लेखक
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये 197 देशों द्वारा सहमति से किये गए पेरिस समझौते पर पूर्व अमेरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हस्ताक्षर किये थे। लेकिन जून 2017 में ट्रंप ने इस समझौते से अलग होने की घोषणा कर सारी दुनिया को हैरत में डाल दिया था। 2015 में पेरिस में किये गए इस ऐतिहासिक समझौते के तहत दुनिया के 197 देशों ने 2030 तक अपने यहाँ कार्बन उत्सर्जन को कम करने की सौगन्ध ली थी। उनका संकल्प था कि वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जा सके।
बढ़ता तापमान आज एक ऐसी अनसुलझी पहेली है जिससे हमारा देश ही नहीं, वरन समूची दुनिया जूझ रही है। जबकि इस समस्या से निपटने के लिये समूची दुनिया के देश अपने-अपने स्तर से भरपूर कोशिशें कर रहे हैं लेकिन असलियत यह है कि उनके द्वारा की गई लाख कोशिशों के बावजूद कामयाबी उनसे कोसों दूर है।गौरतलब यह है कि इसके पीछे जो सबसे अहम कारण है वह दुनिया के देशों द्वारा किया जा रहा अनियंत्रित औद्योगिक विकास और सुख-संसाधनों की चाहत की अंधी दौड़ है जिसने इस समस्या को विकराल बनाने में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया है। वह बात दीगर है कि इसके समाधान की दिशा में बहुतेरी कोशिशें की गई हैं, सभा-सम्मेलन, बैठकें भी की गई हैं लेकिन दुख इस बात का है कि अभी तक इस दिशा में कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ सका है। प्रयासों के मामले में कोई कोर-कसर भी नहीं बाकी रखी गई है।
कोपेनहेगन, दोहा, कानकुन, वारसा आदि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर किये गए सम्मेलन भी इस मामले में कुछ खास कर पाने में नाकाम रहे। जबकि पेरिस सम्मेलन से एक आस बँधी थी कि इसके बाद कुछ बदलाव आएगा लेकिन अमेरीका की अड़गेबाजी ने इस कोशश पर पानी फेर दिया। इसके बावजूद विश्व समुदाय अपनी कोशिशें जारी रखे हुए हैं।
अमेरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि मैं पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने को तैयार हूँ बशर्ते पेरिस जलवायु समझौते में भारी फेरबदल किया जाये। अमेरीकी राष्ट्रपति ने बीते दिनों ब्रिटेन के एक चैनल से साक्षात्कार में कहा कि हमारे लिये पेरिस समझौता भयानक हो सकता था। अगर वे अच्छा समझौता करें तो इसमें वापस आने की हमेशा सम्भावना है। अगर कोई कहता है कि पेरिस समझौते को स्वीकार करो तो इसे बिलकुल अलग समझौता होना होगा क्योंकि यह एक भयानक समझौता था। ट्रंप के अनुसार पेरिस समझौता अमेरीकी अर्थव्यवस्था के लिये बेहद खराब था।
गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये 197 देशों द्वारा सहमति से किये गए पेरिस समझौते पर पूर्व अमेरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हस्ताक्षर किये थे। लेकिन जून 2017 में ट्रंप ने इस समझौते से अलग होने की घोषणा कर सारी दुनिया को हैरत में डाल दिया था। 2015 में पेरिस में किये गए इस ऐतिहासिक समझौते के तहत दुनिया के 197 देशों ने 2030 तक अपने यहाँ कार्बन उत्सर्जन को कम करने की सौगन्ध ली थी। उनका संकल्प था कि वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जा सके। अभी तक अमेरीका एकमात्र ऐसा देश है जो इस करार का हिस्सा नहीं है।
बीते दिनों भारत दौरे पर आये फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युएल मैक्रॉन ने अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबन्धन आईएसए को वास्तविक बनाने के लिये भारत एवं अन्य देशों की सराहना की और कहा कि भले कुछ देश पेरिस जलवायु सम्मेलन से पीछे हटने की बात करें लेकिन इस दिशा में यह एक अच्छा प्रयास है। उन्होंने आईएसए के स्थापना सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा कि दो साल पहले आईएसए मात्र एक विचार था और अब हम सबने इस पर तेजी से काम करने का निर्णय लिया है। यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन है। उन्होंने आईएसए को मूर्त रूप देने हेतु प्रधानमंत्री मोदी की सराहना की और आशा व्यक्त की कि कार्बन उर्त्सजन कम करने की दिशा में यह गठबन्धन प्रभावी भूमिका निभाएगा। उन्होंने महिला सौर इंजीनियरों के समूह की प्रशंसा की कि उन्होंने प्रतीक्षा नहीं की और अनवरत काम करके पूरे परिणाम भी दिये हैं। उन्होंने पेरिस सम्मेलन से कुछ देशों के हटने के निर्णय से रुके बिना काम को आगे बढ़ाया क्योंकि वे जानती थीं कि सौर ऊर्जा उनके बच्चों और भावी पीढ़ी के लिये कितनी लाभदायी है।
