क्या रीवर बेसिन मैनेजमेंट एक्ट से बदलेगी नदियों की सूरत

Submitted by editorial on Tue, 11/20/2018 - 17:16

रीवर बेसिन मैनेजमेंटरीवर बेसिन मैनेजमेंट (फोटो साभार - डब्ल्यूआरआईएस)देश की 13 नदी घाटियों के बेहतर प्रबन्धन के लिये केन्द्र सरकार एक कानून बनाने जा रही है।

इसको लेकर नदी घाटी प्रबन्धन विधेयक (रीवर बेसिन मैनेजमेंट बिल) इसी साल दिसम्बर में शुरू हो रहे शीतकालीन सत्र में संसद में पेश किया जाएगा।

संसद से हरी झंडी मिलने के बाद नदी घाटी प्रबन्धन अधिनियम, 2018 लागू हो जाएगा। इस प्रस्तावित अधिनियम के ड्राफ्ट बिल को पढ़ने के बाद जो समझ बनती है, वह ये है कि इसका मूल उद्देश्य नदियों के पानी को लेकर दो या उससे ज्यादा राज्यों के बीच उत्पन्न होने वाले विवादों को तार्किक तरीके से निबटाना है। हालांकि, बिल में नदी घाटियों के प्रबन्धन, नदियों के बिगड़ते पर्यावरण को बचाने और पानी के न्यायोचित इस्तेमाल की भी बात कही गई है।

नदी घाटी प्रबन्धन अधिनियम बनाने के लिये प्रस्ताव आज से 10 साल पहले आया था।

फरवरी, 2008 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की सातवीं रिपोर्ट में हर अन्तरराज्यीय नदी के लिये पृथक रीवर बेसिन संगठन बनाने की सिफारिश की गई थी। ऐसा ही प्रस्ताव नेशनल कमिशन फॉर इंटिग्रेटेड वाटर रिसोर्सेस डेवलपमेंट की रिपोर्ट में भी दिया गया था।

सम्बन्धित मंत्रालय ने गहन मंत्रणा करने के बाद करीब छह दशक पुराने रीवर बोर्ड्स एक्ट (1956) को खत्म कर उसकी जगह रीवर बेसिन मैनेजमेंट बिल, 2018 लाने का फैसला किया।

बिल में 13 नदी घाटियों (ब्रह्मपुत्र, बराक और पूर्वोत्तर की अन्य अन्तरराज्यीय नदियों, ब्राह्मणी-वैतरणी बेसिन, कावेरी बेसिन, गंगा बेसिन, गोदावरी बेसिन, सिंधु बेसिन, कृष्णा बेसिन, महानदी बेसिन, माही बेसिन, नर्मदा बेसिन, पेन्नार बेसिन, सुवर्णरेखा बेसिन और तापी बेसिन) के लिये अलग-अलग रीवर बेसिन अथॉरिटी बनाने का प्रस्ताव है। ड्राफ्ट के मुताबिक, यह एक्ट अन्तरराज्यीय नदियों के बेसिन आधारित समेकित विकास और प्रबन्धन में मदद करेगा और नदियों के पानी को लेकर राज्यों के बीच संघर्ष की जगह सहयोग की बुनियाद रखेगा।

इस ड्राफ्ट में लिखा गया है कि इस एक्ट के अन्तर्गत जिन राज्यों में घाटियाँ आएँगी उन राज्यों को ही साझेदारी और दीर्घकालिक तरीके से अन्तरराज्यीय नदी घाटियों के विकास, प्रबन्धन और नियमन का अधिकार मिलेगा।

ड्राफ्ट के मुताबिक, इस अधिनियम के अन्तर्गत केन्द्र सरकार अधिसूचना जारी कर अन्तरराज्यीय नदी घाटियों के विकास, प्रबन्धन और पानी पर नियमन को लेकर रीवर बेसिन डेवलपमेंट अथॉरिटी का गठन करेगी। इसमें राज्यस्तरीय रीवर बेसिन डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाने का भी विकल्प रखा गया है।

एक्ट में नदी घाटियों के प्रबन्धन के लिये कई स्तरों पर संगठन बनाने की बात कही गई है।

एक्ट का ड्राफ्ट कहता है कि रीवर बेसिन अथॉरिटी के प्रबन्धन के लिये दो स्तरीय व्यवस्था होगी। हर रीवर बेसिन अथॉरिटी में गवर्निंग काउंसिल और एक्जिक्यूटिव बोर्ड रहेंगे। गवर्निंग काउंसिल को सहयोग करने के लिये एडवाइजरी काउंसिल का गठन किया जाएगा, जो नदी घाटी के बेहतर विकास के लिये निर्णय लेने में मदद करेगा।

