पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में जैवप्रौद्योगिकी का योगदान

Submitted by Editorial Team on Tue, 09/19/2017 - 10:11
Source
विज्ञान प्रगति, सितम्बर 2017

कुछ वर्ष पूर्व सीएसआईआर-राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ एवं केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिक अनुसन्धान संस्थान, मैसूर द्वारा सायनोबैक्टीरिया से सिंगल सेल प्रोटीन का व्यापारिक उत्पादन करवाया गया। इसके लिये शैवाल क्लोरेला एवं सेनडेस्मस भी प्रयोग में लाये गए। ये सूक्ष्म जीव प्रदूषणकारी अपशिष्ट पदार्थों का अधिकतर उपयोग करते हैं जिनसे प्रदूषण नियंत्रण में सहायता मिलती है।

आज हम जैव तकनीक में काफी आगे बढ़ते जा रहे हैं। वर्तमान समय में जैवप्रौद्योगिकी का प्रयोग कृषि, स्वास्थ्य, खाद्य पदार्थ व उपयोगी भोजन, जैव ऊर्जा तथा अन्य तरह-तरह के औद्योगिक उत्पादों में किया जा रहा है। जैवप्रौद्योगिकी का ही परिणाम है कि हम तरह-तरह के प्रतिजैविक, एन्जाइम्स, स्टीरॉइड्स, न्यूक्लियोटाइड्स, बायोपॉलीमर्स, नए एवं उन्नत बीज, ब्यूटेनॉल, बायोगैस आदि को बनाने में सफल हुए हैं। धीरे-धीरे पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में भी जैवप्रौद्योगिकी का प्रयोग बढ़ता जा रहा है।

आज विश्व स्तर पर पर्यावरण संरक्षण में जैवप्रौद्योगिकी की मदद ली जा रही है। बढ़ती हुई आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु औद्योगिक उत्पादन में कई गुना इजाफा हुआ है जिसके कारण आये दिन इन कल-कारखानों से हानिकारक पदार्थ एवं अपशिष्ट पदार्थ हमारे वातावरण में फैलते जा रहे हैं। इसी तरह शहरी सीवेज, घरेलू कचरे, अस्पतालों एवं नर्सिंग होग के दूषित पदार्थों, सड़कों पर बढ़ती गाड़ियों, कृषि में अत्यधिक रसायनों, डेयरी फार्मों के अपशिष्टों, तेल शोधक संयंत्रों के हानिकारक बाई-प्रोडक्टों, रसायन उद्योगों के कचरों एवं हानिकारक अपशिष्टों, प्लास्टिकों के बढ़ते इस्तेमाल आदि के कारण प्रदूषण दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। संसार के विभिन्न देशों में जैवप्रौद्योगिकी के माध्यम से इन प्रदूषकों को उपचारित किया जा रहा है।

वाहित मल को प्रारम्भिक तौर पर उपचारित करने के बाद द्वितीय स्तर पर जैवप्रौद्योगिकी की मदद ली जा रही है। यहाँ कार्बनिक पदार्थों के पाचन हेतु स्यूडोमोनास, माइक्रोकोकस, नाइट्रोसोनास सार्सिना, स्टेंफाइलोकोकस एवं एक्रोमोबैक्टर प्रयुक्त हो रहा है। वायवीय जैव रिएक्टर में जैव फिल्म एवं ऊर्जा के निर्माण हेतु जुग्ला प्रेमिजेरा नामक बैक्टीरिया का प्रयोग हो रहा है। नाइट्रोसोमोनास एवं नाइट्रोबैक्टर का प्रयोग अमोनिया के पाचन के लिये किया जा रहा है जो इन्हें नाइट्रेट में परिवर्तित कर देते हैं। फिर एक्रोमोबैक्टर एल्कलीजींस एवं स्यूडोमोनास का उपयोग कर नाइट्रेट को नाइट्रोजन में अपचयित करा दिया जा रहा है। साथ ही इस तरह जैव रिएक्टर में जैव फिल्म की सतह पर जैवप्रौद्योगिकी के सफल प्रयोग से कई प्रकार के प्रोटोजोआ, कवक एवं शैवाल को जगह दी जाती है जो फास्फोरस, नाइट्रोजन तथा अन्य पोषक तत्वों का पाचन कर लेते हैं। उसी प्रकार से अवायवीय जैव रिएक्टर में अवायवीय बैक्टीरिया तथा डीनाइट्रीफिनेस, डिसल्फाविब्रियो, मिथैनोप यूरॉन एवं मिथैनोप्टेरित आदि की मदद से वसा, कार्बोहाइड्रेट व प्रोटीन का पाचन कर मीथेन एवं कार्बन डाइऑक्साइड उत्पादित की जाती है।

