भारत के पर्यावरणीय आंदोलन (ENVIRONMENTAL MOVEMENTS IN INDIA)

Submitted by Editorial Team on Mon, 03/28/2022 - 15:29
Source
आत्माराम सनातन धर्म कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय www.arsdcollege.ac.in/

फोटो:open.com

Concept of Social Environmental-Movement:

The scholars have, in a more general sense, different notions of what constitutes a social movement. The term social movement “first came into use, early in the nineteenth century, it had a more specific meaning: the social movement meant the movement of the new industrial working class, with its socialistic, communistic, and anarchistic tendencies (Sills, David L., 1968: 439). The term “social movement or its equivalent in other Western languages is being used to denote a wide variety of collective attempts to bring about a change in certain social institutions or to create an entirely new order- - - -movements occur in society and tend to affect, directly or indirectly, the social order, it would be permissible to apply the term social movement to all them” (Ibid: 438-439). In this context Sills, David (1968: 439) notes that:

Social movements are a specific kind of concerted action group; they last longer and are more integrated than mobs, masses, and crowds and yet are not organized like political clubs and other associations. A social movement may, however, be comprised of organized groups without having one overall formal organization (for example, the labour movement, which comprises trade unions, political parties, consumer cooperatives, and many other organizations). Group consciousness, that is, a sense of belonging and of solidarity among the members of a group, is essential for a social movement, although empirically it occurs in various degrees. This consciousness is generated through active participation and may assume various socio-psychological characteristics. By this criterion social movements are distinguished from ‘Social trends’, which are often referred to as movements and are the result of similar but uncoordinated actions of many individuals, for example, the suburban movement, fads, and fashions.

भारत में पर्यावरण आंदोलन मूल रूप से लोगों के जल,जंगल और जमीन से जुड़े परम्परागत अधिकारो को पुन: स्थापित करने के संघर्ष से जुड़े हैं। ये आंदोलन आधुनिक विकास के मॉडल की आलोचना ही नहीं करते बल्कि विकल्प भी पेश करते हैं। ऐसा विकल्प जो विकास के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण भी प्रदान करता है, लोगों के परम्परागत अधिकारों की रक्षा करता है तथा आम लोगों की विकास प्रक्रिया में भागीदारी सुनिश्चित करता है। इन आंदोलनों की एक ओर विशेषता यह भी है कि इन्होने जन आंदोलनों का रूप ग्रहण किया है जिसमें आम जनता खासकर महिलाओं तथा युवकों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। भारत में पर्यावरण आंदोलन गांधीवादी तकनीकों-अहिंसा और सत्याग्रह के प्रयोग को दर्शाते हैं।

पर्यावरण आंदोलन विकास विरोधी आंदोलन नहीं हैं। ये केवल विकास को पर्यावरण संरक्षण आधारित करने, विकास परियोजनाओं को सामाजिक तथा मानवीय मूल्य आधारित बनाने तथा आम आदमी के परंपरागत अधिकारों के संरक्षण तथा विकास योजनाओं में उसकी भागीदारी का समर्थन करते हैं। ये आंदोलन भारतीय राज्य के विकास की उन नीतियों पर प्रश्नचिंह लगाते हैं जो आम आदमी से उसके संसाधनों को छीनकर विशिष्ट वर्ग के हितों को संरक्षित कर रहा है तथा जो अंतत: पर्यावरणीय विनाश को प्रोत्साहित कर रहा है। अत: पर्यावरण आंदोलन पर्यावरण विनाश तथा संसाधनों के असमान वितरण को समाप्त कर एक पर्यावरणीय लोकतंत्र  स्थापित करने का प्रयास हैं। ये केवल भारत बल्कि विश्व पर्यावरण संकट का भी एक स्थायी उत्तर प्रदान करते हैं।

टिहरी बांध विरोधी आंदोलन

टिहरी बांध उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भागीरथी और भिलंगना नदी पर बना ऐशिया का सबसे बड़ा तथा विश्व का पांचवा सर्वाधिक ऊँचा (अनुमानित ऊँचाई 260.5 मी०) बांध है। इस बांध का मुख्य उद्देश्य जल संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करना तथा पनबिजली परियोजनाओं का निर्माण करना है। इसकी स्वीकृति 1972 में योजना आयोग ने दी थी। टिहरी जलविद्युत परियोजना  से अभी प्रतिवर्ष 1000 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है जो दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों के लोगों को बिजली तथा पेयजल की सुविधा उपलब्ध करा रहा है। 2016 में जब ये अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग करेगा तो 2400 मेगावाट तक बिजली उत्पादन होगा।

इस परियोजना का सुंदरलाल बहुगुणा तथा अनेक पर्यावरणविदों ने कई आधारों पर विरोध किया है। इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हैरिटेज द्वारा टिहरी बांध के मूल्याकंन की रिपोर्ट के अनुसार यह बांध टिहरी कस्बे और उसके आसपास के 23 गांवों को पूर्ण रूप से तथा 72 अन्य गांव को आंशिक रूप से जलमग्न कर देगा, जिससे 85600 लोग विस्थापित हो जाएंगे। इस परियोजना से 5200 हेक्टेयर भूमि, जिसमें से 1600 हैक्टेयर कृषि भूमि होगी जो जलाशय की भेंट चढ़ जाएगी। अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि टिहरी बांधगहन भूकम्पीय सक्रियता के क्षेत्र में आता है और अगर रियेक्टर पैमाने पर 8 की तीव्रता से भूकंप आया तो टिहरी बांध के टूटने का खतरा उत्पन्न हो सकता है। अगर ऐसा हुआ तो उत्तरांचल सहित अनेक मैदानी इलाके डूब जाएंगे।

टिहरी बांध विरोधी आंदोलन ने इस परियोजना से क्षेत्र के पर्यावरण, ग्रामीण जीवन शैली, वन्यजीव, कृषि तथा लोक-संस्कृति को होने वाली क्षति की ओर लोगों का ध्यान आकृर्षित किया है। उम्मीद की जाती है कि इसका सकाराट्टमक प्रभाव स्थानीय पर्यावरण की रक्षा के साथ-2 विस्थापित लोगों के पुनर्वास में मानवीय सोच के रूप में देखने को मिलेगा।