गवर्निंग काउंसिल में सम्बन्धी बेसिन राज्यों के मुख्यमंत्री, बेसिन राज्यों के जल संसाधन के प्रभारी मंत्री और एक्जिक्यूटिव बोर्ड के चेयरमैन रहेंगे।

इसका मतलब है कि नदी घाटियों के विकास और प्रबन्धन में राज्य सरकार की भूमिका अहम होगी और कई जरूरी निर्णय राज्य सरकारें अपनी सहूलियतों के हिसाब से ले सकेंगी।

गवर्निंग काउंसिल का चेयरमैन बेसिन राज्य का मुख्यमंत्री होगा। चूँकि यह अन्तरराज्यीय नदियों के प्रबन्धन के लिये गठित होगा, इसलिये जाहिरी तौर पर इस पद के लिये दो राज्यों के मुख्यमंत्री उम्मीदवार होंगे। अतः इस समस्या से निबटने के लिये हर साल चेयरमैन बदला जाएगा। यानी एक साल के लिये एक राज्य का सीएम चेयरमैन बनेगा और उसके बाद दूसरे राज्य का सीएम।

पहले चेयरमैन का निर्धारण आपसी सहमति के आधार पर किया जाएगा और अगर आपसी सहमति नहीं बन पाती है, तो ऐसे में केन्द्र सरकार चेयरमैन नियुक्त करेगी।

वहीं एडवाइजरी काउंसिल का गठन गवर्निंग काउंसिल की अध्यक्षता में किया जाएगा। एडवाइजरी काउसिंग नदी घाटी के बेहतर विकास के लिये गवर्निंग काउंसिल का सहयोग करेगा। एडवाइजरी काउंसिल में सम्बन्धित राज्य के सांसद, राज्य के विधायक आदि होंगे। इसमें नदियों के विशेषज्ञों को जगह मिलेगी, नदी घाटी के बेहतर प्रबन्धन में सलाह दिया करेंगे। ड्राफ्ट में बताया गया है कि एडवाइजरी काउंसिल की अवधि तीन वर्ष की होगी और इसके बाद नए सिरे से नए सदस्यों को लेकर नई काउंसिल का गठन किया जाएगा।

ड्राफ्ट तैयार करने में शामिल अधिकारियों के मुताबिक, इस एक्ट में अन्तरराज्यीय नदी घाटी के विकास, प्रबन्धन और नियमन के लिये रीवर बेसिन मास्टर प्लान तैयार किया जाएगा। यह जिम्मा रीवर बेसिन अथॉरिटी को दिया जाएगा।

रीवर बेसिन मास्टर प्लान के तहत जिन-जिन बिन्दुओं पर फोकस किया जाएगा, उन्हें देखकर प्रथम दृष्टया लगता है कि इससे नदियों को नया जीवन मिल सकता है, बशर्ते कि इसे ईमानदारी से लागू किया जाये।

ड्राफ्ट के मुताबिक, मास्टर प्लान तैयार करने में नदी घाटी के चरित्र से जुड़े सभी परिणामों का गहन विश्लेषण किया जाएगा और साथ ही नदी के सतही पानी और भूजल में मानवीय हस्तक्षेप, इससे होने वाले प्रदूषण आदि का भी आकलन किया जाएगा। इसके साथ ही सुरक्षित क्षेत्र सामाजिक और सांस्कृतिक बहाव की जरूरत आदि पर ध्यान दिया जाएगा। इसके अलावा तमाम पहलुओं का जिक्र इस ड्राफ्ट में किया गया है।

एक्जिक्यूटिव बोर्ड के दायित्व व अधिकारियों की बात करें, तो रीवर बेसिन मास्टर प्लान तैयार करने की जिम्मेवारी एक्जिक्यूटिव बोर्ड की ही होगी। इसके अलावा नदी से सिंचाई, जलापूर्ति, ड्रेनेज, हाइड्रोपावर, बाढ़ प्रबन्धन आदि के लिये बहुआयामी स्कीम भी एक्जिक्यूटिव बोर्ड ही बनाएगा।

रीवर बेसिन मास्टर प्लान के अन्तर्गत नई योजनाओं के लिये वैज्ञानिक सर्वेक्षण, जल संसाधनों के मूल्यांकन और शोध का काम भी बोर्ड के जिम्मे होगा। इन सबके अलावा आधा दर्जन से ज्यादा दायित्व का निर्वाह बोर्ड करेगा।

