अहम है ग्लेशियरों की रक्षा का सवाल

Submitted by RuralWater on Thu, 05/26/2016 - 15:45

ग्लेशियर की बर्फ पिघलने से पानी अपने साथ मलबा लेकर आ रहा है। गंगोत्री ग्लेशियर के पिघलने की गति का जायजा लें तो पता चलता है कि यह बीते दो दशकों से लगभग पाँच से बीस मीटर प्रति बरस की गति से पिघल रहा है। यही नही गंगा के उद्गम के ग्लेशियर गंगोत्री और गोमुख पर अब बर्फबारी नवम्बर के स्थान पर फरवरी-मार्च में ही हो रही है। चूँकि इस दौरान तापमान बढ़ जाता है, जिससे बर्फ जल्दी पिघल रही है। यह खतरनाक संकेत है। जलवायु परिवर्तन को आज के परिप्रेक्ष्य में भीषण समस्या कहना गलत होगा बल्कि वह एक ऐसी स्थायी भयावह आपदा है जिसके चलते पृथ्वी की आकृति में बदलाव आ सकता है। इससे न केवल समुद्र के तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है, बल्कि मौसम में अनियमितता आज के दौर में स्थायी रूप ग्रहण कर चुकी है। यही नहीं तापमान में बढ़ोत्तरी के चलते बर्फ के पिघलने के कारण ग्लेशियरों के आधार में दिन-ब-दिन अत्याधिक फिसलन होती जा रही है। नतीजन उनका काफी तेजी से क्षरण हो रहा है।

दशकों से दुनिया में ग्लेशियरों के पिघलने के दावे किये जा रहे हैं। कभी कम तो कभी कुछ ज्यादा उनके पिघलने की चर्चाएँ आम रही हैं। हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों के भी पिघलने के समय-समय पर दावे किये गए हैं। इसके लिये जलवायु परिवर्तन को जिम्मेवार ठहराया जा रहा है।

अब यह साबित हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन से अंटार्कटिका के तापमान में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। यदि तापमान में बढ़ोत्तरी की यही रफ्तार जारी रही तो तापमान की गति शून्य डिग्री से ऊपर पहुँचने पर ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार में और तेजी से बढ़ोत्तरी होगी। इसमें दो राय नहीं कि इसके भयावह परिणाम होंगे। नए शोधों ने इस तथ्य को और प्रमाणित कर दिया है। गौरतलब है कि साल 2007 में ही संयुक्त राष्ट्र की अन्तर मंत्रालयी समिति ने दावा किया था कि जलवायु परिवर्तन के चलते साल 2035 तक हिमालयी क्षेत्र के अधिकतर ग्लेशियर खत्म हो जाएँगे।

यूनीवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया में प्रोफेसर मिशेल कोप्पस के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने पाँच साल तक किये गए पेटागोनिया और अंर्टाकटिक प्रायद्वीप के ग्लेशियरों के तुलनात्मक अध्ययन के बाद कहा है कि हम पहले से ही देख रहे हैं कि बर्फ की परतें अपेक्षाकृत अधिक तेजी से पिघलने लगी हैं। उनका तेजी से पिघलना खतरनाक संकेत है। यह और ज्यादा घातक होगा। इससे अधिक कटाव और क्षरण होगा। नतीजन घाटियाँ और ज्यादा गहरी हो जाएँगी एवं समुद्रों में और अधिक गाद जमा होगी।

तेजी से सरक रहे ग्लेशियर अपने प्रवाह मार्ग की घाटियों और महाद्वीपीय मैदानी इलाकों में अधिक गाद इकट्ठा कर देंगे जिससे पेयजल की उपलब्धता भयावह स्तर तक प्रभावित होगी। नए शोधों ने अब इस बात का खुलासा कर दिया है कि अंटार्कटिक के ग्लेशियरों की तुलना में पेटागोनिया के ग्लेशियर सौ से एक हजार गुना तेजी से क्षरित हुए हैं।

