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विज्ञान प्रगति, सितम्बर 2017
पौधों में रोगों की रोकथाम के लिये वैकल्पिक तरीकों की आवश्यकता है ताकि हम रासायनिक पेस्टीसाइडों का उपयोग पूरी तरह से बन्द कर सकें या उनके उपयोग में कमी ला सकें। प्रकृति में पौधों से प्राप्त होने वाले कीटनाशक, जैविक कीटनाशक, जैविक खरपतवारनाशी और पौधों की प्रतिरोधी क्षमता वाली किस्में विद्यमान हैं जो रोगों, कीटनाशकों और खरपतवारों को अच्छी तरह से नियंत्रित कर सकती हैं। इसके अतिरिक्त विकसित कृषि पद्धतियाँ और सफेद पारदर्शी पॉलीथीन से सौर ऊर्जा संचित करना, जैसे कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे हम रोगों को नियंत्रित कर सकते हैं। हमारे देश में कीटों और रोगों के प्रकोप से हर वर्ष 18-20 प्रतिशत फसलोत्पाद नष्ट हो जाते हैं, जिससे देश को प्रतिवर्ष 30,000 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। इस नुकसान को रोकने के लिये हमें रासायनिक पेस्टीसाइडों की आवश्यकता पड़ती है और आज इन रसायनों की खपत वर्ष 1954 के 434 टन की तुलना में 90,000 टन से अधिक हो गई है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वर्तमान में हम इन रोगों और कीटनाशकों को रोकने में तो सक्षम रहे हैं परन्तु कीटनाशकों की रासायनिक पेस्टीसाइडों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता जो वर्ष 1954 में 7 कीटनाशकों में विद्यमान थी आज वह 50 से अधिक कीटनाशकों में पाई गई है। इसी तरह फफूंद की भी कई ऐसी प्रजातियाँ हैं जिनमें रासायनिक फफूंदनाशियों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता पाई गई है। साधारणतया रासायनिक पेस्टीसाइडों के अधिकाधिक उपयोग से पीने का पानी, नदियों और कुओं का पानी भी दूषित हुआ है।
पौधों में रोगों की रोकथाम के लिये वैकल्पिक तरीकों की आवश्यकता है ताकि हम रासायनिक पेस्टीसाइडों का उपयोग पूरी तरह से बन्द कर सकें या उनके उपयोग में कमी ला सकें। प्रकृति में पौधों से प्राप्त होने वाले कीटनाशक, जैविक कीटनाशक, जैविक खरपतवारनाशी और पौधों की प्रतिरोधी क्षमता वाली किस्में विद्यमान हैं जो रोगों, कीटनाशकों और खरपतवारों को अच्छी तरह से नियंत्रित कर सकती हैं। इसके अतिरिक्त विकसित कृषि पद्धतियाँ और सफेद पारदर्शी पॉलीथीन से सौर ऊर्जा संचित करना, जैसे कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे हम रोगों को नियंत्रित कर सकते हैं।
सौर ऊर्जा रोग व कीट नियंत्रण के लिये अच्छा व सस्ता विकल्प है। सौर ऊर्जा से भूमि को रोगाणु रहित करने की तकनीक से भूमि को गर्मी के महीनों में सिंचित करके, सफेद पारदर्शी पॉलीथीन से ढँक दिया जाता है जिससे सौर ऊर्जा संचित होती है और ढँकी हुई भूमि का तापमान बढ़ने लगता है। यह बढ़ा हुआ तापमान भूमि के अन्दर उपस्थित रोगाणुओं को या तो मार देता है या निष्क्रिय कर देता है। सामान्य तौर पर एक वर्ग सेंटीमीटर भूमि के बराबर हिस्सा, 2 कैलोरी ताप ऊर्जा प्रति मिनट प्राप्त करता है लेकिन भूमि इससे केवल आधी ऊर्जा ही प्राप्त कर पाती है और बाकी की ऊर्जा विभिन्न क्रियाओं द्वारा भूमि से निकल जाती है।
