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गंगा को निर्मल और अविरल बनाने का अभियान देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एजेंडे में प्राथमिकता की दृष्टि से सर्वोपरि है। कारण गंगा सफाई के तीन दशक बाद भी गंगा जस-की-तस है। असलियत तो यह है कि गंगा पहले से और मैली हुई है और उसकी शुद्धि के लिये किये जाने वाले दावे-दर-दावे बेमानी साबित हुए हैं।
2014 में मोदी सरकार के अस्तित्त्व में आने के डेढ़ साल बाद भी गंगा की शुद्धि एक सपना ही है। अभी हाल-फिलहाल गंगा में प्रदूषण की निगरानी के लिये एनजीटी की कानपुर पहुँची टीम ने जब कॉमन ट्रीटमेंट प्लांट का मुआयना किया तो उसके होश उड़ गए। वह गंगा में क्रोमियम का स्तर देख हैरान थी।
टीम ने कहा कि शहर की टेनरीज से भारी मात्रा में निकलने वाले क्रोमियम से सीटीपी कैसे साफ रह सकता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव डॉ. अगोलकर का कहना है कि टेनरीज से क्रोमियम 70 मिलीग्राम प्रतिलीटर और टोटल सॉलिड सस्पेंडेड 4000 मिलीग्राम प्रतिलीटर निकल रहा है।
सीपीटी में प्राथमिक शोधन के बाद आने वाले कचरे में क्रोमियम 2 मिलीग्राम और टीएसएस 600 मिलीग्राम प्रतिलीटर मानक है।
इससे जाहिर है कि प्लांट की क्षमता इसके शोधन की नहीं हैं। यही पानी मिट्टी और भूजल को भी प्रदूषित कर रहा है।
गौरतलब है कि कानपुर शहर के सीपीटी की शोधन क्षमता 9 एमएलडी की है लेकिन शहर की 402 टेनरीज से रोज़ाना 50 एमएलडी पानी निकल रहा है। सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टीट्यूट के अधिकारियों के अनुसार असलियत में 41 एमएलडी पानी बिना सफाई के सीधे गंगा में गिर रहा है।
यह गंगा की बदहाली का जीता-जागता सबूत है। यह अकेले कानपुर की स्थिति नहीं, बल्कि पूरे देश की है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। देखा जाये तो गंगा की शुद्धि के लिये पहला गंगा एक्शन प्लान 1985 में अस्तित्त्व में आया जो तकरीब 15 साल तक चला और इसे मार्च 2000 में बन्द कर दिया गया क्योंकि कामयाबी आशा के अनुरूप नहीं मिली। इसमें कुल मिलाकर 901 करोड़ रुपए खर्च हुए।
इसी दौरान 1993 में यमुना, गोमती और दामोदर नदियों को मिलाकर गंगा एक्शन प्लान दो बनाया गया जो असल में सन् 1995 में प्रभावी हो सका। इसे सन् 1996 में एनआरसीपी में विलय कर दिया गया। गंगा को तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा राष्ट्रीय नदी घोषित किये जाने के बाद फरवरी 2009 में राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन अथॉरिटी का गठन किया गया जिसमें गंगा के साथ-साथ यमुना, गोमती, दामोदर व महानंदा को भी शामिल किया गया।
2011 में इस अथॉरिटी को एक अलग सोसाइटी के रूप में पंजीकृत किया गया। यहाँ यह ग़ौरतलब है कि 2014 तक गंगा की सफाई पर कुल मिलाकर 4168 करोड़ स्वाहा हो चुके थे। जबकि कामयाबी केवल 2618 एमएलडी क्षमता के अलावा नगण्य रही। बहुतेरे एसटीपी देखरेख के अभाव में, बहुतेरे यांत्रिक खराबी की वजह से और बहुतेरे समय पर बिजली आपूर्ति न हो पाने के कारण बन्द हो गए।
