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योजना, अप्रैल 2010
मनुष्य की विस्फोटक जनसंख्या एवं उपभोक्तावादियों द्वारा प्रायोजित आधुनिक, असंयमित, अल्प परिभाषित व तथाकथित विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध व अन्यायपूर्ण दोहन ही पर्यावरण के विनाश के मुख्य कारण हैं। इस असन्तुलित विकास में पर्यावरण संरक्षण को कोई प्राथमिकता नहीं दी गई है, जिसके कारण ही आज ज़मीन की उत्पादकता स्थिर हो गई है, जैव-विविधता, खाद्य एवं स्वास्थ्य सुरक्षा संकट में है और ग्लोबल वार्मिंग जैसी विभीषिका सम्पूर्ण मानवता के अस्तित्व को ही चुनौती दे रही है। तेजी से बढ़ रही वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) की समस्या एवं इसके कारण दिन-प्रतिदिन गहराता जलवायु संकट आज सम्पूर्ण विश्व एवं मानवता के समक्ष एक ऐसी चुनौती बनकर खड़ा है जिसे न तो नकारा जा सकता है और न ही मूकदर्शक बनकर देखा जा सकता है।
पिछले सौ वर्षों में पृथ्वी के निकट सतह का तापमान लगभग 1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है और 21वीं सदी के अन्त तक इसमें विभिन्न अनुमानों के अनुसार 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि की सम्भावना है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण सम्भावित भयंकर त्रासदी का निर्णायक बिन्दु बहुत करीब आ चुका है और यदि इससे निजात के उपायों को तुरंत कार्यान्वित नहीं किया गया तो हम विनाश के ऐसे समुद्र में पहुँच जाएँगे जिसका कोई किनारा नहीं होगा।
वैश्विक तपन का मुख्य कारण मनुष्य की विस्फोटक जनसंख्या और उसके अनियन्त्रित, तथाकथित विकास की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने हेतु जलाए जाने वाले जीवाश्म ईंधन (पेट्रोलियम, कोयला इत्यादि) से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड व अन्य ग्रीन हाऊस गैसें (मिथेन, नाइट्रस आॅक्साइड एवं क्लोरोफ्लोरोकार्बन इत्यादि) हैं। समय रहते यदि इन ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं किया गया तो निकट भविष्य में हमें गम्भीर समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
पृथ्वी के वातावरण (ट्रोपोस्फियर) में ग्रीन हाऊस गैसों, जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, मिथेन एवं नाइट्रस आॅक्साइड की सान्द्रता आज बहुत उच्च स्तर पर पहुँच चुकी है जिससे धरातल से परावर्तित होने वाली ऊष्मा (इंफ्रा रेड किरणें) इन गैसों के कारण वातावरण में ही फँस जाती है और सम्पूर्ण विश्व का तापमान बढ़ा देती है।
उपर्युक्त ग्रीन हाऊस गैसों में कार्बन डाइआॅक्साइड एवं क्लोरोफ्लोरो कार्बन, ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं तथा इनके अत्यधिक उत्सर्जन के लिए हमारा मानव समाज ही उत्तरदायी है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्सर्जन मुख्य रूप से प्रशीतन उद्योगों (रेफ्रिजरेटर इत्यादि) के माध्यम से होता है। कार्बन डाइऑक्साइड के अत्यधिक उत्सर्जन के लिए जीवाश्म ईंधन (पेट्रोलियम, कोयला इत्यादि) से चलने वाले हमारे ऊर्जा संयन्त्र और विशाल आॅटोमोबाइल क्षेत्र अधिक जिम्मेदार हैं।
मनुष्य की विस्फोटक जनसंख्या एवं उपभोक्तावादियों द्वारा प्रायोजित आधुनिक, असंयमित, अल्प परिभाषित व तथाकथित विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध व अन्यायपूर्ण दोहन ही पर्यावरण के विनाश के मुख्य कारण हैं। इस असन्तुलित विकास में पर्यावरण संरक्षण को कोई प्राथमिकता नहीं दी गई है, जिसके कारण ही आज ज़मीन की उत्पादकता स्थिर हो गई है, जैव-विविधता, खाद्य एवं स्वास्थ्य सुरक्षा संकट में है और ग्लोबल वार्मिंग जैसी विभीषिका सम्पूर्ण मानवता के अस्तित्व को ही चुनौती दे रही है।
भारत जैसे अत्यधिक जनसंख्या वाले देशों के लिए तो यह समस्या और भी जटिल है। आज हमें अपनी विस्फोटक जनसंख्या के भरण-पोषण, विशाल ऊर्जा खर्च व संकट एवं पर्यावरण सुरक्षा के बीच सामंजस्य बिठाना लगभग असम्भव प्रतीत हो रहा है और हमारा व हमारे पर्यावरण दोनों का भविष्य संकटग्रस्त प्रतीत हो रहा है। अतः आज का अनियन्त्रित विकास ही हमारे व हमारे पर्यावरण दोनों के लिए वर्तमान एवं भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।
ग्लोबल वार्मिंग जैसी भीषण समस्याओं से बचने हेतु सुझाए गए उपाय आज भी सिर्फ चर्चा का विषय अधिक हैं और उन्हें लागू करने में हमारा तथाकथित विकास ही प्रमुख रूप से आड़े आ रहा है। यही कारण है कि विश्व के अधिकतर देश इन सुझावों के प्रति ज्यादा गम्भीर नहीं दिख रहे हैं।
वैश्विक तपन के कारण भारत जैसे अत्यधिक जनसंख्या वाले देशों पर बहुत दूरगामी प्रभाव पड़ने की सम्भावना है। हिमालय के हिमखण्डों के पिघलने और उपलब्ध जल के ज्यादा वाष्पोत्सर्जन के कारण उत्तर भारत में पानी की भारी कमी हो सकती है। दक्षिणी प्रान्तों के अधिकतर क्षेत्रों में तो पहले से ही सिंचाई जल की उपलब्धता कम है और ग्लोबल वार्मिंग के कारण इसके और कम होने की सम्भावना है।
इस प्रकार भारत के कृषि उत्पादन में भारी कमी आने से हमारी खाद्य सुरक्षा पर संकट आ सकता है। तापमान बढ़ने और ठण्ड के महीनों में कमी होने से गेहूँ (जोकि भारत की दूसरी सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फल है) के उत्पादन में भारी गिरावट होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। दूसरी तरफ अचानक बाढ़, सूखा व सिंचाई जल की कमी से धन के उत्पादन पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
अतः हमारे देश में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने हेतु व्यापक स्तर पर तैयारी अभी से शुरू करने की नितान्त आवश्यकता है।
मनुष्य की पहली आवश्यकता भोजन है तथा इसके उत्पादन में प्रयुक्त विभिन्न कृषि क्रियाओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अत्यधिक ऊर्जा का उपयोग होता है।
फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी अधिक होता है। विलियम रूडिमैन के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग की समस्या के बीज तो 8,000 वर्ष पहले ही बोए जा चुके थे जब कृषि भूमि के लिए जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई व्यापक स्तर पर आरम्भ की गई थी। मौसम परिवर्तन पर शोध कर रही अन्तरराष्ट्रीय संस्था आईपीसीसी (2007) के अनुसार सन 2004 में कुल ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कृषि का अनुमानित योगदान 13.5 प्रतिशत रहा है।
अन्य अनुमानों के अनुसार यह मात्रा लगभग 20 प्रतिशत तक हो सकती है। ग्लोबल वार्मिंग के वर्तमान संकट को देखते हुए हमें कृषि, वानिकी व उद्यानिकी के क्षेत्रों में व्यापक सुधार के साथ-साथ जीवन के हर स्तर पर न्यूनतम आवश्यक ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना होगा जिससे कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी की जा सके।
कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में मिथेन, नाइट्रस आॅक्साइड और क्लोरोफ्लोरो कार्बन की ग्लोबल वार्मिंग क्षमता क्रमशः 25 गुना, 300 गुना और 10,000 गुना अधिक होती है। अतः कार्बन डाइऑक्साइड के साथ-साथ आज हमें मिथेन, नाइट्रस आॅक्साइड और क्लोरोफ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन को कम करने पर भी विशेष ध्यान देना होगा।
मिथेन उत्सर्जन प्रमुख रूप से जुगाली करने वाले पशुओं के पेट से, रोपण पद्धति से उगाए जाने वाले धान के खेतों व दलदली क्षेत्रों से होता है। नाइट्रस आॅक्साइड का उत्सर्जन मुख्य रूप से फलों में प्रयोग किए गए कृत्रिम नाईट्रोजन उर्वरकों के कारण होता है।
इस प्रकार हमारे देश में कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कृषि, पशुपालन वह अन्य सम्बन्धित क्रियाओं का योगदान लगभग 29 प्रतिशत है। इसके अलावा कुल मिथेन व कुल नाइट्रस आॅक्साइड के उत्सर्जन का क्रमशः 65 प्रतिशत और 90 प्रतिशत भाग भी इन्हीं क्षेत्रों से होता है। कृषि, वानिकी व पशुपालन के क्षेत्रों में उचित प्रबन्धन के द्वारा हम इन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को काफी हद तक कम करके ग्लोबल वार्मिंग की गति को धीमा कर सकते हैं।
