इस धरती पर मीठे पानी का असल स्रोत बारिश है और बारिश के इस पानी को हमारे पुरखे अनेकानेक विधियों से सदियों से संरक्षित करते चले आए हैं। पानी को सहेजने की अनगिनत विधियों की जानकारी रखने के नाते ही इस देश की सभ्यता सुजला-सुफला रूप में हजारों वर्षों तक टिकी रही। इन बातों को इस जमाने के लोग जानने लगे हैं, फिर भी जैसे विस्मृति के शिकार हैं, और इसी का नतीजा है कि पानी के बँटवारे के सवाल पर जनता-सत्ता, सत्ता-सत्ता और कभी-कभी जनता-जनता तक में मत-विरोध उभरता दिखाई देता है। प्रकृति की गति आज तक नहीं बदली। पानी तब भी गिर कर नदी की राह तलाशता था, आज भी तलाशता है, बस फर्क मनुष्य में आया है कि वह जलसंरक्षण के तब के तरीकों, विधियों, नियमों से दूर हट गया है।
पानी सहेजने के लिए भांति-भांति के जलाशयों का निर्माण हमारे पुरखों की एक बड़ी विशेषता थी। देश के विभिन्न इलाकों में बारिश की मात्रा, मिट्टी की प्रकृति आदि के हिसाब से जलाशयों का निर्माण किया जाता था। हर दिन के इस्तेमाल के लिए यही हमारे पानी के भंडार थे। नदी किनारे रहने वाले लोग भी पानी के लिए रोज-रोज नदी तक नहीं जाते थे, बल्कि पोखर ही उनके लिए नजदीकी जल भंडार थे। समाज व्यवस्था में जलाशयों की देखरेख के लिए खास दिशा-निर्देश हुआ करते थे। जिसके चलते ही अंग्रेजी शासन कि तमाम दुर्दशाओं के बावजूद आजादी मिलने के बाद तक लगभग हर गांव में एक से ज्यादा तालाब मौजूद थे
नदी बहती थी अपनी प्रकृति, अपने नियमों के अनुसार। सालभर तक सूखती नदी की धारा में बालू, मिट्टी आदि की जितनी गाद जमा होती थी, बरसात में हर ओर से बहता पानी नदी की खाई को धोकर गाद को और नीचे तलहटी में जमा देता था। आमतौर पर 4 साल के बाद भारी बारिश के चलते छोटी-बड़ी बाढ़ आ ही जाती थी और बाढ़ में तैरती मिट्टी नदी किनारे दोनों ओर उपजाऊपन बिखेर देती थी। इस कारण नदी किनारे बसे लोगों को तात्कालिक असुविधा जरूर होती थी, पर वह बाढ़ को स्वीकार कर कुछ समय के लिए नदी से कुछ दूर बसने का इंतज़ाम कर लेते थे। नदी किनारे की उपजाऊ ज़मीन लोगों को बसाती थी। गांव बसते थे छोटी नदियों के शांत तटों पर, और बड़ी नदियों के किनारे विकसित होते थे - व्यापार और सत्ता के केंद्र नगर तथा बंदरगाह।
आजादी के बाद इस देश में नदियों के इस नैसर्गिक नियम से जुड़े नदी किनारे बसने वाले लोगों के स्वाभाविक संबंध को अमान्य कर दिया गया और हर छोटी बड़ी नदी पर अनगिनत बांधों का निर्माण किया जाने लगा। कभी सिंचाई के नाम पर कभी बाढ़ नियंत्रण की आस में तो कभी अधिक मात्रा में पनबिजली उत्पादन की खातिर। बांधों का निर्माण आज भी बदस्तूर जारी है, जबकि दुनिया भर में आज यह प्रमाणिक तथ्य है कि नदी पर बांध बनाने का अवश्यंभावी परिणाम नदी की मृत्यु है। नतीजे हम देख रहे हैं। नदियों के संजाल वाले इस देश में आज गंगा, यमुना, कृष्णा, गोदावरी, नर्मदा सहित लगभग हर छोटी-बड़ी नदी अस्वस्थ, शीर्णकाय और जलविहीन-सी दिखाई देती है। नदी की स्वभाविक धारा रोककर बनाए गए जलाशयों में डूबा काफी बड़ा इलाक़ा कृषि की अयोग्य तो हो ही गया है, बांधों के जरिए ज्यादा सिंचाई का आश्वासन भी कहां खरा उतर पा रहा है? दिखाई देता है सिर्फ एक के बाद एक प्रवाह-रहित नदियों का जाल। जरा सी बारिश में लबालब भरी नदी बरसात बीतते-बीतते खाली नजर आती है। बड़ी-बड़ी नदियों तक का हाल यही है।