चिलका बचाओ आंदोलन

चिलका उड़ीसा मेें स्थित एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है जिसकी लम्बाई 72 कि०मी० तथा चौड़ाई 25 कि०मी० और क्षेत्रफल लगभग 1000 वर्ग कि०मी० है। चिलका 158 प्रकार के प्रवासी पक्षियों तथा चीते की व्यापारिक रूप से महत्त्वपूर्ण प्रजातियों का निवास स्थान है। यह 192 गांवों की आजीविका का भी साधन है जो मट्टसय पालन खासकर झींगा मछली पर निर्भर हैं। 50000 से अधिक मछुआरे तथा दो लाख से अधिक जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए चिलका पर निर्भर है।7 मछली पालन तो कई शताब्दियों से चिलका क्षेत्र का परम्परागत पेशा है। मछुआरों को यहाँ मछली पालन का अधिकार अफगानी शासन के समय से प्राप्त है। यहाँ तक कि बिट्रिश शासन में भी मछुआरों के अधिकारों की रक्षामछुआरों के संघ स्थापित कर की गई। अत: चिलका का प्राचीन समय से मछली उट्टपादन, सहकारिता तथा ग्रामीण लोकतंत्र का एक विशेष तथा प्रेरक इतिहास रहा है

आंदोलन के कारण

1977-78 का वर्ष झींगा मछली के उत्पादन तथा निर्यात के विकास का एक महत्त्वपूर्ण वर्ष था। चिलका झींगा मछली तथा पैसे का पर्यायवाची शब्द बन गया था। पूरे क्षेत्र को सोने की खान से आंका जाने लगा। इस परिवर्तन से यहाँ पर व्यापारिक आक्रमण दिखाई देने लगा। पहले व्यापारी ट्टाथा बिचौलिए फिर राजनीतिज्ञों तथा उड़ीसा के व्यापारिक तथा औद्योगिक घरानों में राज्य सरकार की कृपा से विकास के नाम पर इस क्षेत्र को हथियाने की होड़ लग गई।

1986 में, तट्टकालीन जे०बी० पटनायक सरकार ने निर्णय लिया कि चिलका में 1400 हेक्टेयर झींगा प्रधान क्षेत्र को टाटा ट्टाथा उड़ीसा सरकार की संयुक्त कम्पनी को पट्टे पर दिया जाऐगा। उस समय इस निर्णय का विरोध मछवारों के साथ-साथ विपक्षी राजनीतिक पार्टी जनता दल ने भी किया। जिसके कारण जनता दल को विधानसभा की सभी पांचों सीटें जीतने में मदद मिली। लेकिन 1989 में जनता दल के सत्ता में आने पर स्थिति फिर बदल गई। इस घटना ने राजनीतिक दलों की दोहरी भूमिका तथा आर्थिक शक्तियों के किसी भी राजनीतिक दल में पैठ लगाने की शक्ति को स्पष्ट किया। 1991 में जनता दल की सरकार ने चिलका के झींगा प्रधान क्षेत्र के विकास के लिए टाटा कंपनी को संयुक्त क्षेत्र कंपनी बनाने के लिए आमंत्रित किया। सरकार ने 50000 मछुआरों तथा दो लाख लोगों के हितों के बारे में जरा भी नहीं सोचा जो कई सदियों से अपने जीवन निर्वाह के लिए चिलका पर निर्भर थे। सरकार ने इस प्रक्रिया द्वारा पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भी परवाह नहीं की।

इस प्रकार सन 1991 में एक संघर्ष ने जन्म लिया। चिलका के 192 गांवों के मछुआरों नेमट्टसय महासंघ के अन्तर्गत एकजुट होकर अपने अधिकारों की लड़ाई शुरू की। इस संघर्ष में उनका साथ उट्टकल विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी दिया। 15 जनवरी, 1992 में गोपीनाथपुर गांव में यह संघर्ष जन आंदोलन में तबदील हो गया।चिलका बचाओ दोलन ने विकास के उस प्रतिमान के विरुद्ध संघर्ष किया जिससे क्षेत्रिय पर्यावरण, विकास तथा लोगों की आजीविका को खतरा था।

आंदोलन की सफलता

1992 में 192 गांवों के लोग आजीविका के अधिकार बनाम डॉलर के विरोध में मुख्यमंत्री बीजू पटनायक से मिले। लेकिन काफी समय के बाद भी सरकार की तरफ से काई सकारात्मक जबाब नहीं मिला। अत: चिलका क्षेत्र की समस्त जनता ने उत्कल विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा गठित संगठन क्रांतिदर्शी युवा संगम के सहयोग से उस बांध को तोडऩा शुरू किया जो चिलका के अंदर टाटा ने बनवाया था। इस जन आंदोलन को देखते हुए अंतत: उड़ीया सरकार ने दिसम्बर, 1992 को टाटा को दिये गये पट्टे के अधिकार को रद्द कर दिया। इस प्रकार चिलका बचाओ आंदोलन ने केवल स्थानीय पर्यावरण बल्कि लोगों के परम्परागत अधिकारों को पाने में भी सफलता हांसिल की।

साइलेंट घाटी आंदोलन

केरल की शांत घाटी 89 वर्ग किलामीटर क्षेत्र में है जो अपनी घनी जैवविविधता के लिए मशहूर है। 1980 में यहाँ कुंतीपूंझ नदी पर कुंदरेमुख परियोजना के अंतर्गत 200 मेगाबाट बिजली निर्माण हेतु बांध का प्रस्ताव रखा गया। केरल सरकार इस परियोजना के लिए बहुत इच्छुक थी लेकिन इस परियोजना के विरोध में वैज्ञानिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा क्षेत्रिय लोगों के आवाज गूंजने लगे। इनका मानना था कि इससे इस क्षेत्र के कई विशेष फूलों, पौधों तथा लुप्त होने वाली प्रजातियों को खतरा है। इसके अलावा यह पश्चिमी घाट की कई सदियों पुरानी संतुलित पारिस्थितिकी को भारी हानि पहुँचा सकता है। लेकिन राज्य सरकार इस परियोजना को किसी की परिस्थिति में संपंन करना चाहती थी। अंत में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इस विवाद में मध्यस्था की और अंतत: राज्य सरकार को इस परियोजना को स्थगित करना पड़ा जो घाटी के पारिस्थितिकी संतुलन को बनाये रखने में मील का पत्थर साबित हुआ।