परम्परागत तरीकों से होने वाली भू-परिष्करण में नियमित रूप से अधिकाधिक मशीनों और ऊर्जा का उपयोग होता है और यह माना जाता है कि मृदा की तैयारी जितनी ज्यादा होगी, उत्पादन उतना ही अधिक होगा। परन्तु अधिक कर्षण क्रियाओं के प्रयोग से मृदा में उपस्थित कार्बन की अधिकाधिक मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में मुक्त होकर वातावरण में इसकी मात्रा बढ़ा देती है। भू-परिष्करण क्रियाओं में अप्रत्यक्ष रूप से खर्च होने वाली ऊर्जा में कृषि यन्त्रों के निर्माण एवं रखरखाव आदि शामिल हैं।उत्पादन की दृष्टि से धान विश्व का दूसरा प्रमुख खाद्यान्न है। विश्व की सबसे ज्यादा जनसंख्या चावल पर ही निर्भर है। चावल अत्यधिक पानी चाहने वाली फल है और अभी तक इसके उत्पादन का ज्यादा भाग ‘रोपण पद्धति’ से पैदा होता है। इस पद्धति में धान के खेत में अधिक समय तक पानी भरा रहता है और ऐसे में जलमग्न मिट्टी के अन्दर कार्बनिक यौगिकों के विघटन से बनने वाली मिथेन गैस की भारी मात्रा धान के पौधों के माध्यम से वातावरण में उत्सर्जित होती रहती है।
वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कुल मिथेन का ज्यादातर भाग ‘रोपण पद्धति’ वाले धान के खेतों व दलदली क्षेत्रों से ही निकलती है।
ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से बचने का मुख्य उपाय हमारी जनसंख्या वृद्धि में कमी, उसके द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का संयमित उपयोग व पर्यावरण के प्रति मित्रावत विकास में निहित है।
वैश्विक तपन को रोकने हेतु कृषि, वानिकी एवं उद्यानिकी पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि अभी तक सिर्फ यही क्षेत्र ऐसे हैं जिनके द्वारा हम वातावरण में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड की बड़ी मात्रा को सीधे-सीधे अवशोषित करके, वहाँ पर इसकी सान्द्रता काफी हद तक कम कर सकते हैं और कुल ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में भी कमी कर सकते हैं।
कृषि की विभिन्न तकनीकों, ऊर्जा उपयोग सम्बन्धी उनके सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं एवं न्यूनतम ऊर्जा उपयोग एवं कुल ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने हेतु उनके उचित समायोजन का वर्णन नीचे दिया जा रहा हैः
पर्यावरण की कार्बन डाइऑक्साइड कम करने हेतु आज इसकी अधिकाधिक मात्रा को मृदा कार्बन के रूप में संचित करने की आवश्यकता है। मृदा कार्बन का फसलोत्पादन में तो महत्व है ही, साथ-साथ पर्यावरण की दृष्टि से इसका महत्व 40 से 70 गुना अधिक होता है।
परम्परागत तरीकों से होने वाली भू-परिष्करण में नियमित रूप से अधिकाधिक मशीनों और ऊर्जा का उपयोग होता है और यह माना जाता है कि मृदा की तैयारी जितनी ज्यादा होगी, उत्पादन उतना ही अधिक होगा। परन्तु अधिक कर्षण क्रियाओं के प्रयोग से मृदा में उपस्थित कार्बन की अधिकाधिक मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में मुक्त होकर वातावरण में इसकी मात्रा बढ़ा देती है। भू-परिष्करण क्रियाओं में अप्रत्यक्ष रूप से खर्च होने वाली ऊर्जा में कृषि यन्त्रों के निर्माण एवं रखरखाव आदि शामिल हैं।
एक अध्ययन के अनुसार, कृषि यन्त्रों के निर्माण एवं रखरखाव पर खर्च होने वाली ऊर्जा, एक औसत यन्त्रीकृत प्रति एकड़ फार्म पर खर्च होने वाली कुल ऊर्जा की आधी होती है। इसके अलावा अत्यधिक भू-परिष्करण मृदा कटाव को भी बढ़ावा देता है, जिसके प्रबन्धन हेतु अतिरिक्त ऊर्जा खर्च होती है। संरक्षण कृषि के अन्तर्गत हम कृषि में उपयागे किए जाने वाले संसाधनों (फसल उत्पादन व सुरक्षा हेतु) के न्यूनतम उपयोग के द्वारा ही अधिकतम उत्पादकता प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार कृषि क्रियाओं पर कम संसाधन खर्च व ऊर्जा प्रयोग होने से पर्यावरण को होने वाले नुकसान में कमी आती है। न्यूनतम भू-परिष्करण और शून्य कर्षण के द्वारा हम फसलोत्पादन पर होने वाले खर्च को कम कर सकते हैं। साथ-ही-साथ कम पेट्रोलियम जलने से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी कम होता है। शून्य कर्षण के उपरान्त बोई गई फसलों में मृदा नमी का संरक्षण अधिक होता है।
सिंचाई के लिए पानी की मात्रा अपेक्षाकृत कम लगती है और मृदा क्षरण भी कम होता है। इसके अलावा कई तरह के खरपतवारों, जैसे गेहूं के रोग फलेरिस माइनर के प्रकोप में कमी आती है। शून्य कर्षण अपनाने से मृदा कार्बन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार संरक्षण क्रियाएँ सही मायने में ग्रीनहाउस प्रभाव कम करने में उपयोगी सिद्ध होंगी।
आज गेहूँ व धान के अलावा चना, मटर, मसूर, सरसो व अलसी जैसी फसलों का उचित उत्पादन हम शून्य कर्षण के माध्यम से सफलतापूर्वक ले सकते हैं। शाकनाशी रसायनों द्वारा खरपतवार नियन्त्रण की उन्नत तकनीकों ने खेती की न्यूनतम जुताई के प्रयोग को और आसान बना दिया है।
धान व गेहूँ की कटाई के उपरान्त खेत में पड़े हुए जैव ढेर पर भी आज उन्नत तरीके वाली नगण्य जुताई कर बुवाई करने वाली मशीनें अच्छी तरह चल सकती हैं और बुआई का कार्य बिना किसी बाधा के सम्पन्न कर सकती हैं। इस प्रकार हम इन जैव ढेरों को जलाए बिना ही अगली फसल ले सकते हैं और मृदा कार्बन की मात्रा में वृद्धि करके वातावरण में उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को कम कर सकते हैं।
न्यूनतम जुताई विधि एवं परम्परागत जुताई विधि का चक्रीय (एक के बाद एक) उपयोग करके हम कुल खर्च होने वाली ऊर्जा में बचत करके वातावरण को होने वाले नुकसान से बचा सकते हैं। इसके अलावा हमें फल कीटों, रोगकारकों व खरपतवारों के प्राकृतिक शत्रुओं के संरक्षण के तरीकों को भी अपनाना होगा ताकि रसायनों का प्रयोग कम-से-कम करना पड़े और कृषि जैव-विविधता भी उचित स्तर तक बनी रहे।
बहु-सूक्ष्मजीवी कल्चर (पाॅलीमाइक्रोबियल- कल्चर) के उपयोग (जिसमें मृदा उत्पादकता व पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने वाले जैसे राइजोबियम, माइकोराइजा, पादप वृद्धि प्रवर्तक सूक्ष्म जीवों इत्यादि और फसल शत्रु नियन्त्रक जैसे कीटनाशी, कवकनाशी, खरपतवारनाशी, सूत्रकृमिनाशी सूक्ष्मजीवों) को बढ़ावा देकर संरक्षण कृषि को और अधिक उत्पादक व टिकाऊ बनाया जा सकता है।
सिंचाई जल का उचित समय पर व उचित विधियों द्वारा उपयोग करके हम इस पर खर्च होने वाली अनावश्यक ऊर्जा को कम कर सकते हैं। बागानों व चौड़ी लाइनों में बोई गई फसलों में ड्रिप सिंचाई पद्धति को अपनाकर उपलब्ध सिंचाई जल का समुचित उपयोग किया जा सकता है। लेजर लेवलर के प्रयोग से मृदा-ढाल को सुव्यवस्थित करके सिंचाई जल का समुचित उपयोग व संरक्षण किया जा सकता है।
हरित क्रान्ति के पश्चात लगभग पूरे विश्व में कृषि का रसायनीकरण हो गया है, जिससे आज मृदा उत्पादकता में कमी व स्थिरता के साथ-साथ जैवनाशी प्रतिरोधी कीटों, रोगकारकों व खरपतवारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। इनका मुख्य कारण मृदा उत्पादकता व फसल शत्रुओं को नियन्त्रित करने वाली पारिस्थितिकीय व्यवस्था का नष्ट होना है। अतः आज विश्वस्तर पर कृषि में रसायनों के न्यायोचित उपयोग के लिए व्यापक जनजागरुकता लाने की नितान्त आवश्यकता है।
आज हमें जैविक उर्वरकों व मृदा उत्पादकता को बढ़ाने वाले प्राकृतिक संसाधनों का व्यापक स्तर पर उपयोग करना होगा। फसलों की कीट व रोगरोधी किस्मों व खरपतवारों को दबाने वाली प्रजातियों के विकास व उपयोग पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके अलावा फल कीटों, रोगकारकों व खरपतवारों के जैविक नियन्त्रण को व्यापक रूप दिया जाना चाहिए।
पूर्व में शाकनाशियों का प्रयोग ज्यादा मात्रा में तथा फसलों की बुवाई के समय या फिर उगने से पूर्व किया जाता था। इनसे आवश्यक नियन्त्रण न मिलने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी ज्यादा होता था। परन्तु वर्तमान समय में विकसित ‘स्मार्ट शाकनाशी’ जिनका बहुत ही कम मात्रा में (4-100 ग्राम प्रति हेक्टेयर) उपयोग होता है, इन समस्याओं को कम करने में प्रभावी पाए गए हैं। इनके अकेले या मिश्रित प्रयोग से कई तरह के खरपतवारों का नियन्त्रण होता है तथा पर्यावरण प्रदूषण भी कम होता है।
खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके इस प्रकार उगाना चाहिए जिससे मृदा की उर्वरता बनी रहे तथा किसी एक तरह के खरपतवारों, बीमारी व कीड़े की निरन्तर बढ़ोतरी न हो पाए। इसके अलावा मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में भी फल चक्र सहयोगी होता है। मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में अरहर, कपास, सेन्ना जैसी गहरी जड़ वाली फलों के साथ फसल चक्र अधिक प्रभावी होगा। फसल चक्र में जैविक-नाईट्रोजन-स्थिरीकरण करने वाली दलहनी फसलों के समावेश से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम करना पड़ेगा और मृदा कार्बन स्तर में भी वृद्धि होगी।क्लोडिनाफाप, फेनाग्जाप्राप, क्लोरीम्यूराॅन, कारफेंट्राजोन, मेटसल्फ्यूरान, अलमिक्स आदि इन्हीं शाकनाशियों के प्रकार हैं। तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय में आजकल नैनोहर्बीसाइड्स (अतिसूक्ष्म शाकनाशी) के विकास पर परियोजना चल रही है। आशा है कि भविष्य में ये नैनोहर्बीसाइड्स अति सूक्ष्म मात्रा में खरपतवारों के सटीक नियन्त्रण हेतु प्रयोग में आने लगेंगे।
उचित बीज शोधन को अपनाकर हम कई फल व्याधियों व कीड़ों का नियन्त्रण कम रसायनों के उपयोग से ही कर सकते हैं और वातावरण और फलोत्पादन को होने वाले नुकसान कम कर सकते हैं।
उचित कृषि वानिकी व उद्यानिकी पद्धतियों से खेती करके हम वांछित फलोत्पादन के अतिरिक्त वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड की भारी मात्रा को वन व फल वृक्षों के माध्यम से संचित कर सकते है। इसके अतरिक्त उपयोगी फर्नीचर व निर्माण कार्य हेतु लकड़ी की उपलब्धता होने से जंगलों के ऊपर उपयोगी लकड़ियों के लिए दबाव कम पड़ेगा। फल वृक्षों के अधिकाधिक रोपण से हमें खाद्य फलों के अलावा ग्रीनहाउस प्रभाव को कम करने में भी मदद मिलेगी।
इसके अलावा क्षेत्रीय मौसम को ठण्डा रखने, मृदा क्षरण रोकने व प्रदूषण कम करने में भी मदद मिलेगी। लवणीय व उसर भूमि पर उसर-सहनशील फल व वन वृक्षों के रोपण द्वारा इन समस्याग्रस्त क्षेत्रों की कृषि उत्पादकता को उच्च स्तर तक बढ़ाया जा सकता है।
फसलोत्पादन में खरपतवार ऐसे लुटेरों की तरह हैं, जो फलों के लिए प्रयोग किए गए पोषक तत्वों व पानी आदि चुरा लेते हैं और सौर प्रकाश व स्थान के लिए भी प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसके अलावा खरपतवार फसलों की कई बीमारियों और कीड़ों को फैलाने के लिए भी जिम्मेदार होते हैं।
फलस्वरूप हमारी फसलें कमजोर हो जाती हैं और हमारे द्वारा प्रयोग किए गए संसाधनों, (पोषक तत्व, दवाओं, पानी इत्यादि) व उन पर खर्च होने वाली ऊर्जा का भारी नुकसान होता है। खरपतवार नियन्त्रण कृषि की बहुत महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं में से है और इसके फलस्वरूप भी अत्यधिक कार्बन डाइऑक्साइड प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वातावरण में उत्सर्जित होती रहती है। खरपतवार नियन्त्रण की विभिन्न विधियों का उचित समायोजन तथा आवश्यकतानुरूप प्रभावी प्रयोग करके हम ऊर्जा की बचत कर वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को कम कर सकते हैं।
मूल्यवान फसलों एवं फसल नर्सरी में खरपतवार व मृदा जनित फसल रोगों के नियन्त्रण के लिए यह एक प्रभावी एवं पर्यावरण के लिए मित्रावत विधि है। इस विधि में गर्मियों के दिनों (अप्रैल-मई-जून) में उचित मृदा नमी युक्त तैयार खेत को पारदर्शी पालीइथाइलीन शीट से ढंककर चारों तरफ से सील कर देते हैं। फलस्वरूप अधिकाधिक सौर उर्जा (उष्मा) मिट्टी के अन्दर प्रवेश करके उसका तापमान बढ़ा देती है। जबकि रात के समय यही पालीइथाइलीन शीट मिट्टी की उष्मा को बाहर निकलने से रोकती भी है।
इस प्रकार मृदा का तापमान 50 डिग्री सेंट्रीग्रेड या इससे भी अधिक पहुँच जाता है। लम्बे समय तक उच्च तापमान बने रहने से मृदा में पाए जाने वाली कई प्रजातियों के खरपतवारों के बीज मर जाते हैं। इसके अलावा मृदाजनित रोग फैलाने वाले कई तरह के कवक, निमेटोड तथा जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं। इससे फसलों की वृद्धि और विकास पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
मृदा सौर्यीकरण से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नगण्य होता है और पर्यावरण को कोई विशेष नुकसान नहीं पहुँचता। अतः एकीकृत खरपतवार, बीमारी व कीड़ों के प्रबन्धन में इस विधि को विशेष स्थान दिया जाना चाहिए।
कृषि में शामिल बहुत-सी शष्य क्रियाएँ फलोत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ खरपतवारों, फसल रोग व कीटों के नियन्त्रण में भी काफी सहयोग करती हैं, भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से हमें दिखाई नहीं पड़ता है। कुछ प्रमुख शष्य क्रियाएँ निम्न हैंः
किसी एक खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके इस प्रकार उगाना चाहिए जिससे मृदा की उर्वरता बनी रहे तथा किसी एक तरह के खरपतवारों, बीमारी व कीड़े की निरन्तर बढ़ोतरी न हो पाए। इसके अलावा मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में भी फल चक्र सहयोगी होता है। मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में अरहर, कपास, सेन्ना जैसी गहरी जड़ वाली फलों के साथ फसल चक्र अधिक प्रभावी होगा। फसल चक्र में जैविक-नाईट्रोजन-स्थिरीकरण करने वाली दलहनी फसलों के समावेश से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम करना पड़ेगा और मृदा कार्बन स्तर में भी वृद्धि होगी।
ऐसी फसलें जोकि पंक्तियों में बोई जाती हैं तथा उनकी पंक्ति से पंक्ति की अधिक दूरी में अन्तर्वर्ती फसलों को उगाकर रिक्त पड़े स्थान पर खरपतवारों की वृद्धि को रोका जा सकता है। उदाहरणस्वरूप मक्के की फसल के साथ लोबिया लगाने से मक्के में खरपतवारों की वृद्धि को रोकने के साथ-साथ कुल उत्पादकता में भी वृद्धि होती है। अरहर की पंक्तियों में ज्वार उगाने से अरहर में उकठा रोग कम लगता है। इसके अलावा कुल उत्पादकता में वृद्धि होने से खाद्यान्न उत्पादन हेतु अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता भी कम होती है।
कुछ फलों में जल्दी से बुआई करने और कुछ में देर से करने पर भी खरपतवारों, फल रोगों व कीटों के नियन्त्रण में भी काफी सहयोग मिलता है। कुछ फसलों जैसे गेहूँ की फसल को एक सीमा के अन्दर घना बोने से खरपतवारों की वृद्धि के लिए कम स्थान मिलता है। एक अध्ययन के अनुसार कतार से कतार की दूरी कम करके, फसल की सघनता बढ़ाकर बुआई करने से खरपतवारों के प्रभावी नियन्त्रण के साथ-साथ उपज में 15 प्रतिशत तक की वृद्धि पाई गई है और यहाँ पर शाकनाशियों का उपयोग भी न्यूनतम मात्रा में करना पड़ता है।
वर्तमान में वातावरण की कार्बन डाइआॅक्साइड को कम करने हेतु मृदा में कार्बन की अधिक-से-अधिक मात्रा को संरक्षित करने पर ज्यादा शोर दिया जा रहा है। कतार में बोई गई फसलों में मृदा बिछावन (जीवित फसलें या मृत जैव ढेर) के समुचित प्रयोग से खरपतवार नियन्त्रण के साथ-साथ फसलों की मृदा जनित बीमारियों में कमी, मृदा उत्पादकता में वृद्धि तथा वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को कम करने में काफी सहयोग मिलता है। मृदा बिछावन के लिए हरी खाद, रूँधने वाली या स्मूदर फसलें, जीवित बिछावन (कुछ अंतर्वर्ती फसलें जैसे लोबिया, मूँग इत्यादि), विभिन्न फसलों के अवशिष्ट जैव ढेर (भूसा, पुवाल इत्यादि) व पेपर आदि का प्रयोग किया जाता है।
ग्रीनहाउस प्रभाव को रोकने के लिए जैव ईंधन फसलें जैसे जटरोफा, मीठा ज्वार व मक्का इत्यादि के उपयोग की काफी सम्भावनाएँ हैं। ये फसलें पहले तो वातावरण की कार्बन डाइऑक्साइड को संचित करके जैव ईंधन बनाने में उपयोग की जाएँगी, तत्पश्चात इन्हें अकेले या पेट्रोलियम के साथ मिश्रित रूप से जलाया जाएगा और विभिन्न ऊर्जा कार्यों के लिए उपयोग किया जाएगा। इस प्रकार वातावरण में अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नहीं होगा जबकि जीवाश्म ईंधन जलाने से मृदा के गर्भ में संचित कार्बन वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को केवल बढ़ाता ही है।उपर्युक्त शष्य क्रियाओं में हमें अधिक अतिरिक्त ऊर्जा खर्च किए बिना ही अधिक फसलोत्पादन व कई तरह के खरपतवारों, फल रोग व कीटों का नियन्त्रण प्राप्त होता है तथा कार्बन की अधिक-से-अधिक मात्रा मृदा में संरक्षित करने में मदद मिलती है।