ध्रुवीय और महाद्वीपीय इलाकों का मिलन क्षेत्र कहें या संधि क्षेत्र जैवविविधता के लिहाज से बेहद सम्पन्न माने जाते हैं। इन इलाकों में पानी में अधिक मात्रा में गाद जमा होने की स्थिति में इसका सीधा दुष्प्रभाव जलीय जीवों के पारिस्थितिकीय तंत्र पर पड़ेगा। इस अध्ययन के परिणामों ने वैज्ञानिकों के बीच इस बहस को जन्म दिया है कि ग्लेशियरों के पिघलने से पृथ्वी के आकार पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

अगर भारतीय हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों पर नजर डालें तो भारतीय हिमालयी क्षेत्र में कुल 9,975 ग्लेशियर हैं। यह तादाद उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव स्थित ग्लेशियरों को छोड़कर सबसे ज्यादा है। इनमें 30 फीसदी बड़े और तकरीब 70 फीसदी छोटे ग्लेशियर हैं। इन छोटे ग्लेशियरों में अधिकतर तो हैंगिंग ग्लेशियर हैं जिनका दायरा कुल मिलाकर एक से पाँच किलोमीटर तक होता है।

अब यह साफ हो गया है कि ग्लेशियरों का हमारे जीवन में कितना महत्त्व है। इन्हीं से निकली नदियाँ हमारे जीवन का आधार हैं। नदियों के बिना मानव जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। यदि भारतीय हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर नजर डालें तो आज वही ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के चलते तेजी से पिघल रहे हैं।

यदि इनके पिघलने की यही रफ्तार रही तो एक दिन इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। गंगा हमारी आस्था ही नहीं बल्कि पूज्या और पुण्यसलिला और मोक्षदायिनी भी है। जलवायु परिवर्तन का असर हमारी उसी पूज्या गंगा और उसकी मुख्यधारा भागीरथी के अस्तित्व के लिये चुनौती बन गया है। बर्फबारी का समय पीछे खिसकने के कारण गोमुख क्षेत्र में बर्फ ज्यादा समय तक नहीं टिक रही है। परिणामस्वरूप ग्लेशियरों की हालत में सुधार नहीं हो पा रहा है और ग्लेशियरों का पिघलना रुकने का नाम नहीं ले रहा है।

ग्लेशियर की बर्फ पिघलने से पानी अपने साथ मलबा लेकर आ रहा है। गंगोत्री ग्लेशियर के पिघलने की गति का जायजा लें तो पता चलता है कि यह बीते दो दशकों से लगभग पाँच से बीस मीटर प्रति बरस की गति से पिघल रहा है। यही नही गंगा के उद्गम के ग्लेशियर गंगोत्री और गोमुख पर अब बर्फबारी नवम्बर के स्थान पर फरवरी-मार्च में ही हो रही है। चूँकि इस दौरान तापमान बढ़ जाता है, जिससे बर्फ जल्दी पिघल रही है। यह खतरनाक संकेत है।

बीते माह जंगलों की भीषण आग ने पूरे हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों में हिमस्खलन का खतरा बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। इसमें दो राय नहीं कि इस आग से पर्यावरण को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई तो होना असम्भव ही है। इसका अन्दाजा भी लगाया नहीं जा सकता। वैसे जंगलों में आग लगने की कोई नई घटना नहीं है। वह तकरीब हर साल लगती है। लेकिन इस साल की आग ने तो कहर बरपा दिया। इसने हिमालयी क्षेत्र के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को गड़बड़ा कर रख दिया या यूँ कहें कि तहस-नहस कर दिया तो कुछ गलत नहीं होगा।

जैवविविधता के अकूत भण्डार को भी इस आग ने स्वाहा कर दिया। गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय में भूविज्ञान विभाग के वैज्ञानिक प्रो. डॉ. एसपी सती ने कहा है कि जंगलों की भीषण आग से भूस्खलन का खतरा कई गुणा बढ़ गया है। आग की वजह से जंगलों की अधिकांश वनस्पति जलकर राख हो गई है जो जमीन को जकड़े या बाँधे रखने का काम करती है। वन्यजीव विशेषज्ञ व अपर वन संरक्षक वन्यजीव धनंजय मोहन की मानें तो पक्षियों की हजारों प्रजातियाँ जो कीटों पर निर्भर रहती हैं, इस आग में स्वाहा हो गई हैं। वाडिया हिमालय भू-विज्ञान केन्द्र के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल का कहना है कि इस आग से समूचा हिमालयी क्षेत्र प्रभावित होगा।

