रविवार की दोपहर का वक्त था। दिल्ली के मोती नगर में स्थित रिहायशी कॉम्प्लैक्स डीएलएफ कैपिटल ग्रीन्स के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के सेप्टिक टैंक की सफाई के लिये पाँच कर्मचारियों राजा, उमेश, पंकज, सरफराज और विशाल को टैंक में उतारा गया था।
ये जानते हुए कि सेप्टिक टैंक में जहरीली गैस होती है, जो जान भी ले सकती है, इन पाँचों मजदूरों को कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिया गया। खबर तो यह भी है कि जिन मजदूरों को सेप्टिक टैंक में उतारा गया, उनका यह काम नहीं था (हालांकि कानून में टैंकों की सफाई मैनुअली करने पर ही रोक है)।
टैंक के भीतर सबसे पहले उमेश दाखिल हुआ। भीतर जाते ही जहरीली गैस ने उसे अपनी जद में लिया और वह वहीं बेहोश हो गया। उसे गश खाता देखकर उसके दूसरे साथी भी टैंक के भीतर उतरे और वे भी बेहोश हो गए। मौका-ए-वारदात पर मौजूद उनके अन्य दोस्तों ने इसकी सूचना तुरन्त अपने वरिष्ठ अफसरों को दी।
इसके बाद आनन-फानन में पुलिस और दमकल विभाग को भी सूचित किया गया। दमकल व पुलिस कर्मचारी मौके पर पहुँचे और सभी पाँच मजदूरों को टैंक से बाहर निकालकर इलाज के लिये अस्पताल ले गए। अस्पताल के डॉक्टरों ने चार मजदूरों को मृत घोषित कर दिया जबकि एक की हालत गम्भीर बनी हुई है।
घटना को संज्ञान में लेकर दिल्ली सरकार ने मामले की जाँच के आदेश दिये हैं। राज्य के श्रम मंत्री गोपाल राय के प्रवक्ता संजय कम्बोज के अनुसार जाँच कमेटी तीन दिन में अपनी रिपोर्ट देगी। वहीं, दूसरी तरफ पुलिस आपराधिक मामला दर्ज करने की तैयारी कर रही है।
घटना राजधानी दिल्ली में घटी, इसलिये यह खबर न्यूज चैनलों और अखबारों की सुर्खी बन गई, लेकिन सवाल है कि क्या यह इकलौती घटना है? नहीं! दिल्ली की यह घटना देश की इकलौती घटना नहीं है, जहाँ मजदूरों के लिये सेप्टिक टैंक मौत का कुआँ साबित हुआ है। अगर हम पिछले कुछ महीनों की घटनाओं पर गौर करें, तो सेप्टिक टैंक में जहरीली गैस से डेढ़ दर्जन से ज्यादा मजदूरों की जान जा चुकी है।
इसी महीने 2 तारीख को ओड़िशा के रायगड़ा जिले में भी सेप्टिक टैंक में दम घुटने से पाँच लोगों की जान चली गई थी।
जुलाई में मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में सेप्टिक टैंक में उतरे दो मजदूरों की दम घुटने से मौत हो गई थी।
पिछले महीने यानी अगस्त में बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के जितना थाना इलाके में एक ही परिवार के 4 लोग समेत कुल छह लोगों की मौत सेप्टिक टैंक की जहरीली गैस से हो गई।
बताया जाता है कि वे लोग अर्द्धनिर्मित सेप्टिक टैंक में लगी शटरिंग को खोलने के लिये नीचे उतरे थे। टैंक में प्रवेश के चन्द मिनटों के भीतर टैंक में भरे मिथेन, इथेन और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी जहरीली गैस की जद में आ गए और उनकी मौत हो गई।
इससे पहले 30 जून को सहरसा में नवनिर्मित सेप्टिक टैंक से मचान हटाने उतरे चार मजदूरों की भी मौत जहरीली गैस के कारण हो गई थी। 12 जून को पूर्णिया में एक निर्माणादीन शॉपिंग मॉल के सेप्टिक टैंक से शटरिंग खोलते वक्त दम घुटने से 3 मजदूरों की जान चली गई थी।
