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सप्रेस/सीएसई, डाउन टू अर्थ फीचर्स, नवंबर 2012
भूजल में आर्सेनिक का जहर होना इस समय दुनिया भर में एक बड़ी चिंता का सबब बना हुआ है। भारत के कई राज्यों के भूजल विषैले रसायन आर्सेनिक से बुरी तरह प्रदूषित हैं। इससे निपटने के लिये कई राज्यों ने धीमे पर चुस्त कदम उठाये हैं। पश्चिम बंगाल में कई लोगों ने आर्सेनिक के जहर से निपटने के लिए छोटा पर सही कदम तो उठाया है पर दूसरे राज्य इस पर कुछ भी चिंतित नहीं दिखते। बिहार ने भी एक कोरी कागजी योजना बनाने से ज्यादा कुछ नहीं किया। भूजल में आर्सेनिक की विषाक्तता दुनिया भर में एक बड़ी चिन्ता का विषय है। भारत के कई राज्यों -उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल एवं असम में यह अत्यधिक विषैला रसायन अपने प्राकृतिक रूप में मौजूद है। इसके प्रभाव से त्वचा का बदरंग होना, मस्से उभरना और यहां तक की मौत भी हो सकती है। सरकार इस समस्या से निजात पाने में कमजोर रही है। वर्तमान में सिर्फ पश्चिम बंगाल ही एक ऐसा राज्य है जहां भूजल को पीने योग्य बनाने के लिये एक योजना चलाई गई है। राज्य सरकार का लक्ष्य है कि सन् 2013 तक हर रहवासी इलाकों में कम से कम एक ‘आर्सेनिक मुक्त जल स्रोत’ अवश्य उपलब्ध करायेंगे। वर्ष 2005 में बंगाल सरकार ने अपनी ‘आर्सेनिक निष्कासन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये एक टास्क फोर्स का गठन किया था। लेकिन दुर्भाग्य से ये योजनाएं असफल रहीं। शायद इसलिये क्योंकि राज्य सरकार ने आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयों के रोजमर्रा के काम और जल वितरण की जिम्मेदारियों लोगों पर डाल दी जो इसके लिये तैयार नहीं थे। बाद में राज्य सरकार ने इस काम के लिए उन कम्पनियों से जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जिन्होंने आर्सेनिक निष्कासन उपकरण लगाये थे। लेकिन कम्पनियों को काम के बदले मिलने वाला मेहनताना बहुत ही कम लगा और उन्होंने भी इस काम से हाथ खींच लिए।
वर्ष 2009 में राज्य सरकार ने आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयों के निर्माण, संचालन एवं रखरखाव की जिम्मेदारी लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग पर डाली। विभाग ने गांवों में जल वितरण का काम संभालने के लिये पंचायतों को कहा। योजना के मुताबिक भूजल को साफ करने के लिये राज्य सरकार 338 आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित करेगी। योजना के लिये 2100 करोड़ रुपयों की राशि आबंटित की गई है । जिसमें से 974 करोड़ रुपये सिर्फ आर्सेनिक निष्कासन ईकाई स्थापित करने में खर्च किये जायेंगे। सतही जल या नदियों के जल के लिये परंपरागत तरीके ही इस्तेमाल किये जायेंगे। आमतौर पर नदियों के पानी में आर्सेनिक नहीं होता और इसे तलछट जमाव एवं क्लोरीनीकरण जैसे परंपरागत तरीकों से साफ किया जा सकता है।
भूजल में आर्सेनिक और लौह विषाक्तता के स्तर के आधार पर आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित हैं। प्रायः ऐसा पानी जिसमें 50 पार्स्ा प्रति बिलियन से कम आर्सेनिक एवं एक मिलिग्राम प्रति लीटर से कम लौह तत्व हो, उसे पीने योग्य माना जाता है और उसे बिना उपचारित किये वितरित किया जा सकता है। अगर इन तत्वों की मात्रा इस सीमा से अधिक है तो पानी को उपचारित किया जाता है। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग नलकूपों में आर्सेनिक निष्कासन उपकरण लगायेगा, जो 5000 परिवारों को आपूर्ति कर सकता है। यह उपकरण फिटकरी अथवा ब्लीचिंग पाउडर के द्वारा पानी की प्रारंभिक सफाई करता है और फिर यह पानी एक लौह अयस्क हेमेटाइट की परत से गुजारा जाता है। इसके बाद पानी एक दूसरी टंकी में जाता है, जहां तलछट जमाव विधि द्वारा आर्सेनिक को अलग किया जाता है। तीसरी टंकी में रेत की मोटी परत के माध्यम से बचा हुआ आर्सेनिक भी छन जाता है। इस तरह पानी इस्तेमाल के लिये तैयार होता है।