अप्पिको आन्दोलन

वनों और वृक्षों की रक्षा के संदर्भ में गढ़वाल हिमालयवासियों काचिपको आंदोलन का योगदान सर्वविदित है। इसने भारत के अन्य भागों में भी अपना प्रभाव दिखाया। उत्तर का यह चिपको आंदोलन दक्षिण मेंअप्पिको आंदोलन के रूप में उभरकर सामने आया। अप्पिको कन्नड़ भाषा का शब्द है जो कन्नड़ में चिपको का पर्याय है। पर्यावरण संबंधी जागरुकता का यह आंदोलन अगस्त, 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र में शुरू हुआ। यह आंदोलन पूरे जोश से लगातार 38 दिन तक चलता रहा।

युवा लोगों ने भी जब पाया कि उनके गांवों के चारों ओर के जंगल धीरे-2 गायब होते जा रहे हैं तो वे इस आंदोलन में जोर-शोर से लग गये। लोगों ने पाया कि कागज पर तो प्रति एकड़ दो पेड़ों की कटाई दिखाई जाती है लेकिन असल में काफी अधिक पेड़ काटे जाते हैं और कई क्षतिग्रस्त कर दिये जाते हैं, जिससे वनों का सफाया होता जा रहा है।

सितंबर, 1983 में सलकानी तथा निकट के गांवों से युवा तथा महिलाओं ने पास के जंगलों तक 5 मील की यात्रा तय करके वहाँ के पेड़ों को गले लगाया। उन्होने राज्य के वन विभाग के आदेश से कट रहे पेड़ों की कटाई रुकवाई। लोगों ने हरे पेड़ों को कटाने पर प्रतिबंध की मांग की। उन्होंने अपनी आवाज बुलंद कर कहा कि हम व्यापारिक प्रायोजनों के लिए पेड़ों को बिल्कुल भी नहीं कटने देंगे और पेड़ों पर चिपककर हठधर्मिता अपना कर बोले कि पेड़ काटने हैं तो पहले हमारे ऊपर कुल्हाड़ी चलाओ। वे पेड़ों के लिए अपनी जान भी देने को तैयार हो गये। जंगल में लगातार 38 दिनों तक चले विरोध आंदोलन ने सरकार को पेड़ों की कटाई रुकवाने का आदेश देने के लिए मजबूर किया। यह आंदोलन इतना लोकप्रिय हो गया कि पेड़ काटने आये मजदूर भी पेड़ों की कटाई छोडक़र चले गये।

 

आंदोलन का विस्तार

 

अहिंसा के इस आंदोलन ने अन्य स्थानों के लोगों को भी आकर्षित किया। अक्टूबर में यह आंदोलन बेनगांव  के आदिवासी आबादी क्षेत्र में फैल गया। यहाँ लोगों ने देखा कि बांस के पेड़ जिनसे वे रोजमर्रा के जीवन की अनेक उपयोगी चीजें जैसे टोकरी, चटाई, घर निर्माण करते हैं ठेकेदारों की अंधाधुंध कटाई के कारण लुप्त होते जा रहे हैं। इस बार आदिवासी लोगों ने पेड़ों की रक्षा के लिए उन्हें गले से लगाया। इस आन्दोलन से प्रेरित होकर हरसी  गांव में कई हजारं पुरुषों और महिलाओं ने पेड़ों के व्यावासायिक कार्यों के लिए काटे जाने का विरोध किया। जहाँ सरकार व्यवसायिक पेड़ों को उगाने पर जोर देती थी लोगों ने उन पेड़ों को उगाने की बात की जो उन्हें ईंधन तथा उनकी रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति करते थे।

 

नवम्बर में यह आंदोलन निदगोड (सिददापुर तालुक) तक फैल गया जहाँ 300 लोगों ने इक्कठा होकर पेड़ों को गिराये जाने की प्रक्रिया को रोककर सफलता प्राप्त की। लोगों ने पाया कि जहाँ-तहाँ चोरी-छिपे पेड़ों की कटाई और वनसंहार होता रहता है। मिसाल के तौर पर सिददापुर तालुक के केलगिरि जद्दी वन में प्लाईवुड फैक्टरी वालों ने 51 पेड़ काट गिराये तथा इस कटाई के दौरान 547 अन्य पेड़ों को नुकसान पहुँचा। इस क्षेत्र मे दूसरी समस्या यह थी कि वनों को एक ही जाति के वनों में रूपान्तरित किया जा रहा था जिससे पारिस्थितिक तंत्र को हानि पहुँच रही थी। नतीजतन लोगों को वनों से खाद और चारा नहीं मिल पर रहा था। मधुमक्खी के छत्ते गायब हो गये थे। हर परिवार वाले पहले विभिन्न प्रकार के पेड़ों से प्रति वर्ष कम से कम चार टिन शहद इक्कठा कर लेते थे लेकिन उद्योगों के लिए अन्य पेड़ों को काटकर यूकीलिप्टस के पेड़ लगाने से अब वे शहद आदि से वंचित हो गये हैं। इस प्रकार कई अन्य समस्याएं उठ खड़ी हो गयीं जिनसे लोगों की परेशानियाँ हर तरह से बढ़ गई थीं।

अप्पिको आन्दोलन दक्षिणी भारत में पर्यावरण चेतना का श्रोत बना

 

