विश्व पर्यावरण दिवस, 05 जून 2016 पर विशेष
बिहार में करीब चालीस साल पहले सिंचाई में भूजल का इस्तेमाल आरम्भ हुआ। लोग संशय से भरे थे। इसे ‘नरक से आने वाला पैशाचिक पानी’ ठहराया गया। लेकिन भूजल के इस्तेमाल का दायरा बढ़ता गया। इसमें सन 67-68 में अकाल का बड़ा योगदान था। तालाब और कुआँ खुदवाने की अपेक्षा नलकूप लगाना आसान और सस्ता था। बड़े पैमाने पर नलकूप लग गए।
पानी सर्वसुलभ होने का असर खेती पर पड़ा। अब धान की दो फसलें हो सकती थीं। लेकिन इस पानी में जहर आर्सेनिक छिपा था। इसका पता बहुत बाद में चल पाया। भूजल के अत्यधिक उपयोग से धरती के भीतर छिपा आर्सेनिक पानी में घुलकर बाहर आने लगा।
भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जीएसआई) ने अपने अध्ययन में पाया कि जिन चट्टानों में आर्सेनिक होता है, उनमें जोंक की तरह चिपके रोगाणु (माइक्रोब्स) चट्टान को पानी में घुलने की राह बना सकते हैं। आर्सेनिक के चट्टान समूची गंगा और ब्रह्मपुत्र की घाटी की तलहटी में है जो दक्षिण में राजमहल की पहाड़ियों, उत्तर में दार्जिलिंग पहाड़ी और पूर्वोत्तर में शिलांग पठार से घिरा है। इसका एक तिहाई हिस्सा बंगाल में पड़ता है। बाकी उत्तर प्रदेश का पूर्वी इलाका, बिहार का उत्तरी इलाका, नेपाल का दक्षिणी इलाका और बांग्लादेश का पश्चिमी इलाका में आता है।
इस क्षेत्र में गंगा-ब्रह्मपुत्र व उनकी सहायक नदियों की लाई महीन मिट्टी (सिल्ट) की परत बिछी है। उस परत के नीचे की बलुई चट्टानें मुख्यतौर पर लोहा और गन्धक से बनी हैं, उनके साथ कुछ सूक्ष्म तत्व मिले रहते हैं। उन सूक्ष्म तत्वों में आर्सेनिक शामिल है।
भूगर्भ सर्वेक्षण के अध्ययन से पता चला कि आर्सेनिक मिश्रित चट्टानें भूगर्भीय जलभण्डार के मध्यवर्ती परत में हैं। घाटी के विभिन्न हिस्सों में इस मध्यवर्ती परत की गहराई 13 मीटर से लेकर 128 मीटर के बीच है। इसकी मात्रा उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ती जाती है।
भूगर्भ में जलधारित करने वाले छेददार जलकुण्डियों (एक्विफर) से आर्सेनिक संलग्न होता है। वह आर्सेनिक हानिकर नहीं होता क्योंकि वह अघुलनशील रूप में रहता है। आर्सेनिक आमतौर पर पाइराइट से जुड़े रहते हैं जो धातुई चमक लिये पीतल की तरह पीले रंग का खनिज है। यह खनिज जो लौह तत्व का बेहतरीन स्रोत है, में आमतौर पर आयरन सल्फाइड सर्वाधिक रहता है।
आर्सेनिक तब तक इन चट्टानों से अलग होकर पानी में नहीं मिल सकता जब तक यह रासायनिक माध्यम में घुलनशील नहीं हो जाये। सिंचाई के काम में भूजल के अत्यधिक दोहन ने इस प्रक्रिया को गति प्रदान किया। भूगर्भ विज्ञानियों के अनुसार, भूजल के अत्यधिक दोहन से भूजल का स्तर घट गया। जलस्तर घटने से वे जलकुण्ड सूख गए जिनमें आर्सेनिक था।
जलस्तर घटने से खाली जगह में ऑक्सीजन ने प्रवेश किया। वह ऑक्सीजन उन चट्टानों में प्रवेश करता है और पाइराइट का ऑक्सीडाइजेशन होता है। इस प्रक्रिया में निकले अम्ल को आर्सेनिक यौगिक के साथ प्रतिक्रिया करके उसे जल में घुलनशील बना देता है।
