हरित क्रान्ति के जनक और प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन के नाम से लोकप्रिय मोनकोम्बु संबासिवन स्वामीनाथन से जब हम 11 दिसम्बर, 2019 की खिली धूप में मिलने पहुँचे तो अपने दफ्तर में उन्होंने मुस्करा कर हमारा स्वागत किया। उन्होंने 1960 के दशक की शुरुआत में योजना के साथ अपने दिन याद किए, जब एच वाई शारदा प्रसाद योजना के सम्पादक थे। 94 वर्षीय प्रोफेसर स्वामीनाथन गर्व के साथ कहते हैं कि ‘उन दिनों योजना के ऐसे कम ही अंक थे, जिनमें मेरा लेख प्रकाशित न हुआ हो’ एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन के संस्थापक की मेधा पहले जैसी ही है और टिकाऊ खेती को बढ़ावा देने, आम किसान का जीवन स्तर सुधारने तथा जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए स्वयं को तैयार करने के सुझाव देने का जुनून उनके भीतर अब भी वैसा ही है...
चेन्नई में योजना (तमिल) के वरिष्ठ सम्पादक व सहायक निदेशक संजय घोष द्वारा प्रोफेसर स्वामीनाथन से साक्षात्कार के मुख्य अंश यहां प्रस्तुत हैं-
- प्रधानमंत्री ने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र शिखर बैठक में कहा कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए व्यवहार में बदलाव लाने की जरूरत है। यह बदलाव किस तरह किया जाए ?
व्यवहार में बदलाव तीन स्तरों पर आता है। पहला, घर पर, जहां माँ की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। दूसरा, स्कूल और कॉलेजों में। तीसरा, समाज में राजनेताओं से शुरू होता है। जब तक वे यह सुनिश्चित करने का संकल्प नहीं लेते कि जलवायु में दखल नहीं किया जाएगा, तब तक हमारे सामने परेशानी रहेंगी। इसलिए व्यवहार में बदलाव तीन स्तरों पर लाना होगा। घर के स्तर पर सामान्य तरीके से, स्कूल और कॉलेजों के स्तर पर, जहाँ शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है और अंत में आपके जीवन तथा सार्वजनिक जीवन के प्रति आपके नजरिए में। दुर्भाग्य से हमारे देश में अब तक जन शिक्षा का कोई सुनियोजित कार्यक्रम नहीं है।
इसका प्रयास हो रहा है। प्रधानमंत्री विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के खतरों के बारे में समाचार फैलाने का हरसम्भव प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हमारे स्कूलों, कॉलेजों और घरों में अब भी यह नहीं हो रहा है। अपने घरों में हम जरूरत नहीं होने पर भी एयर कंडीशनर चला लेंगे। आपको समझना चाहिए कि हम बिजली की जो भी यूनिट खर्च करते हैं, वह अक्षय ऊर्जा यानी गैर नवीकरणीय ऊर्जा नहीं है, इसलिए हम मुश्किल में हैं। फिर आप गैर नवीकरणीय ऊर्जा के बजाय नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा कैसे दे रहे हैं ? दूसरे शब्दों में घर के स्तर पर, संस्थागत स्तर पर और शहरों तथा कस्बों में ऊर्जा प्रबंधन की जरूरत है। इसलिए स्कूलों और कॉलेजों में अधिक जन जागरूकता फैलाने के लिए कई कदम उठाने होंगे। मैं मानता हूँ कि प्रत्येक पंचायत में जलवायु प्रबंधन समिति होनी चाहिए। हमें पंचायत सदस्यों को जलवायु परिवर्तन से लड़ने की जरूरत के बारे में बताने का प्रयास करना चाहिए।
- सरकार ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विभिन्न नीतियां और कार्यक्रम बनाएं हैं। और क्या करना चाहिए ?