आंदोलन ने इस बात को उजागर किया कि किस प्रकार वन विभाग की नीतियों से व्यापारिक वृक्षों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो आम आदमी को दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले कई आवश्यक संसाधनों से वंचित कर रहा है। उसने उन ठेकेदारों के व्यावसायिक हितों के लालच का पर्दाफाश किया जो वन विभाग द्वारा निर्धारित संख्या से अधिक पेड़ काटते थे। इसने इस प्रक्रिया में लिप्त ठेकेदारों, वन विभाग तथा राजनीतिज्ञों की साँठ-गाँठ का भी पर्दाफाश किया।

प्रवीन सेठ के अनुसार अप्पिको आंदोलन अपने तीन प्रमुख उद्देश्यों में सफल रहा। (द्ब) मौजूदा वन क्षेत्र का संरक्षण करने, (द्बद्ब) खाली भूमि पर वृक्षारोपण करने, तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को ध्यान में रख कर उनका सदुपयोग करने। इन उद्देश्यों को हासिल करने में स्थानीय स्तर पर स्थापित एक लोकप्रिय संगठनपरिसर संरक्षण केंद्र ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। अप्पिको आंदोलन ने लोगों के जीवन में उपयोग की जाने वाली चीजों की रक्षा की जैसे- बांस के वृक्ष, जिनका उपयोग हस्तशिल्प की वस्तुओं के बनाने में होता है तथा जिन को बेचकर स्थानीय लोग अपनी आजीविका चलाते हैं। इस आंदोलन ने पश्चिमी घाट के सभी गांवों में व्यापारिक हितों से उनकी आजीविका के साधन, जंगलों तथा पर्यावरण को होने वाले खतरे से सचेत किया। अप्पिको ने शांतिपूर्ण तरीके से गांधीवादी मार्ग पर चलते हुए एक ऐसे पोषणकारी समाज के लिए लोगों का पथ प्रदर्शन किया जिसमें कोई मनुष्य का ओर ही प्रकृति का शोषण कर सके। वंदना शिवा के शब्दों मेंयह मानव अस्तिट्टव के खतरे को रोकने में सभ्य समाज का सभ्य उत्तर था

नर्मदा बचाओ आंदोलन

नर्मदा बचाओ आंदोलन भारत में चल रहे पर्यावरण आंदोलनों की परिपक्वता का उदाहरण है। इसने पहली बार पर्यावरण द्वारा विकास के संघर्ष को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया जिसमें केवल विस्थापित लोगों बल्कि वैज्ञानिकों, गैर सरकारी संगठनों तथा आम जनता की भी भागीदारी रही। नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना का उद्घाटन 1961 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। लेकिन तीन राज्यों-गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के मध्य एक उपयुक्त जल वितरण नीति पर कोई सहमति नहीं बन पायी। 1969 में, सरकार ने नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण का गठन किया ताकि जल संबंधी विवाद का हल करके परियोजना का कार्य शुरु किया जा सके। 1979 में न्यायाधिकरण सर्वसम्मति पर पहुँचा तथा नर्मदा घाटी परियोजना ने जन्म लिया जिसमें नर्मदा नदी तथा उसकी 4134 नदियों पर दो विशाल बांधोंगुजरात में सरदार सरोवर बांध तथा मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर बांध, 28 मध्यम बांध तथा 3000 जल परियोजनाओं का निर्माण शामिल था। 1985 में इस परियोजना के लिए विश्व बैंक ने 450 करोड़ डॉलर का लोन देने की घोषणा की सरकार के अनुसार इस परियोजना से मध्य प्रदेश, गुजरात तथा राजस्थान के सूखा ग्रस्त क्षेत्रों की 2.27 करोड़ हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल मिलेगा, बिजली का निर्माण होगा, पीने के लिए जल मिलेगा तथा क्षेत्र में बाढ़ को रोका जा सकेगा। नर्मदा परियोजना ने एक गंभीर विवाद को जन्म दिया है। एक ओर इस परियोजना को समृद्धि तथा विकास का सूचक माना जा रहा है जिसके परिणाम स्वरूप सिंचाई, पेयजल की आपूर्ति, बाढ़ पर नियं9ाण, रोजगार के नये अवसर, बिजली तथा सूखे से बचाव आदि लाभों को प्राप्त करने की बात की जा रही है वहीं दूसरी ओर अनुमान है कि इससे तीन राज्यों की 37000 हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाएगी जिसमें 13000 हेक्टेयर वन भूमि है। यह भी अनुमान है कि इससेे 248 गांव के एक लाख से अधिक लोग विस्थापित होंगे। जिनमें 58 प्रतिशत लोग आदिवासी क्षेत्र के हैं।

 

 आंदोलन से उठे सवाल

इस परियोजना के विरोध ने अब एक जन आंदोलन का रूप ले लिया है। 1980- 87 के दौरान जन जातियों के अधिकारों की समर्थक गैर सरकारी संस्था अॅाक वाहनी के नेता अनिल पटेल ने जनजातिय लोगों के पुर्नवास के अधिकारों को लेकर हाई कोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में लड़ाई लड़ी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के परिणाम स्वरूप गुजरात सरकार ने दिसम्बर 1987 में एक पुर्नवास नीति घोषित की। दूसरी ओर 1989 में मेधा पाटेकर द्वारा लाए गये नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सरदार सरोवर परियोजना तथा इससे विस्थापित लोगों के पुर्नवास की नीतियों के क्रियांवयन की कमियों को उजागर किया है। शुरू में आंदोलन का उद्देश्य बांध को रोककर पर्यावरण विनाश तथा इससे लोगों के विस्थापन को रोकना था। बाद में आंदोलन का उद्देश्य बांध के कारण विस्थापित लोगों को सरकार द्वारा दी जा रही राहत कार्यों की देख-रेख तथा उनके अधिकारों के लिए न्यायालय में जाना बन गया। आंदोलन की यह भी मांग है कि जिन लोगों की जमीन ली जा रही है उन्हें योजना में भागीदारी का अधिकार होना चाहिए, उन्हें अपने लिए केवल उचित भुगतान का अधिकार होना चाहिए बल्कि परियोजना के लाभों में भी भागीदारी होनी चाहिए। इस प्रक्रिया में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने वर्तमान विकास के मॉडल पर प्रश्नचिन्ह लगाया है।