फलों में पोषक तत्वों का उचित प्रबन्धन करना होगा जिससे उपयोग किए गए नाईट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि पौधों को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध हो सके और नाइट्रस आॅक्साइड के रूप में उत्सर्जन कम-से-कम हो सके। उचित जल निकास प्रबन्धन की व्यवस्था करके मृदा से मिथेन और नाइट्रस आॅक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।
जैविक नियन्त्रण, खरपतवार नियन्त्रण का एक प्रकृति प्रदत्त तरीका है जिससे पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में भी मदद मिलेगी। इस विधि में किसी खरपतवार के कुछ विशिष्ट प्राकृतिक शत्रुओं (जैसे परजीवी कीड़े, रोगकारक कवक, जीवाणु आदि) के उपयोग द्वारा इसे नष्ट किया जाता है। विश्व स्तर पर आक्रामक विदेशी खरपतवारों के नियन्त्रण हेतु, इस विधि का सफलतापूर्वक उपयोग किया जा रहा है। भारत में भी गाजरघास (पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस) के नियन्त्रण हेतु मेक्सिको से आयातित जाइगोग्रामा बाईकोलोराटा नामक भृंग कीट का वृहद स्तर पर उपयोग हो रहा है। इसके अलावा मिकानिया माइक्रेन्था नामक खरपतवार, जोकि भारत के दक्षिण-पश्चिम घाट एवं असम के जंगलों में काफी आक्रामक हो चुका है, के नियन्त्रण हेतु पक्सीनिया स्पेगैजिनी नामक गेरुआ रोग फैलाने वाले कवक को हाल के वर्षों में छोड़ा गया है।
अन्तर्वर्ती फसलों की खेती को बढ़ावा भूसा-पुआल जलाने पर पूर्ण प्रतिबन्ध जरूरी अन्य विदशी आक्रामक खरपतवारों जैसे लैंटाना केमरा केमरा, क्रोमोलिना ओडोरेटा आदि के जैविक नियन्त्रण हेतु प्रयास जारी हैं। कुछ प्रमुख विदेशी खरपतवारों जैसे कि गाजरघास, लैंटाना केमरा एवं जलकुम्भी (आईकार्निया क्रेसिप्स) आज भारत के अधिकांश भू-भाग पर खतरनाक स्तर तक फैलकर यहाँ की उत्पादकता को कम कर रहे हैं। और पारिस्थितिकी तन्त्र के लिए भी खतरा बन गए हैं।
यदि इन खरपतवारों के नियन्त्रण हेतु हम यान्त्रिक व रासायनिक विधियों का प्रयोग करते हैं तो करोड़ों रुपए खर्च के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में भारी वृद्धि होगी। अतः इन आक्रामक जैव-आतंकियों के नियन्त्रण अधिकाधिक मात्रा में उनके परजीवी कीड़ों व रोगकारकों को आयात करने की तत्काल आवश्यकता है।
आज द्रुत गति से बढ़ रहे अन्तरराष्ट्रीय व्यापारिक आवागमन के कारण सारा संसार एक वैश्विक गाँव के रूप में सिमट गया है। इन बढ़ी हुई आवागमन गतिविधियों के कारण बहुत सारे जीवों का उनके उत्पत्ति स्थान से निकलकर नए देशों या क्षेत्रों में पहुँचने की सम्भावना भी बढ़ गई है। खरपतवार, फसल रोगकारक व कीट इन्हीं जीवों में से कुछ प्रमुख हैं। कालांतर में इन्हीं फल शत्रुओं में से कुछ अपने नए निवास स्थान या देश में कब्जा जमाकर एक जैविक आतंक का रूप ले सकते हैं।
उदाहरण स्वरूप गेहूँ का मामा (फैलेरिस माइनर), लैंटाना केमरा, जलकुम्भी (आईकार्निया क्रेसिप्स) आदि विदेशी उत्पत्ति वाले खरपतवारों ने आज हमारे देश में भारी आतंक मचा रखा है और इनका सम्पूर्ण नियन्त्रण असम्भव-सा हो गया है। गेहूँ के लिए ‘यूजी 99’ नामक नए काला गेरुआ (किट्ट) कवक का हमारे देश में आने का खतरा बना हुआ है। अतः आज हमें अपने प्रमुख व्यापारिक केन्द्रों पर अपनी वैधानिक नियन्त्रण व्यवस्था को और चुस्त-दुरुस्त करने की जरूरत है, जिससे कि इस तरह के अवांछित जैविक फैलाव को रोका जा सके।
इसके अलावा नए सम्भावित रोगकारकों व फल कीड़ों के विभेदों के प्रबन्धन हेतु हमें पहले से ही रणनीति बनानी होगी। इस प्रकार भविष्य में इन सम्भावित विदेशी आक्रामक जीवों के नियन्त्रण हेतु हमें अतिरिक्त ऊर्जा खर्च नहीं करनी पड़ेगी और हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा।
ग्रीनहाउस प्रभाव को रोकने के लिए जैव ईंधन (बायो फ्यूल) फसलें जैसे जटरोफा, मीठा ज्वार व मक्का इत्यादि के उपयोग की काफी सम्भावनाएँ हैं। ये फसलें पहले तो वातावरण की कार्बन डाइऑक्साइड को संचित करके जैव ईंधन बनाने में उपयोग की जाएँगी, तत्पश्चात इन्हें अकेले या पेट्रोलियम के साथ मिश्रित रूप से जलाया जाएगा और विभिन्न ऊर्जा कार्यों के लिए उपयोग किया जाएगा। इस प्रकार वातावरण में अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नहीं होगा जबकि जीवाश्म ईंधन (पेट्रोल, कोयला इत्यादि) जलाने से मृदा के गर्भ में संचित कार्बन वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को केवल बढ़ाता ही है। जैव ईंधन के लिए कुछ ऐसी फसलों या खरपतवारों का उपयोग ज्यादा लाभकारी होगा जो खाद, पानी व दवाओं के प्रयोग के बिना ही अनुपयोगी भूमि (बंजर भूमि, ऊसर भूमि, नदियों का कछार इत्यादि) पर आसानी से उगाए जा सकें व बार-बार उत्पादन देते रहें। इस विषय पर नए सिरे से योजना बनाने की आवश्यकता है।
वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कुल मिथेन का ज्यादातर भाग ‘जलभराव रोपण पद्धति’ वाले धान के खेतों से ही निकलती है। धान का उत्पादन यदि सीधी बुआई वाली एयरोबिक पद्धति से करें तो मिथेन का उत्सर्जन काफी कम हो जाता है। इस विधि में तैयार खेत में धान की सीधी बुआई करते हैं तथा खेत में उचित हवा व नमी बनाए रखने के लिए इतनी सिंचाई करते हैं कि मिट्टी केवल गीली बनी रहे और पानी का ठहराव न हो। परन्तु इस पद्धति की एक मुख्य समस्या खरपतवारों की है जिनसे धान की फसल को काफी नुकसान होता है।
कम मात्रा में प्रयोग होने वाले नए जमाने के स्मार्ट शाकनाशियों पर आधारित एकीकृत खरपतवार नियन्त्रण प्रणाली को अपनाकर इस समस्या से निजात पाया जा सकता है तथा एयरोबिक पद्धति से धान उत्पादन को प्रोत्साहित करके, मिथेन उत्सर्जन को काफी कम किया जा सकता है। इसके अलावा कम मिथेन उत्सर्जन करने वाली धान की प्रजातियों के विकास की सम्भावनाएं भी तलाशनी होंगी।
धान तथा गेहूँ के खेतों से विशाल मात्रा में पुआल तथा भूसा पैदा होता है। इनका प्रबन्धन यदि उचित तरीके से न किया जाए तो पर्यावरण को भारी नुकसान होते हैं। आजकल कम्बाइन द्वारा कटाई के पश्चात् खेत में बचे हुए जैव ढेर को जलाने की परम्परा बढ़ती जा रही है जिसके परिणामस्वरूप भारी मात्रा में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन होता है।
एक अध्ययन के अनुसार पंजाब में भारी मात्रा में जैव ढेर (भूसा या पुआल) जलाने से उत्तर भारत के विशाल वातावरणीय भाग पर धुन्ध-सा बन जाता है जो वातावरण की गर्मी में वृद्धि करता है। जैव ढेर को जलाने से भारी मात्रा में निकला हुआ धुआँ मनुष्यों तथा पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी घातक होता है। इसके अलावा भारी मात्रा में उपलब्ध सम्भावित पोषक तत्वों (नाईट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि) का नुकसान भी होता है। यह प्रचलन पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही घातक है और इस पर पूर्ण प्रतिबन्ध के साथ-साथ व्यापक जनजागरुकता लाने की भी आवश्यकता है।
यदि भूसा तथा पुआल को एकत्र करके इसका उपयोग व खाद बनाने, मशरूम उत्पादन, बागानों व खेतों में बिछावन (मल्च आदि) में प्रयोग करें तो कुल उत्पादकता में वृद्धि होगी और पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा। उचित बिछावन (मल्चिंग) के तरीकों को अपनाकर खेतों तथा बागानों में खरपतवारों के प्रकोप को भी कम किया जा सकता है। जहाँ तक सम्भव हो सके, रोपण पद्धति से उगाए जाने वाले धान के खेत में उचित तरीके से सड़ी हुई खाद ही मिलाएँ तथा बिना सड़ा हुआ जैव ढेर (भूसा, पुआल आदि) बिल्कुल न छोड़ें। इससे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में काफी कमी आती है।
आज की तेज रफ्तार जिन्दगी और अनियन्त्रित विकास के कारण हमारा पर्यावरण एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर पहुँच गया है, जिसका दुष्परिणाम या तो कई रूपों में हमें भोगना पड़ रहा है या भविष्य में सम्पूर्ण विश्व पर कहर बनकर टूटने वाला है।
अतः आज जीवन के हर क्षेत्र में हमें अनावश्यक ऊर्जा खर्च को रोककर नियन्त्रित, टिकाऊ व सदाबहार विकास को आगे ले जाना है जिससे पर्यावरण के साथ-साथ हमारा भी भविष्य सुरक्षित रहे।
लेखक खरपतवार विज्ञान अनुसन्धान निदेशालय, जबलपुर में वैज्ञानिक हैं।
ई-मेल: chandrabhanu21@gmail.com