एक मामले में हम बेहत अनूठे हैं। हम लोकतांत्रिक समाज हैं, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र हैं- तीन स्तरों पर जीवंत लोकतंत्र हैं-जमीनी स्तर पर, पंचायत संस्थाओं के स्तर पर और राज्य स्तर की विधाई समितियों आदि के स्तर पर। राष्ट्रीय स्तर पर जीवन और सार्वजनिक शिक्षा के लिए हमारे पास बड़ी संख्या में अकादमी, वैज्ञानिक संस्थाएं और ढेरों विश्वविद्यालय भी हैं। राजनीतिक स्तर पर हमारे पास ग्राम सभा से संसद तक हैं। इसीलिए मैं कहूंगा कि सार्वजनिक शिक्षा हर व्यक्ति की जिम्मेदारी होनी चाहिए। हममें से कुछ को नहीं बल्कि सभी को महसूस करना होगा कि जलवायु अमीर और गरीब का भेद नहीं करती। जलवायु के लिए सब बराबर हैं। आप अमीर हैं तभी आप ऊर्जा का इस्तेमाल कर अपने कमरे में जलवायु को संभालने की कोशिश करते हैं। मुझे लगता है कि अब हमारे देश में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एकजुट होने का समय आ गया है। हमने वर्ष 1989 में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन में जलवायु अनुसंधान शुरू किया है। तीस से भी ज्यादा वर्षों से हमने इस मोर्चे पर तमाम कदम उठाए हैं।
शुरू में लोग बहुत उदासीन थे। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। मुझे लगता है कि अब हम कार्बन के अत्यधिक इस्तेमाल वाले समाज से कम इस्तेमाल वाला समाज बनने को तैयार हैं। जहाँ तक सम्भव हो हम इस बदलाव का इस्तेमाल अपने देश की भलाई के लिए करने का प्रयास करें।
- क्या परिवर्तन का यह दौर ज्यादा समय ले रहा है ?
यह सच है। यही बात मैंने पहले कही। सैद्धान्तिक रूप से हमारे लोग जलवायु परिवर्तन के बारे में जानते हैं। वास्तव में हम जलवायु को मापने के लिए भारतीय मौसम विभाग स्थापित करने वाले शुरुआती देशों में शामिल हैं क्योंकि हम मोटे तौर पर कृषि प्रधान देश हैं। प्रकाश संश्लेषण के कारण कृषि नवीकरणीय ऊर्जा की मुख्य स्रोत है। उदाहरण के लिए हमें पता है कि दक्षिण भारत में पोंगल के समय सूर्य और हरे पौधे की पूजा होती है। सूर्य की पूजा इसलिए की जा रही क्योंकि हरे पौधे सूर्य के प्रकाश को सोख रहे हैं और उसे ऊर्जा में बदल रहे हैं। यह सब ज्ञान का विकसित चरण है। जब मैं लोगों से पूछता हूँ कि पोगल का मतलब क्या है ? वे गन्ने को क्यों चुनते हैं ? लोगों को नहीं पता। गन्ना सौर ऊर्जा को सबसे अच्छे तरीके से सोखता है।
इसलिए मुझे लगता है कि अब हम बदल रहे हैं और सरकार खास तौर पर मौजूदा सरकार जलवायु के मसलों पर काफी जोर दे रही है। मुझे उम्मीद है कि हाल में सम्पन्न जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (मैड्रिड) में सभी देश किसी समझौते पर पहुँच जाएंगे। भारत ही नहीं, यूरेशिया ही नहीं, अमेरिका ही नहीं बल्कि इस दुनिया के प्रत्येक नागरिक को लगना चाहिए कि यह उसी का ग्रह है। उसे पता होना चाहिए कि उसके पास यही इकलौता ग्रह है और इसीलिए जलवायु परिवर्तन या दूसरे प्रकार के बदलावों से इसे बचाने का जिम्मा उसी का है।
मुझे लगता है कि ऐसा हो रहा है, हालांकि मैं इसकी रफ्तार से संतुष्ट नहीं हूँ। लेकिन मुझे यकीन है कि आजकल उपलब्ध ज्ञान के कारण लोगों में यह जागरूकता बढ़ रही है कि हमारे जीवन तथा ग्रह पर जलवायु का बहुत प्रभाव पड़ता है। लेकिन ऊर्जा अहमियत को देखते हुए यह जिस रफ्तार से होना चाहिए, उस रफ्तार से नहीं हो रहा। इस कमरे में रोशनी है; इसके लिए ऊर्जा की जरूरत है। खाना पकाने के लिए हमें ऊर्जा चाहिए। इसीलिए रफ्तार बढ़ाई जा सकती है, बशर्ते हम कार्बन के अधिक उत्पादन वाली हरेक गतिविधि का विकल्प खोज सकें। उदाहरण के लिए धुआंरहित चूल्हा। यह छोटी सी वस्तु हो सकती है, लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह भी योगदान करेगा। हमें ऐसे अधिक से अधिक योगदान करने के लिए आगे आना होगा और हमें जलवायु परिवर्तन की अहमियत समझनी होगी। अगले दस वर्ष में बहुत कुछ नहीं होने जा रहा है। लेकिन अगले बीस वर्ष में यह हो जाएगा। उस समय तक आपके बच्चे बड़े हो जाएंगे, इसीलिए आपको लापरवाही नहीं करनी चाहिए।
- पिछले कुछ महीनों में पराली का जलना दिल्ली में प्रदूषण का मुख्य कारण हो गया है। इससे निपटने के लिए सरकार को कौन से कदम उठाने चाहिए ?
