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गोवा का पणजी एक पर्यटन स्थल है इसलिये यहाँ हर वर्ष लाखों टूरिस्ट आते हैं। कुछ वर्ष पहले तक यहाँ की सड़कों, बिल्डिंगों के बाहर, पार्कों, समुद्र के किनारों में कचरों का अम्बार लगा रहता था। पणजी म्युनिसिपल कॉरपोरेशन ने इसे गम्भीरता से लिया और घरों से कचरा लेने की प्रथा शुरू की। धीरे धीरे कॉरपोरेशन के कर्मचारियों ने घरों से निकलने वाले कचरों को लेने की शर्त रखी कि अगर कचरों को अलग अलग करके दिया जायेगा तभी वे उन्हें उठायेंगे। मसलन प्लास्टिक अलग, खाद्य पदार्थ अलग, औषधीय कचरा अलग। कूड़ा-करकट हर घर से निकलता है। लोग अपने घरों को साफ रखने के लिए इन कचरों को कहीं और फेंक आते हैं लेकिन हम यह सोचने की जहमत नहीं उठाते हैं कि इन कचरों का होता क्या है। असल में हम अपना घर साफ रखने के लिये दूसरी जगहों को गंदा करते हैं कचरा फेंककर।
एक अनुमान के अनुसार सम्प्रति भारत में हर साल 52 मिलियन टन कचरा निकलता है जिन्हें ठिकाने लगाने के लिये हर वर्ष 1240 हेक्टेयर भूमि की जरूरत पड़ती है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुमान के मुताबिक वर्ष 2031 में हर वर्ष 165 मिलियन टन कचरा निकलेगा। इस अनुमान से सहज ही कल्पना की जा सकती है कि 15 साल बाद इन्हें ठिकाने लगाने के लिये कितनी जमीन की जरूरत पड़ेगी। यही हालत रही तो एक दिन ऐसा आयेगा कि भारत को कचरा ठिकाने लगाने के लिये अपनी ही जमीन कम पड़ जायेगी। उस वक्त क्या हाल होग, यह कल्पना करना मुश्किल है। घरों से निकलने वाले ठोस वर्ज्य पदार्थों के साथ बढ़ता ई-कचरा भी नया सिरदर्द है।
फिक्की द्वारा हाल ही में किये गये सर्वेक्षण से पता चला है कि भारत में हर वर्ष लगभग 18.5 लाख मैट्रिक टन इलेक्ट्रानिक कचरा यानी ई-कचरा निकलता है और अगर यही ट्रेंड जारी रहा तो वर्ष 2018 तक देश में हर वर्ष 30 लाख मेट्रिक टन कचरा निकलने लगेगा।
आश्चर्य की बात ये है कि ई-कचरा का महज 2.5 प्रतिशत हिस्से की ही रिसाइक्लिंग हो पा रही है। ये हालात चिंताजनक हैं। ई-कचरा को लेकर हालांकि अब तक नये प्रयोग सामने नहीं आये हैं।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की और से कचरा प्रबंधन पर आयोजित एक कार्यशाल में सीएसई की डायरेक्टर जनरल सुनीता नारायण ने कहा, ‘हमें कचरा प्रबंधन के लिये अभी से प्रयोग करने होंगे और अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करना होगा, अन्यथा हालात गंभीर होंगे।’
वैसे इस दिशा में पणजी, मैसूर और अलापुझा में अच्छा काम हो रहा है जिनसे शेष भारत को सीखने की जरूरत है। इन तीन शहरों को सीएसई ने क्लीन सिटी अवार्ड भी दिया गया। सुनीता नारायण की किताब नॉट इन माई बैकयार्ड के लोकार्पण कार्यक्रम में आये केंद्रीय शहरी विकास वेंकैया नायडु ने ये पुरस्कार दिये। इस मौके पर उन्होंने कहा कि ये शहर (पणजी, मैसूर और अलापुझा) भविष्य में तीर्थस्थल होंगे। उन्होंने कहा, इन शहरों में जिस तरह का काम हो रहा है, उसे प्रचारित करने की आवश्यकता है ताकि दूसरे शहर इसका अनुकरण कर कचरा प्रबंधन पर ध्यान दें।