नरेन्द्र मोदी ने 2014 में सत्तासीन होते ही नमामि गंगे कार्यक्रम शुरू किया। उस समय से लगातार यह दावा किया जा रहा है कि गंगा की सफाई का अभियान जनवरी 2016 से शुरू किया जाएगा। लेकिन केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती की मानें तो देश की राष्ट्रीय नदी गंगा हरनंदी यानी हिण्डन और यमुना के बाद शुद्ध होगी।
उनके अनुसार छोटी नदियों को साफ किये बगैर गंगा जैसी बड़ी नदी की सफाई नहीं की जा सकती। उनका कहना है कि यमुना और हिण्डन को साफ करने के लिये अरबन डेवलपमेंट अथॉरिटी, इंग्लैंड वाटर अथॉरिटी, डाइंग और दिल्ली सरकार के साथ मिलकर प्लान तैयार किया गया है। हिण्डन की सफाई को लेकर पूर्व में भी कई बार अभियान शुरू किये गए हैं जो किसी कारणवश अंजाम तक नहीं पहुँच सके हैं।
इसके अलावा यदि जल संसाधन मंत्रालय की मानें तो 2016 के जनवरी माह से गंगा के घाटों और वहाँ पर स्थित शमशान घाटों की मरम्मत, उनके आधुनिकीकरण, मॉडल धोबी घाट का निर्माण, घाटों पर सोलर पैनल लगाया जाना, गंगा से सटे गाँवों के अपशिष्टों के नालों के शोधन का काम किया जाएगा।
मंत्रालय के अनुसार यह गतिविधियाँ केवल गंगा के लिये ही नहीं हैं। यह गंगा की सहायक नदियों यथा- यमुना, रामगंगा और काली नदी के तटों पर बसे शहरों एवं कस्बों में चलाई जाएँगी। मंत्रालय के अनुसार साल 2016 की शुरुआत में हरिद्वार में होने वाले अर्धकुम्भ को देखते हुए यह काम फिलहाल उत्तराखण्ड पर केन्द्रित होगा। उसकी प्राथमिकता फिलहाल नदियों को जोड़ने के काम में तेजी लाना है।
नदियों को जोड़ने के काम को नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान यानी एनपीपी में शामिल किया गया है। जल संसाधन मंत्रालय में जिस तरह काम हो रहा है, उससे साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड में साल 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार उपरोक्त कामों को पूरा कर लेना चाहती है।
फिर सबसे बड़ी बात यह है कि अभी तक गंगा सफाई को लेकर 2510 किलोमीटर लम्बी गंगा नदी के प्रमुख स्थानों पर अतिआधुनिक सेंसर तक नहीं लग सके हैं। इन सेंसर के बारे में यह दावा किया जा रहा है कि ये करीब 700 छोटी-बड़ी फ़ैक्टरियों से नदी में आने वाले कचरे की ऑनलाइन निगरानी कर सकेंगे।
यह सेंसर खुद-ब-खुद कचरे की प्रकृति और उसके स्तर को नाप सकेंगे। यही नहीं बल्कि फ़ैक्टरियों से आने वाले इस कचरे का रियल टाइम डाटा सातों दिन यानी 24 घंटे सेंट्रल सर्वर को भेजा जाएगा। जैसे ही कचरा मान्य स्तर से ऊँचा जाने लगेगा, ये सेंसर तुरन्त आटोमैटिक अलर्ट भेजेंगे।
हमारे पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं कि हमें गंगा नदी में जाने वाले औद्योगिक कचरे को पूरी तरह रोकना होगा। लेकिन यह तभी सम्भव हो पाएगा जबकि यह सेंसर प्रणाली पूरी तरह काम करने लगे। अभी तो यह लगे ही नहीं हैं। फिर उस हालत में कचरे को रोकने की बात ही बेमानी सी लगती है।
