समस्त पर्यावरण प्रदूषण की जड़ मानसिक प्रदूषण

Submitted by admin on Mon, 04/14/2014 - 10:58
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पर्यावरण विमर्श
विनाश से बचने के सभी उपाय हमारे पास हैं, यदि हम पश्चिमी देशों से आयातित भोगवादी जीवनशैली को छोड़कर अपने त्याग, तपस्या एवं सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे शंतु निरामया के भाव से पोषित भारतीय जीवनधारा की वैदिक शैली का अनुपालन करें और दुनिया को इसी मार्ग पर चलने के लिए अनुप्ररित करें। हमारा मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक प्रदूषण दूर होते ही पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने के लिए उठाए गए सारे कदम, सही दिशा में उठने लगेंगे और तब धरती पर एक-न-एक दिन खुशहाली का, न्याय का, वातावरण तैयार हो जाएगा। आज धरती की जीवन रक्षा के लिए इसके सुचेता अतिसंवेदनशील हो रहे हैं कि पर्यावरण प्रदूषण के कारण पृथ्वी की घटती जा रही उम्र पर कैसे रोकथाम लगाई जाए। सचमुच आज रत्नगर्भा वसुंधरा को पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से मुक्त कराना अति आवश्यक हो गया है, वरना इस पर रहने वाले मानव अथवा अन्य जंतुओं का भी जीवन खतरे में पड़ सकता है। कुछ जीवों की प्रजातियां तो लुप्तप्रायः हो चुकी हैं और कुछ के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। अतः समय रहते यदि कोई ठोस और कारगर कदम नहीं उठाया गया तो धरती का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है।

प्रश्न उठता है कि इस पर्यावरण प्रदूषण की समस्या की जड़ कहां पर है, जिसे उखाड़ फेंकना संभव नहीं हो पा रहा है? तो इसका सीधा-सा जवाब जो सामान्यतौर पर सबको पता है, वह है तीव्रगति से बढ़ता औद्योगीकरण, बेरोक-टोक जंगलों की कटाई, पर्वतों का उत्खनन, नदियों के धाराप्रवाह के साथ छेड़छाड़ आदि। इन्हीं कारणों से नाना प्रकार के प्रदूषण उत्पन्न होते हैं, चाहे वह वायु प्रदूषण हो, जल प्रदूषण हो, मृदा प्रदूषण हो अथवा आर्थिक या सामाजिक प्रदूषण। तो क्या विकास के इस युग विशेष में प्रदूषण के उक्त कारणों को पूरी तरह से समाप्त करना उचित होगा? मैं समझता हूं कि नहीं, क्योंकि समस्या के वास्तविक कारण ये सब हैं ही नहीं। अतः न तो उक्त कारणों को पूरी तरह से समाप्त करना संभव है और न ही इनके समाप्त हो जाने से समस्या का समाधान ही संभव है, क्योंकि पर्यावरण समस्या की मुख्य जड़ तो हमारा ‘मानसिक प्रदूषण’ है। जब तक हमारा मन-मस्तिष्क स्वस्थ एवं पवित्र नहीं होगा, तब तक हम समस्याओं को रोकने की बजाए पर्यावरण प्रदूषण की नई-नई समस्याओं को बढ़ाते जाएंगे।

ऐसी बात नहीं है कि पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के उपाय नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि विश्व स्तर पर विधिवत कानून एवं अंतः सरकारी समिति (आई.पी.सी.सी.) का गठन करके ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। Inter-Government Pannel on Climate Change (IPCC) के अध्यक्ष पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. राजेंद्र पचौरी को पर्यावरण सुरक्षा के विशेष योगदान के लिए सन् 2007 में नोबेल पुरस्कार भी दिया जा चुका है। किंतु अभी हाल ही में उनका बयान आया है कि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या इस कदर बढ़ रही है कि संसार को नए-नए खतरों के लिए तैयार रहना पड़ेगा। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुनामी जैसी समस्याएं तो आम बात हो जाएंगी। जिस तरह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, दुनिया के समुद्र तटीय देशों को अपने-अपने तटीय क्षेत्रों की रक्षा के विषय में सोचना आवश्यक हो गया है। जिस स्तर से धरती का तापमान बढ़ रहा है, जलवायु में परिवर्तन हो रहा है, समुद्रतटीय इलाकों का समुद्र में डूब जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। इतना ही नहीं, ओजोन गैस की परत का पतला होना या फट जाना एक अलग समस्या है। इन सबके लिए लाखों डॉलर अथवा अरबों रुपयों की परियोजनाएं देश एवं विदेश स्तर पर बनाई जाती हैं, फिर भी समस्या जैसी की तैसी बनी हुई है।

अब नहीं, पर प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों हमारी योजनाएं पर्यावरण प्रदूषण को रोकने में कारगर सिद्ध नहीं हो पा रही हैं? हमारी गंगा एक्शन प्लान (जी.ए.पी.) 1985, जिसमें पवित्र गंगा नदी की अपवित्रता को दूर करने के लिए 1400 करोड़ रुपए की परियोजना बनाई गई थी, क्यों विफल हो रहा है?