एक आर्सेनिक निष्पादन इकाई लगाने का खर्च कोई 70 लाख रुपये तक आता है। हालांकि एक बार लग जाने के बाद इसका चालू खर्च सिर्फ 10 रुपये प्रति किलोलीटर है। पश्चिम बंगाल आर्सेनिक टास्क फोर्स की सदस्या अरुनाभा मजूमदार के अनुसार आर्सेनिक निष्पादन इकाई टिकाउ एवं कारगर है। इस तरह से उपचारित पानी में 10 पार्स्अ प्रति बिलियन से भी कम मात्रा में आर्सेनिक होता है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार पीने योग्य एवं सुरक्षित है। भारतीय मानक ब्यूरो 50 पार्ट्स प्रति बिलियन तक सुरक्षित मानता है। पश्चिम बंगाल में अनेक लोगों ने अपने घरों में छोटी और सस्ती आर्सेनिक निष्कासन ईकाई लगवाई हैं। यह एक घरेलू फिल्टर है जिसमें आसानी से उपलब्ध होने वाले फिटकरी और ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल होता है। इस प्रक्रिया में ब्लीचिंग पाउडर, आर्सेनिक को ऑक्सीकृत करता है और फिटकरी थक्का जमाने का काम करता है। इसके बाद पानी रेत के फिल्टर से गुजारा जाता है जहां बचा हुआ सारा आर्सेनिक सोख लिया जाता है। इस फिल्टर को हर तीन साल में बदलने की जरुरत पड़ती है। कुछ विदेशी संस्थाओं एवं वियतनाम सरकार द्वारा किये गये अध्ययनों के अनुसार इस तरह के फिल्टरों को यदि इनकी कार्यक्षमता अवधि समाप्त होने से पहले बदल दिया जाये तो ये हर तरह से कारगर हैं।
आर्सेनिक की सफाई का एक दूसरा विकल्प है -एकल चरण फिल्टर। इसे कोलकाता स्थित अखिल भारत जन स्वास्थ्य एवं स्वच्छता संस्थान के सेनेटरी इंजीनियरिंग विभाग द्वारा विकसित किया गया है। इसमें फिटकरी को पानी में मिलाया जाता है, जिससे पानी में मौजूद लौह तत्व और आर्सेनिक अलग हो जाते हैं। फिर इसे निथरने के लिये छोड़ दिया जाता है। इस तरह से फिल्टर किया गया पानी, इस्तेमाल के योग्य होता है। पानी को फिल्टर करने का एक और तरीका है। इसमें ब्लीचिंग पाउडर, एल्यूमीनियम सल्फेट और क्रियाशील एल्यूमिना का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रक्रिया में बची हुई आर्सेनिक युक्त गंदगी को बार-बार हटाना पड़ता है। ये छोटी- छोटी तकनीकें प्रदेश भर में इस्तेमाल की जा रही हैं, लेकिन सरकार के लिये इनमें से हर एक की समय -समय पर निगरानी करना कठिन है। इसलिये सरकार की योजना है कि इन मौजूद विधियों की तकनीकों को बेहतर किया जाये।
पश्चिम बंगाल ने तो आर्सेनिक नियंत्रण की दिशा में छोटा पर सही कदम तो उठाया है पर दूसरे राज्य इस पर कुछ भी चिंतित नहीं दिखते। बिहार ने भी एक कोरी कागजी योजना बनाने से ज्यादा कुछ नहीं किया। बिहार सरकार में ग्रामीण जल एवं स्वच्छता के सलाहकार प्रकाश कुमार स्वीकार करते हैं कि इस दिशा में अब तक कुछ भी ठोस काम नहीं हुआ है। राज्य सरकार ने यूनिसेफ के साथ मिलकर कुछ आर्सेनिक निष्कासन इकाई लगवाईं और भूजल में आर्सेनिक की मात्रा को हल्का करने के लिये बारिश के पानी को जमीन में उतारना शुरू किया है। लेकिन इसमें भी बहुत ही कम सफलता हासिल हुई है। पटना स्थित अनुग्रह नारायण कॉलेज के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रमुख अशोक घोष के अनुसार इन असफलताओं के लिये जन भागीदारी की कमी हैं।