ड्राफ्ट की मानें, तो रीवर बेसिन अथॉरिटी के संचालन के लिये फंडिग केन्द्र सरकार करेगी।

एक्ट के लिये तैयार किये गए ड्राफ्ट के 30वें प्वाइंट में कहा गया है कि केन्द्र सरकार रीवर बेसिन अथॉरिटी को जरूरत पड़ने पर समय-समय पर दिशा-निर्देश भी देगी।

एक्ट के शिड्यूल-एक और दो में क्रमशः रीवर बेसिन और रीवर बेसिन मास्टर प्लान के कार्यों का बिंदुवार जिक्र किया गया है। लेकिन, 33वें बिन्दु में ही केन्द्र सरकार को यह अधिकार भी दिया गया है कि जरूरत पड़ने पर वह दोनों शिड्यूल में बदलाव कर सकती है।

चूँकि इस ड्राफ्ट पर अभी संसद में बहस होनी बाकी है, इसलिये इनमें कई सारे बदलाव अपेक्षित हैं। लेकिन, मोटे तौर पर इस एक्ट का जो खाका दिख रहा है, उससे नदियों को कितना फायदा मिलेगा, यह कहना अभी मुश्किल है, मगर इसको लेकर राज्यों के स्तर पर विरोध के सुर तेज हो सकते हैं। इसकी वजह ये है इस एक्ट के कई उद्देश्यों में एक ये भी है कि नदी बेसिन का फायदा राज्यों को बराबर मिले और उनमें विवाद न बढ़े। उत्तर और पूर्व में तो नदियों को लेकर बहुत विवाद नहीं है, लेकिन दक्षिणी राज्यों में यह बड़ा मुद्दा बन सकता है।

इस एक्ट के कई प्रावधानों को राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ माना जा रहा है। तमिलनाडु सरकार इस एक्ट के कुछ प्रावधानों को राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण मानती है। पिछले दिनों तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में इसको लेकर एक बैठक हुई थी, जिसमें इस एक्ट की विभिन्न धाराओं से संघीय मूल्यों पर गम्भीर खतरा माना गया। तमिलनाडु सरकार का कहना है कि इस प्रस्ताविक विधेयक के कुछ प्रावधान लम्बे अन्तराल में तमिलाडु के हितों को प्रभावित कर सकते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि हालांकि एक्ट के तहत बनने वाली रीवर बेसिन अथॉरिटी में राज्य सरकार के नुमाइंदे भी शामिल होंगे, लेकिन इसमें केन्द्र सरकार को ज्यादा अधिकार रहेगा। ऐसे में कई राज्यों को यह लग सकता है कि उनके अधिकार क्षेत्र को समेट दिया गया है। इससे विवाद बढ़ सकता है।

प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है कि अथॉरिटी का जो भी निर्णय होगा, उसे सभी बेसिन राज्यों को मानना होगा। यह प्रावधान 6 दशक पुराने रीवर बोर्ड्स एक्ट, 1956 में था और इसको लेकर कई राज्यों को घोर आपत्ति थी, जो कई विवादों की जड़ भी बने थे।

पर्यावरणविद और नदी विशेषज्ञ मनोज मिश्र कहते हैं, ‘विधेयक में कहा गया है कि अथॉरिटी जो भी सिफारिशें करेंगी, सभी बेसिन राज्यों को उन्हें अमल में लाना होगा। यह आपत्तिजनक है। इससे विवाद और बढ़ेगा।’

वैसे, विधेयक में इन विवादों के निबटारे के लिये इंटर-स्टेट रीवर वाटर डिस्प्यूट ट्रिब्यूनल बनाने की भी बात कही गई है। इस ट्रिब्यूनल में कोई मामला तभी जाएगा, जब काउंसिल उसे सुलझाने में नाकामयाब हो जाएगा।

विधेयक को नदियों की सूरत बदलने के जरिए के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार इस एक्ट के जरिए अन्तरराज्यीय नदियों के राष्ट्रीयकरण और नदी जोड़ परियोजना को अंजाम देना चाहती है।

नदियों व बाँधों पर काम करने वाले संगठन सैंड्रप के हिमांशु ठक्कर कहते हैं, नदी घाटी प्रबन्धन एक्ट से अन्तरराज्यीय नदियों की सेहत नहीं सुधरने वाली है। बल्कि इससे उन नदियों की हालत और खराब हो जाएगी।