आंदोलन के सिपाही और अगुआ

नर्मदा बचाओ आन्दोलन जो एक जन आन्दोलन के रूप में उभरा, कई समाजसेवियों, पर्यावरणविदों, छात्रों, महिलाओं, आदिवासियों, किसानों तथा मानव अधिकार कार्यकर्ताओं का एक संगठित समूह बना। आन्दोलन ने विरोध के कई तरीके अपनाए जैसे- भूख हड़ताल, पदयात्राएं, समाचार पत्रों के माध्यम से, तथा फिल्मी कलाकारों तथा हस्तियों को अपने आंदोलन में शामिल कर अपनी बात आम लोगों तथा सरकार तक पहुँचाने की कोशिश की। इसके मुख्य कार्यकताओंं में मेधा पाटेकर के अलावा अनिल पटेल, बुकर सम्मान से नवाजी गयी अरुणधती रॉय, बाबा आम्टे आदि शामिल हैं।

नर्मदा बचाओं आंदोलन ने 1989 में एक नया मोड़ लिया। सितम्बर, 1989 में मध्य प्रदेश के हारसूद जगह पर एक आम सभा हुई जिसमें 200 से अधिक गैर सरकारी संगठनों के 45000 लोगों ने भाग लिया। भारत में पहली बारनर्मदा का प्रश्न अब एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। यह पर्यावरण के मुद्दे पर अब तक की सबसे बड़ी रैली थी जिसमें देश के सभी बडे गैर-सरकारी संगठनों तथा आम आदमी के अधिकारों की रक्षा में लगे समाजसेवियों ने हिस्सा लिया। हारसूद सम्मेलन ने केवल बांध का विरोध किया बल्कि इसेविनाशकारी विकास का नाम भी दिया। पूरे विश्व ने इस पर्यावरणीय घटना को बड़े ध्यान से देखा।

दिसम्बर, 1990 में नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा एकसंघर्ष यात्रा भी निकाली गई। पदयात्रियों को आशा थी कि वे सरकार को सरदार सरोवर बांध परियोजना पर व्यापक पुर्नविचार के लिए दबाव डाल सकेंगे। जगभग 6000 लोगों ने राजघाट से मध्य प्रदेश, गुजरात तक पदयात्रा की। इसका सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिला। जन भावनाओं को ध्यान में रखते हुए विश्व बैंक ने 1991 में बांध की समिक्षा के लिए एक निष्पक्ष आयोग  का गठन किया। इस आयोग ने कहा कि परियोजना का कार्य विश्व बैंक तथा भारत सरकार की नीतियों के अनुरूप नहीं हो रहा है। इस प्रकार विश्व बैंक ने इस परियोजना से 1994 में अपने हाथ खींच लिए।

आंदोलन की सफलता

हालांकि राज्य सरकार ने परियोजना जारी रखने का निर्णय लिया। इस पर मेधा पाटेकर के 1993 में भूख हड़ताल रखी जिसका मुख्य उद्देश्य बांध निर्माण स्थल से लोगों के विस्थापन को रोकना था। आंदोलनकर्ताओं ने जब देखा कि नमर्दा नियंत्रण निगम तथा राज्य सरकार द्वारा 1987 में पर्यावरण तथा वन मंत्रालय द्वारा दिये गए दिशानिर्देशों को नहीं लागू किया जा रहा है तो 1994 में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दर्ज की तथा न्यायपालिका से केस के निपटारे तक बांध के निर्माण कार्य को रोकने की गुजारिश की। 1995 के आरम्भ में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सरकार बांध के बाकी कार्यों को तब तक रोक दे जबतक विस्थापित हो चुके लोगों के पुर्नवास का प्रबंध नहीं हो जाता। 18 अक्तूबर, 2000 को सर्वोच्च न्यायालय ने बांध के कार्य को फिर शुरू करने तथा इसकी उचाई 90 मीटर तक बढ़ाने की मंजूरी दे दी। इसमें कहा गया कि उँचाई पहले 90 और फिर 138 मीटर तक जा सकती है, लेकिन इसके लिए कदम-2 पर यह सुनिश्चित करना होगा कि पर्यावरण को खतरा तो नहीं है और लोगों को बसाने का कार्य ठीक तरीके से चल रहा है, साथ ही न्यायपालिका ने विस्थापित लोगों के पुर्नवास के लिए नये दिशा-निर्देश दिए जिनके अनुसार नये स्थान पर पुर्नवासित लोगों के लिए 500 व्यक्तियों पर एक प्राईमरी स्कूल, एक पंचायत घर, एक चिकित्सालय, पानी तथा बिजली की व्यवस्था तथा एक धार्मिक स्थल अवश्य होना चाहिए।

अप्रैल 2006 में नर्मदा बचाओ आंदोलन में एक बार फिर से उग्रता आई क्योंकि बांध की उँचाई 110 मीटर से बढ़ाकर 122 मीटर तक ले जाने का निर्णय लिया गया। मेघा पाटेकर जो पहले से ही विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास की मांग को लकर संघर्ष कर रहीं थीं, अनशन पर बैठ गयीं। 17 अपै्रल 2006 को नर्मदा बचाओ आंदोलन की याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने संबंधित राज्य सरकारों को चेतावनी दी कि यदि विस्थापितों का उचित पुनर्वास नहीं हुआ तो बांध का और आगे निर्माण कार्य रोक दिया जाएगा।

संपूर्ण परिवेश में देखें तो नर्मदा बचाओ आंदोलन सफल रहा है। इसने एक ओर बांध द्वारा पर्यावरण को होने वाली हानि तथा दूसरी ओर विस्थापित हुए लोगों के दर्द को आम आदमी तथा सरकार को सुनाने की सफल कोशिश की है। परिणामस्वरूप केंद्रीय पर्यावरण तथा वन मंत्लराय ने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अनेक दिशा निर्देश लागू करने को कहा है। उच्चतम न्यायालय ने विस्थापित लोगों के उचित पुनर्वास की स्पष्ट नीति लागू करने के आदेश दिए हैं। साथ ही इसने संदेश दिया है कि आम आदमी यदि संगठित हों तो राज्य तथा व्याव्यासायिक हितों को अपने अधिकारों के प्रति चेताया जा सकता है। अंत में इसने प्रचलित विकास के मॉडल को चुनौती दी है तथा देश के समक्ष पर्यावरण आधारित विकास  का विकल्प पेश किया है।