सुनीता नारायण बताती हैं, ‘केरल में सामुदायिक कम्पोस्ट के जरिये कचरों को पुनःचक्रित किया जा रहा है और साथ ही इससे असंगठित सेक्टर के कामगारों को भी जोड़ा जा रहा है। यही नहीं केरल में स्वच्छता मिशन को भी इससे जोड़ दिया गया है। केरल मॉडल भविष्य में इस दिशा में राह दिखायेगा।
गोवा का पणजी एक पर्यटन स्थल है इसलिये यहाँ हर वर्ष लाखों टूरिस्ट आते हैं। कुछ वर्ष पहले तक यहाँ की सड़कों, बिल्डिंगों के बाहर, पार्कों, समुद्र के किनारों में कचरों का अम्बार लगा रहता था। पणजी म्युनिसिपल कॉरपोरेशन ने इसे गम्भीरता से लिया और घरों से कचरा लेने की प्रथा शुरू की। धीरे धीरे कॉरपोरेशन के कर्मचारियों ने घरों से निकलने वाले कचरों को लेने की शर्त रखी कि अगर कचरों को अलग अलग करके दिया जायेगा तभी वे उन्हें उठायेंगे। मसलन प्लास्टिक अलग, खाद्य पदार्थ अलग, औषधीय कचरा अलग। पणजी म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के पूर्व मेयर संजीत रोडरिगस कहते हैं, ‘यह काम आसान नहीं था। काफी दिनों तक इस तरह प्रयोग करना पड़ा। हमनें फास्ट फूड के स्टाल चलाने वालों से कहा कि वे शैशे में चटनी देना बंद करें। होटलों से कहा कि वे ऐसी चीजें देने से परहेज करें जिनसे कचरा फैलता हो।’ वे आगे बताते हैं, ‘विभिन्न कॉलोनियों में 70 कम्पोस्टिंग यूनिट स्थापित की गयी जहाँ उन कचरों की रिसाइक्लिंग की जाती है जो इस लायक हों और नॉन-रिसाइकेबल कचरों को सीमेंट फैक्ट्री में भेज दिया जाता है।’
अलापुझा की हालत भी पणजी से कम नहीं थी। यहां भी जहाँ तहाँ कचरों का अम्बार लगा रहता था लेकिन नई सोच और इच्छाशक्ति के बल पर यहाँ भी सफलता मिली। अलापुझा नगरपालिका के चेयरमैन थॉमस जोसेफ बताते हैं, ‘पालिका क्षेत्र में आने वाले सभी मकानों में बायोगैस प्लांट स्थापित करने को अनिवार्य किया गया ताकि रिसाइकेबल कचरों से ऊर्जा उत्पादन किया जा सके और जिन मकानों के लिए ऐसा करना मुश्किल था उन्हें पाइप कम्पोस्टिंग की व्यवस्था करने को कहा गया और इस तरह कचरे का प्रबंधन किया जा रहा है।’
मैसूर में भी इसी तरह कचरों का प्रबंधन किया जा रहा है जो आने वाले वक्त की जरूरत है लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसे उदाहरण इक्का-दुक्का ही हैं।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के विज्ञानी विनोद बाबू ने कहा, रोज जितना कचरा निकलता है उसके 20 प्रतिशत हिस्से की ही रिसाइक्लिंग हो पाती है। बाकी कचरों को डम्पिंग ग्राउंड में फेंका जाता है। वे कहते हैं, हमें कचरों की रिसाइक्लिंग करनी होगी ताकि डम्पिंग ग्राउंड पर निर्भरता खत्म हो।