गंगा नदी घाटी में आर्सेनिक की मौजूदगी और भविष्य में इसकी क्या स्थिति रहेगी, इसको लेकर व्यापक स्तर पर शोध होने जा रहा है।
इस शोध कार्य में भारत के चार संस्थानों के साथ ही यूके की भी चार संस्थाएँ हिस्सा लेंगी। शोध कार्य की फंडिंग यूके की संस्था नेचुरल एनवायरनमेंट रिसर्च काउंसिल (एनईआरसी) और केन्द्रीय विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय करेंगे। इस प्रोजेक्ट पर करीब 8 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान लगाया गया है। केन्द्र सरकार 4 करोड़ रुपए उपलब्ध कराएगी और बाकी चार करोड़ रुपए नेचुरल एनवायरनमेंट रिसर्च काउंसिल की ओर से दिये जाएँगे।
भारत के महावीर कैंसर संस्थान व रिसर्च सेंटर, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, आईआईटी खड़गपुर आईआईटी रुड़की तथा यूके की मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी, सैलफोर्ड यूनिवर्सिटी, बर्मिंघम यूनिवर्सिटी और ब्रिटिश जियोलॉजिकल सोसाइटी यह शोध करेंगे।
गंगा नदी घाटी में आर्सेनिक को लेकर यह शोध अब तक का सबसे वृहत्तर शोध माना जा रहा है क्योंकि इसमें देश के पाँच राज्यों को शामिल किया गया है। सभी संस्थानों को शोध के लिये अलग-अलग राज्यों की जिम्मेदारी दी गई है। महावीर कैंसर संस्थान बिहार और झारखण्ड के साहेबगंज को लेकर शोध करेगा। आईआईटी खड़गपुर पश्चिम बंगाल को लेकर, आईआईटी रुड़की व आईआईटी खड़गपुर उत्तर प्रदेश और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी उत्तराखण्ड को लेकर शोध करेंगे। यूकी की संस्थाएँ इन संस्थानों के साथ मिलकर काम करेंगी।
शोध तीन वर्षों का होगा और अगर जरूरत पड़ी, तो इसमें एक साल का इजाफा किया जा सकता है।
गौरतलब है कि आईआईटी खड़गपुर और महावीर कैंसर संस्थान आर्सेनिक को लेकर लम्बे समय से काम कर रहे हैं। इन संस्थानों की ओर से आर्सेनिक को लेकर अब तक कई शोध किये जा चुके हैं।
जनवरी के आखिर में शुरू हो रहे इस शोध में मुख्य रूप से तीन बिन्दुओं पर फोकस रहेगा। इस सम्बन्ध में महावीर कैंसर संस्थान व रिसर्च सेंटर के रिसर्च विभाग के प्रमुख अशोक घोष बताते हैं, ‘शोध में तीन चीजों पर ध्यान दिया जाएगा। अव्वल तो यह पता लगाया जाएगा कि गंगा के मैदानी क्षेत्रों के एक्वीफर में आर्सेनिक की मौजूदगी कैसी है। यानी पहले हम यह देखेंगे कि एक्वीफर में कितना आर्सेनिक है। इसके बाद हम यह पता लगाएँगे कि आने वाले 25 से 30 सालों में एक्वीफर में आर्सेनिक की क्या स्थिति रहेगी और पानी के इस्तेमाल के लिये कौन-सा एक्वीफर सुरक्षित रहेगा। तीसरे हिस्से में हम इस पर शोध करेंगे कि आर्सेनिक की रोकथाम के लिये किस तरह के एहतियाती कदम उठाए जाने चाहिए।’
घोष बताते हैं, ‘असल में तीसरे हिस्से में हम यह पता लगाएँगे कि भूजल का प्रबन्धन किस तरह किया जाना चाहिए और इससे जुड़े साझेदारों की क्या भूमिका होनी चाहिए ताकि आर्सेनिक के खतरे से निबटा जा सके। शोध के आधार पर हम मशविरे भी देंगे। कुल मिलाकर शोध का आधार एक्वीफर में आर्सेनिक की मौजूदगी, इसके खतरे और इससे बचने की रणनीति होगा।’
उल्लेखनीय है कि इस शोध के लिये नेचुरल एनवायरनमेंट रिसर्च काउंसिल ने सार्वजनिक अधिसूचना जारी की थी। इस अधिसूचना पर देश व विदेश की 116 संस्थानों ने शोध कार्य करने की इच्छा जताते हुए आवेदन दिया था। इन आवेदनों का गहनता से अध्ययन करने के बाद 20 संस्थानों का चयन किया गया। सभी संस्थानों की तरफ से प्रेजेंटेशन दिया गया और इसी के आधार पर 8 संस्थानों का चुनाव किया गया।