हमारे जैसे भौगोलिक स्थिति वाले देश में गर्मी के मौसम के बाद बरसात का मौसम अवश्यंभावी है। इस प्राकृतिक नियम की सच्चाई को समझ कर ही हमारे पुरखे बरसात शुरू होने के पहले से ही पानी को सहेज कर रखने और समय पर उसके इस्तेमाल की व्यवस्था में लग जाते थे। वास्तव में अपने आसपास की प्राकृतिक संपदा को सर्वाधिक कुशलता के साथ इस्तेमाल करने की महारत पर ही किसी समाज का स्थायित्व निर्भर है। जिस पानी की अधिकांश मात्रा मात्र 4 महीनों में ही धरती को हासिल हो जाए, उसे ज्यादा समय तक इस्तेमाल में लाने के लिए कैसे सहेजना है, इसकी साधना नदियों वाले इस देश के लोग हजारों वर्षों से करते आए हैं।
पानी सहेजने के लिए भांति-भांति के जलाशयों का निर्माण हमारे पुरखों की एक बड़ी विशेषता थी। देश के विभिन्न इलाकों में बारिश की मात्रा, मिट्टी की प्रकृति आदि के हिसाब से जलाशयों का निर्माण किया जाता था। हर दिन के इस्तेमाल के लिए यही हमारे पानी के भंडार थे। नदी किनारे रहने वाले लोग भी पानी के लिए रोज-रोज नदी तक नहीं जाते थे, बल्कि पोखर ही उनके लिए नजदीकी जल भंडार थे। समाज व्यवस्था में जलाशयों की देखरेख के लिए खास दिशा-निर्देश हुआ करते थे। जिसके चलते ही अंग्रेजी शासन कि तमाम दुर्दशाओं के बावजूद आजादी मिलने के बाद तक लगभग हर गांव में एक से ज्यादा तालाब मौजूद थे।
वर्षा और भू-रचना की विविधता को देखते हुए हमारे पुरखों ने इतनी विविध तरह की जलसंरक्षण की व्यवस्था की थी कि उनकी प्रविधियों तथा प्राकृतिक नियम संबंधी अवधारणाओं को देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। पश्चिमी राजस्थान, जहां साल में औसत वर्षा 130 मिलीमीटर है वहां घर की छत और आंगन में गिरती हुई बारिश की एक-एक बूंद तक को जमीन के नीचे कुंडी या टांका में पहुंचा कर जमा कर लेने की पद्धतियां रही हैं। लोगों को पारंपरिक ज्ञान से इस बात का पता था कि जमीन के नीचे कहां-कहां जिप्सम की परत है। उसी के हिसाब से वहां जमा पानी को निकालने के लिए संकरे कुएं, कुईं या वेरी बनाई जाती थी अथवा विशाल जलाशयों का निर्माण किया जाता था। इसका एक उदाहरण जैसलमेर से 78 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम रामगढ़ शहर के निकट स्थित जलाशय के रूप में देखा जा सकता है। 700 साल पहले बनाए गए तालाब से आसपास के लोग ही नहीं, रामगढ़ नगर परिषद भी भर-भर कर जरूरत का पानी आज भी लेता है।
लद्दाख में, जहां बारिश होती ही नहीं, महज बर्फ-ही-बर्फ है, वहां के लोग बर्फ की परत के नीचे सुराखदार बाँस को चलाकर उसके दूसरे छोर से धीर धारा का पानी इकट्ठा करते रहे हैं। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी इलाके के लोग जानते रहे हैं कि धरती की किस दरार से भीतर के पानी की बौछार बाहर आने को बेकरार है और वे इसे ‘झिरि’ नाम देकर उस कुंड से बड़ी कुशलता से जरूरत भर के पानी का संग्रह करते रहे हैं। गढ़वाल की हुमायूं पहाड़ी पर पत्थरों की दरार से निकलते पानी को इज्जत के साथ ‘नौला’ कहा जाता है। उत्तरी बंगाल में यह ‘देवीयान’ है। ऐसी जगहों पर जूते-चप्पल पहनकर जाने की मनाही होती है। चाहे पानी को संग्रह करने की बात हो, या सामाजिक नियमों के पालन की, ऐसे जलस्रोतों पर पूरे समाज का अधिकार माना जाता रहा है। अनेक स्थानों पर नितांत स्थानीय प्राकृतिक विशेषताओं के अनुरूप कुछ अलग किस्म की व्यवस्थाएं बनाई गईं। मसलन, राजस्थान के कुछ इलाकों में अलग तरह के जोहड़-तालाब दिखेंगे। गया- जैसी जगह का ‘आहर-पाइन’, गढ़वाल के गाड़खर्क दुधातोली का ‘चाल या जल-तलाई’ ऐसी ही व्यवस्थाएं हैं। हमारे पुरखों ने पीढ़ियों तक प्रकृति का पर्यवेक्षण किया, उसके नियमों को समझा और उसी अनुरूप प्रकृति से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की। समाज के सदस्यों ने प्रकृति के निर्मम दोहन के बजाय उसके साथ समरस होकर जीने, रहने का कर्तव्यबोध पैदा किया। इसीलिए पानी का संरक्षण सिर्फ कर्तव्य नहीं, बल्कि एक समूची संस्कृति बन गया।