गंगा की अविरलता कायम रहे, यह बेहद जरूरी है। इसमें दो राय नहीं कि आज़ादी के बाद से ही जल संसाधन विकास के प्रति भारत का रवैया पारिस्थितिकी और आबादी के पहलुओं पर ज्यादा जोर दिये बगैर परियोजना केन्द्रित और स्रोत आधारित रहा है। इसलिये जरूरी है कि हमें जल की कमी और जल प्रबन्धन के पारिस्थितिकी पहलू की समस्या के हल के लिये भारत की बढ़ती आबादी और खेती की जाने वाली भूमि के आकार को भी ध्यान में रखना होगा। जरूरत है हमें गंगा के प्रति अपने व्यवहार में बदलाव लाने की। वह बात दीगर है कि देश की मौजूदा मोदी सरकार ने बीते तीन गंगा सफाई अभियानों से सबक लिया है। नमामि गंगे मिशन के लिये तकरीब 50 हजार करोड़ के खर्च का अनुमान है। सरकार की मानें तो इस काम में उसे पाँच साल में कामयाबी की उम्मीद है। पहले पाँच साल के लिये 20 हजार करोड़ का प्रावधान है।
ग़ौरतलब है कि यह राशि बीते 25-30 सालों में गंगा सफाई पर खर्च की गई राशि से चार गुणा ज्यादा है। असलियत में विशेषज्ञों के अनुसार गंगा के घाटों के सौन्दर्यीकरण और इससे सम्बन्धित समूची योजना के क्रियान्यन में तकरीब 20 साल का समय लग सकता है।
उस हालत में यह कैसे सम्भव है कि गंगा आने वाले पाँच सालों में साफ हो जाएगी। गंगा की तुलना दुनिया की अन्य नदियों से करना न्यायसंगत नहीं है। उसकी स्थिति अन्य नदियों से काफी अलग है। वह करोड़ों-करोड़ धर्मभीरू आस्थावान भारतीयों के लिये माँ के समान है। उनके लिये वह पुण्यसलिला, मोक्षदायिनी और पतितपावनी है। उसमें स्नान मात्र से उनके पाप धुल जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गंगा के किनारे मेले और कुम्भ-महाकुम्भ जैसे आयोजन होते हैं। इन अवसरों पर करोड़ों-करोड़ श्रद्धालु-धर्मभीरू भक्त गंगा में डुबकी लगाकर अपना जीवन धन्य मानते हैं। रोज़ाना की बात तो दीगर है, इन अवसरों पर हजारों टन पूजन सामग्री गंगा में प्रवाहित होती है।
गंगा किनारे शवदाह और उसके बाद उसकी अस्थियों का विर्सजन सनातन धर्म में पुण्यकर्म माना जाता है। इससे होने वाली गन्दगी से गंगा के घाट पटे रहते हैं। मानसून में गंगा का रौद्र रूप बाढ़ के रूप में दिखाई देता है।
यही वजह है कि सरकार ने नमामि गंगे मिशन की कामयाबी की ज़िम्मेदारी सबसे ज्यादा गंगा किनारे रहने बसने वाले लोगों और आस्थावान धर्मभीरू लोगों पर डाली है। उसने इसे योजना कहें या मिशन की कामयाबी के लिये सामाजिक भागीदारी को अहमियत दी है।
इसमें गंगा किनारे बसे शहरों की नगर परिषदों व निगमों की भी अहम भूमिका है जिसे नकारा नहीं जा सकता। सरकार के अनुसार सरकारी कर्मियों के बूते गंगा की सफाई का लक्ष्य पूरा नहीं होने वाला। यह बात जगजाहिर है। पिछला इतिहास इसका ज्वलन्त प्रमाण है।
इसकी ख़ातिर सरकार स्थानीय लोगों के सहयोग से गंगा परियोजना क्रियान्वयन इकाई के गठन पर विचार कर रही है। गंगा को साफ-सुथरा बनाने और उसके संरक्षण की खातिर टास्क फोर्स गठित की जाएगी। चार बटालियन वाली इस टास्क फोर्स का नेतृत्त्व सैन्य अफसरों का समूह करेगा। इसमें प्रादेशिक सेना एवं पूर्व सैनिकों की अहम भूमिका होगी। ये कहाँ तक सफल होंगी, यह भविष्य के गर्भ में हैं।