इसका मूल कारण है हमारा मानसिक प्रदूषण, जिसके कारण हम विनाश के बढ़ते चरणों की आहट नहीं समझ पा रहे हैं, बल्कि इसे विकास की संज्ञा देकर विनाश की होड़ में आगे बढ़ने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने लगे हैं।

व्यापार साम्राज्यवाद का ऐसा प्रदूषण विकसित देशों ने फैला रखा है कि इसकी चपेट में अविकसित एवं विकासशील देश इस कदर आ गए हैं कि उन्हें उबर पाना मुश्किल हो गया है। तब 16वें वैश्विक सम्मेलन में इन्हीं विकसित देशों खासकर अमेरिका ने ताप साम्राज्यवाद का दूसरा मानसिक प्रदूषण फैलाना प्रारंभ कर दिया है, जिसका दुष्प्रभाव यह है कि तथाकथित विकसित देश अपने ऊपर कार्बन डाइऑक्साइड कम करने का बंधन स्वीकार नहीं करते, यद्यपि क्योटो प्रोटोकाल के तहत दुनिया के 40 देशों के सन् 2008-12 तक ग्रीन हाउस गैस का स्तर कम करके जलवायु के ताप में कमी करने की सहमति बनी, किंतु यह सहमति विकासशील देशों पर थोप दी गई। पर पश्चिमी देश अपने लिए ढुलमुल रवैया अपनाते रहे। यह उनका मानसिक प्रदूषण नहीं तो और क्या है?

गौरतलब है कि सन् 2008 में जलवायु परिवर्तन पर विकसित राष्ट्रों ने नेतृत्व प्रदान करते हुए सन् 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 50 प्रतिशत कमी करने का लक्ष्य रखा था, लेकिन उसे भी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अनदेखा कर दिया। हैरत की बात यह है कि यूरोपीय देश उपदेश दे रहे हैं कि यदि भारत, चीन और ब्राजील गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित कर लें, तब वे अपना उत्सर्जन कम करेंगे।

ऐसे में भारत का यह तर्क उचित है कि वह अभी विकासशील है, अतः उसे अभी औद्योगिक विकास की आवश्यकता है। हां, विकसित देशों को गैस के उत्सर्जन पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। किंतु बाजार पर कब्जा करने की होड़ में विकसित देशों के ताप साम्राज्यवाद ने पृथ्वी को जीने लायक नहीं छोड़ा। अतः जब तक ये मुल्क मानसिक प्रदूषण से मुक्त होकर अपनी जीवनशैली में परिवर्तन नहीं करते, अपनी उपभोक्तावादी सोच का परित्याग नहीं करते, तब तक विकासशील देश केवल तकनीक से पर्यावरण प्रदूषण से धरती को मुक्त नहीं कर सकेंगे।

हम समझते हैं हमें इतना हताश-निराश होने की आवश्यकता नहीं होगी, यदि भारतवर्ष पर्यावरण सुरक्षा की अगुआई करे और दुनिया के विकसित देश इसका अनुसरण करें, क्योंकि भारत के अलावा और किसी के पास इसका स्थाई समाधान नहीं है। यह समाधान है भारतीय वैदिक जीवन-पद्धति, जिसमें त्याग की वृत्ति के साथ सौ साल तक सुखपूर्वक जीने की विद्या है। इस संदर्भ मे सामवेद की एक ऋचा का उद्धरण देना उचित जान पड़ता है-

ईशावास्यमिदं सर्व यत्किञ्चजगत्यां जगत्,
तेन त्यक्तेन भूञ्जीया मा गृधःकस्यस्विदधनम्।


अर्थात इस संसार में जो कुछ भी उपलब्ध है, उसके जर्रे-जर्रे में ईश्वरीय सत्ता की शक्ति परिव्याप्त है। उसी परम पिता परमेश्वर ने समस्त जड़-चेतन को उनके अनुरूप गति और अवस्था प्रदान कर उन्हें अपनी अवस्था से मुक्त हो जाने का भी विधान रचा है, किंतु किसी को भी अपनी मर्यादा तोड़ने की छूट नहीं दी है।