भूमि में सामान्यतः ताप ऊर्जा संचित करने की अच्छी क्षमता है लेकिन ताप फैलाने की क्षमता कम है। विभिन्न प्रकार के रंगों के पॉलीथीन में केवल सफेद पारदर्शी पॉलीथीन ही ताप ऊर्जा संचित करने में सबसे अधिक सक्षम है क्योंकि यह ताप ऊर्जा की विकिरणों को सबसे अच्छा संचित करती है। सफेद पारदर्शी पॉलीथीन भूमि से ताप ऊर्जा की विकिरणों का नुकसान रोकता है और साथ ही पानी के वाष्पीकरण को भी रोकता है। कृत्रिम ताप ऊर्जा की तुलना में सौर ऊर्जा से भूमि को रोगाणुरहित करने की तकनीक से भूमि में विद्यमान अन्य जैवसम्पदा भी न्यूनतम प्रभावित होती है।सफेद पारदर्शी पॉलीथीन द्वारा संचित सौर ताप ऊर्जा से भूमि के तापमान में 5 से 8 सेमी की गहराई पर औसतन 7 से 140C तक की वृद्धि दर्ज की गई और भूमि का अधिकतम तापमान 40 से 600C तक पहुँच गया।
मृदा में सौर ऊर्जा द्वारा रोग नियंत्रण
सौर ऊर्जा का रोगाणुओं पर सबसे बड़ा प्रभाव भौतिक रूप से होता है क्योंकि दिन में बहुत देर तक तापमान का स्तर उस अवस्था में रहता है जो उनके सहन करने वाले न्यूनतम तापमान से काफी अधिक होता है। यद्यपि इस प्रक्रिया से भूमि में होने वाले दूसरे परिवर्तन, जैवविविधता में परिवर्तन, भूमि के रासायनिक और भौतिक गुणों में परिवर्तन, भूमि से वाष्पीकरण में कमी और भूमि में उत्पन्न होने वाली दूसरी गैसें, जैसी क्रियाएँ भी रोगाणुओं को बुरी तरह से प्रभावित करती हैं और इन क्रियाओं का महत्त्व उस समय और अधिक होता है जब भूमि के तापमान में रोगाणुओं को मारने या उन्हें निष्क्रिय करने जितनी वृद्धि न हो।
भूमि में विद्यमान रोगाणुओं में भौतिक तौर पर सौर ऊर्जा से तापमान में वृद्धि का असर तब पड़ता है जब भूमि के तापमान का स्तर उस अवस्था से ऊपर पहुँच जाता है जो उनकी वृद्धि के लिये आवश्यक होता है। भूमि के अन्दर, सौर ताप ऊर्जा से रोगाणुओं का मरना या निष्क्रिय होना इस बात पर भी निर्भर करता है कि भूमि के तापमान में कितनी वृद्धि हुई है और रोगाणु कितने समय तक उस बढ़े हुए तापमान में रह सकता है। सौर ऊर्जा से रोगाणुओं और रोगों का नियंत्रण इसलिये सफल है क्योंकि अधिकतर रोगाणु 370C तापमान से अधिक तापमान पर मर जाते हैं या निष्क्रिय हो जाते हैं। अधिक तापमान से रोगाणुओं की कोशिकाओं की झिल्लियाँ प्रभावित होती हैं, कोशिकाओं की एंजाइम प्रक्रिया निष्क्रिय हो जाती है।
आमतौर पर यह पाया गया है कि भूमि में विद्यमान रोगाणु भूमि में सौर ऊर्जा से संचित 40 से 500C तापमान की वृद्धि पर कुछ मिनटों से लेकर कुछ घंटों के बीच ही मर जाते हैं। भूमि में तापमान यदि इससे कम रहे तो रोगाणुओं के मरने या उनके निष्क्रिय होने में कई दिनों का समय लग सकता है। लेकिन सौर ताप ऊर्जा से भूमि को रोगाणु रहित करने के लिये 4 से 6 सप्ताह का समय पर्याप्त पाया गया है। सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव से जो रोगाणु जीवित रह जाते हैं उनमें भी रोग संक्रमण करने की क्षमता या तो समाप्त हो जाती है या क्षीण हो जाती है, ऐसे रोगाणु कम समय तक ही जीवित रह पाते हैं। रोगाणुओं की फफूंद का फैलाव कम होता है, एंजाइमस का कोशिकाओं में कम उत्पादन होता है, रोगाणुओं की कोशिकाओं की झिल्ली में छेद हो जाते हैं और उन कोशिकाओं से आवश्यक खनिज तत्व बाहर निकल जाते हैं।
सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव से जो रोगाणु जीवित रह जाते हैं उन्हें भूमि में विद्यमान लाभकारी जैवनाशक फफूंद और जीवाणु नियंत्रित करते हैं। सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव से क्षीण रोगाणु लाभकारी फफूंद और जीवाणुओं की प्रतिस्पर्धा से और अधिक क्षीण हो जाते हैं, उनकी रोग संक्रमण करने की क्षमता कम हो जाती है और उनके जीवनचक्र में कमी आ जाती है। इसलिये सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव के साथ जैवनाशक फफूंद और जीवाणुओं की प्रतिस्पर्धा भी रोगाणुओं के नियंत्रण में सहायता करती है।
सौर ऊर्जा से भूमि को रोगाणु रहित करने की विधि
रोगाणुग्रस्त भूमि की अच्छी तरह जुताई करने के बाद उसमें गोबर की खाद मिला दें और भूमि की सिंचाई कर दें। सिंचित भूमि को सफेद, पारदर्शी और पतली 25 से 50 माइक्रॉन या 100 से 200 गेज मोटी पॉलीथीन से गर्मियों के महीनों में 4 से 6 सप्ताह तक ढँक दें। शोध कार्यों से यह ज्ञात हुआ है कि अन्य रंगों और अलग-अलग मोटाई के पॉलीथीनों की आपसी तुलना में सफेद, पतली और पारदर्शी पॉलीथीन को ही सौर ऊर्जा संचित करने में सबसे प्रभावी पाया गया है क्योंकि इसमें ताप विकिरणों को संचित करने की क्षमता सबसे अधिक है। सौर ऊर्जा की क्षमता बढ़ाने हेतु और इस तकनीक में लगने वाले समय में कमी लाने के लिये इस तकनीक का उपयोग हम अन्य गैर-रासायनिक फफूंदनाशियों और पर्यावरण-मित्र तकनीकों के साथ भी कर सकते हैं।
सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव का उपयोग लाभकारी जैवनाशक फफूंदों और जीवाणुओं, भूमि के शोधन में प्रयोग होने वाले विभिन्न कार्बनिक पदार्थों, पौधे से प्राप्त होने वाले पेस्टीसाइडों और रासायनिक पेस्टीसाइडों की कम मात्रा के साथ भी किया जा सकता है। इस तकनीक के अच्छे प्रभाव और ताप संचय के लिये भूमि की जुताई अच्छी तरह से की जानी चाहिए और भूतल सदैव समतल होना चाहिए ताकि पॉलीथीन की चादर उस पर अच्छी तरह से बिछाई जा सके और भूमि अच्छी तरह पानी को सोख ले।
सौर ऊर्जा से भूमि को उपचारित करने की प्रक्रिया में अगर कहीं पॉलीथीन की चादर में छेद हो जाये या फट जाये तो टेप लगाकर छेद को बन्द कर देना चाहिए। पॉलीथीन को भूमि पर बिछाते समय या तो उसे खेतों में बनाई गई पट्टियों में बिछाएँ या आवश्यकतानुसार पॉलीथीन की लम्बी चादर को किनारों से गर्म करके आपस में जोड़ करके भूमि के पूरे क्षेत्र को एक ही चादर से ढँकें। पॉलीथीन की चादरों को आपस में जोड़ने से भूमि के पूरे क्षेत्र में सौर ऊर्जा का ताप प्रभाव एक जैसा रहता है अन्यथा किनारों पर उपस्थित रोगाणु कम प्रभावित होते हैं। पॉलीथीन की चादर भूमि पर बिछाते समय चादरों के किनारों को भूमि में अच्छी तरह से दबा देना चाहिए। सौर ऊर्जा से भूमि को उपचारित करने की अवधि समाप्त होने पर पॉलीथीन की चादर को भूमि के ऊपर से हटा दें और फिर उपचारित भूमि पर प्रस्तावित फसल लगा दें।
सौर ऊर्जा से रोगों की रोकथाम
सौर ऊर्जा से रोगों की रोकथाम में स्थापित क्षमता सम्बन्धी शोध कार्य विश्व के विभिन्न देशों में वर्ष 1974 से चल रहे हैं। इस तकनीक की उपयोगिता विल्टिंग रोग, जड़, सड़न रोग और तना सड़न, जैसे रोगों और उनके रोगाणुओं के विरुद्ध पाई गई है जो भूमि के अन्दर विद्यमान रहती है। विशेष फसल को निश्चित भू-भाग पर बार-बार लगाने से रोगाणुओं का प्रसार और बढ़ोत्तरी तेजी से होती है। साधारणतया, सौर ऊर्जा सभी क्षेत्रों और वहाँ पाये जाने वाले भूमि में स्थापित रोगाणुओं के विरुद्ध प्रभावी पाई गई है। इस तकनीक का उपयोग अमेरिका, इजराइल, यूनान, मोरक्को, जापान, इटली, जार्डन, ब्रिटेन और भारत जैसे 50 से अधिक देशों में किया जा रहा है और स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार इस तकनीक में संशोधन और सुधार किये जाते रहे हैं।