इस सम्बन्ध में सीईएसटी, बीएचयू के कोऑर्डिनेटर डा. बी. डी. त्रिपाठी का कहना है कि मोदी सरकार भी पुरानी योजनाओं को ही आगे बढ़ा रही है। गंगा की सबसे गम्भीर समस्या पानी की कमी है। कई जगह गंगा नदी तालाब के रूप में परिवर्तित हो गई है। गंगा की निर्मलता पूरी तरह से उसकी अविरलता पर निर्भर है।
गंगा की अविरलता कायम रहे, यह बेहद जरूरी है। इसमें दो राय नहीं कि आज़ादी के बाद से ही जल संसाधन विकास के प्रति भारत का रवैया पारिस्थितिकी और आबादी के पहलुओं पर ज्यादा जोर दिये बगैर परियोजना केन्द्रित और स्रोत आधारित रहा है। इसलिये जरूरी है कि हमें जल की कमी और जल प्रबन्धन के पारिस्थितिकी पहलू की समस्या के हल के लिये भारत की बढ़ती आबादी और खेती की जाने वाली भूमि के आकार को भी ध्यान में रखना होगा।
जरूरत है हमें गंगा के प्रति अपने व्यवहार में बदलाव लाने की। क्योंकि हमने गंगा के प्रति ही नहीं, अन्य नदियों की तरफ देखने का अपना नज़रिया न केवल बदल दिया है बल्कि विकृत भी किया है। असल में गंगा हमारे लिये माँ की वह गोद है जो आमरण हमारी शाश्वत और अन्तिम शरण है।
मन में गंगा के प्रति सच्चा श्रद्धाभाव लाते ही गंगा का संकट असलियत में दूर हो जाएगा। उस दशा में न तो हम गंगा को मलिन करने का प्रयास करेंगे और न ही उसे किसी के द्वारा मलिन करने का प्रयास करने देंगे। सबसे बड़ा दायित्त्व तो गंगा के प्रति हमारा है जिससे हम विमुख होते जा रहे हैं। एनजीटी द्वारा गंगा की शुद्धि के लिये किये गए प्रयास प्रशंसनीय हैं।
यदि हम अपने दायित्त्व का निर्वहन करने में सफल रहे तो गंगा की शुद्धि का सपना शीघ्र पूरा होगा। इस तरह हम सरकार के प्रयास में अपना सार्थक सहयोग देकर सच्चे भारतीय होने का प्रमाण देंगे। इसमें दो राय नहीं।
2014 में मोदी सरकार के अस्तित्त्व में आने के डेढ़ साल बाद भी गंगा की शुद्धि एक सपना ही है। अभी हाल-फिलहाल गंगा में प्रदूषण की निगरानी के लिये एनजीटी की कानपुर पहुँची टीम ने जब कॉमन ट्रीटमेंट प्लांट का मुआयना किया तो उसके होश उड़ गए। वह गंगा में क्रोमियम का स्तर देख हैरान थी।
टीम ने कहा कि शहर की टेनरीज से भारी मात्रा में निकलने वाले क्रोमियम से सीटीपी कैसे साफ रह सकता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव डॉ. अगोलकर का कहना है कि टेनरीज से क्रोमियम 70 मिलीग्राम प्रतिलीटर और टोटल सॉलिड सस्पेंडेड 4000 मिलीग्राम प्रतिलीटर निकल रहा है।
सीपीटी में प्राथमिक शोधन के बाद आने वाले कचरे में क्रोमियम 2 मिलीग्राम और टीएसएस 600 मिलीग्राम प्रतिलीटर मानक है।
इससे जाहिर है कि प्लांट की क्षमता इसके शोधन की नहीं हैं। यही पानी मिट्टी और भूजल को भी प्रदूषित कर रहा है।
गौरतलब है कि कानपुर शहर के सीपीटी की शोधन क्षमता 9 एमएलडी की है लेकिन शहर की 402 टेनरीज से रोज़ाना 50 एमएलडी पानी निकल रहा है। सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टीट्यूट के अधिकारियों के अनुसार असलियत में 41 एमएलडी पानी बिना सफाई के सीधे गंगा में गिर रहा है।