विडम्बना यह है कि इस सबके बावजूद हालात की भयावहता की ओर अभी किसी का ध्यान नहीं है। असलियत में हालात इतने विषम हो गए हैं कि वैश्विक तापमान में दिनोंदिन लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। यह आने वाले दिनों में मुश्किलें और बढ़ाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि धरती का तापमान वर्तमान से दो गुना और बढ़ गया तो धरती का एक चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगा। सूखा पड़ेगा नतीजतन दुनिया भर में तकरीब 150 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। इसका सबसे ज्यादा असर भारत समेत दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण यूरोप, मध्य अमेरीका व दक्षिण ऑस्ट्रेलिया पर पड़ेगा।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक वैज्ञानक शोध ने यह खुलासा किया है कि हालात बद-से-बदतर होते जा रहे हैं। ईस्ट एंजिलिया स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंटल साइंस के प्रोफेसर मनोज जोशी का कहना है कि अगर धरती का तापमान दो डिग्री बढ़ गया तो इसमें सन्देह नहीं है कि ये हालात दुनिया के 20-30 फीसदी हिस्से को सूखा बना देगा। यही नहीं ब्रिटेन की यूनीवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंजिलिया और चीन की सदर्न यूनीवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी का एक अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि तापमान में बढ़ोत्तरी से धरती पर सूखा तो पड़ेगा ही, साथ ही जंगलों में आग लगने की घटनाओं में भी बढ़ोत्तरी होगी।
वहीं संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से हुए एक अध्ययन में किया गया खुलासा कम चौंकाने वाला नहीं है। वह यह कि दुनिया की पर्याप्त या अच्छी गुणवत्ता वाली खेतिहर जमीन धीरे-धीरे बंजर होने की ओर बढ़ रही है। धरती की सेहत बिगड़ने की यह दर उपजाऊ मिट्टी के निर्माण से तकरीब सौ गुणा अधिक है। दुनिया में बीते चार दशकों में धरती की एक तिहाई जमीन की उर्वरा शक्ति कम हुई है
विशेषज्ञ और वैज्ञानिक इस खतरे के प्रति चेतावनी देते हुए कह रहे हैं कि यदि इसे नहीं रोका गया तो आने वाले समय में दुनिया की बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिये खेती के अलावा दूसरे संसाधनों पर निर्भरता बढ़ेगी। इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। आने वाले 32 सालों में दक्षिण एशिया, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका को इस चुनौती का गम्भीरता से सामना करना होगा। उस हालत में 2050 में वर्तमान की तुलना में जिस रफ्तार में आबादी बढ़ रही है, डेढ़ गुना अधिक अनाज की जरूरत होगी।
देखा जाये तो 40 साल बाद दुनिया की तत्कालीन आबादी का पेट भरने के लिये 50 फीसदी ज्यादा भोजन की जरूरत होगी जो कि दुनिया में एक अनुमान के अनुसार मौजूदा बंजर खत्म होने में कम-से-कम दो सौ साल लगेंगे। कारण जिस तेजी से जमीन अपने गुण खोती जा रही है उसे देखते हुए अनुपजाऊ जमीन ढाई गुणा से अधिक बढ़ जाएगी।
भारत में स्थिति तब और बिगड़ेगी जबकि बीते साल देश के 53 फीसदी हिस्से यानी 630 जिलों में से 233 में 2016 के मुकाबले औसत से कम बारिश हुई है। इसका खामियाजा लगातार तीन सालों से सूखे का सामना कर रहे तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल को ज्यादा उठाना पड़ेगा। इससे पहले से मौजूद सूखे के संकट में और इजाफा होगा। इससे खाद्यान्न प्रभावित होगा और अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
जरूरत इस बात की है और समय की माँग भी कि दुनिया के देश भावी खतरे की गम्भीरता को पहचानें और दुनिया के वैज्ञानिकों की चेतावनियों को ध्यान में रख यदि तापमान में बढ़ोत्तरी की दर को 1.5 डिग्री तक सीमित करने में कामयाब रहे तो पृथ्वी पर तेजी से हो रहे बदलावों में निश्चित ही कमी आएगी। उसी दशा में धरती और मानव जीवन को विनाश से बचाया जा सकता है।