वह आगे कहते हैं, इस एक्ट की आड़ में केन्द्र सरकार अन्तरराज्यीय नदियों का राष्ट्रीयकरण करना चाहती है। शीतकालीन सत्र में जब यह विधेयक संसद में पेश होगा, तो सम्बन्धित राज्यों की तरफ से इसका कड़ा विरोध होने के आसार हैं और मैं नहीं समझता हूँ कि सरकार इस बिल को आसानी से पास करा पाएगी।

उन्होंने कहा, ‘सभी सम्बन्धित राज्य इस एक्ट को शक की निगाह से देखेंगे। सम्बन्धित राज्य की गैर भाजपा सरकारों के साथ ही भाजपा शासित राज्यों की तरफ से इस पर ऐतराज होगा।

गौरतलब हो कि केन्द्र की मोदी सरकार ने 5.5 लाख करोड़ रुपए की लागत से नदियों को जोड़ने की योजना तैयार की है। इस योजना के अन्तर्गत 30 नदियों को जोड़ा जाएगा। सरकार का दावा है कि इस योजना से भारत को बाढ़ और सुखाड़ से निबटने में मदद मिलेगी।

इस महत्वाकांक्षी योजना के पहले चरण में केन-बेतवा नदियों को जोड़ने का काम शुरू किया गया है। कुछ विभागों से हरी झंडी मिल गई है और कुछ से मिलनी बाकी है। योजना के मद्देनजर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सरकार के बीच समझौते के एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर भी होने हैं।

इस योजना में केन नदी का पानी नहर के जरिए बेतवा बेसिन में स्थानान्तरित किया जाएगा और इस पानी का इस्तेमाल बुन्देलखण्ड के सूखाग्रस्त इलाकों में होगा।

सरकार का कहना है कि इस योजना से सूखे की मार झेलने वाले बुन्देलखण्ड को इस समस्या से सदा के लिये निजात मिल जाएगी। वहीं, विशेषज्ञों का कहना है कि बुन्देलखण्ड में करीब 4 हजार तालाब हैं, अगर इनका जीर्णोंद्धार कर गहरा कर दिया जाये, तो नदियों को जोड़ने के लिये खर्च होने वाले करोड़ों रुपए की बचत हो जाएगी।

केन्द्रीय जल संसाधान मंत्रालय के अनुसार इस परियोजना से उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 6 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को सिंचाई के लिये पानी मिल जाएगा और साथ ही 78 मेगावाट बिजली का उत्पादन भी होगा।

लेकिन, अफसोस की बात है कि इसके चलते वन्यजीवों और जैवविविधता को होने वाले नुकसान और स्थानीय लोगों के विस्थापन पर सरकार का ध्यान नहीं है।

बताया जाता है कि इस पूरी परियोजना के कारण पन्ना टाइगर रिजर्व पूरी तरह डूब जाएगा और गिद्धों के आशियाने भी उजड़ जाएँगे। यही नहीं, इससे हजारों लोगों को विस्थापन का दंश भी झेलना पड़ेगा।

पर्यावरणविद और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस प्रोजेक्ट से वन्यजीवों, जैवविविधता और लोगों को होने वाले नुकसान को लेकर चिन्ता जाहिर की है और इस योजना के औचित्य पर ही सवाल उठाया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि रीवर बेसिन मैनेजमेंट एक भी एक तरह से नदियों को जोड़ने की कवायद है।

हिमांशु ठक्कर ने कहा, ‘रीवर बेसिन मैनेजमेंट एक्ट के जरिए भी सरकार नदियों को जोड़ना चाहती है। विधेयक के प्रावधानों से जाहिर हो रहा है कि केन्द्र सरकार नदियों को जोड़ना चाह रही है।’

बहरहाल, इस बिल का क्या हश्र होता है, यह तो दिसम्बर में शीतकालीन सत्र शुरू होने पर ही पता चल पाएगा, लेकिन जिस तरह इस विधेयक को लेकर अभी से शंकाए-आशंकाएँ व्यक्त की जा रही हैं, उससे साफ है कि इसे कानून बनाना आसान नहीं होगा।

अगर कानून बन भी गया, तो इससे नदियों की सेहत कितनी सुधरेगी, इस पर सन्देह है, क्योंकि देश में नदियों को बचाने के लिये दर्जनों कानून बने हैं, लेकिन जमीन पर उनका हश्र सिफर ही रहा है।

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