यह गंगा की बदहाली का जीता-जागता सबूत है। यह अकेले कानपुर की स्थिति नहीं, बल्कि पूरे देश की है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। देखा जाये तो गंगा की शुद्धि के लिये पहला गंगा एक्शन प्लान 1985 में अस्तित्त्व में आया जो तकरीब 15 साल तक चला और इसे मार्च 2000 में बन्द कर दिया गया क्योंकि कामयाबी आशा के अनुरूप नहीं मिली। इसमें कुल मिलाकर 901 करोड़ रुपए खर्च हुए।
इसी दौरान 1993 में यमुना, गोमती और दामोदर नदियों को मिलाकर गंगा एक्शन प्लान दो बनाया गया जो असल में सन् 1995 में प्रभावी हो सका। इसे सन् 1996 में एनआरसीपी में विलय कर दिया गया। गंगा को तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा राष्ट्रीय नदी घोषित किये जाने के बाद फरवरी 2009 में राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन अथॉरिटी का गठन किया गया जिसमें गंगा के साथ-साथ यमुना, गोमती, दामोदर व महानंदा को भी शामिल किया गया।
2011 में इस अथॉरिटी को एक अलग सोसाइटी के रूप में पंजीकृत किया गया। यहाँ यह ग़ौरतलब है कि 2014 तक गंगा की सफाई पर कुल मिलाकर 4168 करोड़ स्वाहा हो चुके थे। जबकि कामयाबी केवल 2618 एमएलडी क्षमता के अलावा नगण्य रही। बहुतेरे एसटीपी देखरेख के अभाव में, बहुतेरे यांत्रिक खराबी की वजह से और बहुतेरे समय पर बिजली आपूर्ति न हो पाने के कारण बन्द हो गए।
नरेन्द्र मोदी ने 2014 में सत्तासीन होते ही नमामि गंगे कार्यक्रम शुरू किया। उस समय से लगातार यह दावा किया जा रहा है कि गंगा की सफाई का अभियान जनवरी 2016 से शुरू किया जाएगा। लेकिन केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती की मानें तो देश की राष्ट्रीय नदी गंगा हरनंदी यानी हिण्डन और यमुना के बाद शुद्ध होगी।
उनके अनुसार छोटी नदियों को साफ किये बगैर गंगा जैसी बड़ी नदी की सफाई नहीं की जा सकती। उनका कहना है कि यमुना और हिण्डन को साफ करने के लिये अरबन डेवलपमेंट अथॉरिटी, इंग्लैंड वाटर अथॉरिटी, डाइंग और दिल्ली सरकार के साथ मिलकर प्लान तैयार किया गया है। हिण्डन की सफाई को लेकर पूर्व में भी कई बार अभियान शुरू किये गए हैं जो किसी कारणवश अंजाम तक नहीं पहुँच सके हैं।
इसके अलावा यदि जल संसाधन मंत्रालय की मानें तो 2016 के जनवरी माह से गंगा के घाटों और वहाँ पर स्थित शमशान घाटों की मरम्मत, उनके आधुनिकीकरण, मॉडल धोबी घाट का निर्माण, घाटों पर सोलर पैनल लगाया जाना, गंगा से सटे गाँवों के अपशिष्टों के नालों के शोधन का काम किया जाएगा।
मंत्रालय के अनुसार यह गतिविधियाँ केवल गंगा के लिये ही नहीं हैं। यह गंगा की सहायक नदियों यथा- यमुना, रामगंगा और काली नदी के तटों पर बसे शहरों एवं कस्बों में चलाई जाएँगी। मंत्रालय के अनुसार साल 2016 की शुरुआत में हरिद्वार में होने वाले अर्धकुम्भ को देखते हुए यह काम फिलहाल उत्तराखण्ड पर केन्द्रित होगा। उसकी प्राथमिकता फिलहाल नदियों को जोड़ने के काम में तेजी लाना है।