अशोक घोष कहते हैं, ‘आर्सेनिक को लेकर हमने कई शोध किये हैं, इसलिये हम प्रजेंटेशन देकर अपनी बात बखूबी रख पाये कि शोध की रूपरेखा क्या होनी चाहिए, जिस कारण हमारे संस्थान को शोध के लिये चुन लिया गया।’
यहाँ यह भी बता दें कि गंगा नदी के मैदानी क्षेत्रों के एक्वीफर में प्राकृतिक तौर पर आर्सेनिक मौजूद है। जब भारी मात्रा में भूजल का दोहन किया जाता है और भूजल को रिचार्ज नहीं किया जाता, तो एक्वीफर में मौजूद आर्सेनिक पानी के साथ बाहर निकलने लगता है।
भारत में जल प्रबन्धन पर बहुत खास ध्यान नहीं दिया जाता है और चूँकि यहाँ की आबादी बहुत अधिक है, तो पानी की खपत भी ज्यादा होती है। इस वजह से भूजल का खूब दोहन किया जाता है। लेकिन, उसके रिचार्ज की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है। आम लोगों में इसको लेकर जागरुकता का घोर अभाव है और सरकार की तरफ से पर्याप्त प्रयास भी नहीं किये जा रहे हैं। इस वजह से यहाँ आर्सेनिक का खतरा दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है।
जिन राज्यों को लेकर शोध होने जा रहा है, उन राज्यों में लाखों लोग आर्सेनिक की चपेट में हैं। बिहार की बात करें, तो यहाँ के करीब 16 जिलों के भूजल में आर्सेनिक है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ प्रीवेंटिव मेडिसिन में पिछले साल छपे एक शोध पत्र ‘ग्राउंड वाटर आर्सेनिक कॉन्टामिनेशन : ए लोकल सर्वे इन इण्डिया’ में गंगा के मैदानी क्षेत्र में स्थित बिहार के बक्सर जिले के सिमरी गाँव में पानी में आर्सेनिक को लेकर गहन शोध किया गया था। इसमें गाँव से पानी के 322 नमूने इकट्ठा किये गए थे। इन नमूनों की जाँच की गई तो पाया गया कि उक्त गाँव के हैण्डपम्प से निकलने वाले पानी में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से अधिक थी।
इसी तरह पश्चिम बंगाल, झारखण्ड का साहेबगंज, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड भी आर्सेनिक से बुरी तरह ग्रस्त है।
आर्सेनिक युक्त पेयजल के सेवन से फेफड़े, किडनी व ब्लाडर में कैंसर हो सकता है। इससे चर्मरोग हो जाता है और बदहजमी तथा ब्लड सर्कुलेशन भी बुरी तरह प्रभावित होता है।
आर्सेनिक पर काम करने वाले विशेषज्ञों की मानें, तो आर्सेनिक एक जानलेवा तत्व है। अगर लगातार आर्सेनिक युक्त पानी का सेवन किया जाये, तो लोगों को कैंसर हो सकता है और जान भी जा सकती है। डॉक्टरों के अनुसार आर्सेनिक की शिनाख्त होने पर मरीज को सबसे पहले साफ पानी उपलब्ध कराया जाना चाहिए और उसे आर्सेनिक से बचाव के लिये दवाइयाँ दी जानी चाहिए। इसके साथ नियमित तौर पर मरीज की जाँच भी जरूरी है।
पश्चिम बंगाल के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग की वेबसाइट के अनुसार पश्चिम बंगाल के कुल 9 जिलों के 79 ब्लॉकों में रहने वाले लगभग 1 करोड़ 66 लाख 54 हजार लोग आर्सेनिक के शिकंजे में हैं। यहाँ आर्सेनिक की शिनाख्त 3 दशक पहले वर्ष 1983 में ही कर ली गई थी। पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के गायघाटा व अन्य आर्सेनिक प्रभावित जिलों में आर्सेनिक के कारण कई लोगों की मौत भी हो चुकी है।
आईआईटी खड़गपुर की टीम को संस्थान के जियोलॉजी व जियोफिजिक्स विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर (हाइड्रोलॉजी) अभिजीत मुखर्जी लीड करेंगे। उन्होंने कहा कि शोध में ग्राउंड वाटर में केवल आर्सेनिक ही नहीं, दूसरे तरह के हानिकारक तत्वों की मौजूदगी की भी पड़ताल करनी है।
इस शोध के कुछ बिन्दुओं पर पहले कभी उस स्तर पर शोध नहीं किया गया, जिस स्तर पर होना चाहिए था, इसलिये यह अब तक हुए शोधों से ज्यादा फायदेमन्द होगा।
