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वाराणसी में गंगा की जो हालत है, ऐसी पहले कभी नहीं थी। पहले गर्मी के दिनों में गंगा घाटों से दूर होती थी लेकिन अब तो सर्दी के मौसम में ऐसा हो रहा है। जगह-जगह गंगा में गाद है। घाटों के सुधार का दावा भी बेमानी है। घाट के किनारे गंगा काली है। गंगा पहले से और मैली हो गई है। कारण गंगा में गिरने वाले नालों को रोकने में प्रशासन पूरी तरह नाकाम रहा है। गंगा में मैला गिरना अभी तक बन्द नहीं हुआ है। नगवा नाले के पास खड़ा होना तक मुश्किल है। यहाँ गंगा सफाई के नाम पर नौटंकी हो रही है। सच कहा जाये तो गंगा कोमा की ओर बढ़ रही है। आज मोक्षदायिनी गंगा प्रदूषण से खुद मोक्ष पाने की राह देख रही है। कहने को तो गंगा को पुराणों और धर्मशास्त्रों में पतितपावनी और पुण्यसलिला कहा गया है। लेकिन आज चाहे धर्मगुरू हों, सन्त हों या फिर महन्त वह चाहे कितना भी दावा करें लेकिन असलियत यह है आज गंगा न तो मोक्षदायिनी है, न पतितपावनी है और न पुण्यसलिला।
मौजूदा हालात तो इसकी कतई गवाही नहीं देते। मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद और स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व केन्द्र सरकार के मंत्रियों के बयानों-दावों के बाद यह आशा बँधी थी कि गंगा अब साफ हो जाएगी। गंगा सफाई का मुद्दा मोदी सरकार की प्राथमिकता की सूची में सर्वोच्च स्थान पर था। यही प्रमुख कारण रहा कि गंगा की सफाई को लेकर नमामि गंगे योजना अस्तित्व में आई। इस योजना को कामयाब बनाने के लिये केन्द्र सरकार के सात मंत्रालयों को जिम्मेवारी सौंपी गई।
योजना के गठन के उपरान्त तत्कालीन गंगा संरक्षण एवं जल संसाधन मंत्री उमा भारती जी ने कहा था कि गंगा 2018 में साफ हो जाएगी। यही नहीं उन्होंने यह घोषणा भी की थी कि यदि 2018 में गंगा साफ नहीं हुई तो वह जल समाधि ले लेंगी।
सबसे बड़ी बात तो यह कि जब 2014 में लोकसभा चुनाव से पूर्व मोदीजी वाराणसी नामांकन करने आये थे, तब उन्होंने कहा था कि माँ गंगा ने उन्हें बुलाया है। लेकिन उसके बाद वह देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन सबसे बड़ी बिडम्बना कहें या फिर दुख कि आज मोदी सरकार के तीन साल सात माह बाद भी गंगा अपने उसी हाल में है। असलियत तो यह है कि वह पहले से और मैली हो गई है। उसकी बदहाली उसकी जीती-जागती मिसाल है।
गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक की बात छोड़िए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी को ही लें, यहाँ के लोग अब खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। उनका कहना है कि कहने को कुछ भी कहा जाये, दावे कोई कुछ भी करे, असलियत में वाराणसी में गंगा की जो हालत है, ऐसी पहले कभी नहीं थी। पहले गर्मी के दिनों में गंगा घाटों से दूर होती थी लेकिन अब तो सर्दी के मौसम में ऐसा हो रहा है। जगह-जगह गंगा में गाद है। घाटों के सुधार का दावा भी बेमानी है।
घाट के किनारे गंगा काली है। गंगा पहले से और मैली हो गई है। कारण गंगा में गिरने वाले नालों को रोकने में प्रशासन पूरी तरह नाकाम रहा है। गंगा में मैला गिरना अभी तक बन्द नहीं हुआ है। नगवा नाले के पास खड़ा होना तक मुश्किल है। यहाँ गंगा सफाई के नाम पर नौटंकी हो रही है। सच कहा जाये तो गंगा कोमा की ओर बढ़ रही है।
यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं कि वाराणसी से गंगा विलीन ही न हो जाये। नगरवासियों का कहना है कि नमामि गंगे से कितनी बदली गंगा। यह सबके सामने है। जब प्रधानमंत्री के क्षेत्र में गंगा की यह बदहाली है तो उस हालत में 2525 किलोमीटर में गंगा की हालत क्या होगी, इसका सहज अन्दाजा लगया जा सकता है।
अगर गंगाजल की शुद्धता के बारे में उत्तराखण्ड के ऋषिकेश से लेकर पश्चिम बंगाल के बजबज तक का जायजा लें तो पता चलता है कि ऋषिकेश और हरिद्वार को छोड़कर किसी भी जगह गंगा का पानी नहाने लायक तक नहीं है। हालत इतनी खराब है कि हरिद्वार के बाद कहीं भी गंगा में नहाना खतरे से खाली नहीं है।
उत्तर प्रदेश के कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी, बिहार के पटना, मुंगेर और भागलपुर व पश्चिम बंगाल के गयासपुर और बजबज में गंगा के पानी की गुणवत्ता किसी भी स्तर पर मानदण्डों पर खरी नहीं उतरती। कैग की रिपोर्ट इसकी जीती-जागती मिसाल है जिसने देश की जनता के सामने मोदी सरकार के दावों की पोल खोलकर रख दी है। रिपोर्ट की मानें तो अभी तक गंगा सफाई की दीर्घकालिक योजना तक नहीं बन सकी है। निगरानी तंत्र का गठन भी नहीं हो सका है। नदी घाटी प्रबन्धन योजना भी खटाई में है।
एसटीपी परियोजनाओं का काम भगवान भरोसे है। उसमें देरी का कारण एसटीपी चलाने वाले स्थानीय नगर निकायों की लापरवाही अहम है। यहाँ गौरतलब है कि जो स्थानीय नगर निकाय अपना बुनियादी काम तक कर पाने में नाकाम रहते हैं, उनसे गंगा सफाई की उम्मीद बेमानी प्रतीत होती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में नदी संरक्षण क्षेत्र की पहचान अभी तक नहीं की जा सकी है। हाँ इतना जरूर हुआ है कि अपने चहेते कर्मचारियों को वेतन देने के मामले में और प्रचार पर खर्च के मामलों में सभी नियम-कायदों को ताक पर रख दिया गया।
दरअसल एनएमसीजी केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय के अधीन आती है। इस पर ही नमामि गंगे मिशन के क्रियान्वयन का दारोमदार है। इसने प्रचार और अनुबन्ध पर कर्मचारियों की नियुक्ति के मामलों में सरकार के सभी नियम-कानूनों को ताक पर रख एक निजी विज्ञापन एजेंसी के माध्यम से विज्ञापन जारी किये।
नतीजन सरकार को 41 लाख रुपए का घाटा हुआ। यही नहीं सीनियर स्पेशलिस्ट के पदों पर निर्धारित 37,400-67000 वेतनमान की तुलना में कई गुना यानी डेढ़ से दो लाख रुपए पर भर्तियाँ कीं। एनएमसीजी की कारगुजारी का एक और नमूना देखिए। आईआईटी के कंर्सोटियम ने एक ड्रॉफ्ट प्लान बनाया था। उसको एनएमसीजी को विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के पास भेजना था। वह काम भी उसने नहीं किया। न सालाना रिपोर्ट ही एनएमसीजी ने बनाई। गंगा मॉनीटरिंग केन्द्र की स्थापना का सवाल भी लटका हुआ है।
बजट में गंगा सफाई के लिये जो राशि आवंटित की गई थी, वह भी खर्च नहीं की जा सकी। बीते दिनों संसद में पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि 31 मार्च 2017 तक राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन 2133 करोड़ रुपए की राशि खर्च करने में नाकाम रहा है। रिपोर्ट के अनुसार बीते तीन सालों में इस योजना के लिये आम बजट में आवंटित राशि में महज 63 फीसदी धनराशि ही खर्च हुई। बीते दो सालों में नमामि गंगे परियोजना के लिये आवंटित 6705 करोड़ में से राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन केवल 1665.41 करोड़ खर्च कर पाया।
