पृथ्वी को लेकर बदलना होगा नजरिया

Submitted by Editorial Team on Sat, 04/15/2017 - 10:25

पृथ्वी दिवस, 22 अप्रैल 2017 पर विशेष


संकट में पृथ्वीसंकट में पृथ्वीतमाम वैज्ञानिकों और महापुरुषों ने प्रकृति या कह लें कि पृथ्वी को बचाने के लिये तमाम बातें कही हैं, लेकिन मानव का रवैया कभी भी प्रकृति या पृथ्वी को लेकर उदार नहीं रहा। लोग यही मानते रहे कि वे पूरी पृथ्वी के कर्ता-धर्ता हैं। मानव ने पृथ्वी के अंगों पेड़-पौधे, हवा, पानी, जानवर के साथ क्रूर व्यवहार किया। जबकि सच यह है कि दूसरे अंगों की तरह ही मानव भी पृथ्वी या प्रकृति का एक अंग भर है। पृथ्वी का मालिक नहीं।

दूसरी बात यह है कि पृथ्वी के दूसरे अंग पेड़-पौधे और पानी भी मानव की तरह ही हैं। उनमें भी जीवन है और उन्हें भी अपनी सुरक्षा, देखभाल करने का उतना ही अधिकार है जितना एक आदमी को। हाल ही में उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में इस आधार को मजबूती दी है। हाईकोर्ट ने नदी को मानव का दर्जा दिया है। यही नहीं, इनके अभिभावक भी तय कर दिये हैं, जिनका काम नदियों को संरक्षित और सुरक्षित करना होगा।

आज जिस तरह से नदी, पेड़, पानी, पहाड़ के साथ छेड़छाड़ की जा रही है, उसका दुष्परिणाम हम देख रहे हैं। विकास के नाम पर जीव-जन्तुओं, पक्षियों को उनके ठिकानों से बेघर किया जा रहा है और सरकार की तरफ से यह कहा जा रहा है कि वे जीव जन्तुओं और पक्षियों को पुनर्वासित करेंगे। उन्हें इतनी समझ नहीं है कि जीव-जन्तु व पक्षी आदमी नहीं हैं कि अपना माल-असबाब पीठ पर लादकर जहाँ कहेंगे चले जाएँगे। जिस प्रकार मनुष्य अपनी जिन्दगी में बाहरी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करता है, उसी प्रकार पशु-पक्षी भी अपनी जिन्दगी में बाहरी हस्तक्षेप नहीं चाहते हैं। वे मनुष्य को इतना निकृष्ट समझते हैं कि आप किसी पंछी का अंडा छू दें तो वह उसे गिरा कर फोड़ देता है, फिर आप उनका पुनर्वास कैसे करेंगे।

बहरहाल, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने के लिये यह बहुत जरूरी है कि प्रकृति को भी मनुष्य की तरह ही समझते हुए यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि उन्हें उनका अधिक मिले। ऐसा होगा, तभी मानव सभ्यता भी बची रहेगी और प्रकृति भी।

 

 

पृथ्वी के अधिकार


सबसे पहले यह सोच विकसित करने की जरूरत है कि मनुष्य के लिये पेड़-पौधे, पानी, हवा और नदियों से समझौता नहीं किया जा सकता है। अगर एक व्यक्ति अपनी जरूरत के लिये दूसरे किसी व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुँचा सकता, तो क्या यह उचित है कि वह अपनी जरूरत के लिये प्रकृति को नुकसान पहुँचाए? नहीं। दूसरी बात यह कि अगर एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता है, तो मामला थाने तक पहुँचता है। वहाँ से कानूनी प्रक्रिया चलती है। इण्डियन पैनल कोर्ट की धाराएँ लगती हैं और सजा होती है। क्या प्रकृति के मामले में ऐसा किया जा सकता है? अब तक तो ऐसा नहीं हुआ, लेकिन ऐसा करना वक्त की जरूरत है।

पेड़-पौधों, नदी या पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के लिये फिलवक्त फॉरेस्ट एक्ट, एनवायरमेंट एक्ट व वाटर एक्ट की धाराओं के तहत मामले दर्ज होते हैं जिसमें बेहद कम सजा होती है। ठीक उतनी ही सजा जितनी एक जेबकतरे को जेब कतरने की सजा मिलती है। प्रकृति को अगर बचाना है तो उसे भी एक जीवित व्यक्ति का दर्जा देकर उसके अस्तित्व से खिलवाड़ करने वालों को इण्डियन पैनल कोर्ट की धाराओं के तहत सजा देनी होगी।

 

 

 

 

मनुष्य मास्टर नहीं, पृथ्वी समुदाय का हिस्सा


अगर पृथ्वी आज कई तरह के संकट से दो-चार हो रही है, तो इसके लिये वह सोच जिम्मेवार जिसके बूते मनुष्य खुद को पृथ्वी का मास्टर यानी मालिक समझता है। असल में यह सोच ही गलत है। पेड़, पौधे, पहाड़, पानी, पशु-पक्षी की तरह ही मनुष्य भी पृथ्वी का एक हिस्सा है, उसका मालिक नहीं। पृथ्वी पर मौजूद मिट्टी के एक कण से लेकर विशाल पहाड़ तक पृथ्वी का हिस्सा है जिन्हें मृत या जीवित में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।

यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि मनुष्य प्रकृति का हिस्सा होने के बावजूद उसके साथ खिलवाड़ करता है, लेकिन पेड़-पौधे, नदी, पानी और पहाड़ ऐसा नहीं करते हैं। प्रख्यात नाटककार व राजनीतिक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का एक बयान इस सिलसिले में काफी अहम है जिसमें वह कहते हैं कि अपनी पहली साँस लेने के पहले के नौ महीने छोड़ दिया जाय, तो इंसान अपने काम इतने अच्छे ढंग से नहीं करता जितना कि एक पेड़ करता है।

 

 

 

 

स्वयं शासित है पृथ्वी


मनुष्य खुद को मास्टर मान कर जंगलों, पहाड़ों और पानी के साथ मन माफिक व्यवहार करता है, लेकिन पृथ्वी विज्ञान से जुड़े कई विज्ञानियों ने अपने शोध में कहा है कि पृथ्वी स्वशासित है यानी वह अपना संचालन खुद करती है। मनुष्य या कोई और उसे संचालित नहीं कर सकता है। वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि पृथ्वी के दूसरे तत्वों मसलन पहाड़, पानी की तरह ही मनुष्य भी उसका एक हिस्सा है।

पहाड़, पानी और जंगल तो पृथ्वी को किसी तरह प्रभावित नहीं करता, लेकिन मानव ने अपने स्वार्थों से वशीभूत होकर पृथ्वी की प्राकृतिक संरचना के साथ ही खिलवाड़ करना शुरू कर दिया। पेड़ काटे गए, नदियों का रास्ता रोका गया, पशु-पक्षियों को बेघर किया गया व प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन हुआ। इसका दुष्परिणाम आज हम ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन व अन्य वायुमण्डलीय प्रदूषण के रूप में देख रहे हैं।

 

 

 

 

नैतिक स्तर पर मनुष्य को करना होगा विचार


इसमें कोई दो राय नहीं है कि पृथ्वी के जितने भी तत्व हैं उनमें मनुष्य सबसे उत्कृष्ट और सक्षम है। जानवर पृथ्वी को अपनी तरीके से बदल नहीं सकते हैं।

पानी, हवा भी ऐसा नहीं कर सकता है, लेकिन मनुष्य इतना सक्षम है कि पहाड़ को तोड़ कर वहाँ अट्टालिका खड़ा कर सकता है। बंजर भूमि पर जंगल बो सकता है। लेकिन, दिक्कत यह है कि मनुष्य अपनी शक्ति तो पहचानता है लेकिन शक्ति के साथ जो दायित्व आता है, उसको लेकर मनुष्य बेफिक्र है। अतः जरूरी है कि मनुष्य अपनी शक्ति के साथ ही अपने दायित्वों को भी पहचाने और पृथ्वी को सुरक्षित और संरक्षित रखने का काम करे।

 

 

 

 

मानव केन्द्रित नहीं, पृथ्वी केन्द्रित कानून की जरूरत


कुछेक कानूनों को छोड़ दिया जाये, तो अधिकांश कानून मानव कल्याण के लिहाज से बनाए गए हैं। इन कानूनों में अपराधों की संगीनता के आधार पर सजाएँ तय हैं। लेकिन, पृथ्वी के साथ होने वाली ज्यादती को लेकर कठोर कानून का अभाव है। जो कानून है, उसकी धाराएँ इतनी कमजोर हैं कि अव्वल तो अपराध साबित ही नहीं हो पाता है और अगर अपराध साबित भी होता है तो महज एक दो साल या ज्यादा-से-ज्यादा तीन साल की सजा होती है।

सीधी बात यह है कि सारे अधिकार मनुष्यों के लिये हैं, पृथ्वी के लिये कोई अधिकार तय नहीं है, क्योंकि इसे मनुष्य के इस्तेमाल का सामान माना जाता है। इस दोहरे रवैए को बदलना होगा और मानव केन्द्रित कानून की जगह पृथ्वी केन्द्रित कानून बनाना होगा। ऐसा कानून बनाना होगा, जिसमें पृथ्वी को मानव का दर्जा मिले और उसके साथ छेड़छाड़ को संगीन अपराध मानते हुए सजा दी जाय।

 

 

 

 

पृथ्वी लोकतंत्र


लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपने तरीके से रहने, खाने-पीने और अपनी बात कहने और सरकार चुनने का अधिकार है। देश में जब संविधान बना था तो प्रस्तावना की शुरुआत ही ‘हम भारत के नागरिक’ से की गई। यानी कि पूरा संविधान ही मानव के अधिकारों की बात कहता है। अलबत्ता सन 1976 संविधान में संशोधन कर पर्यावरण व वन्यजीवन के संरक्षण की बात कही गई।

संविधान के साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी पृथ्वी नहीं है। चुनाव के वक्त राजनीतिक पार्टियाँ अपने घोषणापत्रों में जनकल्याण योजनाओं की झड़ी लगा देती हैं, लेकिन पर्यावरण व पेड़-पौधों, नदी व पहाड़ बचाने की बात नहीं करती हैं। लेकिन, वक्त की माँग है कि लोकतंत्र प्रकृति व उसके तत्वों पर भी आधारित हो। इस लोकतंत्र में नदी को अपनी इच्छा से बहने का अधिकार हो, पेड़ को अपने तरीके से विकसित होने का अधिकार हो और इसमें मानव का कोई हस्तक्षेप न हो।