जब पंजाब में चावल, गेहूं का फसल चक्र शुरू हुआ तो पराली जलाना भी शुरू हो गया। मैं शुरू से ही इसे देख रहा हूँ। आमतौर पर चावल की किस्में लम्बे समय में पकती हैं। लेकिन चावल की कटाई करनी होती है। चावल की कटाई सितम्बर/अक्टूबर तक करनी होती है ताकि गेहूँ समय पर बोया जा सके। वरना उसकी उपज कम हो जाएगी। इसीलिए मैंने सुझाव दिया है कि हमारे पास चावल की ऐसी किस्में होनी चाहिए, जिन्हें जल्दी काटा जा सके। फसल जितने अधिक समय में पकेगी, उपज उतनी ही बेहतर होती है। लेकिन किसान केवल एक फसल नहीं उगाते। वे दो फसलें चावल और गेहूँ एक साथ चक्र में उगाते हैं।
पंजाब में अब एकदम नया फसल चक्र आ गया है। जब भी चावल और गेहूँ का चक्र होता है तो राइस बायो पार्क की जरूरत होती है। राइस बायो पार्क का मतलब है कि चावल के प्रत्येक भाग-पौधे, पुआल, छिलके, भूसी और पत्तियों का इस्तेमाल होना चाहिए। इन सभी का उपयोग होता है। मेरा कहना है कि जब तक इनकी कीमत नहीं मिलेगी तब तक किसान इसे नहीं अपनाएंगे। दक्षिण भारत में पुआल नहीं जलाया जाता। मेरे घर में चार-पांच गायें होती थीं, इसलिए पुआल या भूसा बहुत अहम था क्योंकि हम उसे गायों को खिलाते थे। मेरी मां पुआल या भूसे का एक भी तिनका बर्बाद नहीं होने देती थीं क्योंकि उसका मोल था। किसान पराली तब जलाते हैं, जब उन्हें उसका कोई मोल नहीं मिलता। पराली बहुत काम की होती है। मैंने राजस्थान सरकार को लिखा कि आप पंजाब के करीब हैं, आपके यहाँ पोषण की कमी की शिकार ढेरों गाय हैं। तो आप पड़ोसी पंजाब को रकम देकर सारी पराली क्यों नहीं खरीद लेते और उसे अपने मवेशियों को चारे के तौर पर क्यों नहीं खिलाते। दुर्भाग्य से यह केवल मेरा सोचना है। अच्छे विचार कई बार कागजों पर ही रह जाते हैं। लेकिन कुछ विचार तेजी से अपनाएं भी जाते हैं। मगर फसल के तरीकों में इस तरह के बदलाव के लिए हमें किसानों को खेतों में ऐसी तकनीक मुहैया करानी चाहिए, जिससे वे चावल के पुआल को उपयोगी उत्पादों में बदल सकें।
लेकिन फसल प्रणाली में इस तरह के बदलाव के लिए हमें तकनीक विकसित करनी होगी। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में प्राचीन काल में खेती के पांच प्रमुख तरीके थे- कुरिंजी, मुल्लै, मारुतम, नेइतल और पालई। पर्वतीय क्षेत्र, वन्य क्षेत्र, नमी वाले क्षेत्र, तटवर्ती क्षेत्र और मरु क्षेत्र में से हरेक के लिए खेती को अलग पद्धतियां होती थी। लेकिन मुझे लगता है कि वह ज्ञान आगे आ रहा है। हम आमतौर पर किसानों पर तोहमत लगती देखते हैं। वे उत्पादक होते हैं। हम दुनिया में चावल के सबसे बड़े उत्पादक बन गए हैं। पहले थाईलैंड सबसे आगे था। इसीलिए आरोप-प्रत्यारोप का कोई फायदा नहीं। सबसे अहम चावल की पराली है। पशुओं के लिए यह कैलोरी और विटामिन का अच्छा स्रोत है। किसान इस स्रोत का अतिरिक्त आय के लिए इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं ? इंटरनेशनल राइस इंस्टीट्यूट, फिलीपींस में रहते समय मैंने हरसंभव प्रयास किया था। श्रीमती कोरी एक्विनो देश की राष्ट्रपति थीं। वे फाउंडेशन में आई, राइस बायो पार्क का दौरा किया और चावल की भूसी से बना एक खूबसूरत कागज देखा। उन्होंने पूछा कि इसकी कीमत क्या है ? क्या आप चावल की भूसी के कागज से इस वर्ष एक हजार क्रिसमस कार्ड बना सकते हैं। उन्होंने ऑर्डर भी दे दिया।
यदि मेरे पास चावल की भूसी है और मान लीजिए कि इससे मुझे 1,000 रुपए प्रति टन मिलते हैं, जो मुश्किल नहीं हैं तो मैं उसे नहीं जलाऊंगा। यदि आप पड़ोसी राजस्थान को दे देंगे तो यह पशुओं का चारा बन जाएगा। यह पापर, गत्ता बनाने के लिए कच्चा माल होता है, इसे भूमि की उर्वरता बढ़ाने के लिए खाद के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। आर्थिक महत्व होगा तो किसान पराली जलाना बंद कर देंगे। इसीलिए पराली का मोल है, लेकिन इसके मोल के बारे में जानकारी का समुचित प्रसार जरूरी है।
- किसानों को पराली जलाने से रोकने के लिए तकनीक बनाने में सरकार क्या कर सकती है ?
