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नमामि गंगे परियोजनाओं के तहत 97 शहर गंगा की मुख्यधारा के किनारे चिन्हित किये गए हैं। इन शहरों की 1584 जल-मल शोधन क्षमता है जबकि 1525 एमएलडी जल-मल शोधन परियोजनाओं में से केवल 56 शहरों में 889 परियोजनाएँ पहले चरण में हैं। जबकि असल में गंगा में रोजाना 12000 मिलियन लीटर प्रदूषित मल-जल उत्सर्जित होता है लेकिन 4000 मिलियन लीटर ही का शोधन हो पाता है। जहाँ तक ऑनलाइन प्रदूषण निगरानी संयंत्र लगनेे का सवाल है, वह काम भी फाइलों में ही उलझा है। गंगा जिसे समूची दुनिया में पतितपावनी, पुण्यसलिला,, मोक्षदायिनी नदी के रूप में जाना जाता है, उसके जल को आस्थावान हिन्दू लोग प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग करते हैं, उसके जल को पुण्य का सबब माना जाता था, वह आज आचमन के योग्य भी नहीं रह गया है। इसका सबसे बड़ा और अहम कारण प्रदूषण है।
असलियत में आज गंगा की प्रदूषण मुक्ति का सवाल ही सबसे अहम है। क्योंकि यह नमामि गंगे परियोजना केन्द्र सरकार ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सबसे बड़ी प्राथमिकता वाली महत्त्वपूर्ण परियोजना है। वह बात दीगर है कि पहले यह परियोजना बीस हजार करोड़ की थी लेकिन समय बीतने के साथ-साथ इसकी लागत में दिन-ब-दिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है।
गौरतलब है कि इस योजना पर केन्द्र सरकार के सात मंत्रालयों की साख दाँव पर लगी है। इसके बावजूद गंगा सरकार की ही मानें तो हरिद्वार के बाद इतनी मैली है कि उसमें स्नान करना जानलेवा बीमारियों को बुलाना है। वैज्ञानिक परीक्षण तक इसकी पुष्टि कर चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है।
भले सरकार यह दावा करते नहीं थकती कि देवभूमि उत्तराखण्ड में गंगा के उद्गम स्थल गंगोत्री से ऋषिकेश तक गंगा जल की ए श्रेणी की गुणवत्ता बरकरार है और उत्तराखण्ड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार तीर्थाटन और पर्यटन की दृष्टि से लक्ष्मण झूला तक गंगा जल पीने योग्य है। वह बात दीगर है कि ऋषिकेश से आगे यानी राज्य की सीमा तक गंगा का पानी बी श्रेणी यानी सिर्फ नहाने लायक ही है। पीने लायक वह भी नहीं।
देखा जाये तो यह दावा किया जा रहा है कि अब नमामि गंगे परियोजना का असर दिखने लगा है जबकि हकीकत इससे कोसों दूर है। हकीकत यह है कि एनजीटी के आदेश के बावजूद उत्तराखण्ड में गंगा लगातार मैली हो रही है। पुण्यसलिला नदी गंगा में तकरीब 40 एमएलडी गैरशोधित सीवेज रोजाना धर्मनगरी हरिद्वार में बहाया जा रहा है। इसका खुलासा एनजीटी द्वारा गठित संयुक्त समिति सीवेज शोधन प्लांट के मुआयना करने के बाद बीते दिनों कर चुकी है।
सौंग नदी के अलावा अन्य नदी-नाले भी बेरोकटोक गंगा में गिर रहे हैं। उनके रोकने के बाबत कोई प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। नतीजतन गंगा में गन्दगी बरकरार है। यह तो गंगा के मायके की हालत है। आगे तो हालात और खराब हैं। बिजनौर से वाराणसी और उससे आगे गंगा की बदहाली जगजाहिर है। इस सबके बावजूद सरकार द्वारा गंगा की शुद्धि के दावे बराबर जारी हैं।