नदियों को जोड़ने के काम को नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान यानी एनपीपी में शामिल किया गया है। जल संसाधन मंत्रालय में जिस तरह काम हो रहा है, उससे साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड में साल 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार उपरोक्त कामों को पूरा कर लेना चाहती है।
फिर सबसे बड़ी बात यह है कि अभी तक गंगा सफाई को लेकर 2510 किलोमीटर लम्बी गंगा नदी के प्रमुख स्थानों पर अतिआधुनिक सेंसर तक नहीं लग सके हैं। इन सेंसर के बारे में यह दावा किया जा रहा है कि ये करीब 700 छोटी-बड़ी फ़ैक्टरियों से नदी में आने वाले कचरे की ऑनलाइन निगरानी कर सकेंगे।
यह सेंसर खुद-ब-खुद कचरे की प्रकृति और उसके स्तर को नाप सकेंगे। यही नहीं बल्कि फ़ैक्टरियों से आने वाले इस कचरे का रियल टाइम डाटा सातों दिन यानी 24 घंटे सेंट्रल सर्वर को भेजा जाएगा। जैसे ही कचरा मान्य स्तर से ऊँचा जाने लगेगा, ये सेंसर तुरन्त आटोमैटिक अलर्ट भेजेंगे।
हमारे पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं कि हमें गंगा नदी में जाने वाले औद्योगिक कचरे को पूरी तरह रोकना होगा। लेकिन यह तभी सम्भव हो पाएगा जबकि यह सेंसर प्रणाली पूरी तरह काम करने लगे। अभी तो यह लगे ही नहीं हैं। फिर उस हालत में कचरे को रोकने की बात ही बेमानी सी लगती है।
गंगा की अविरलता कायम रहे, यह बेहद जरूरी है। इसमें दो राय नहीं कि आज़ादी के बाद से ही जल संसाधन विकास के प्रति भारत का रवैया पारिस्थितिकी और आबादी के पहलुओं पर ज्यादा जोर दिये बगैर परियोजना केन्द्रित और स्रोत आधारित रहा है। इसलिये जरूरी है कि हमें जल की कमी और जल प्रबन्धन के पारिस्थितिकी पहलू की समस्या के हल के लिये भारत की बढ़ती आबादी और खेती की जाने वाली भूमि के आकार को भी ध्यान में रखना होगा। जरूरत है हमें गंगा के प्रति अपने व्यवहार में बदलाव लाने की। वह बात दीगर है कि देश की मौजूदा मोदी सरकार ने बीते तीन गंगा सफाई अभियानों से सबक लिया है। नमामि गंगे मिशन के लिये तकरीब 50 हजार करोड़ के खर्च का अनुमान है। सरकार की मानें तो इस काम में उसे पाँच साल में कामयाबी की उम्मीद है। पहले पाँच साल के लिये 20 हजार करोड़ का प्रावधान है।
ग़ौरतलब है कि यह राशि बीते 25-30 सालों में गंगा सफाई पर खर्च की गई राशि से चार गुणा ज्यादा है। असलियत में विशेषज्ञों के अनुसार गंगा के घाटों के सौन्दर्यीकरण और इससे सम्बन्धित समूची योजना के क्रियान्यन में तकरीब 20 साल का समय लग सकता है।
उस हालत में यह कैसे सम्भव है कि गंगा आने वाले पाँच सालों में साफ हो जाएगी। गंगा की तुलना दुनिया की अन्य नदियों से करना न्यायसंगत नहीं है। उसकी स्थिति अन्य नदियों से काफी अलग है। वह करोड़ों-करोड़ धर्मभीरू आस्थावान भारतीयों के लिये माँ के समान है। उनके लिये वह पुण्यसलिला, मोक्षदायिनी और पतितपावनी है। उसमें स्नान मात्र से उनके पाप धुल जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गंगा के किनारे मेले और कुम्भ-महाकुम्भ जैसे आयोजन होते हैं। इन अवसरों पर करोड़ों-करोड़ श्रद्धालु-धर्मभीरू भक्त गंगा में डुबकी लगाकर अपना जीवन धन्य मानते हैं। रोज़ाना की बात तो दीगर है, इन अवसरों पर हजारों टन पूजन सामग्री गंगा में प्रवाहित होती है।