चिपको आंदोलन

चिपको आंदोलन मूलत: उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा 1970 के दशक में आरम्भ किया गया आंदोलन है। इसमें लोगों ने पेड़ों केा गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट सके। यह आलिंगन दर असल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसेचिपकोकी संज्ञा दी गई।

 आंदोलन की पृष्ठभूमि

 

चिपको आंदोलन के पीछे एक पारिस्थितिक और आर्थिक पृष्ठभूमि है। जिन अलकनन्दा वाली भूमि में यह आंदोलन अपजा वह 1970 में आई भयंकर बाढ़ का अनुभव कर चुका था। इस बाढ़ से 400 कि०मी० दूर तक का इलाका ध्वस्त हो गया तथा पांच बढ़े पुल, हजारों मवेशी, लाखों रूपये की लकडी ईंधन बहकर नष्ट हो गयी। बाढ के पानी केसाथ बही गाद इतनी अधिक थी कि उसने 350 कि०मी० लम्बी ऊपरी गंगा नहर के 10 कि०मी० तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया जिससे 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गर्ई थी और 48 मेगावाट बिजली का उट्टपादन ठप हो गया था।3 अलकनदा की इस त्रासदी ने ग्रामवासियों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी थी और उन्हें पता था कि लोगों के जीवन में वनों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। चिपको आंदोलन को ब्रिटिशकालीन वन अधिनियम के दुष् प्रावधानों से जोड कर भी देखा जा सकता है जिनके तहत पहाड़ी समुदाय को उनकी दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वनों के सामुदायिक उपयोग से वंचित कर दिया गया था।

 

आंदोलन की शुरूआत

 

स्वतंत्रता भारत के वन-नियम कानूनों ने भी औपनिवेशिक परम्परा का ही निर्वाह किया है। वनों के नजदीक रहने वाले लोगों को वन-सम्पदा के माध्यम से सम्मानजनक रोजगार देने के उद्ïदेश्य से कुछ पहाड़ी नौजवानों ने 1962 में चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ बनाया था। उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने संस्था के काष्ठ-कला केंद्र को सन् 1972-73 के लिए अंगु  के पेड़ देने से इन्कार कर दिया था। पहले ये पेड़ नजदीक रहने वाले ग्रामीणों को मिला करते थे। गांव वाले इस हल्की लेकिन बेहद मजबूत लकडी से अपनी जरूरत के मुताबिक खेती-बाड़ी के औजार बनाते थे। गांवों के लिए यह लकड़ी बहुत जरूरी थी। पहाड़ी खेती में बैैल का जुआ सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता रहा है, पहाड़ में ठण्डे मौसम और कठोर पथरीली जमीन में अंग के गूण सबसे खरे उतरते हैं। इसके हल्केपन के कारण बैल थकता नहीं। यह लकड़ी मौसम के मुताबिक तो ठण्डी होती है, गरम, इसलिए कभी फटती नहीं है और अपनी मजबूती के कारण बरसों तक टिकी रहती है।

इसी बीच पता चला कि वन विभाग ने खेल-कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी का गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मण्डल नाम के वन से अंगू के पेड काटने की इजाजत दे दी है। वनों के ठीक बगल में बसे गांव वाले जिन पेडों को छू तक नहीं सकते थे, अब उन पेडों को दूर इलाहाबाद की एक कम्पनी को काटकर ले जाने की इजाजत दे दी गई। अंगू से टेनिस, बैडमिंटन जैसे खेलों का सामान मैदानी कम्पनियों में बनाया जाये-इससे गांव के लोगों या दशौली ग्राम स्वराज्य संघ को कोई एतराज नही था। वे तो केवल इतना ही चाहते थे कि पहले खेत की जरूरतें पूरी की जाये और फिर खेल की। इस जायज मांग के साथ इनकी एक छोटी-सी मांग और भी थी। वनवासियों को वन संपदा से किसी--किसी किस्म का रोजगार जरूर मिलना चाहिए ताकि वनों की सुरक्षा के प्रति उनका प्रेम बना रह सके।

 

आंदोलन का क्षेत्र

 

चिपको आंदोलन का मूल केंद्र रेनी गांव (जिला चमोली) था जो भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे। इसकी खबर मिलते ही चंडी प्रसाद भट्ट के नेत्तट्टव में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड गिराये गये, तो हमारा अस्तिट्टव खतरे में पड जायेगा। ये पेड सिर्फ हमारी चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरते पूरी करते हैें, बल्कि मिट्ïटी का क्षरण भी रोकते है।

इस सभा के बाद 15 मार्च को गांव वालों ने रेनी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को विद्यार्थियों ने भी निकाला। जब आंदोलन जोर पकडने लगा ठीक तभी सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया था, वे अपना मुआवजा ले जाएं। गांव के पुरूष मुआवजा लेने चमोली चले गए। दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय, गोपेश्वर बुला लिया। इस मौके का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में घुस गये। अब गांव में सिर्फ महिलायें ही बची थीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बिना जान की परवाह किये 27 औरतों ने श्रीमती गौरादेवी के नेतृट्टव में चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। इस प्रकार 26 मार्च, 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई।

