन अफसर की कामवासना का शिकार हो रही औरत भी अपनी पहचान के प्रति सजग रह सकती है और अपने फैसले खुद ले सकती है, यह बात अंजली ने बहुत ही साधारण तरीके से समझा दी है।
अक्सर देखा गया है कि औरत के अधिकार की बात करते हुए वैज्ञानिक समझ वाला पुरुष भी गार्जियन बनने की कोशिश करने लगता है। इस किताब की औरतों को देखा कर लगता है कि उन लोगों की सोच पर भी लगाम लगाने का काम अंजली देशपांडे ने बखूबी किया है। भोपाल के बाद और पीवी नरसिंह राव के पहले भारतीय राजनीति पूंजीवादी दर्शन की शरण में जाने के लिए जिस तरह की कशमकश से गुजर रही थी उसकी भी दस्तक, इम्पीचमेंट नाम की इस अंग्रेजी किताब में सुनी जा सकती है। आज एनजीओ वाले इतने ताकतवर हो गए हैं कि वे संसद को भी चुनौती देने लगे हैं। लेकिन अस्सी के दशक में वे ऐलानियाँ बाजार में आने में डरते थे और परदे के पीछे से काम करते थे। इस कथानक में जो आदमी शुरू से ही भोपाल के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए सक्रिय है वह दिल्ली में पाए जाने वाले दलाली संस्कृति का खास नमूना है। वह कुछ ईमानदार लोगों को इकठ्ठा करता है, उनको बुनियादी समर्थन देता है लेकिन आखिर में पता लगता है कि बाकी लोग तो न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन वह न्याय की लड़ाई लड़ाने के धंधा कर रहा था।
आज तो ऐलानियाँ फोर्ड फाउंडेशन से भारी रकम लेकर एनजीओ वाले संसद को चुनौती देने के लिए चारों तरफ ताल ठोंकते नजर आ जायेंगे लेकिन उन दिनों अमरीकी संस्थाओं से पैसा लेना और उसको स्वीकार करना बिल्कुल असंभव था। खासकर अगर उस पैसे का इस्तेमाल भोपाल जैसी त्रासदी के खिलाफ न्याय लेने के लिए किया जा रहा हो। लेकिन पैसा लिया गया और पवित्र अन्तः करण से लड़ाई लड़ रही औरतों को आखिर में साफ लग गया कि आन्दोलन वासत्व में शुरू से ही सरकारी एजेंटों के हाथ में था और ईमानदारी से न्याय की लड़ाई लड़ रही लड़कियां केवल उसी पूंजीवादी लक्ष्य को हासिल करने के लिए औजार बनायी गयी थीं। उनके कारण ही सुप्रीम कोर्ट और सरकार की मिलीभगत को दी जा रही चुनौती को विश्वसनीय बनाया जा सका। भोपाल के हादसे से भी बड़ा हादसा दिल्ली के दरबारों में हुआ था जब सत्ता में शामिल सभी लोग मिल कर यूनियन कार्बाइड के कारिंदे बन गए थे। पूरी किताब पढ़ जाने के बाद यह बात बहुत ही साफ तरीके से सामने आ जाती है।
स्थापित सत्ता किस तरह ईमानदार लोगों का शोषण करती है उसको भी समझा जा सकता है। दिल्ली में कुछ लोग ऐसे हैं जो हर सेमिनार में मिल जाते हैं। वे अपने आप को सम्मानित व्यक्ति कहलवाते हैं। हर तरह के अन्याय के खिलाफ बयान देते हैं और बाद में अन्यायी से मिल जाते हैं। 1989 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुए सेटिलमेंट के बाद यह लोग भी सक्रिय हो गए थे और उनके खोखलेपन को भी समझने का मौका यह किताब देती है। किसी भी न्याय की लड़ाई में किस तरह से अवसरवादियों की यह प्रजाति घुस लेती है, उसका भी अंदाज 1989 की इन घटनाओं से साफ लग जाता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निराश दिल्ली में सक्रिय न्याय की योद्धा औरतों ने जब उन जजों के इम्पीचमेंट यानी महाभियोग की बात की तो उसको खारिज करवाने के लिए स्थापित सत्ता ने जो तर्क दिए वह भी पूंजीवादी संस्कृति में मौजूद दलाली के जीनोम को रेखांकित कर देती है उन तर्कों को काट पाना आसान नहीं है।
किताब के एक चरित्र हैं कानून के शिक्षक, प्रोफेसर थापर। वे सवाल पूछते हैं कि किस पर महाभियोग चलेगा उन नेताओं और अफसरों पर जिनको कार्बाइड ने भारी रकम दी? क्या आपको मालूम है कितने नेताओं की पत्नियां न्यूयार्क में खरीदारी करने गयी थीं और उनका सारा भुगतान कार्बाइड ने किया था? क्या आप उन सभी अफसरों पर महाभियोग चलायेगें जो भोपाल की कार्बाइड फैक्टरी में जांच करने गए थे और लौट कर बताया कि सब कुछ ठीक है या उन डाक्टरों पर जिन्होंने सिद्धांत बघारा कि भोपाल में गैस से कोई नहीं मरा था, बल्कि मरने वाले वे लोग हैं जो बीमार थे या वैसे भी मरने वाले थे। या उन अर्थशास्त्रियों पर अभियोग चलायेंगे जो कहते हैं कि कार्बाइड जैसे उद्योगों की हमें बहुत जरूरत है क्योंकि उसी से तरक्की होती है। भोपाल हादसे के बाद उस सहारा पर मौत की छाया पड़ गयी थी लेकिन जिस तरह से दिल्ली के गिद्धों ने उस हादसे को अपनी आमदनी का साधन बनाया वह अंजली देशपांडे की किताब में बहुत ही शानदार तरीके से सामने आया है।