गंगा शुद्धि के मामले में यदि यह कहा जाये कि सरकार ने घोषणाओं, वायदों और दावों के मामले में कीर्तिमान बनाया है तो कुछ गलत नहीं होगा। कभी कहा जाता है कि गंगा सामाजिक आन्दोलन से निर्मल की जाएगी, क्योंकि 2525 किलोमीटर में बहती हुई यह जीवनरेखा लाखों लोगों की जिस आदर की हकदार है, उसे सामाजिक एकीकरण से ही हासिल किया जा सकता है। प्रभावी एवं सतत सामुदायिक भागीदारी की कमी गंगा कार्य योजना-एक और दो के ज्यादा सफल नहीं होने का एक प्रमुख कारण है।
सामुदायिक भागीदारी के बिना कोई मिशन दीर्घावधि में ठीक तरह से आगे कदापि नहीं बढ़ सकता है। गंगा को साफ करना एक सतत प्रक्रिया है, न कि एक स्थिर प्रक्रिया। इसमें किसी अन्य साधन से अधिक निरन्तर जन सहायता की जरूरत होती है।
लोकसभा में हाल ही में पेश जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगस्त 2016 में शुरू की गई गंगा ग्राम योजना में नदी किनारे गाँवों को खुले में शौच से मुक्त कराना, गाँवों में तरल अपशिष्ट जल को सीधे नदी में बहाने से रोकना और उचित ठोस अपशिष्ट निपटान सुविधाओं का विकास करना था। तो कभी कहा जाता है कि गंगा पहले निर्मल होगी, फिर अविरल की जाएगी।
कभी कहा जा रहा है कि गंगा एक साल में 90 फीसदी स्वच्छ हो जाएगी, फिर कहा जाता है कि गंगा में दूषित पानी जाने से रोकने के लिये और शोधित जल के उपयोग की पहल करने के साथ गंगा पर आश्रित समुदायों की आजीविका बहाल करने के लिये परियोजनाएँ तैयार की जा रही हैं। यदि केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी की मानें तो गंगा सफाई के परिणाम अगले साल यानी मार्च 2019 तक सामने आ जाएँगे।
गंगा शुद्धि के इस मामले में केन्द्रीय सड़क परिवहन, राजमार्ग, जल संसाधन और गंगा संरक्षण मंत्री गडकरी के कथन पर गौर करना बेहद जरूरी है। कारण सरकार की ओर से गंगा शुद्धि का प्रभार अब उन्हीं के पास है। उनके अनुसार गंगा शुद्धि से जुड़ी तकरीब 30 परियोजनाओं पर काम जारी है। विश्व बैंक से भी चार हजार करोड़ की मदद मिली है। कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी जैसे बड़े शहरों के आसपास गंगा को गन्दा करने वाले उद्योगों को वाटर रिसाइकिलिंग करने के लिये प्रोत्साहित किया जा रहा है।
कानपुर में टेनरियों के गन्दे पानी के व्यावसायिक इस्तेमाल किये जाने के प्रयास किये जा रहे हैं। इस बाबत बात की जा रही है। गंगा किनारे पावर प्रोजेक्ट को लेकर ऊर्जा मंत्रालय से बातचीत जारी है। गंगा को अविरल एवं निर्मल बनाने का कार्य प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ाया जा रहा है। नमामि गंगे कार्यक्रम को लेकर अभी तक तकरीब 14,127,49 करोड़ की लागत वाली 97 आधारभूत परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई है। इन पर इसी साल मार्च के आखिर तक काम शुरू होने की उम्मीद है।
जल संसाधन सचिव की मानें तो 42 परियोजनाएँ चल रही हैं और 28 निविदा के विभिन्न चरणों में ही हैं। इससे 1353 एमएलडी की अतिरिक्त मलशोधन क्षमता विकसित होगी। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल की 57 जलशोधन संयंत्रों के काम का आकलन शुरू किया गया है। अतिरिक्त अपशिष्ट जलशोधन क्षेत्र में हाईब्रिड एन्यूटी के आधार पर सार्वजनिक निजी भागीदारी के तहत वाराणसी में 50 एमएलडी क्षमता के मलजल शोधन संयंत्र और हरिद्वार में 42 एमएलडी क्षमता के संयंत्र के काम को बढ़ाया जा रहा है।