पटना से 20 किलोमीटर दूर, रामनगर गांव में यूनिसेफ ने आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिये बहुत से कुओं में सौर ऊर्जा चलित पंप लगाये थे। पटना विश्वविद्यालय में “राज्य में आर्सेनिक का शमन” विषय पर शोध करने वाले छात्र प्रकाश कुमार का कहना है कि पंप कुछ ही महीनों के भीतर टूट गये क्योंकि इन्हें चलाने वाले ऑपरेटर प्रशिक्षित नहीं थे। मंहगे होने के कारण ये चोरी भी कर लिये गये। प्रकाश कुमार कहते हैं कि आर्सेनिक निष्कासन इकाई के संचालन, रखरखाव, कचरे के सुरक्षित निपटान एवं अशुद्ध व उपचारित पानी के नियमित परीक्षण के मानक तौर तरीके बनाकर इन इकाईयों को कारगर किया जा सकता है। इसके लिये पंचायत और समुदाय को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिये। ये प्रयास बताते हैं कि भूजल में आर्सेनिक विषाक्तता को गंभीरता से लिया जा रहा है। दूसरे राज्य भी इस काम में आगे आ रहे है। अब ऐसे में आर्सेनिक से निजात पाने के लिये इसके नियोजन और रखरखाव में जनता की भागीदारी महत्वपूर्ण है।
वर्ष 2009 में राज्य सरकार ने आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयों के निर्माण, संचालन एवं रखरखाव की जिम्मेदारी लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग पर डाली। विभाग ने गांवों में जल वितरण का काम संभालने के लिये पंचायतों को कहा। योजना के मुताबिक भूजल को साफ करने के लिये राज्य सरकार 338 आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित करेगी। योजना के लिये 2100 करोड़ रुपयों की राशि आबंटित की गई है । जिसमें से 974 करोड़ रुपये सिर्फ आर्सेनिक निष्कासन ईकाई स्थापित करने में खर्च किये जायेंगे। सतही जल या नदियों के जल के लिये परंपरागत तरीके ही इस्तेमाल किये जायेंगे। आमतौर पर नदियों के पानी में आर्सेनिक नहीं होता और इसे तलछट जमाव एवं क्लोरीनीकरण जैसे परंपरागत तरीकों से साफ किया जा सकता है।
सफाई के विकल्प
भूजल में आर्सेनिक और लौह विषाक्तता के स्तर के आधार पर आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित हैं। प्रायः ऐसा पानी जिसमें 50 पार्स्ा प्रति बिलियन से कम आर्सेनिक एवं एक मिलिग्राम प्रति लीटर से कम लौह तत्व हो, उसे पीने योग्य माना जाता है और उसे बिना उपचारित किये वितरित किया जा सकता है। अगर इन तत्वों की मात्रा इस सीमा से अधिक है तो पानी को उपचारित किया जाता है। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग नलकूपों में आर्सेनिक निष्कासन उपकरण लगायेगा, जो 5000 परिवारों को आपूर्ति कर सकता है। यह उपकरण फिटकरी अथवा ब्लीचिंग पाउडर के द्वारा पानी की प्रारंभिक सफाई करता है और फिर यह पानी एक लौह अयस्क हेमेटाइट की परत से गुजारा जाता है। इसके बाद पानी एक दूसरी टंकी में जाता है, जहां तलछट जमाव विधि द्वारा आर्सेनिक को अलग किया जाता है। तीसरी टंकी में रेत की मोटी परत के माध्यम से बचा हुआ आर्सेनिक भी छन जाता है। इस तरह पानी इस्तेमाल के लिये तैयार होता है।
एक आर्सेनिक निष्पादन इकाई लगाने का खर्च कोई 70 लाख रुपये तक आता है। हालांकि एक बार लग जाने के बाद इसका चालू खर्च सिर्फ 10 रुपये प्रति किलोलीटर है। पश्चिम बंगाल आर्सेनिक टास्क फोर्स की सदस्या अरुनाभा मजूमदार के अनुसार आर्सेनिक निष्पादन इकाई टिकाउ एवं कारगर है। इस तरह से उपचारित पानी में 10 पार्स्अ प्रति बिलियन से भी कम मात्रा में आर्सेनिक होता है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार पीने योग्य एवं सुरक्षित है। भारतीय मानक ब्यूरो 50 पार्ट्स प्रति बिलियन तक सुरक्षित मानता है। पश्चिम बंगाल में अनेक लोगों ने अपने