पिछले सौ वर्षों में पृथ्वी के निकट सतह का तापमान लगभग 1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है और 21वीं सदी के अन्त तक इसमें विभिन्न अनुमानों के अनुसार 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि की सम्भावना है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण सम्भावित भयंकर त्रासदी का निर्णायक बिन्दु बहुत करीब आ चुका है और यदि इससे निजात के उपायों को तुरंत कार्यान्वित नहीं किया गया तो हम विनाश के ऐसे समुद्र में पहुँच जाएँगे जिसका कोई किनारा नहीं होगा।
वैश्विक तपन का मुख्य कारण मनुष्य की विस्फोटक जनसंख्या और उसके अनियन्त्रित, तथाकथित विकास की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने हेतु जलाए जाने वाले जीवाश्म ईंधन (पेट्रोलियम, कोयला इत्यादि) से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड व अन्य ग्रीन हाऊस गैसें (मिथेन, नाइट्रस आॅक्साइड एवं क्लोरोफ्लोरोकार्बन इत्यादि) हैं। समय रहते यदि इन ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं किया गया तो निकट भविष्य में हमें गम्भीर समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
पृथ्वी के वातावरण (ट्रोपोस्फियर) में ग्रीन हाऊस गैसों, जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, मिथेन एवं नाइट्रस आॅक्साइड की सान्द्रता आज बहुत उच्च स्तर पर पहुँच चुकी है जिससे धरातल से परावर्तित होने वाली ऊष्मा (इंफ्रा रेड किरणें) इन गैसों के कारण वातावरण में ही फँस जाती है और सम्पूर्ण विश्व का तापमान बढ़ा देती है।
उपर्युक्त ग्रीन हाऊस गैसों में कार्बन डाइआॅक्साइड एवं क्लोरोफ्लोरो कार्बन, ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं तथा इनके अत्यधिक उत्सर्जन के लिए हमारा मानव समाज ही उत्तरदायी है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्सर्जन मुख्य रूप से प्रशीतन उद्योगों (रेफ्रिजरेटर इत्यादि) के माध्यम से होता है। कार्बन डाइऑक्साइड के अत्यधिक उत्सर्जन के लिए जीवाश्म ईंधन (पेट्रोलियम, कोयला इत्यादि) से चलने वाले हमारे ऊर्जा संयन्त्र और विशाल आॅटोमोबाइल क्षेत्र अधिक जिम्मेदार हैं।
अनियन्त्रित विकास और पर्यावरण
मनुष्य की विस्फोटक जनसंख्या एवं उपभोक्तावादियों द्वारा प्रायोजित आधुनिक, असंयमित, अल्प परिभाषित व तथाकथित विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध व अन्यायपूर्ण दोहन ही पर्यावरण के विनाश के मुख्य कारण हैं। इस असन्तुलित विकास में पर्यावरण संरक्षण को कोई प्राथमिकता नहीं दी गई है, जिसके कारण ही आज ज़मीन की उत्पादकता स्थिर हो गई है, जैव-विविधता, खाद्य एवं स्वास्थ्य सुरक्षा संकट में है और ग्लोबल वार्मिंग जैसी विभीषिका सम्पूर्ण मानवता के अस्तित्व को ही चुनौती दे रही है।
भारत जैसे अत्यधिक जनसंख्या वाले देशों के लिए तो यह समस्या और भी जटिल है। आज हमें अपनी विस्फोटक जनसंख्या के भरण-पोषण, विशाल ऊर्जा खर्च व संकट एवं पर्यावरण सुरक्षा के बीच सामंजस्य बिठाना लगभग असम्भव प्रतीत हो रहा है और हमारा व हमारे पर्यावरण दोनों का भविष्य संकटग्रस्त प्रतीत हो रहा है। अतः आज का अनियन्त्रित विकास ही हमारे व हमारे पर्यावरण दोनों के लिए वर्तमान एवं भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।
ग्लोबल वार्मिंग जैसी भीषण समस्याओं से बचने हेतु सुझाए गए उपाय आज भी सिर्फ चर्चा का विषय अधिक हैं और उन्हें लागू करने में हमारा तथाकथित विकास ही प्रमुख रूप से आड़े आ रहा है। यही कारण है कि विश्व के अधिकतर देश इन सुझावों के प्रति ज्यादा गम्भीर नहीं दिख रहे हैं।
वैश्विक तपन और भारतीय कृषि
वैश्विक तपन के कारण भारत जैसे अत्यधिक जनसंख्या वाले देशों पर बहुत दूरगामी प्रभाव पड़ने की सम्भावना है। हिमालय के हिमखण्डों के पिघलने और उपलब्ध जल के ज्यादा वाष्पोत्सर्जन के कारण उत्तर भारत में पानी की भारी कमी हो सकती है। दक्षिणी प्रान्तों के अधिकतर क्षेत्रों में तो पहले से ही सिंचाई जल की उपलब्धता कम है और ग्लोबल वार्मिंग के कारण इसके और कम होने की सम्भावना है।
इस प्रकार भारत के कृषि उत्पादन में भारी कमी आने से हमारी खाद्य सुरक्षा पर संकट आ सकता है। तापमान बढ़ने और ठण्ड के महीनों में कमी होने से गेहूँ (जोकि भारत की दूसरी सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फल है) के उत्पादन में भारी गिरावट होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। दूसरी तरफ अचानक बाढ़, सूखा व सिंचाई जल की कमी से धन के उत्पादन पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
अतः हमारे देश में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने हेतु व्यापक स्तर पर तैयारी अभी से शुरू करने की नितान्त आवश्यकता है।
कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन एवं कृषि
मनुष्य की पहली आवश्यकता भोजन है तथा इसके उत्पादन में प्रयुक्त विभिन्न कृषि क्रियाओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अत्यधिक ऊर्जा का उपयोग होता है।
फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी अधिक होता है। विलियम रूडिमैन के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग की समस्या के बीज तो 8,000 वर्ष पहले ही बोए जा चुके थे जब कृषि भूमि के लिए जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई व्यापक स्तर पर आरम्भ की गई थी। मौसम परिवर्तन पर शोध कर रही अन्तरराष्ट्रीय संस्था आईपीसीसी (2007) के अनुसार सन 2004 में कुल ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कृषि का अनुमानित योगदान 13.5 प्रतिशत रहा है।
अन्य अनुमानों के अनुसार यह मात्रा लगभग 20 प्रतिशत तक हो सकती है। ग्लोबल वार्मिंग के वर्तमान संकट को देखते हुए हमें कृषि, वानिकी व उद्यानिकी के क्षेत्रों में व्यापक सुधार के साथ-साथ जीवन के हर स्तर पर न्यूनतम आवश्यक ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना होगा जिससे कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी की जा सके।
मिथेन, नाइट्रस आॅक्साइड उत्सर्जन एवं कृषि
कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में मिथेन, नाइट्रस आॅक्साइड और क्लोरोफ्लोरो कार्बन की ग्लोबल वार्मिंग क्षमता क्रमशः 25 गुना, 300 गुना और 10,000 गुना अधिक होती है। अतः कार्बन डाइऑक्साइड के साथ-साथ आज हमें मिथेन, नाइट्रस आॅक्साइड और क्लोरोफ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन को कम करने पर भी विशेष ध्यान देना होगा।
मिथेन उत्सर्जन प्रमुख रूप से जुगाली करने वाले पशुओं के पेट से, रोपण पद्धति से उगाए जाने वाले धान के खेतों व दलदली क्षेत्रों से होता है। नाइट्रस आॅक्साइड का उत्सर्जन मुख्य रूप से फलों में प्रयोग किए गए कृत्रिम नाईट्रोजन उर्वरकों के कारण होता है।
इस प्रकार हमारे देश में कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कृषि, पशुपालन वह अन्य सम्बन्धित क्रियाओं का योगदान लगभग 29 प्रतिशत है। इसके अलावा कुल मिथेन व कुल नाइट्रस आॅक्साइड के उत्सर्जन का क्रमशः 65 प्रतिशत और 90 प्रतिशत भाग भी इन्हीं क्षेत्रों से होता है। कृषि, वानिकी व पशुपालन के क्षेत्रों में उचित प्रबन्धन के द्वारा हम इन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को काफी हद तक कम करके ग्लोबल वार्मिंग की गति को धीमा कर सकते हैं।
परम्परागत तरीकों से होने वाली भू-परिष्करण में नियमित रूप से अधिकाधिक मशीनों और ऊर्जा का उपयोग होता है और यह माना जाता है कि मृदा की तैयारी जितनी ज्यादा होगी, उत्पादन उतना ही अधिक होगा। परन्तु अधिक कर्षण क्रियाओं के प्रयोग से मृदा में उपस्थित कार्बन की अधिकाधिक मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में मुक्त होकर वातावरण में इसकी मात्रा बढ़ा देती है। भू-परिष्करण क्रियाओं में अप्रत्यक्ष रूप से खर्च होने वाली ऊर्जा में कृषि यन्त्रों के निर्माण एवं रखरखाव आदि शामिल हैं।उत्पादन की दृष्टि से धान विश्व का दूसरा प्रमुख खाद्यान्न है। विश्व की सबसे ज्यादा जनसंख्या चावल पर ही निर्भर है। चावल अत्यधिक पानी चाहने वाली फल है और अभी तक इसके उत्पादन का ज्यादा भाग ‘रोपण पद्धति’ से पैदा होता है। इस पद्धति में धान के खेत में अधिक समय तक पानी भरा रहता है और ऐसे में जलमग्न मिट्टी के अन्दर कार्बनिक यौगिकों के विघटन से बनने वाली मिथेन गैस की भारी मात्रा धान के पौधों के माध्यम से वातावरण में उत्सर्जित होती रहती है।
वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कुल मिथेन का ज्यादातर भाग ‘रोपण पद्धति’ वाले धान के खेतों व दलदली क्षेत्रों से ही निकलती है।
वैश्विक तपन को रोकने हेतु कृषि क्रियाओं में सुधार
ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से बचने का मुख्य उपाय हमारी जनसंख्या वृद्धि में कमी, उसके द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का संयमित उपयोग व पर्यावरण के प्रति मित्रावत विकास में निहित है।
वैश्विक तपन को रोकने हेतु कृषि, वानिकी एवं उद्यानिकी पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि अभी तक सिर्फ यही क्षेत्र ऐसे हैं जिनके द्वारा हम वातावरण में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड की बड़ी मात्रा को सीधे-सीधे अवशोषित करके, वहाँ पर इसकी सान्द्रता काफी हद तक कम कर सकते हैं और कुल ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में भी कमी कर सकते हैं।
कृषि की विभिन्न तकनीकों, ऊर्जा उपयोग सम्बन्धी उनके सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं एवं न्यूनतम ऊर्जा उपयोग एवं कुल ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने हेतु उनके उचित समायोजन का वर्णन नीचे दिया जा रहा हैः
संरक्षण कृषि (कंजर्वेशन एग्रीकल्चर) व मृदा कार्बन स्तर में वृद्धि
पर्यावरण की कार्बन डाइऑक्साइड कम करने हेतु आज इसकी अधिकाधिक मात्रा को मृदा कार्बन के रूप में संचित करने की आवश्यकता है। मृदा कार्बन का फसलोत्पादन में तो महत्व है ही, साथ-साथ पर्यावरण की दृष्टि से इसका महत्व 40 से 70 गुना अधिक होता है।
परम्परागत तरीकों से होने वाली भू-परिष्करण में नियमित रूप से अधिकाधिक मशीनों और ऊर्जा का उपयोग होता है और यह माना जाता है कि मृदा की तैयारी जितनी ज्यादा होगी, उत्पादन उतना ही अधिक होगा। परन्तु अधिक कर्षण क्रियाओं के प्रयोग से मृदा में उपस्थित कार्बन की अधिकाधिक मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में मुक्त होकर वातावरण में इसकी मात्रा बढ़ा देती है। भू-परिष्करण क्रियाओं में अप्रत्यक्ष रूप से खर्च होने वाली ऊर्जा में कृषि यन्त्रों के निर्माण एवं रखरखाव आदि शामिल हैं।
एक अध्ययन के अनुसार, कृषि यन्त्रों के निर्माण एवं रखरखाव पर खर्च होने वाली ऊर्जा, एक औसत यन्त्रीकृत प्रति एकड़ फार्म पर खर्च होने वाली कुल ऊर्जा की आधी होती है। इसके अलावा अत्यधिक भू-परिष्करण मृदा कटाव को भी बढ़ावा देता है, जिसके प्रबन्धन हेतु अतिरिक्त ऊर्जा खर्च होती है। संरक्षण कृषि के अन्तर्गत हम कृषि में उपयागे किए जाने वाले संसाधनों (फसल उत्पादन व सुरक्षा हेतु) के न्यूनतम उपयोग के द्वारा ही अधिकतम उत्पादकता प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार कृषि क्रियाओं पर कम संसाधन खर्च व ऊर्जा प्रयोग होने से पर्यावरण को होने वाले नुकसान में कमी आती है। न्यूनतम भू-परिष्करण और शून्य कर्षण के द्वारा हम फसलोत्पादन पर होने वाले खर्च को कम कर सकते हैं। साथ-ही-साथ कम पेट्रोलियम जलने से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी कम होता है। शून्य कर्षण के उपरान्त बोई गई फसलों में मृदा नमी का संरक्षण अधिक होता है।
सिंचाई के लिए पानी की मात्रा अपेक्षाकृत कम लगती है और मृदा क्षरण भी कम होता है। इसके अलावा कई तरह के खरपतवारों, जैसे गेहूं के रोग फलेरिस माइनर के प्रकोप में कमी आती है। शून्य कर्षण अपनाने से मृदा कार्बन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार संरक्षण क्रियाएँ सही मायने में ग्रीनहाउस प्रभाव कम करने में उपयोगी सिद्ध होंगी।
आज गेहूँ व धान के अलावा चना, मटर, मसूर, सरसो व अलसी जैसी फसलों का उचित उत्पादन हम शून्य कर्षण के माध्यम से सफलतापूर्वक ले सकते हैं। शाकनाशी रसायनों द्वारा खरपतवार नियन्त्रण की उन्नत तकनीकों ने खेती की न्यूनतम जुताई के प्रयोग को और आसान बना दिया है।
धान व गेहूँ की कटाई के उपरान्त खेत में पड़े हुए जैव ढेर पर भी आज उन्नत तरीके वाली नगण्य जुताई कर बुवाई करने वाली मशीनें अच्छी तरह चल सकती हैं और बुआई का कार्य बिना किसी बाधा के सम्पन्न कर सकती हैं। इस प्रकार हम इन जैव ढेरों को जलाए बिना ही अगली फसल ले सकते हैं और मृदा कार्बन की मात्रा में वृद्धि करके वातावरण में उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को कम कर सकते हैं।
न्यूनतम जुताई विधि एवं परम्परागत जुताई विधि का चक्रीय (एक के बाद एक) उपयोग करके हम कुल खर्च होने वाली ऊर्जा में बचत करके वातावरण को होने वाले नुकसान से बचा सकते हैं। इसके अलावा हमें फल कीटों, रोगकारकों व खरपतवारों के प्राकृतिक शत्रुओं के संरक्षण के तरीकों को भी अपनाना होगा ताकि रसायनों का प्रयोग कम-से-कम करना पड़े और कृषि जैव-विविधता भी उचित स्तर तक बनी रहे।
बहु-सूक्ष्मजीवी कल्चर (पाॅलीमाइक्रोबियल- कल्चर) के उपयोग (जिसमें मृदा उत्पादकता व पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने वाले जैसे राइजोबियम, माइकोराइजा, पादप वृद्धि प्रवर्तक सूक्ष्म जीवों इत्यादि और फसल शत्रु नियन्त्रक जैसे कीटनाशी, कवकनाशी, खरपतवारनाशी, सूत्रकृमिनाशी सूक्ष्मजीवों) को बढ़ावा देकर संरक्षण कृषि को और अधिक उत्पादक व टिकाऊ बनाया जा सकता है।
सिंचाई जल का समुचित उपयोग एवं संरक्षण
सिंचाई जल का उचित समय पर व उचित विधियों द्वारा उपयोग करके हम इस पर खर्च होने वाली अनावश्यक ऊर्जा को कम कर सकते हैं। बागानों व चौड़ी लाइनों में बोई गई फसलों में ड्रिप सिंचाई पद्धति को अपनाकर उपलब्ध सिंचाई जल का समुचित उपयोग किया जा सकता है। लेजर लेवलर के प्रयोग से मृदा-ढाल को सुव्यवस्थित करके सिंचाई जल का समुचित उपयोग व संरक्षण किया जा सकता है।
रासायनिक कृषि पर नियन्त्रण व उचित तकनीकों का उपयोग
हरित क्रान्ति के पश्चात लगभग पूरे विश्व में कृषि का रसायनीकरण हो गया है, जिससे आज मृदा उत्पादकता में कमी व स्थिरता के साथ-साथ जैवनाशी प्रतिरोधी कीटों, रोगकारकों व खरपतवारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। इनका मुख्य कारण मृदा उत्पादकता व फसल शत्रुओं को नियन्त्रित करने वाली पारिस्थितिकीय व्यवस्था का नष्ट होना है। अतः आज विश्वस्तर पर कृषि में रसायनों के न्यायोचित उपयोग के लिए व्यापक जनजागरुकता लाने की नितान्त आवश्यकता है।
आज हमें जैविक उर्वरकों व मृदा उत्पादकता को बढ़ाने वाले प्राकृतिक संसाधनों का व्यापक स्तर पर उपयोग करना होगा। फसलों की कीट व रोगरोधी किस्मों व खरपतवारों को दबाने वाली प्रजातियों के विकास व उपयोग पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके अलावा फल कीटों, रोगकारकों व खरपतवारों के जैविक नियन्त्रण को व्यापक रूप दिया जाना चाहिए।
पूर्व में शाकनाशियों का प्रयोग ज्यादा मात्रा में तथा फसलों की बुवाई के समय या फिर उगने से पूर्व किया जाता था। इनसे आवश्यक नियन्त्रण न मिलने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी ज्यादा होता था। परन्तु वर्तमान समय में विकसित ‘स्मार्ट शाकनाशी’ जिनका बहुत ही कम मात्रा में (4-100 ग्राम प्रति हेक्टेयर) उपयोग होता है, इन समस्याओं को कम करने में प्रभावी पाए गए हैं। इनके अकेले या मिश्रित प्रयोग से कई तरह के खरपतवारों का नियन्त्रण होता है तथा पर्यावरण प्रदूषण भी कम होता है।
खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके इस प्रकार उगाना चाहिए जिससे मृदा की उर्वरता बनी रहे तथा किसी एक तरह के खरपतवारों, बीमारी व कीड़े की निरन्तर बढ़ोतरी न हो पाए। इसके अलावा मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में भी फल चक्र सहयोगी होता है। मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में अरहर, कपास, सेन्ना जैसी गहरी जड़ वाली फलों के साथ फसल चक्र अधिक प्रभावी होगा। फसल चक्र में जैविक-नाईट्रोजन-स्थिरीकरण करने वाली दलहनी फसलों के समावेश से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम करना पड़ेगा और मृदा कार्बन स्तर में भी वृद्धि होगी।क्लोडिनाफाप, फेनाग्जाप्राप, क्लोरीम्यूराॅन, कारफेंट्राजोन, मेटसल्फ्यूरान, अलमिक्स आदि इन्हीं शाकनाशियों के प्रकार हैं। तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय में आजकल नैनोहर्बीसाइड्स (अतिसूक्ष्म शाकनाशी) के विकास पर परियोजना चल रही है। आशा है कि भविष्य में ये नैनोहर्बीसाइड्स अति सूक्ष्म मात्रा में खरपतवारों के सटीक नियन्त्रण हेतु प्रयोग में आने लगेंगे।