हमारी मृदा में अनावश्यक रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों एवं खरपतवारनाशकों की बढ़ती मात्रा के दुष्प्रभाव को घटाने हेतु इनका विघटन आवश्यक है जिसमें भी जैवप्रौद्योगिकी की सहायता ली जा रही है।

आज पुनर्योजी डीएनए तकनीक से ऐसे बैक्टीरिया का निर्माण किया गया है जो जीवेत्तर यौगिकों को अपघटित करने में सक्षम है। साथ ही जैवप्रौद्योगिकी के अन्तर्गत समुद्री सूक्ष्मजीवों एवं पादप प्लवक का उपयोग डी.डी.टी. के अवशोषण हेतु किया जा रहा है।

जैवप्रौद्योगिकीहानिकारक कीड़े-मकोड़ों को जैवप्रौद्योगिकी के अन्तर्गत सूक्ष्मजीवों द्वारा नष्ट करने की नई तकनीक का सफल प्रयोग हो चुका है। इस तकनीक में हानिकारक कीटों के शरीर में परिवर्धित सूक्ष्मजीवों के जरिए रोग पैदा किये जाते हैं जिनसे अन्ततः कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं। पोपिला जैपोनिका नामक कीटों के सफाया हेतु बैसीलस पोपिली डक्टी बैक्टीरिया की मदद ली जा रही है। यह सब इसलिये किया जा रहा है ताकि हानिकारक रासायनिक कीटनाशकों का कम-से-कम इस्तेमाल कर अपने पर्यावरण को सुरक्षित व शुद्ध बना सके। आज सैकड़ों रोगजनक जीवाणुओं की पहचान की जा चुकी है जो रोग उत्पन्न कर कीड़े-मकोड़ों को साफ कर रहे हैं।

जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनेक अनुसन्धानों के पश्चात ऐसे कवकों की खोज की गई है जो कीटों की त्वचा को छेदकर उसमें घुस जाते हैं और वहाँ टॉक्सिन पैदा करते हैं जिसके कारण अन्ततः ऐसे कीट मर जाते हैं।

जैवप्रौद्योगिकी के सफल प्रयोग से अनेक प्रकार के जैव उर्वरकों की खोज की गई है जिससे कि मिट्टी में रासायनिक उर्वरकों की कम-से-कम जरूरत पड़े। उदाहरणार्थ, थायोबैसिलस की पहचान की गई है जो मृदा में अघुलनशील फास्फेट लवणों को घुलनशील लवणों में परिवर्तित कर देते हैं जिससे ये लवण आसानी से खेतों में लगी फसलों को उपलब्ध हो जाते हैं। वियतनाम जैसे कुछ देशों में जैव उर्वरक के अन्तर्गत एजोला फर्न का धान की खेती में बड़े स्तर पर प्रयोग हो रहा है।कुछ अन्य सूक्ष्मजीवों की भी खोज की गई है जो पौधों में पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने में सहायक हैं, जैसे- राइजोबियम द्वारा प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर करीब 60 किग्रा से 150 किग्रा तक वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण किया जा सकता है। नाइट्रोजन स्थिरीकरण में अन्य सूक्ष्मजीव एजोटोबैक्टर एवं एजोस्पाइरिलम भी सहायक हैं। इसी प्रकार सायनोबैक्टीरिया, शैवाल तथा एनाबिना, प्लेक्टोनिमा, नॉस्टाक भी प्रकृति से नाइट्रोजन लेकर उनका स्थिरीकरण करते हैं।

इस प्रकार जैवप्रौद्योगिकी से पर्यावरण संरक्षण में काफी सहायता मिल रही है। आशा है कि आने वाले दिनों में पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में जैवप्रौद्योगिकी के बढ़ते कदम महत्त्वपूर्ण साबित होंगे।

लेखक परिचय


डॉ. सुनील कुमार ‘प्रियबच्चन’
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