भूगर्भ सर्वेक्षण की अध्ययनकर्ता टीम के अगुवा डॉ. रविशंकर के अनुसार, घुलन-प्रक्रिया में रोगाणुओं (माइक्रोब्स) अहम भूमिका अदा करते हैं। उनके अनुसार रोगाणु साइडराइट खनिज, मुख्यतः फेरस कार्बोनेट में रहते हैं। साइडराइट से सम्बन्धित आर्सेनिक, आर्सेनिक सल्फाइट के बजाय आर्सेनिक कार्बोनेट के रूप में रहते हैं।
आर्सेनिक कार्बोनेट ऐसा यौगिक है जो अत्यल्प अम्ल में भी आसानी से घुल जाता है। पाइराइट चट्टानों में मौजूद जीवाणु मेटाबोलिक प्रक्रिया में इतने अम्ल का निर्माण कर देते हैं कि आर्सेनिक कार्बोनेट उसमें घुल जाये। भूगर्भ सर्वेक्षण की अध्ययनकारी टीम ने इन बातों को अपने जर्नल में विस्तार से प्रकाशित किया है।
कुछ वर्ष पहले अमेरिकी शोधकर्ताओं ने खोज किया कि आर्सेनिकयुक्त जलकुण्ड सेडिमेंटरी चट्टानों के साथ खिसकते हैं जिससे समस्या जटिल हो जाती है। भू-रासायनिक दृष्टि से आर्सेनिक का कैल्शियम, मैग्नेशियम, आयरन, बाईकार्बोनेट और फास्फेट आयन के साथ सकारात्मक सहसम्बन्ध होता है। कुछ अन्य तत्व जैसे क्रोमियम, मैगनीज, बेरियम, वेनाडियम और टाइटेनियम भी आर्सेनिकयुक्त मिट्टी में बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं। दूसरी तरफ आर्सेनिक की अधिकता वाले इलाकों में क्लोराइड, सल्फाइड और फ्लोराइड आयन्स की सान्द्रता कम होती है। क्वार्टज, कैल्साइट, फेल्डस्पर कुछ ऐसे खनिज हैं जो आर्सेनिक युक्त चट्टानों में अक्सर पाये जाते हैं।
बिहार में आर्सेनिक दूषण की जानकारी हाल में मुश्किल से दशक भर पहले मिली है। पर यह कोई नई समस्या नहीं है। पुराने खदानों से ऐसे चट्टान निकलते रहे हैं जिनमें आर्सेनिक पाया गया है। इंग्लैंड में कुछ प्राचीन खदानों की मिट्टी में दो प्रतिशत से अधिक आर्सेनिक मिला है।
भूगर्भविज्ञानियों का मानना है कि आर्सेनिक के सतह पर आने का कारण भी आक्सिडेशन की यही प्रक्रिया रही होगी। बिहार और बंगाल में यह भूजल से सिंचाई की वजह से हो रहा है। अन्तर केवल यह है कि यहाँ भूजल आर्सेनिक को सतह पर ला रहा है, वहाँ खनिज पदार्थों केे साथ आर्सेनिक सतह पर आया था।
वर्तमान में माना जा रहा है कि 400 किलोमीटर लम्बी और 60 किलोमीटर चौड़ी पट्टी के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा मान्य स्तर से बहुत अधिक है। पश्चिम बंगाल के मालदा, मुर्शिदाबाद, नदिया, वर्धमान, और उत्तर व दक्षिण चौबीस परगना में यह समस्या विकराल है। बिहार के 18 जिलों में आर्सेनिक युक्त पानी का इस्तेमाल कर लोग बीमार पड़ रहे हैं।
भूजल का जनस्वास्थ्य पर गहरा असर होता है। कृषि कार्य में इसका योगदान काफी बढ़ गया है। पूर्व में सूखे के समय कुएँ और तालाब ही पेयजल और सिंचाई के साधन होते थे। हैजा और दूसरे जलजनित रोगों की महामारी अक्सर फैलती थी। इसका कारण कुएँ और तालाबों के पानी को माना गया और उनका स्थान धीरे-धीरे नलकूपों ने ले लिया।
अब अधिकांश आबादी पेयजल के लिये चापाकलों का इस्तेमाल करती है। इसके पानी में जीवाणुओं के मिलने की सम्भावना नहीं होती है। लेकिन इसमें अदृश्य, स्वादहीन, गन्धहीन जहर- आर्सेनिक मिला होता हैै जो कैंसर समेत कई रोगों का कारण बन रहा है।
कई बार यह सवाल पूछा जाने लगा है कि हम हैजा और कैंसर में किसे चुने? या फिर हमें पेयजल का कोई दूसरा विकल्प खोजना चाहिए?
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