गंगा किनारे शवदाह और उसके बाद उसकी अस्थियों का विर्सजन सनातन धर्म में पुण्यकर्म माना जाता है। इससे होने वाली गन्दगी से गंगा के घाट पटे रहते हैं। मानसून में गंगा का रौद्र रूप बाढ़ के रूप में दिखाई देता है।
यही वजह है कि सरकार ने नमामि गंगे मिशन की कामयाबी की ज़िम्मेदारी सबसे ज्यादा गंगा किनारे रहने बसने वाले लोगों और आस्थावान धर्मभीरू लोगों पर डाली है। उसने इसे योजना कहें या मिशन की कामयाबी के लिये सामाजिक भागीदारी को अहमियत दी है।
इसमें गंगा किनारे बसे शहरों की नगर परिषदों व निगमों की भी अहम भूमिका है जिसे नकारा नहीं जा सकता। सरकार के अनुसार सरकारी कर्मियों के बूते गंगा की सफाई का लक्ष्य पूरा नहीं होने वाला। यह बात जगजाहिर है। पिछला इतिहास इसका ज्वलन्त प्रमाण है।
इसकी ख़ातिर सरकार स्थानीय लोगों के सहयोग से गंगा परियोजना क्रियान्वयन इकाई के गठन पर विचार कर रही है। गंगा को साफ-सुथरा बनाने और उसके संरक्षण की खातिर टास्क फोर्स गठित की जाएगी। चार बटालियन वाली इस टास्क फोर्स का नेतृत्त्व सैन्य अफसरों का समूह करेगा। इसमें प्रादेशिक सेना एवं पूर्व सैनिकों की अहम भूमिका होगी। ये कहाँ तक सफल होंगी, यह भविष्य के गर्भ में हैं।
इस सम्बन्ध में सीईएसटी, बीएचयू के कोऑर्डिनेटर डा. बी. डी. त्रिपाठी का कहना है कि मोदी सरकार भी पुरानी योजनाओं को ही आगे बढ़ा रही है। गंगा की सबसे गम्भीर समस्या पानी की कमी है। कई जगह गंगा नदी तालाब के रूप में परिवर्तित हो गई है। गंगा की निर्मलता पूरी तरह से उसकी अविरलता पर निर्भर है।
गंगा की अविरलता कायम रहे, यह बेहद जरूरी है। इसमें दो राय नहीं कि आज़ादी के बाद से ही जल संसाधन विकास के प्रति भारत का रवैया पारिस्थितिकी और आबादी के पहलुओं पर ज्यादा जोर दिये बगैर परियोजना केन्द्रित और स्रोत आधारित रहा है। इसलिये जरूरी है कि हमें जल की कमी और जल प्रबन्धन के पारिस्थितिकी पहलू की समस्या के हल के लिये भारत की बढ़ती आबादी और खेती की जाने वाली भूमि के आकार को भी ध्यान में रखना होगा।
जरूरत है हमें गंगा के प्रति अपने व्यवहार में बदलाव लाने की। क्योंकि हमने गंगा के प्रति ही नहीं, अन्य नदियों की तरफ देखने का अपना नज़रिया न केवल बदल दिया है बल्कि विकृत भी किया है। असल में गंगा हमारे लिये माँ की वह गोद है जो आमरण हमारी शाश्वत और अन्तिम शरण है।
मन में गंगा के प्रति सच्चा श्रद्धाभाव लाते ही गंगा का संकट असलियत में दूर हो जाएगा। उस दशा में न तो हम गंगा को मलिन करने का प्रयास करेंगे और न ही उसे किसी के द्वारा मलिन करने का प्रयास करने देंगे। सबसे बड़ा दायित्त्व तो गंगा के प्रति हमारा है जिससे हम विमुख होते जा रहे हैं। एनजीटी द्वारा गंगा की शुद्धि के लिये किये गए प्रयास प्रशंसनीय हैं।
यदि हम अपने दायित्त्व का निर्वहन करने में सफल रहे तो गंगा की शुद्धि का सपना शीघ्र पूरा होगा। इस तरह हम सरकार के प्रयास में अपना सार्थक सहयोग देकर सच्चे भारतीय होने का प्रमाण देंगे। इसमें दो राय नहीं।