मंत्र कहता है कि इस धरा पर उपलब्ध संसाधनों का उपभोग त्याग की वृत्ति के साथ किया जाए, न कि संग्रह-भाव से, क्योंकि आज जो कुछ भी हमारे पास है, कल किसी और का हो जाने वाला है। अतः अति संग्रह की वृत्ति से दूसरे का धन हड़प लेना अथवा हड़पने का उपाय सोचना, एक प्रकार का मानसिक प्रदूषण है, जिसके लिए भारतीय वैदिक जीवन-दर्शन में कोई स्थान नहीं है, किंतु अति खेदजनक बात यह है कि

अयं निजः परोवेत्ति गड़ना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानाम् वसुधैव कुटुंबकम्।


जैसे मंत्र का जाप करने वाला भारत खुद ही दूषित मानसिकता का शिकार हो गया है तो वह दुनिया को क्या राह दिखाएगा।

आज भारत में धन, दौलत और शोहरत बटोरने की ऐसी होड़ मची है कि व्यक्ति अपने मां-बाप, भाई-बहन, सगे-संबंधी सब कुछ भूलकर अति-संग्रह की वृत्ति से ग्रसित हो गया है। इसके कारण वह खुद तो दुःखी है ही, दूसरों को भी दुःखी कर रहा है। उसे देश-काल, समाज एवं पर्यावरण जैसी बातों से क्या मतलब? कॉमनवेल्थ गेम्स का घोटला, स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श घोटाला क्या हमारी दूषित मानसिकता और अति-संग्रह की वृत्ति का परिणाम नहीं है? निश्चित रूप से इस प्रश्न का उत्तर इस देश के प्रत्येक नागरिक को ढूंढना चाहिए।

प्रश्न उठता है, मानसिक प्रदूषण प्रारंभ कहां से होता है? इस प्रदूषण का बीजारोपण हमारे बच्चों में किया जाता है। बचपन में ही हमारे बच्चों को दूरदर्शन के विविध चैनलों के माध्यम से भड़काऊ और चिड़चिड़े चटखारे कार्यक्रमों की श्रृंखलाएं आदि दिखलाई जाती हैं। उनके ऊपर जीवन की काल्पननिक चुनौतियां थोपी जाती हैं। परिणाम यह निकलता है कि वे अपना माता-पिता, दादा-दादी, विद्वानों, लेखकों, वैज्ञानिकों, शहीदों, अध्यापकों को भूलकर नाच-गाना करने वाले निटविद्वों को अपना आदर्श मान बैठते हैं। तथाकथित विकसित समाज के लोग भी देश में मानसिक प्रदूषण फैलाने का अति घिनौना खेल, खेल रहे हैं। टी.वी. चैनल पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम जैसे-घर बैठे लखपति बनिए, फोन घुमाइए लाखों कमाइए, कौन बनेगा करोड़पति, बिग बॉस आदि-आदि कार्यक्रम यदि हमारे देश में सफल हो रहे हैं तो यह हमारे मानसिक प्रदूषण का लक्षण है, क्योंकि हमारी सभ्यता बैठे-बैठे धन बटोरने की नहीं है बल्कि परिश्रम से धन कमाने की है। हमने ‘श्रमेव जयते’ का नारा स्वीकार किया है। इतना ही नहीं-

विद्या ददाति विनयम, विनयात यातिपात्रत
पात्रत्वा धनमाप्नोति धनत् धर्मः ततः सुख।


इन सब बातों को तो हम भूल ही गए हैं। हम तो येन-केन प्रकारेण धन-संग्रह करने में ऐसे उलझे-फंसे हैं कि जो कुछ हमारे पास सहजता से उपलब्ध है, उसका सुख भी नहीं ले पा रहे हैं।

यद्यपि यह भोगवादी मानसिक प्रदूषण हमने विकसित देशों से आयात किया है, किंतु इसके दुष्परिणामों का दोष हम उन पर थोपकर अपनी जिम्मेदारी से मुख नहीं मोड़ सकते।

हमारे ऋषियों-महर्षियों ने हमें प्रकृति का पोषण करना भी सिखाया है, मात्र इसका दोहन करना नहीं और दुनिया भी इस बात को स्वीकार करेगी तभी यह धरा पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त हो पाएगी। वन अरण्य में सुंदर लताओं से घिरी कुटिया में बैठे हमारे ऋषि-महर्षि जब यह कहते हुए यज्ञ जैसे पवित्र कार्य का संपादन करते थे कि

ओSम् द्योः शांतिः अंतरिक्षं शांतिः
पृथ्वी शांति रापः शांति रोषधयः शांतिः
वनस्पतयः शांतिर्विश्वेदेवाः शांतिः।