ये कुछ घटनाएँ बानगी हैं, ऐसी दर्जनों घटनाएँ आये दिन देश के विभिन्न हिस्सों में हो रही हैं। ये काम करना मजदूरों की मजबूरी की है क्योंकि उनके लिये रोजी-रोटी का जुगाड़ जीने-मरने का सवाल है। उनके पास रोजगार का दूसरा कोई विकल्प नहीं है, लिहाजा वे सेप्टिक टैंक में उतरने से भी नहीं डरते हैं, यह जानते हुए कि वे टैंक उनके लिये कभी भी मौत का कुआँ साबित हो सकते हैं।
अगर हम दिल्ली की घटना की ही बात कर लें, तो जो लोग सेप्टिक टैंक में उतरे थे, वे बहुत गरीब परिवार से आते थे। हालांकि, शुरुआती छानबीन में पता चला है कि उनका काम सेप्टिक टैंक साफ करना नहीं था, लेकिन जबरदस्ती उनसे यह करवाया गया था।
खैर, देश में ऐसे मजदूरों की संख्या लाखों में है, जिनके लिये सेप्टिक टैंक या नालों की सफाई ही रोजगार का इकलौता जरिया है और यह तब है जब देश में हाथों से शौचालय की टंकियों की सफाई पर पूरी तरह प्रतिबन्ध है।
वर्ष 1993 में ही सरकार ने देशभर में शौचालय टंकियों की मानव से सफाई पर रोक लगा दी थी। वर्ष 2013 में सरकार ने मैनुअल स्कैवेंजर्स एक्ट भी पास करवा लिया जिसमें प्रतिबन्ध को कारगर तरीके से लागू करने और इन कामों से जुड़े लोगों के पुनर्वास के प्रावधान थे।
इस एक्ट के प्रावधानों में अस्वास्थ्यकर शौचालय के निर्माण पर रोक, किसी भी व्यक्ति को मैला ढोने के काम में लगाने पर प्रतिबन्ध, लोगों से सेप्टिक टैंक की सफाई पर रोक आदि शामिल थे। एक्ट में यह भी कहा गया था कि जो भी इस तरह के कामों के लिये लोगों को रखेगा, उस पर कानून कार्रवाई की जाएगी, लेकिन कानूनी तौर पर प्रतिबन्ध और तमाम प्रावधानों के बावजूद मजदूर सेप्टिक टैंक में उतर रहे हैं और अपनी जान गँवा रहे हैं। इससे यही पता चलता है कि कानून को बनाकर धूल फाँकने के लिये छोड़ दिया गया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर मौजूदा कानून को ही प्रभावी तरीके से लागू कर दिया जाये, तो स्थितियों में सुधार आएगा। मसलन अगर सेप्टिक टैंक की सफाई में लगे मजदूरों को अगर रोजगार का विकल्प मुहैया करवाया जाता है, तो वे निश्चित तौर पर जान जोखिम में डालकर सेप्टिक टैंक की सफाई करने के लिये कभी नहीं जाएँगे।
दूसरी बात यह कि सेप्टिक टैंक बनाने के लिये भी अगर मजदूरी भीतर उतरते हैं, तो उनमें यह जागरुकता फैलाई जानी चाहिए कि सुरक्षा के तमाम उपकरण से लैस होकर ही वे भीतर दाखिल हों। ऐसी ही जागरुकता उन लोगों के लिये भी जरूरी है, जो ऐसे मजदूरों से सेप्टिक टैंक का काम करवाते हैं।
सेप्टिक टैंक की सफाई व मैला ढोने वालों के लिये मुआवजे का भी प्रावधान है लेकिन हाल ही में आरटीआई से मिली जानकारी सरकारी उदासीनता को उजागर करती है।
‘द वायर’ की ओर से दायर एक आरटीआई के जवाब में केन्द्र सरकार ने बताया है कि पिछले चार सालों में मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिये एक रुपया भी जारी नहीं किया गया है।
आरटीआई में यह भी खुलासा हुआ है कि अलग-अलग वर्षों में 2014 से पहले जब भी राशि आवंटित की गई, उनका एक बड़ा हिस्सा बिना खर्च किये ही लौट गया।
सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक, वर्ष 2006-07 में 56 करोड़ रुपए जारी हुए थे जिनमें से महज 10 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसी तरह वर्ष 2007-08 में जो राशि आवंटित हुई उनमें से 36 करोड़ रुपए खर्च नहीं हुए। वर्ष 2014-2015 में भी आवंटित राशि का एक बड़ा हिस्सा बचा रह गया।