प्रो. मुखर्जी कहते हैं, ‘आर्सेनिक को लेकर पहले भी शोध किये जा चुके हैं, लेकिन जिन बिन्दुओं को लेकर हम शोध करने जा रहे हैं, उन पर बहुत कम काम हुआ है।’
बताया जा रहा है कि जिन राज्यों में शोध किया जाना है, उन राज्यों के उस हिस्से को शामिल किया जाएगा, जो गंगा के मैदानी इलाके में पड़ता है। जैसे कि उत्तर प्रदेश के वाराणसी को शोध के लिए चुना गया है।
पश्चिम बंगाल के किस क्षेत्र में शोध होगा, इसका चयन अभी नहीं हुआ है। प्रो मुखर्जी ने कहा कि वह पश्चिम बंगाल सरकार के साथ विमर्श कर स्थान का चुनाव करेंगे। लेकिन, सम्भवतः नदिया में शोध किया जा सकता है।
नदिया पश्चिम बंगाल का सबसे ज्यादा प्रभावित जिला है। 2014 में हुए एक शोध के अनुसार नदिया के सभी 17 ब्लॉक आर्सेनिक की जद में हैं। यहाँ के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से कई गुना अधिक है।
इसी तरह उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड भी आर्सेनिक के शिकंजे में है। बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश के करीब 30 जिलों के भूजल में आर्सेनिक है। उत्तराखण्ड के भी कुछ क्षेत्रों के ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक देखने को मिल रहा है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2015 में सचिवों की एक कमेटी ने आर्सेनिक पर गहन छानबीन कर एक रिपोर्ट सरकार को दी थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि आर्सेनिक के कारण अब तक 1 लाख लोगों की मौत हो चुकी है।कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा था कि करीब 7 करोड़ लोगों आर्सेनिक से प्रभावित हैं। इनमें से 3 लाख लोग ऐसे हैं जिन्हें आर्सेनिक ने अपनी जद में ले लिया है। रिपोर्ट में बताया गया था कि आर्सेनिक से निबटने के लिये 9700 करोड़ रुपए की जरूरत है।
रिपोर्ट में बताया गया था कि देश के 640 जिलों में से 96 जिलों के पानी में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से पाँच गुना अधिक है।
टाइम्स ऑफ इण्डिया की एक रिपोर्ट के अनुसार हाल ही में लोकसभा में एक सवाल के जवाब में केन्द्र सरकार ने बताया कि भारत की 19 प्रतिशत आबादी आर्सेनिक युक्त पानी पी रही है। केन्द्र सरकार के आँकड़ों का जोड़-घटाव करने पर पाया गया कि आर्सेनिक से ग्रस्त सबसे अधिक लोग उत्तर प्रदेश में हैं। इस मामले में दूसरे स्थान पर बिहार, तीसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल, चौथे स्थान पर असम, पाँचवें स्थान पर पंजाब और छठे स्थान पर मध्य प्रदेश है।
इन राज्यों के अलावा गुजरात, हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, झारखण्ड, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, छत्तीसगढ़, दिल्ली, ओड़िशा, मणिपुर, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में भी पेयजल में आर्सेनिक है।
कुल मिलाकर देखा जाये, तो भारत का एक बड़ा भू-भाग आर्सेनिक की चपेट में है।
सम्प्रति भारत में पानी में आर्सेनिक व अन्य खतरनाक तत्वों की मौजूदगी के जो आँकड़े सामने हैं, उसके मद्देनजर इस पर वृहत्तर शोध कार्य करने की जरूरत लम्बे समय से महसूस की जा रही थी, जो न केवल आर्सेनिक की मौजूदा स्थिति का पता लगाए बल्कि यह भी बताए कि आने वाले समय में इसकी विकरालता किस मुकाम पर पहुँचेगी और इससे बचने के सम्भावित उपाय क्या-क्या हो सकते हैं।
विशेषज्ञों को उम्मीद है कि यह शोध आर्सेनिक के मुद्दे से निबटने में काफी कारगर साबित होगा। यही नहीं, स्वच्छ पानी उपलब्ध कराने की दिशा में भी यह शोध मील का पत्थर साबित हो सकता है।
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