बीते दिनों गडकरीजी ने वैश्विक बिजनेस सम्मेलन में कहा कि गंगा सफाई की 41 परियोजनाओं पर काम पूरा हो चुका है और 189 पर काम चल रहा है। गंगा को 10 शहर सबसे ज्यादा प्रदूषित कर रहे हैं। इनमें कानपुर सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।
गंगा साफ सुथरी बने और उसके आसपास का वातावरण भी स्वच्छ और निर्मल बने, इसके लिये गंगा तट पर बहुतायत में पेड़ों का रोपण किया जाएगा। गंगा के विकास पर तकरीब 3000 करोड़ रुपए खर्च करने की प्रतिबद्धता है।
गडकरीजी गंगा में सीधे प्रदूषण को डालने वाले अधिकांश नालों पर एसटीपी शुरू करने की तैयारी में हैं। पाँच राज्यों से गुजरते हुए गंगा में 118 बड़े नाले सीधे गिरते हैं। दरअसल यह 118 नाले ही गंगा में प्रदूषण की असली वजह हैं।
असलियत यह है कि मानसून में बाढ़ व पानी की अधिकता के कारण नदी साफ रहती है। लेकिन उसके बाद नदी में प्रदूषण तेजी से बढ़ता है। इसीलिये एसटीपी की अक्टूबर के बाद बेहद जरूरत होती है। नमामि गंगे परियोजनाओं के तहत 97 शहर गंगा की मुख्यधारा के किनारे चिन्हित किये गए हैं।
इन शहरों की 1584 जल-मल शोधन क्षमता है जबकि 1525 एमएलडी जल-मल शोधन परियोजनाओं में से केवल 56 शहरों में 889 परियोजनाएँ पहले चरण में हैं। जबकि असल में गंगा में रोजाना 12000 मिलियन लीटर प्रदूषित मल-जल उत्सर्जित होता है लेकिन 4000 मिलियन लीटर ही का शोधन हो पाता है। जहाँ तक ऑनलाइन प्रदूषण निगरानी संयंत्र लगनेे का सवाल है, वह काम भी फाइलों में ही उलझा है।
अभी-अभी सरकार ने गंगा को स्वच्छ बनाने के लिये आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का प्रयोग करने का फैसला लिया है। इसकी जिम्मेदारी सरकार ने आईआईटी बीएचयू के प्रोफेसर राजीव संगल को सौंपी है। इस समिति में आईआईटी मद्रास, हैदराबाद सहित इलैक्ट्रॉनिक एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सचिव शामिल हैं।
आईटी मंत्रालय ने प्रयोग के तौर पर चार समितियाँ गठित की हैं। इसमें पहली मॉडल, फ्रेमवर्क प्लेटफार्म और डेटा तैयार करेगी, दूसरी सरकार के राष्ट्रीय मिशन में एआई की भूमिका पर अपनी रिपोर्ट तैयार करेगी, साथ ही गोमुख से लेकर बंगाल की खाड़ी तक स्थित राज्यों से डेटा और विशेषज्ञ तंत्र में एआई का इस्तेमाल कैसे लाभकारी होगा इसका ब्यौरा इकट्ठा करेगी, तीसरी कौशल, पुनः कौशल, शोध और विकास पर काम करेगी तथा चौथी साइबर सुरक्षा, संरक्षण, कानूनी मामले और नैतिकता पर अपनी रिपोर्ट देगी।
इन समितियों को देश-विदेश से सलाह-मशविरा लेने की छूट होगी। अब अहम सवाल तो यह है कि जब अभी समितियाँ गठित की जा रहीं हैं, परियोजनाएँ ही स्वीकृत की जा रही हैं, एसटीपी भी नहीं लगे हैं,, सामुदायिक भागीदारी का काम कब शुरू होगा, गन्दे नालों का गंगा में गिरना कब बन्द होगा, टेनरियों के गन्दे पानी का गंगा में गिरना बन्द कब होगा और उसके इस्तेमाल पर कब निर्णय होगा, परियोजनाओं की निविदाओं पर अभी तक निर्णय ही नहीं हुआ है, गंगा पर जारी परियोजनाएँ कब पूरी होंगी, उनके बारे में मंत्रालयों से जारी बातचीत कब पूरी होगी, गंगा पर आश्रितों की आजीविका बहाली पर निर्णय कब होगा, यह भविष्य के गर्भ में है।
ऐसे हालात में गडकरी जी और योगी आदित्यनाथ की आशानुरूप गंगा की शुद्धि निर्धारित समय में 2019 तक हो पाएगी, यह बेमानी प्रतीत होती है। सरकार के गंगा शुद्धि के दावे देश की जनता को धोखे में रखने के सिवाय और कुछ नहीं हैं।