उचित बीज शोधन को अपनाकर हम कई फल व्याधियों व कीड़ों का नियन्त्रण कम रसायनों के उपयोग से ही कर सकते हैं और वातावरण और फलोत्पादन को होने वाले नुकसान कम कर सकते हैं।
कृषि वानिकी व उद्यानिकी को बढ़ावा
उचित कृषि वानिकी व उद्यानिकी पद्धतियों से खेती करके हम वांछित फलोत्पादन के अतिरिक्त वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड की भारी मात्रा को वन व फल वृक्षों के माध्यम से संचित कर सकते है। इसके अतरिक्त उपयोगी फर्नीचर व निर्माण कार्य हेतु लकड़ी की उपलब्धता होने से जंगलों के ऊपर उपयोगी लकड़ियों के लिए दबाव कम पड़ेगा। फल वृक्षों के अधिकाधिक रोपण से हमें खाद्य फलों के अलावा ग्रीनहाउस प्रभाव को कम करने में भी मदद मिलेगी।
इसके अलावा क्षेत्रीय मौसम को ठण्डा रखने, मृदा क्षरण रोकने व प्रदूषण कम करने में भी मदद मिलेगी। लवणीय व उसर भूमि पर उसर-सहनशील फल व वन वृक्षों के रोपण द्वारा इन समस्याग्रस्त क्षेत्रों की कृषि उत्पादकता को उच्च स्तर तक बढ़ाया जा सकता है।
खरपतवारों के प्रबन्धन पर विशेष ध्यान
फसलोत्पादन में खरपतवार ऐसे लुटेरों की तरह हैं, जो फलों के लिए प्रयोग किए गए पोषक तत्वों व पानी आदि चुरा लेते हैं और सौर प्रकाश व स्थान के लिए भी प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसके अलावा खरपतवार फसलों की कई बीमारियों और कीड़ों को फैलाने के लिए भी जिम्मेदार होते हैं।
फलस्वरूप हमारी फसलें कमजोर हो जाती हैं और हमारे द्वारा प्रयोग किए गए संसाधनों, (पोषक तत्व, दवाओं, पानी इत्यादि) व उन पर खर्च होने वाली ऊर्जा का भारी नुकसान होता है। खरपतवार नियन्त्रण कृषि की बहुत महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं में से है और इसके फलस्वरूप भी अत्यधिक कार्बन डाइऑक्साइड प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वातावरण में उत्सर्जित होती रहती है। खरपतवार नियन्त्रण की विभिन्न विधियों का उचित समायोजन तथा आवश्यकतानुरूप प्रभावी प्रयोग करके हम ऊर्जा की बचत कर वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को कम कर सकते हैं।
मृदा सौर्यीकरण
मूल्यवान फसलों एवं फसल नर्सरी में खरपतवार व मृदा जनित फसल रोगों के नियन्त्रण के लिए यह एक प्रभावी एवं पर्यावरण के लिए मित्रावत विधि है। इस विधि में गर्मियों के दिनों (अप्रैल-मई-जून) में उचित मृदा नमी युक्त तैयार खेत को पारदर्शी पालीइथाइलीन शीट से ढंककर चारों तरफ से सील कर देते हैं। फलस्वरूप अधिकाधिक सौर उर्जा (उष्मा) मिट्टी के अन्दर प्रवेश करके उसका तापमान बढ़ा देती है। जबकि रात के समय यही पालीइथाइलीन शीट मिट्टी की उष्मा को बाहर निकलने से रोकती भी है।
इस प्रकार मृदा का तापमान 50 डिग्री सेंट्रीग्रेड या इससे भी अधिक पहुँच जाता है। लम्बे समय तक उच्च तापमान बने रहने से मृदा में पाए जाने वाली कई प्रजातियों के खरपतवारों के बीज मर जाते हैं। इसके अलावा मृदाजनित रोग फैलाने वाले कई तरह के कवक, निमेटोड तथा जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं। इससे फसलों की वृद्धि और विकास पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
मृदा सौर्यीकरण से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नगण्य होता है और पर्यावरण को कोई विशेष नुकसान नहीं पहुँचता। अतः एकीकृत खरपतवार, बीमारी व कीड़ों के प्रबन्धन में इस विधि को विशेष स्थान दिया जाना चाहिए।
शष्य क्रियात्मक विधियों द्वारा फसलोत्पादन में वृद्धि तथा खरपतवार, रोग व कीट नियन्त्रण
कृषि में शामिल बहुत-सी शष्य क्रियाएँ फलोत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ खरपतवारों, फसल रोग व कीटों के नियन्त्रण में भी काफी सहयोग करती हैं, भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से हमें दिखाई नहीं पड़ता है। कुछ प्रमुख शष्य क्रियाएँ निम्न हैंः
फसल चक्र
किसी एक खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके इस प्रकार उगाना चाहिए जिससे मृदा की उर्वरता बनी रहे तथा किसी एक तरह के खरपतवारों, बीमारी व कीड़े की निरन्तर बढ़ोतरी न हो पाए। इसके अलावा मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में भी फल चक्र सहयोगी होता है। मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में अरहर, कपास, सेन्ना जैसी गहरी जड़ वाली फलों के साथ फसल चक्र अधिक प्रभावी होगा। फसल चक्र में जैविक-नाईट्रोजन-स्थिरीकरण करने वाली दलहनी फसलों के समावेश से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम करना पड़ेगा और मृदा कार्बन स्तर में भी वृद्धि होगी।
अन्तर्वर्ती फसलें
ऐसी फसलें जोकि पंक्तियों में बोई जाती हैं तथा उनकी पंक्ति से पंक्ति की अधिक दूरी में अन्तर्वर्ती फसलों को उगाकर रिक्त पड़े स्थान पर खरपतवारों की वृद्धि को रोका जा सकता है। उदाहरणस्वरूप मक्के की फसल के साथ लोबिया लगाने से मक्के में खरपतवारों की वृद्धि को रोकने के साथ-साथ कुल उत्पादकता में भी वृद्धि होती है। अरहर की पंक्तियों में ज्वार उगाने से अरहर में उकठा रोग कम लगता है। इसके अलावा कुल उत्पादकता में वृद्धि होने से खाद्यान्न उत्पादन हेतु अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता भी कम होती है।
बुआई तिथि में फेरबदल व पौध सघनता
कुछ फलों में जल्दी से बुआई करने और कुछ में देर से करने पर भी खरपतवारों, फल रोगों व कीटों के नियन्त्रण में भी काफी सहयोग मिलता है। कुछ फसलों जैसे गेहूँ की फसल को एक सीमा के अन्दर घना बोने से खरपतवारों की वृद्धि के लिए कम स्थान मिलता है। एक अध्ययन के अनुसार कतार से कतार की दूरी कम करके, फसल की सघनता बढ़ाकर बुआई करने से खरपतवारों के प्रभावी नियन्त्रण के साथ-साथ उपज में 15 प्रतिशत तक की वृद्धि पाई गई है और यहाँ पर शाकनाशियों का उपयोग भी न्यूनतम मात्रा में करना पड़ता है।
मृदा बिछावन (मल्चिंग) व फसलें
वर्तमान में वातावरण की कार्बन डाइआॅक्साइड को कम करने हेतु मृदा में कार्बन की अधिक-से-अधिक मात्रा को संरक्षित करने पर ज्यादा शोर दिया जा रहा है। कतार में बोई गई फसलों में मृदा बिछावन (जीवित फसलें या मृत जैव ढेर) के समुचित प्रयोग से खरपतवार नियन्त्रण के साथ-साथ फसलों की मृदा जनित बीमारियों में कमी, मृदा उत्पादकता में वृद्धि तथा वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को कम करने में काफी सहयोग मिलता है। मृदा बिछावन के लिए हरी खाद, रूँधने वाली या स्मूदर फसलें, जीवित बिछावन (कुछ अंतर्वर्ती फसलें जैसे लोबिया, मूँग इत्यादि), विभिन्न फसलों के अवशिष्ट जैव ढेर (भूसा, पुवाल इत्यादि) व पेपर आदि का प्रयोग किया जाता है।
ग्रीनहाउस प्रभाव को रोकने के लिए जैव ईंधन फसलें जैसे जटरोफा, मीठा ज्वार व मक्का इत्यादि के उपयोग की काफी सम्भावनाएँ हैं। ये फसलें पहले तो वातावरण की कार्बन डाइऑक्साइड को संचित करके जैव ईंधन बनाने में उपयोग की जाएँगी, तत्पश्चात इन्हें अकेले या पेट्रोलियम के साथ मिश्रित रूप से जलाया जाएगा और विभिन्न ऊर्जा कार्यों के लिए उपयोग किया जाएगा। इस प्रकार वातावरण में अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नहीं होगा जबकि जीवाश्म ईंधन जलाने से मृदा के गर्भ में संचित कार्बन वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को केवल बढ़ाता ही है।उपर्युक्त शष्य क्रियाओं में हमें अधिक अतिरिक्त ऊर्जा खर्च किए बिना ही अधिक फसलोत्पादन व कई तरह के खरपतवारों, फल रोग व कीटों का नियन्त्रण प्राप्त होता है तथा कार्बन की अधिक-से-अधिक मात्रा मृदा में संरक्षित करने में मदद मिलती है।
उचित पोषक तत्व प्रबन्धन व जल निकास
फलों में पोषक तत्वों का उचित प्रबन्धन करना होगा जिससे उपयोग किए गए नाईट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि पौधों को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध हो सके और नाइट्रस आॅक्साइड के रूप में उत्सर्जन कम-से-कम हो सके। उचित जल निकास प्रबन्धन की व्यवस्था करके मृदा से मिथेन और नाइट्रस आॅक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।