तो मानो कुटिया के समीप खग-मृग आनंद से झूमने-गाने लगते थे, प्रकृति में शांति व्याप्त हो जाती थी। कितने उच्च जीवन आदर्श थे हमारे कि पृथ्वी, अंतरिक्ष, अग्नि, जल, औषधि, वनस्पति सबकी शांति का गान एवं ध्यान करते थे हम।

इतना ही नहीं, यावत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे जैसे आत्मसुखदायी भाव के साथ जीने वाला भारत आज भोगवादी वृत्ति का शिकार हो, अति-संग्रह के मानसिक प्रदूषण से ग्रसित होकर रोग, दुःख, भय, आशंका एवं बेहोशी में जी रहा है। आज क्या बच्चे, क्या जवान, क्या बूढ़े, क्या विद्वान, क्या नेता, क्या जन-सामान्य सभी भोगवादी मानसिकता से ग्रसित हो चुके हैं। तभी तो कभी विश्वगुरू के रूप में सम्मान पाने वाला भारतवर्ष आज चोर, लुटेरा और भ्रष्ट देश के रूप में जाना जाता है।

यह बात लिखते ही हमारा ध्यान अपने प्राचीन ऋषियों-महर्षियों की जीवनशैली की ओर चला जाता है, जो समस्त सुख-सुविधाओं का त्याग कर वनों में एकांत जीवन साधना करते थे, किंतु समाज का हित, चिंतन एवं मार्गदर्शन किया करते थे। राजा-महाराजा उनके आदेशों के अनुरूप राज्य संचालन करते थे। अपने उपदेश एवं प्रवचन से लोगों के मन एवं हृदय की सफाई किया करते थे। किंतु आज के तथाकथित, लोग जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है, इनके विषय में लिखने में संकोच हो रहा है, किंतु इनके साथ बढ़ते इनके चेलों की संख्या और उसी गति में बढ़ते मानसिक प्रदूषण के कारण लिखना आवश्यक जान पड़ता है कि कहीं-न-कहीं से ज्ञान प्रवाह की मानस गंगा दूषित हो रही है, इसीलिए आज हमारे बाबाओं का अधिकतम ध्यान अनुयायियों की संख्या बढ़ाने पर रहता है, चाहे इसके लिए उन्हें अपने आश्रम की पत्रिका, अपने प्रवचन की सी.डी. या कोई उत्पाद ही क्यों न बेचना पड़े।

अतः पर्यावरण की रक्षा के लिए आवश्यक है कि हमारे पथ-प्रदर्शक, समाज सुधारक, अध्यापक एवं नेतृत्व शुद्ध एवं पवित्र हो, तभी पर्यावरण सुधार संबंधी उपायों को सभी लोग सही ढंग से अपना सकेंगे, अन्यथा हम दवा देते जाएंगे, किंतु रोग बढ़ता ही जाएगा और हम पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठी, वाद-विवाद, प्रतियोगिता, वृक्षारोपण स्टिकर आदि कार्यक्रमों पर खर्चे दिखाकर वर्ष-दर-वर्ष बजट बढ़ाते रहेंगे और भरते रहेंगे अपनी-अपनी झोली। आज मानसिक प्रदूषण का स्तर यहां तक बढ़ गया है कि जो जितना बड़ा चोर जितना भ्रष्ट है, वहीं अधिक योग्य माना जाने लगा है। वह पर्यावरण संबंधी अथवा अन्य कोई भी नियम-कानून तोड़ने में ही अपना बड़प्पन समझता है और सामान्य जनता भी इन्हीं का अनुसरण करते हुए ‘महाजनों येन गता सपन्था’ की तर्ज पर चलने लगी है और बहने लगी है विकास की उल्टी धारा, जो हमें विनाश के गर्त में बहाकर ढकेल रही है।

इस विनाश से बचने के सभी उपाय हमारे पास हैं, यदि हम पश्चिमी देशों से आयातित भोगवादी जीवनशैली को छोड़कर अपने त्याग, तपस्या एवं सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे शंतु निरामया के भाव से पोषित भारतीय जीवनधारा की वैदिक शैली का अनुपालन करें और दुनिया को इसी मार्ग पर चलने के लिए अनुप्ररित करें। हमारा मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक प्रदूषण दूर होते ही पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने के लिए उठाए गए सारे कदम, सही दिशा में उठने लगेंगे और तब धरती पर एक-न-एक दिन खुशहाली का, न्याय का, वातावरण तैयार हो जाएगा, जिसमें मानव-मात्र ही नहीं, वरन् इस धरा पर पलने वाला समस्त जड़-चेतन अपने-अपने समान अधिकारभाव से जी सकेंगे।

अध्यक्ष, मातृभूमि सेवा समिति, सोनभद्र (उ.प्र.)