तापमान में बढ़ोत्तरी से हैंगिंग व कमजोर ग्लेशियरों के चटकने की प्रक्रिया शुरू होगी। हिमस्खलन का खतरा बढ़ेगा। धुएँ से ग्लेशियरों पर बर्फ के जमने की प्रक्रिया में व्यवधान आने से बर्फ के पिघलने की दर में तेजी से बढ़ोत्तरी होगी। यह सच है कि आग के धुएँ की वजह से हिमालय का पूरा वातावरण गर्म हो गया है। नतीजन 0.2 डिग्री सेल्सियस की तापमान में बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है।

यह इस पूरे पर्वतीय अंचल के लिये शुभ संकेत तो कदापि नहीं है। लेकिन केन्द्र के वैज्ञानिकों ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया है कि हिमाचल और उत्तराखण्ड के ग्लेशियरों पर तो पिघलने का खतरा बरकरार है लेकिन कश्मीर स्थित हिमालयी क्षेत्र में कराकोरम पर्वत शृंखला के तकरीब 10 छोटे और मध्यम आकार के ग्लेशियर 50 से 100 मीटर की गति से बढ़ रहे हैं। इसको वैज्ञानिक मानसून नहीं बल्कि बर्फबारी का प्रभाव मानते हैं। लेकिन अधिकांश ग्लेशियर 5 से 20 मीटर की गति से हर साल पिघल रहे हैं। इसे नकारा नहीं जा सकता।

अकेले उत्तराखण्ड में कुल 900 ग्लेशियर हैं जो गंगा, यमुना, मन्दाकिनी, अलकनन्दा सहित तकरीब हमारी डेढ़ सौ जीवनदायिनी नदियों के जन्मदाता हैं। ये ग्लेशियर तकरीब 3500 से 4000 मीटर की ऊँचाई से शुरू हो जाते हैं। गंगोत्री के अलावा चोराबाड़ी, सतोपंथ, नीति, मिलाम और नंदादेवी ग्लेशियर भी ऐसे ग्लेशियर हैं जिनके पिघलने की रफ्तार प्रति वर्ष की तुलना में गंगोत्री से कम नहीं है। कम ऊँचाई वाले ग्लेशियरों जिनमें गंगोत्री, नेवला, मिलाम, चीपा और सुंदरढूंगा आदि ग्लेशियरों पर इस साल की जंगल की आग से ब्लैक कार्बन की हल्की परत जम चुकी है।

धुएँ का कार्बन ग्लेशियरों के ऊपर जमने से ग्लेशियर के उपर बर्फ नहीं टिक पाएगी, इससे चोटियों पर जमी बर्फ के पिघलने की प्रक्रिया में जहाँ तेजी आएगी, वहीं ऊँची चोटियों पर बने कमजोर ग्लेशियर गर्मी की वजह से तेजी से पिघलने लगेंगे। इसमें दो राय नहीं कि ग्लेशियरों का पिघलना सदियों से जारी है। लेकिन इनके पिघलने की गति में जिस तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है, वह चिन्तनीय है। इसमें जलवायु परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसलिये जलवायु परिवर्तन से लड़ना हमारे लिये अहम हो गया है।

सबसे पहले हमें हिमालयी ग्लेशियर क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों पर पूरी तरह अंकुश लगाना होगा। यह काम प्राथमिकता के आधार पर करना होगा जो बेहद जरूरी है। मौसम में बदलाव और हिमालयी क्षेत्र में बर्फ के पिघलने की गति जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे का संकेत है कि अब बहुत हो गया, अब तो कुछ करना होगा। अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।