विभिन्न अनुसन्धान कार्यों से ज्ञात हुआ है कि, सौर ऊर्जा द्वारा जनित ताप से वर्टीसिलियम डहली द्वारा संक्रमित विल्टिंग रोग में टमाटर में 65 प्रतिशत और आलू में 95 प्रतिशत कमी पाई गई। इस तकनीक का प्रभाव विभिन्न पौधों को संक्रमित करने वाले एक ही रोगाणु फफूंद पर भिन्न-भिन्न पौधों पर भिन्न रहता है। सौर ऊर्जा के सफल परिणाम फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम उप प्रजाति वैसिनफैक्टम द्वारा जनित कपास के विल्टिंग रोग के विरुद्ध भी देखने को मिले हैं और इस तकनीक का प्रभाव तीन वर्षों तक देखने को मिला।
सौर ऊर्जा का रोगों के विरुद्ध उपयोग संसार के विभिन्न भागों में दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है और शोधकर्ताओं ने विभिन्न भागों में विभिन्न रोगों और रोगाणुओं के विरुद्ध इस तकनीक के प्रभाव का अध्ययन किया है। सौर ऊर्जा की इस तकनीक द्वारा कई महत्त्वपूर्ण फसलों में महत्त्वपूर्ण रोगों को रोकने में सफलता मिली है जिनमें टमाटर, बैंगन, आलू, कपास, सनफ्लावर जैसी फसलों में वटीसिलियम फफूंद की विभिन्न प्रजातियों द्वारा संक्रमित विल्टिंग रोग, आलू और प्याज में राइजोक्टोनिया सोलेनाई फफूंद द्वारा संक्रमित विल्टिंग रोग, मूँगफली, स्ट्रॉबेरी, शिमला मिर्च और फ्रेंच बीन में स्क्लैरोशियम रोल्फ्साई फफूंद द्वारा संक्रमित विल्टिंग रोग और कपास, तरबूज, टमाटर, प्याज, आम और नींबू प्रजातीय फलों में फ्यूजेरियम फफूंद की विभिन्न प्रजातियों द्वारा संक्रमित विल्टिंग रोग शामिल है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव से टमाटर, शिमला मिर्च, बैंगन, स्ट्रॉबेरी और लैट्यूस जैसी फसलों में भूमि में स्थापित रोगाणुओं से होने वाले रोगों को रोकने में सफलता मिली है। भारत में भी खीरे का बेल सड़न रोग फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम उप-प्रजाति सिसेरी, तम्बाकू का कमर तोड़ पिथियम अफैनिडरमेटम और तना व जड़ सड़न रोग भी सफेद पारदर्शी पॉलीथीन द्वारा संचित सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव से सफलतापूर्वक नियंत्रित किये गए हैं। अन्य रोगों में सब्जियों के पौधे रोपण क्षेत्र को सफेद पारदर्शी पॉलीथीन 100 गेज मोटाई से 40 दिनों तक ढँकने से विभिन्न सब्जियों में अंकुरण से पहले और बाद में पिथियम और फ्यूजेरियम फफूंदों द्वारा होने वाले कमर तोड़ रोग को भी सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सका है।
सौर ऊर्जा से उपचारित पौध रोपण क्षेत्र में उगाए गए विभिन्न सब्जियों के बीजों का अंकुरण अधिक हुआ है। कमर तोड़ रोग से कम पौधे प्रभावित हुए हैं और पौधों की बढ़ोत्तरी भी अच्छी पाई गई है। भारत में सौर ऊर्जा से भूमि में स्थापित रोगाणुओं द्वारा ब्रोकली, बन्दगोभी, फूल गोभी, चाइनीज सरसों, लैट्यूस, प्याज और टमाटर में होने वाले विल्टिंग एवं जड़ सड़न रोगों को रोकने में भी सफलता मिली है। उपचारित क्षेत्रों में जहाँ 0 से 6 प्रतिशत पौधों में ही रोग के लक्षण देखने को मिले वहीं बिना उपचारित क्षेत्रों में 10 से 21 प्रतिशत पौधों में रोगों के लक्षण देखे गए। इसके साथ ही उपचारित क्षेत्रों में विभिन्न सब्जियों के उत्पादन में 35 से 161 प्रतिशत तक की वृद्धि पाई गई है।
सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव के साथ लाभकारी ‘वैसीकुलर आरबस्कुलर माइकोरहाइजा’ और ‘एजोटोबैक्टर क्रोकोकम’ जैसे जीवाणुओं का उपयोग भी विभिन्न पौधों में रोगों के नियंत्रण में सफल सिद्ध हुआ है। सौर ताप ऊर्जा से उपचारित भूमि में जब लाभकारी वैसीकुलर आरबस्कुलर माइकोरहाइजा फफूंद से संक्रमित सेब, आम, नींबू प्रजातीय फलों के पौधे लगाए गए तो भूमि में विद्यमान रोगाणुओं द्वारा संक्रमित किये जाने वाले विभिन्न रोगों से ये पौधे कम संख्या में प्रभावित हुए और इन पौधों में तुलनात्मक रूप से अधिक बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। इसी तरह सौर ऊर्जा के उपयोग के साथ सेब, आम और नींबू प्रजातीय फलों में लाभकारी वैसीकुलर आरबस्कुलर माइकोरहाइजा फफूंद और एजोटोबैक्टर क्रोकोकम जैसे जीवाणुओं को भूमि में मिलाकर उपयोग करने से भूमि-जनित रोगों को रोकने में सफलता मिली है और पौधों में अच्छी बढ़ोत्तरी एवं उत्पादन क्षमता में वृद्धि देखने को मिली है।
सौर तापमान और भविष्य की सम्भावनाएँ
सौर ऊर्जा का भूमि को उपचारित और रोगाणु रहित करने की तकनीक के रूप में अच्छी सम्भावनाएँ हैं। भूमि को उपचारित और रोगाणु रहित करने की इस तकनीक में किसी भी रासायनिक कीटनाशक का उपयोग नहीं होता है। यह तकनीक पौधों तथा भूमि में विद्यमान सूक्ष्म जीवों और इस तकनीक को उपयोग में लाने वाले व्यक्तियों के लिये पूरी तरह सुरक्षित है। सौर ऊर्जा का ताप प्रभाव भूमि में लम्बे समय तक रहता है और इस तकनीक की रोगों के समेकित प्रबन्धन के विकास में भी प्रमुख भूमिका है।
भविष्य में हमें ऐसी पॉलीथीन का विकास करना होगा जो सूर्य की ताप ऊर्जा को अच्छी तरह से संचित कर सकें ताकि इस तकनीक का उपयोग ठंडे क्षेत्रों में भी किया जा सके और इसके साथ ही इसमें यह विशेषता भी होनी चाहिए कि यह विभिन्न जैविक क्रियाओं द्वारा विखण्डित हो सके।
सौर ऊर्जा की इस तकनीक को हम रोग रोकने की अन्य पर्यावरण- मित्र तकनीकों के साथ मिलाकर रोगों के समेकित प्रबन्धन में भी इसका उपयोग कर सकते हैं। सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव के साथ भूमि में गोभी वर्गीय फसलों के अवशेष, गोबर खाद, फसलावशेषों द्वारा बनाई गई कम्पोस्ट, तिलहनों की खली जैसे कार्बनिक पदार्थों को मिलाकर भी हम सौर ऊर्जा की रोगाणु और रोग रोकने की क्षमता को बढ़ा सकते हैं। सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव द्वारा उपचारित भूमि में लाभकारी जैवनाशक फफूंद और जीवाणुओं के उपयोग से भी हम इस तकनीक की प्रभाव क्षमता को बढ़ा सकते हैं। रोगों को सौर ऊर्जा के ताप प्रभाव से नियंत्रित करने की इस पर्यावरण-मित्र तकनीक में वातावरण, भूमिगत पीने के पानी, कृषि उत्पादों, जलीय जीवों व अन्य जीवों को रासायनिक जीवनाशियों के प्रदूषण से बचाने की अपार सम्भावनाएँ हैं।
लेखक परिचय
1. श्री अभिलाष सिंह मौर्य, कृषि प्रसार एवं संचार विभाग, एसवीबीपी कृषि विश्वविद्यालय, मेरठ- 250 110 (उत्तर प्रदेश)
2. सुश्री प्रेरणा कौशल, पंचशील किसान सेवा केन्द्र, गुरौला रोड सुभाष नगर, मानिकपुर, चित्रकूट 210 208 (उत्तर प्रदेश)
मो. 09450329438