साल 2014-15 में जब प्रधानमंत्री की इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना की शुरुआत हुई थी, तब नमामि गंगे परियोजना के लिये 2137 करोड़ रुपए की धनराशि स्वीकृत हुई, लेकिन गंगा सफाई पर मात्र 170 करोड़ ही खर्च किये गए। 2015-16 में इसके लिये 2750 करोड़ की राशि बजट में आवंटित हुई लेकिन खर्च 602 करोड़ ही हुए। इसी तरह 2016-17 में 2500 करोड़ में से केवल 1062 करोड़ ही खर्च किये गए। साल 2015-16 और 2016-17 के दौरान भी आवंटित राशि का 25 फीसदी भी खर्च नहीं हुआ।
31 मार्च 2015 में मिशन के पास 352.72 करोड़, 31 मार्च 2016 तक 1419.79 करोड़ और 31 मार्च 2017 तक मिशन के पास 2133 करोड़ की राशि बची हुई थी जिसका इस्तेमाल ही नहीं हुआ। सरकार ने जनवरी 2015 में ‘क्लीन गंगा फंड’ बनाया लेकिन उसमें जमा 198.14 करोड़ की धनराशि का कहाँ और कैसे किस तरीके से इस्तेमाल हुआ, इसके बारे में मौन की वजह क्या है, इसका खुलासा आज तक नहीं किया गया है। आखिर क्यों? इसमें भ्रष्टाचार की आशंका को दरगुजर नहीं किया जा सकता। यह लापरवाही और सरकारी मशीनरी की निरंकुशता का ज्वलन्त प्रमाण है। ऐसी हालत में गंगा की सफाई कैसे होगी।
गौरतलब है कि यह हालत तब है जबकि संसाधनों की कोई कमी नहीं है। फिर मिशन की धीमी चाल के लिये कौन जिम्मेवार है। प्रधानमंत्री जी भी मिशन की धीमी चाल पर अपनी नाराजगी व्यक्त कर चुके हैं। इस दौरान उमा भारती जी से गंगा संरक्षण मंत्रालय का दायित्त्व इस आशय से नितिन गडकरी जी को सौंपा गया था कि इस काम में तेजी आएगी।
दुख इस बात का है कि इस पुनीत कार्य में गैर सरकारी संगठन, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन-संस्थाएँ भी सरकार के साथ रहीं। उनके सहयोग को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। मोदी सरकार के कार्यकाल के अब केवल डेढ़ साल बाकी हैं। 2017 बीत चुका है जबकि दावा किया गया था कि 2018 तक गंगा साफ हो जाएगी। लेकिन मौजूदा हालात गंगा की बदहाली की जीती-जागती तस्वीर बयाँ करते हैं।
क्या आने वाले डेढ़ साल में गंगा साफ हो पाएगी। इसकी उम्मीद ना के बराबर है। इसका प्रमुख कारण इस महत्वाकांक्षी परियोजना हेतु एक ठोस नीति का पूर्णतः अभाव रहा। केवल बयानों, घोषणाओं और गंगा सफाई के काम से सम्बन्धित समितियों, अभिकरण के गठन में ही साढ़े तीन साल से अधिक का समय गुजार दिया गया। एनजीटी की लाख कोशिशों के बावजूद गंगा में गिरने वाले औद्योगिक रसायन युक्त अपशिष्ट, कचरे और मलयुक्त गन्दे नालों पर आज तक कोई अंकुश नहीं लग सका है।
असली मायने में मिशन धरातल पर कुछ कर गुजरने में पूरी तरह नाकाम रहा है। फिर उमा भारती जी का कथन कि गंगा सफाई का मसला सिर्फ सरकार के बूते सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में विचारणीय यह है कि फिर गंगा कैसे साफ होगी। उसे कौन साफ करेगा। यह सवाल करोड़ों देशवासियों की चिन्ता का सबब है। यह भी कि जब गंगा की यह हालत है, तो उसकी सहायक नदियों का पुरसाहाल कौन होगा।