भारत में बरसात के पानी को संरक्षित करने का सबसे प्रचलित उपाय तालाब का ही रहा है। स्थान और बनावट के हिसाब से तालाब के जाने कितने नाम हैं। झील, हीधि, पोखर, सरोवर, डोबा, ताल, गड़हिया आदि-आदि।
पुरुलिया, बांकुरा, वीरभूमि से लेकर झारखंड तक जहां भी बारिश होती है, पर लहरदार कंकड़ी मिट्टी में पानी का जमाव नहीं हो पाता, वैसे इलाकों में एक संकीर्ण मार्ग में मिट्टी काटकर और बांध बनाकर पानी को रोका जाता है। ऐसे जलाशय को बांध कहते हैं। लालबांध, साहबबांध, राजाबांध जैसे जाने कितने ही बांध इन इलाकों में दिखाई देते हैं। इसी तरह से बिहार, मध्य प्रदेश में बड़े-बड़े जलाशयों के नामों की अजब बहार है। ललाट पर पहने जाने वाले झूमर की तरह सुंदर हो तो नाम रख दिया जाता है झुमरी-तलैया। राजसी के बारे में प्यार से तुकबंदी की जाती है, ताल में ताल भोपालताल, बाकी सब तलैया। आजाद देश में ऐसे राजतालों की आधे से अधिक की जमीन पर शहर के डाकघर, बस स्टैंड, सरकारी दफ्तर वगैरह बना दिए गए हों तो कौन क्या कर सकता है!
लाखों पंपों द्वारा जमीन के नीचे का पानी खेती के नाम पर बाहर निकालकर गिराना कभी प्रचलन में नहीं था, इसीलिए नदी या तालाब आज की तरह कार्तिक महीने से ही सूखने नहीं लगते थे। ‘जल ही जीवन है’ इस बात को समाज गांठ-बांधकर चलता था। इसे स्कूली किताबों से रटने की जरूरत नहीं थी।
अविवेकपूर्ण, मानवीय हरकतों का ही नतीजा है कि आज भारत जैसा सुजला देश भी जलसंकट से जूझ रहा है। यह कोई एक-दो दिन में घटित नहीं हुआ है। लंबे अर्से तक पानी के रखरखाव के प्रति लापरवाही, जल-संरक्षण के वैज्ञानिक और सूस्थाई नियमों की उपेक्षा, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते चले आए सामाजिक ज्ञान को आधुनिकता की खुमारी में तुच्छ मानने की प्रवृत्ति, मशीनी प्रौद्योगिकी पर अतिनिर्भरता, आदि इस संकट के पीछे की वजहें हैं।
एक दुर्भाग्यपूर्ण धारणा अगर यह बन गई है कि जलसंकट जैसी चीजों से पार पाना सिर्फ सरकार का काम है, तो कुछ अंश में यह बात सही भी है, क्योंकि पारंपरिक जलसंरक्षण व्यवस्था सरकारी हस्तक्षेप की वजह से ही ज्यादा छिन्न-भिन्न हुई है। गांव के तालाबों वाली हर प्रकार की जल संरक्षण की व्यवस्थाओं को पुराने जमाने की और अस्वास्थ्यकर कह कर उपेक्षा का शिकार बनाया गया। देखरेख के अभाव में जलाशय नष्ट होने ही थे। स्थानीय जल संरक्षण के बदले किसी अनिर्धारित दूरी से भेजे गए नल के पानी पर लोग निर्भर होते गए। जिस ट्यूबवेल को सिर्फ पीने का पानी खींचने के लिए लगाया गया था, उससे धीरे-धीरे कपड़े धोने, नहाने से लेकर तमाम बड़े-बड़े काम किए जाने लगे। धरती की कोख खाली होने लगी। अव्यवहार की स्थिति में जैसे लंबे समय बाद कोई भी चीज नष्ट होने लगती है। वैसे ही नई प्रवृत्तियों के चलते आम लोगों के मन से जलाशयों के रखरखाव की भावना भी मिटने लगी। सैकड़ों वर्षो से लाड-दुलार से पाली गई जल-संस्कृति अनादृत होकर रह गई। तालाब का पानी इस्तेमाल करना पिछड़ेपन की निशानी बन गया। जिस जलसंपदा को संयमित तरीके से व्यवहार में लाकर इस सुफला देश को सुजला बनाए रखा गया था, उसके छीजते जाने से अब एक ऐसा भविष्य सामने दिखाई दे रहा है, जहां यह डर सिर उठा रहा है कि हमारी आने वाली पीढ़ियों को जरूरत भर को पानी मिल भी पाएगा या नहीं?
(प्रसिद्ध बांग्ला लेखिका व समाजसेवी)