चिपको आंदोलन की मांगे

चिपको आन्दोलन की मांगें प्रारम्भ में आर्थिक थीं, जैसे वनों और वनवासियों का शोषण करने वाली दोहन की ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर वन श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण, नया वन बन्दोबस्त और स्थानीय छोटे उद्योगों के लिए रियायती कीमत पर कक्वचे माल की आपूर्ति। धीरे-धीरे चिपको आन्दोलन परम्परागत अल्पजीवी विनाशकारी अर्थव्यवस्था के खिलाफ स्थायी अर्थव्यवस्था-इकॉलाजी का एक सशक्त जनआंदोलन बन गया। अब आन्दोलन की मुख्य मांग थी- हिमालय के वनों की मुख्य उपज राष्ट्र के लिए जल है, और कार्य मिट्टी बनाना, सुधारना और उसे टिकाए रखना है। इसलिए इस समय खड़े हरे पेड़ों की कटाई उस समय (10 से 25 वर्ष) तक स्थगित रखी जानी चाहिए जब तक राष्ट्रीय वन नीति के घोषित उददेश्यों के अनुसार हिमालय में कम से कम 60 प्रतिशत क्षेत्र पेड़ों से ढक जाए। मृदा और जल संरक्षण करने वाले इस प्रकार के पेड़ों का युद्ध स्तर पर रोपण किया जाना चाहिए जिनसे लोग भोजन-वस्त आदि की अनिवार्य आवश्यकतों में स्वावलम्बी हो सकें।

रेनी में हुए चिपको की खबर पाकर अगले दिन से आसपास के एक दर्जन से अधिक गांवों के बड़ी संख्या में वहां पहुंचने लगे। अब यह एक जन-आंदोलन बन गया। बारी-बारी से एक-एक गांव पेड़ों की चौकसी करने लगा। दूर-दराज के गांवो में चिपको का संदेश पहुँचाने के लिए विभिन्न पद्घतियों का सहारा लिया गया जिनमे प्रमुख थे पदयात्राएं, लोकगीत तथा कहानियाँ आदि। लोकगायकों ने उत्तेजित करने वाले गीत गाये। उन्होने वनों की कटाई और वन आधारित उद्योगों से रोजगार के अल्पजीवी अर्थव्यवस्था के नारे

क्या हैं जंगल के उपकार, लीसा, लकडी और व्यापार

को चुनौति देते हुए इससे बिल्कुल भिन्न स्थाई

अर्थ-व्यवस्था के इस मंत्र का घोष किया

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।

मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।

गोपेश्वर में वन की कटाई के सफलता-पूर्वक रूकते ही आंदोलन ने जोर पकड लिया। सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृट्टव में चमोली जिले में एक पदयात्रा का आयोजन हुआ। आंदोलन तेजी से पहले उत्तरकाशी और फिर पूरे पहाडी क्षेत्र में फैल गया।

आंदोलन की सफलता

 

इन जागृत पर्वतवासियों के गहरे दर्द ने पत्रकारों, वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों के दिलोदिमाग पर भी असर किया। 9 मई, 1974 को उत्तर प्रदेश सरकार ने चिपको आंदोलन की मांगों पर विचार के लिए एक उच्च स्तरीय समिति के गठन की घोषणा की। दिल्ली विश्वविधालय के वनस्पति-विज्ञानी श्री वीरेन्द्र कुमार इसके अध्यक्ष थे। गहरी छानबीन के बाद समिति ने पाया कि गांव वालों ओर चिपको आंदोलन कारियों की मांगे सही हैं। अक्टूबर, 1976 में उसने यह सिफारिश भी कि 1,200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में व्यावसायिक वन-कटाई पर 10 वर्ष के लिए रोक लगा दी जाए। साथ ही समिति ने यह सुझाव भी दिया कि इस क्षेत्र के महट्टवपूर्ण हिस्सों में वनरोपन का कार्य युद्घस्तर पर शुरू किया जाए। उत्तर प्रदेश सरकार ने इन सुझावों को स्वीकार कर लिया। इस रोक के लागु होने के कारण 13,371 हेक्टेयर की वन कटाई योजना वापस ले ली गई। चिपको आदोलन की यह बहुत बड़ी विजय थी।

चिपको आंदोलन कई मामलों में सफल रहा। यह उत्तर प्रदेश में 1000 मीटर से अधिक की ऊँचाई पर पेड़-पौधों की कटाई, पश्चिमी घाट और विंध्य में जंगलों की सफाई (क्लियर फेंलिंग) पर प्रतिबंध लगवाने में सफल रहा। साथ ही, एक राष्ट्रीय वन नीति हेतु दबाव बनाने में सफल रहा है, जो लोगों की आवश्यकताओं एवं देश के पारितंत्र के विकास के प्रति अधिक संवेदनशील होगी। रामचंद्र गुहा के शब्दों में चिपको प्राकृतिक संसाधनों से संबद्घ संघषों की व्यापकता का प्रतिनिधिट्टव करता है। इसने एक राष्ट्रीय विवाद का हल प्रदान किया। विवाद यह था कि हिमालय के वनों की सर्वाधिक सुरक्षा किसके हाथ होगीस्थानीय समुदाय, राज्य सरकार या निजी पूंजीपतियों के हाथ। मसला यह भी था कि कौन से पेड़-पौधे लगाए जाएं-शंकु वृक्ष, चौड़े पत्ते वाले पेड या विदेशी पेड और फिर सवाल उठा कि वनों के असली उट्टपाद क्या हैं- उद्योगों के लिए लकड़ी, गांव के लोगों के लिए जैव संपदा, या पूरे समुदाय के लिए आवश्यक मिट्ïटी, पानी और स्वक्वछ हवा। अत: पूरे देश के लिए वन्य नीति निर्धारण की दिशा में इस क्षेत्रीय विवाद ने एक राष्ट्रीय  स्वरूप ले लिया।

चिपको ने विकास के आधुनिक मॉडल के समक्ष एक विकल्प पेश किया है। यह आम जनता की पहल का परिणा था। यह आंदोलन भी गांधीवादी संघर्ष का ही एक रूप था क्योंकि इसमे भी अन्यायपूर्ण, दमनकारी शासन व्यवस्था का निरोध किया गया जो पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उसका शोषण कर रहा था। इस आंदोलन को वास्तविक नेतृट्टव भी गांधीवांदी कार्यकर्ताओंं मुख्यत: चंडीप्रसाद भट्ट और सुंदर लाल बहुगुढा से मिला जिनके द्वारा प्रयोग की गई तकनीक भी गांधी जी के सट्टयाग्रह से प्रे्रित थी। वंदना शिवा और जयंत वंदोपाध्याय के शब्दों मेंऐतिहासिक दार्शनिक और संगठनाट्टमक रूप से चिपको आंदोलन पारंपरिक गांधीवादी सट्टयाग्रहों का विस्तृत स्वरूप था