विदेशी खरपतवारों का नियन्त्रण
जैविक नियन्त्रण, खरपतवार नियन्त्रण का एक प्रकृति प्रदत्त तरीका है जिससे पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में भी मदद मिलेगी। इस विधि में किसी खरपतवार के कुछ विशिष्ट प्राकृतिक शत्रुओं (जैसे परजीवी कीड़े, रोगकारक कवक, जीवाणु आदि) के उपयोग द्वारा इसे नष्ट किया जाता है। विश्व स्तर पर आक्रामक विदेशी खरपतवारों के नियन्त्रण हेतु, इस विधि का सफलतापूर्वक उपयोग किया जा रहा है। भारत में भी गाजरघास (पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस) के नियन्त्रण हेतु मेक्सिको से आयातित जाइगोग्रामा बाईकोलोराटा नामक भृंग कीट का वृहद स्तर पर उपयोग हो रहा है। इसके अलावा मिकानिया माइक्रेन्था नामक खरपतवार, जोकि भारत के दक्षिण-पश्चिम घाट एवं असम के जंगलों में काफी आक्रामक हो चुका है, के नियन्त्रण हेतु पक्सीनिया स्पेगैजिनी नामक गेरुआ रोग फैलाने वाले कवक को हाल के वर्षों में छोड़ा गया है।
अन्तर्वर्ती फसलों की खेती को बढ़ावा भूसा-पुआल जलाने पर पूर्ण प्रतिबन्ध जरूरी अन्य विदशी आक्रामक खरपतवारों जैसे लैंटाना केमरा केमरा, क्रोमोलिना ओडोरेटा आदि के जैविक नियन्त्रण हेतु प्रयास जारी हैं। कुछ प्रमुख विदेशी खरपतवारों जैसे कि गाजरघास, लैंटाना केमरा एवं जलकुम्भी (आईकार्निया क्रेसिप्स) आज भारत के अधिकांश भू-भाग पर खतरनाक स्तर तक फैलकर यहाँ की उत्पादकता को कम कर रहे हैं। और पारिस्थितिकी तन्त्र के लिए भी खतरा बन गए हैं।
यदि इन खरपतवारों के नियन्त्रण हेतु हम यान्त्रिक व रासायनिक विधियों का प्रयोग करते हैं तो करोड़ों रुपए खर्च के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में भारी वृद्धि होगी। अतः इन आक्रामक जैव-आतंकियों के नियन्त्रण अधिकाधिक मात्रा में उनके परजीवी कीड़ों व रोगकारकों को आयात करने की तत्काल आवश्यकता है।
फसल शत्रुओं का नियन्त्रण
आज द्रुत गति से बढ़ रहे अन्तरराष्ट्रीय व्यापारिक आवागमन के कारण सारा संसार एक वैश्विक गाँव के रूप में सिमट गया है। इन बढ़ी हुई आवागमन गतिविधियों के कारण बहुत सारे जीवों का उनके उत्पत्ति स्थान से निकलकर नए देशों या क्षेत्रों में पहुँचने की सम्भावना भी बढ़ गई है। खरपतवार, फसल रोगकारक व कीट इन्हीं जीवों में से कुछ प्रमुख हैं। कालांतर में इन्हीं फल शत्रुओं में से कुछ अपने नए निवास स्थान या देश में कब्जा जमाकर एक जैविक आतंक का रूप ले सकते हैं।
उदाहरण स्वरूप गेहूँ का मामा (फैलेरिस माइनर), लैंटाना केमरा, जलकुम्भी (आईकार्निया क्रेसिप्स) आदि विदेशी उत्पत्ति वाले खरपतवारों ने आज हमारे देश में भारी आतंक मचा रखा है और इनका सम्पूर्ण नियन्त्रण असम्भव-सा हो गया है। गेहूँ के लिए ‘यूजी 99’ नामक नए काला गेरुआ (किट्ट) कवक का हमारे देश में आने का खतरा बना हुआ है। अतः आज हमें अपने प्रमुख व्यापारिक केन्द्रों पर अपनी वैधानिक नियन्त्रण व्यवस्था को और चुस्त-दुरुस्त करने की जरूरत है, जिससे कि इस तरह के अवांछित जैविक फैलाव को रोका जा सके।
इसके अलावा नए सम्भावित रोगकारकों व फल कीड़ों के विभेदों के प्रबन्धन हेतु हमें पहले से ही रणनीति बनानी होगी। इस प्रकार भविष्य में इन सम्भावित विदेशी आक्रामक जीवों के नियन्त्रण हेतु हमें अतिरिक्त ऊर्जा खर्च नहीं करनी पड़ेगी और हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा।
जैव ईंधन फसलों की खेती को बढ़ावा
ग्रीनहाउस प्रभाव को रोकने के लिए जैव ईंधन (बायो फ्यूल) फसलें जैसे जटरोफा, मीठा ज्वार व मक्का इत्यादि के उपयोग की काफी सम्भावनाएँ हैं। ये फसलें पहले तो वातावरण की कार्बन डाइऑक्साइड को संचित करके जैव ईंधन बनाने में उपयोग की जाएँगी, तत्पश्चात इन्हें अकेले या पेट्रोलियम के साथ मिश्रित रूप से जलाया जाएगा और विभिन्न ऊर्जा कार्यों के लिए उपयोग किया जाएगा। इस प्रकार वातावरण में अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नहीं होगा जबकि जीवाश्म ईंधन (पेट्रोल, कोयला इत्यादि) जलाने से मृदा के गर्भ में संचित कार्बन वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को केवल बढ़ाता ही है। जैव ईंधन के लिए कुछ ऐसी फसलों या खरपतवारों का उपयोग ज्यादा लाभकारी होगा जो खाद, पानी व दवाओं के प्रयोग के बिना ही अनुपयोगी भूमि (बंजर भूमि, ऊसर भूमि, नदियों का कछार इत्यादि) पर आसानी से उगाए जा सकें व बार-बार उत्पादन देते रहें। इस विषय पर नए सिरे से योजना बनाने की आवश्यकता है।
धान की कृषि पद्धति में सुधार द्वारा मिथेन उत्सर्जन में कमी
वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कुल मिथेन का ज्यादातर भाग ‘जलभराव रोपण पद्धति’ वाले धान के खेतों से ही निकलती है। धान का उत्पादन यदि सीधी बुआई वाली एयरोबिक पद्धति से करें तो मिथेन का उत्सर्जन काफी कम हो जाता है। इस विधि में तैयार खेत में धान की सीधी बुआई करते हैं तथा खेत में उचित हवा व नमी बनाए रखने के लिए इतनी सिंचाई करते हैं कि मिट्टी केवल गीली बनी रहे और पानी का ठहराव न हो। परन्तु इस पद्धति की एक मुख्य समस्या खरपतवारों की है जिनसे धान की फसल को काफी नुकसान होता है।
कम मात्रा में प्रयोग होने वाले नए जमाने के स्मार्ट शाकनाशियों पर आधारित एकीकृत खरपतवार नियन्त्रण प्रणाली को अपनाकर इस समस्या से निजात पाया जा सकता है तथा एयरोबिक पद्धति से धान उत्पादन को प्रोत्साहित करके, मिथेन उत्सर्जन को काफी कम किया जा सकता है। इसके अलावा कम मिथेन उत्सर्जन करने वाली धान की प्रजातियों के विकास की सम्भावनाएं भी तलाशनी होंगी।
भूसा-पुआल प्रबन्धन द्वारा कार्बन डाइआॅक्साइड उत्सर्जन में कमी
धान तथा गेहूँ के खेतों से विशाल मात्रा में पुआल तथा भूसा पैदा होता है। इनका प्रबन्धन यदि उचित तरीके से न किया जाए तो पर्यावरण को भारी नुकसान होते हैं। आजकल कम्बाइन द्वारा कटाई के पश्चात् खेत में बचे हुए जैव ढेर को जलाने की परम्परा बढ़ती जा रही है जिसके परिणामस्वरूप भारी मात्रा में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन होता है।
एक अध्ययन के अनुसार पंजाब में भारी मात्रा में जैव ढेर (भूसा या पुआल) जलाने से उत्तर भारत के विशाल वातावरणीय भाग पर धुन्ध-सा बन जाता है जो वातावरण की गर्मी में वृद्धि करता है। जैव ढेर को जलाने से भारी मात्रा में निकला हुआ धुआँ मनुष्यों तथा पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी घातक होता है। इसके अलावा भारी मात्रा में उपलब्ध सम्भावित पोषक तत्वों (नाईट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि) का नुकसान भी होता है। यह प्रचलन पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही घातक है और इस पर पूर्ण प्रतिबन्ध के साथ-साथ व्यापक जनजागरुकता लाने की भी आवश्यकता है।
यदि भूसा तथा पुआल को एकत्र करके इसका उपयोग व खाद बनाने, मशरूम उत्पादन, बागानों व खेतों में बिछावन (मल्च आदि) में प्रयोग करें तो कुल उत्पादकता में वृद्धि होगी और पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा। उचित बिछावन (मल्चिंग) के तरीकों को अपनाकर खेतों तथा बागानों में खरपतवारों के प्रकोप को भी कम किया जा सकता है। जहाँ तक सम्भव हो सके, रोपण पद्धति से उगाए जाने वाले धान के खेत में उचित तरीके से सड़ी हुई खाद ही मिलाएँ तथा बिना सड़ा हुआ जैव ढेर (भूसा, पुआल आदि) बिल्कुल न छोड़ें। इससे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में काफी कमी आती है।
सारांश
आज की तेज रफ्तार जिन्दगी और अनियन्त्रित विकास के कारण हमारा पर्यावरण एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर पहुँच गया है, जिसका दुष्परिणाम या तो कई रूपों में हमें भोगना पड़ रहा है या भविष्य में सम्पूर्ण विश्व पर कहर बनकर टूटने वाला है।
अतः आज जीवन के हर क्षेत्र में हमें अनावश्यक ऊर्जा खर्च को रोककर नियन्त्रित, टिकाऊ व सदाबहार विकास को आगे ले जाना है जिससे पर्यावरण के साथ-साथ हमारा भी भविष्य सुरक्षित रहे।
लेखक खरपतवार विज्ञान अनुसन्धान निदेशालय, जबलपुर में वैज्ञानिक हैं।
ई-मेल: chandrabhanu21@gmail.com