दुर्भाग्य से हमारे देश में तकनीक का हस्तांतरण बहुत धीमे होता है। चूंकि कृषि राज्य का विषय है, इसलिए भारत सरकार बड़े मसलों, नीति आदि पर ध्यान देती है। गांवों के स्तर पर भी कोई विस्तार एजेंसी नहीं है। मैंने इसके लिए 1972 में कृषि विकास केन्द्र आरम्भ किए थे। मैंने कृषि विज्ञान केन्द्र जैसा कुछ सोचा था। यह विचार आगे बढ़ा है, लेकिन हमें प्रत्येकक पंचायत में कम से कम एक जलवायु प्रबंधन इकाई की जरूरत है। उनके जलवायु प्रबंधन के एजेंडा में पराली जलने को भी शामिल किया जा सकता है।
- कृत्रिम बुद्धिमत्ता और इंटरनेट ऑफ थिंग्स प्रत्येक क्षेत्र में अहम भूमिका निभा रहे हैं। हम इन तकनीकों का खेत में किस तरह इस्तेमाल कर सकते हैं ?
देशभर में इसे तीन स्तरों पर किया जा सकता है। पहला, हमारे पास राष्ट्रीय अकादमी होनी चाहिए, जिसकी भारतीय विज्ञान अकादमी की तरह देशभर में शाखाएं हों। दूसरा, प्रत्येक पंचायत के पास काम करने का तरीका होना चाहिए। तीसरा, भारत सरकार अब सभी मुख्यमंत्रियों की सालाना बैठक करती है। हमें वहाँ एक एजेंडा सामने रखना चाहिए और कहना चाहिए कि आप इस पर काम करें।
- आज का खाद्य तंत्र वनों और जैव विविधता के नाश का प्रमुख कारण है। हम इससे कैसे निपटें ?
खाद्य तंत्र के लिए हमें और भी जमीन चाहिए। आदर्श स्थिति में किसी भी देश को कम से कम जमीन में अधिक से अधिक भोजन उगाना चाहिए। विस्तार की जगह उत्पादकता में अधिक से अधिक बढ़ोत्तरी की कोशिश होनी चाहिए। हमारी औसत उपज 1 से 1.5 टन प्रति हेक्टेयर है, जबकि जापान जैसे देशों में आंकड़ा 5-6 टन प्रति हेक्टेयर है। हम अधिक उत्पादकता के साथ फसलें उगाकर आसानी से ऐसा कर सकते हैं। साथ ही बासमती हो या दूसरी किस्म हो, हमें उत्पादकता के साथ अनाज की गुणवत्ता का भी ध्यान रखना चाहिए, ताकि उसका अधिक से अधिक निर्यात किया जा सके। यदि आप अधिक निर्यात कर सकते हैं तो आप अधिक चावल उगा भी सकते हैं। हमारे पास दुनिया में सबसे बड़ा चावल उत्पादक क्षेत्र है- 4 करोड़ हेक्टेयर से भी ज्यादा। इसीलिए अधिक चावल, अधिक गेहूँ उगाने की बहुत सम्भावना है।
मूल रूप से हम कृषि प्रधान देश हैं। हमें यही समझना होगा। आधुनिक उद्योग कम कामगारों में काम चला लेता है। खेती में अधिक कामगारों की जरूरत होती है। हम बेरोजगारी वाली वृद्धि नहीं चाहते। हमें रोजगार देने वाली वृद्धि चाहिए और कृषि इसका हल मुहैया कराती है।
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