 

चिपको आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

चिपको आंदोलन को प्राय: एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके अधिकांश कार्यकर्ताओं में महिलाएं ही थीं तथा साथ ही यह आंदोलन नारीवादी गुणों पर आधारित था। 26 मार्च, 1974 को जब ठेकेदार रेणी गांव में पेड़ काटने आये, उस समय पुरुष घरों पर नहीं थे। गौरा देवी के नेतृट्टव में महिलाओं ने कुल्हाड़ी लेकर आये ठेकेदारों को यह कह कर जंगल से भगा दिया कि यह जंगल हमारा मायका है। हम इसे कटने नहीं देंगी। मायका महिलाओं के लिए वह सुखद स्थान है जहाँ संकट के समय उन्हें आश्रय मिलता है। वास्तव में पहाड़ी महिलाओं और जंगलों का अटूट संबंध है। पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी के बहकर चले जाने से रोजगार के लिए पुरुषों के पलायन के फलस्वरूप गृहस्थी का सारा भार महिलाओं पर ही पड़ता है। पशुओं के लिए घास, चारा, रसोई के लिए ईंधन और पानी का प्रबन्ध करना खेती के अलावा उनका मुख्य कार्य है। इनका वनों से सीधा सम्बन्ध है। वनों की व्यापारिक दोहन की नीति ने घास-चारा देने वाले चौड़ी पत्तियों के पेड़ों को समाप्त कर सर्वत्र चीड़, देवदार के शंकुधारी धरती को सूखा बना देने वाले पेड़ों का विस्तार किया है। मोटर-सडक़ों के विस्तार से होने वाले पेड़ों के कटाव के कारण रसोई के लिए ईंधन का आभाव होता है। इन सबका भार महिलाओं पर ही पड़ता है। अत: इस विनाशलीला को रोकने की चिंता वनों से प्रट्टयक्ष जुड़ी महिलाओं के अलावा और कौन कर सकता है। वे जानती हैं कि मिट्ïटी के बहकर जाने से तथा भूमि के अनुपजाऊ होने से पुरुषों को रोजगार के लिए शहरों में जाना पड़ता है।  मिटटी रुकेगी और बनेगी तो खेती का आधार मजबूत होगा। पुरुष घर पर टिकेंगे। इसका एक मात्र उपाय हैहरे पेड़ों की रक्षा करना क्योंकि पेड़ मिटटी को बनाने और पानी देने का कारखाना हैं।

रेणी के पश्चात् (चिपको के ही क्रम में) 1 फरवरी, 1978 को अदवाणी गांव के जंगलों में सशस्त्र पुलिस के 50 जवानों की एक टुकड़ी वनाधिकारियों और ठेकेदारों द्वारा भाड़े के कुल्हाड़ी वालों के संरक्षण केे लिए पहुँची। वहाँ स्त्रियॉ यह कहते हुए पेड़ों पर चिपक गयीं, ‘‘पेड़ नहीं, हम कटेंगी’’ इस अहिंसक प्रतिरोध का किसी के पास उत्तर नहीं था। इन्हीं महिलाओं ने पुन: सशस्त्र पुलिस के कड़े पहरे में 9 फरवरी, 1978 को नरेंद्र नगर में होने वाली वनों की नीलामी का विरोध किया। वे गिरफ्तार कर जेल में बन्द कर दी गईं।

25 दिसम्बर, 1978 को मालगाड्डी क्षेत्र में लगभग 2500 पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन आरंभ हुआ जिसमें हजारों महिलाओं ने भाग लेकर पेड़ कटवाने के सभी प्रयासों को विफल कर दिया। इस जंगल में 9 जनवरी, 1978 को सुन्दरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा। परिणामस्वरूप सरकार ने तीन स्थानों पर वनों की कटाई तट्टकाल रोक दी और हिमालय के वनों को संरक्षित वन घोषित करने के प्रश्न पर उन्हें बातचीत करने का न्यौता दिया। इस सम्बन्ध में निर्णय होने तक गढ़वाल और कुमायुँ मण्डलों में हरे पेड़ों की नीलामी, कटाई और छपान बंद करने की घोषणा कर दी गई।

चिपको आंदोलन के दौरान महिलाओं ने वनों के प्रबंधन में अपनी भागीदारी की मांग भी की। उनका तर्क था कि वह औरत ही है जो ईधन, चारे, पानी आदि को एकत्रित करती हैं। उसके लिए जंगल का प्रश्न उसकी जीवन-मृट्टयु का प्रश्न है। अत: वनों से संबंधित किसी भी निणर्य में उनकी राय को शामिल करनी चाहिए। चिपको आंदोलन ने वंदना शिवा को विकास के एक नये सिद्धात – ‘पर्यावरण नारीवाद के लिए प्रेरणा दी, जिसमें पर्यावरण तथा नारी के बीच अटूट संबंधों को दशार्या गया है।

इस प्रकार हम देख सकते हैें कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ आवाज उठाने में महिलाएं कितनी सक्रिय रहीं हैं। चिपको ने उन पहाड़ी महिलाओं को जो हमेशा घर की चार दीवारी में ही कैद रहती थीं, बाहर निकल कर लोगों के बीच प्रतिरोध करने तथा अपने आपको अभिव्यक्त करने का मौका दिया। इसने यह भी दशार्या कि किस प्रकार महिलाएं पेड़-पौधे से संबंध रखती हैं और पर्यावरण के विनाश से कैसे नकी तकलीफें बढ़ जाती हैं। अत: चिपको पर्यावरणीय आंदोलन ही नहीं है, बल्कि पहाड़ी महिलाओं के दुख-दर्द उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति का भी आंदोलन है।