इसका मतलब है कि न तो राज्य सरकार और न ही केन्द्र सरकार ही इस संगीन मामले को लेकर गम्भीर है। हैरानी की बात तो यह है कि सरकार के पास कोई आधिकारिक आँकड़ा ही नहीं है, जो बताए कि हर साल सेप्टिक टैंक की जहरीली गैसें कितने लोगों को मौत की नींद सुला देती है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो में सालाना तमाम वजहों से होने वाली मौतों को लेकर आँकड़ा जारी करती है, लेकिन इन आँकड़ों में सेप्टिक टैंक की गैस से होने वाली मौत का कोई जिक्र नहीं होता है।
वर्ष 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार हर 20 हजार से भी अधिक सफाई कर्मचारियों की मौत होती है। लेकिन, इस अनुमान से यह साफ नहीं होता है कि सेप्टिक टैंक में उतरने से कितने मजदूर काल की गाल में समा रहे हैं।
वहीं, मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ आन्दोलन करने वाले संगठन सफाई कर्मचारी आन्दोलन ने जुटाए गए आँकड़ों के आधार पर बताया है कि पिछले कुछ वर्षों में सीवर लाइन व सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान 1470 लोगों की मौत हो चुकी है।
यहाँ यह जानना भी दिलचस्प है कि सरकार मैला ढोने वालों और सेप्टिक या सीवर में उतरकर हाथ से सफाई करने वालों को एक नहीं मानता है। मैनुअल स्केवेंजर्स से सरकार का मतलब उन लोगों से ही है जो मैला ढोने का काम करते हैं।
सफाई कर्मचारी आन्दोलन से जुड़े रेमन मैगसेसे अवार्डी बेजवाड़ा विल्सन सीधे तौर पर इन सबके लिये केवल-और-केवल सरकार को दोषी मानते हैं।
उनका कहना है कि अगर केन्द्र सरकार के पास इच्छाशक्ति हो, तो इस पर तुरन्त रोक लग जाएगी।
दो वर्ष पहले इण्डिया वाटर पोर्टल को दिये एक साक्षात्कार में विल्सन ने केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा था, ‘वर्तमान सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति बेहद कमजोर है। प्रधानमंत्री जी से मिलकर कई बार अपील की गई, लेकिन अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।’
उन्होंने यह भी कहा था, ‘पिछले 2 सालों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को कई ज्ञापन सौंपे गए। ज्ञापन में वर्ष 1993 के कानून को लागू करने, नया कानून बनाने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने को कहा गया था लेकिन सरकार की तरफ से इस पर कोई कार्रवाई अब तक नहीं हुई है। केन्द्र सरकार सफाई कर्मचारियों के लिये आवंटित पुनर्वास पैकेज को खर्च नहीं करती है। इन्हीं वजहों से यह कुप्रथा अब भी बनी हुई है।’
बहरहाल, अब वक्त आ गया है कि जिन्दा रहने के लिये जान जोखिम में डालने वाले हाशिए पर खड़े इस वर्ग पर ध्यान दिया जाये और इसके लिये सरकार को बहुत ज्यादा करने की जरूरत भी नहीं है।
अगर सरकार 2013 के कानून को ही सख्ती से लागू कर दे, तो हालात बदलने शुरू हो जाएँगे। इसके साथ ही सरकार को चाहिए कि वह इस वर्ग के लोगों का पुनर्वास करे और रोजगार का बेहतर विकल्प मुहैया कराए, ताकि उन्हें मौत के कुएँ में उतरने के जोखिम से निजात मिल सके।
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