घरों में छोटी और सस्ती आर्सेनिक निष्कासन ईकाई लगवाई हैं। यह एक घरेलू फिल्टर है जिसमें आसानी से उपलब्ध होने वाले फिटकरी और ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल होता है। इस प्रक्रिया में ब्लीचिंग पाउडर, आर्सेनिक को ऑक्सीकृत करता है और फिटकरी थक्का जमाने का काम करता है। इसके बाद पानी रेत के फिल्टर से गुजारा जाता है जहां बचा हुआ सारा आर्सेनिक सोख लिया जाता है। इस फिल्टर को हर तीन साल में बदलने की जरुरत पड़ती है। कुछ विदेशी संस्थाओं एवं वियतनाम सरकार द्वारा किये गये अध्ययनों के अनुसार इस तरह के फिल्टरों को यदि इनकी कार्यक्षमता अवधि समाप्त होने से पहले बदल दिया जाये तो ये हर तरह से कारगर हैं।
आर्सेनिक की सफाई का एक दूसरा विकल्प है -एकल चरण फिल्टर। इसे कोलकाता स्थित अखिल भारत जन स्वास्थ्य एवं स्वच्छता संस्थान के सेनेटरी इंजीनियरिंग विभाग द्वारा विकसित किया गया है। इसमें फिटकरी को पानी में मिलाया जाता है, जिससे पानी में मौजूद लौह तत्व और आर्सेनिक अलग हो जाते हैं। फिर इसे निथरने के लिये छोड़ दिया जाता है। इस तरह से फिल्टर किया गया पानी, इस्तेमाल के योग्य होता है। पानी को फिल्टर करने का एक और तरीका है। इसमें ब्लीचिंग पाउडर, एल्यूमीनियम सल्फेट और क्रियाशील एल्यूमिना का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रक्रिया में बची हुई आर्सेनिक युक्त गंदगी को बार-बार हटाना पड़ता है। ये छोटी- छोटी तकनीकें प्रदेश भर में इस्तेमाल की जा रही हैं, लेकिन सरकार के लिये इनमें से हर एक की समय -समय पर निगरानी करना कठिन है। इसलिये सरकार की योजना है कि इन मौजूद विधियों की तकनीकों को बेहतर किया जाये।
पश्चिम बंगाल ने तो आर्सेनिक नियंत्रण की दिशा में छोटा पर सही कदम तो उठाया है पर दूसरे राज्य इस पर कुछ भी चिंतित नहीं दिखते। बिहार ने भी एक कोरी कागजी योजना बनाने से ज्यादा कुछ नहीं किया। बिहार सरकार में ग्रामीण जल एवं स्वच्छता के सलाहकार प्रकाश कुमार स्वीकार करते हैं कि इस दिशा में अब तक कुछ भी ठोस काम नहीं हुआ है। राज्य सरकार ने यूनिसेफ के साथ मिलकर कुछ आर्सेनिक निष्कासन इकाई लगवाईं और भूजल में आर्सेनिक की मात्रा को हल्का करने के लिये बारिश के पानी को जमीन में उतारना शुरू किया है। लेकिन इसमें भी बहुत ही कम सफलता हासिल हुई है। पटना स्थित अनुग्रह नारायण कॉलेज के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रमुख अशोक घोष के अनुसार इन असफलताओं के लिये जन भागीदारी की कमी हैं।
पटना से 20 किलोमीटर दूर, रामनगर गांव में यूनिसेफ ने आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिये बहुत से कुओं में सौर ऊर्जा चलित पंप लगाये थे। पटना विश्वविद्यालय में “राज्य में आर्सेनिक का शमन” विषय पर शोध करने वाले छात्र प्रकाश कुमार का कहना है कि पंप कुछ ही महीनों के भीतर टूट गये क्योंकि इन्हें चलाने वाले ऑपरेटर प्रशिक्षित नहीं थे। मंहगे होने के कारण ये चोरी भी कर लिये गये। प्रकाश कुमार कहते हैं कि आर्सेनिक निष्कासन इकाई के संचालन, रखरखाव, कचरे के सुरक्षित निपटान एवं अशुद्ध व उपचारित पानी के नियमित परीक्षण के मानक तौर तरीके बनाकर इन इकाईयों को कारगर किया जा सकता है। इसके लिये पंचायत और समुदाय को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिये। ये प्रयास बताते हैं कि भूजल में आर्सेनिक विषाक्तता को गंभीरता से लिया जा रहा है। दूसरे राज्य भी इस काम में आगे आ रहे है। अब ऐसे में आर्सेनिक से निजात पाने के लिये इसके नियोजन और रखरखाव में जनता की भागीदारी महत्वपूर्ण है।