भूकम्परोधी भवनों का रूपाँकन

Submitted by birendrakrgupta on Fri, 01/23/2015 - 07:55
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योजना, मार्च 2012
भूकम्प से उत्पन्न ऊर्ध्व और क्षैतिज दिशा में पृथ्वी पर वेग के गमन से भवन जिस सतह पर स्थित रहते हैं, उसी के साथ उठते और हिलते हैं। भारतीय मानक संहितानुसार बनाए गए भवनों की इकाइयों में भूकम्प के समय यदि दरार भी पड़ जाए, तब भी भवनों के पूर्ण विनाश की सम्भावना कम रहती है।पिछले दशकों में बिहार-नेपाल, उत्तरकाशी, लातूर, जबलपुर और भुज के भूकम्पों एवं दक्षिण भारत के सुनामी ने असीमित जान-माल की क्षति की है। इन भूकम्पों ने अनगिनत भवनों, सडकों, पुलों, रेलों, जलाशयों और कई महत्वपूर्ण संरचनाओं को क्षतिग्रस्त किया है। ऐसे में अति आवश्यक सेवाएँ यथा— स्वास्थ्य एवं चिकित्सा, काननू एवं व्यवस्था, यातायात एवं संचार इत्यादि प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते हैं। इस आपदा की घड़ी में सभी सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठन राहत-कार्यों में जुट जाते हैं। देर-सबेर सभी सेवाओं को दुरुस्त कर ध्वस्त एवं खण्डित संरचनाओं का पुनर्निर्माण कर लिया जाता है। परन्तु इन सब के बावजूद जिन्हें इस आपदा से अपने प्राण गँवाने पड़े उनकी क्षतिपूर्ति असम्भव है। भूकम्प प्रकोपित इलाकों के सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि प्राणों की हानि का मुख्य कारण भवनों का पूर्णरूपेण धराशायी होना ही है। भवनों की संरचना में चूक तथा इनके असंगत आकार ही इनके विनाश के कारण साबित हुए हैं।

भूकम्परोधी भवनों का रूपाँकनभूकम्परोधी भवनों का रूपाँकन 2उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए भूकम्प-प्रवृत्त क्षेत्रों में भूकम्परोधी भवनों का निर्माण करना एक परिपक्व कदम हो सकता है। ऐसे भूकम्परोधी भवनों के निर्माण की प्रक्रिया में भारतीय मानक ब्यूरो, नई दिल्ली द्वारा सुझाई गई संहिता को ध्यान में रखना चाहिए।

भूकम्परोधी भवन निर्माण के सामान्य सिद्धान्त


.भार/परिमाण : भूकम्पीय बल मुख्य रूप से क्षैतिज दिशा में प्रभावी होते हैं। अतः हल्के भवन भूकम्पीय दृष्टिकोण से ज्यादा सुरक्षित होते हैं। विशेषकर भवनों की छतें एवं ऊपरी तल क्रमागत रूप से हल्के होने चाहिए। छत एवं ऊपरी तल अधिक भारी होने से भूकम्पों के द्वारा भवन के ढाँचे में उत्पन्न पार्श्व-बल का मान अधिक होता है। फलस्वरूप भवन के विभिन्न अवयवों में उत्पन्न नमन घुर्णन (बेंडिंग मोमेण्ट) एवं कर्त्तन बल (शियर फोर्स) का मान भी बढ़ता है। चित्र संख्या-1 से स्पष्ट है कि भवन के ढाँचे में ऊपरी तलों का अपेक्षाकृत ज्यादा भार एक कम भार वाले की तुलना में अधिक नमन घुर्णन उत्पन्न करता है।

निर्माण की निरन्तरता : भवन के प्रत्येक अवयव आपस में इस तरह से बँधे हों कि पूरा भवन एक इकाई की तरह काम करे। गृहमूल-फलक (फ्लोर-स्लैब) अपने फैलाव-जोड़ (एक्सपेंसन ज्वाईण्ट) के बावजूद, जहाँ तक सम्भव हो निरन्तरता कायम रखे। पहले से विद्यमान ढाँचे में यदि सुधार अथवा आंशिक बदलाव करना हो तो नये निर्माण और पुराने ढाँचे के बीच अत्यन्त ही नाजुक जोड़ का प्रावधन करना चाहिए, जो भूकम्पीय बल के आरोपित होते ही आसानी से टूट सके।

प्रक्षेपित एवं अवलम्बित भाग : जहाँ तक सम्भव हो, किसी भी ढाँचे में प्रक्षेपण की अवहेलना करनी चाहिए। यदि प्रक्षेपण अत्यावश्यक हो तो इनके प्रबलन पर विशेष ध्यान रखते हुए इन्हें मुख्य ढाँचे से अच्छी तरह बाँधना चाहिए। निलम्बित छत (सस्पेण्डेड सीलिंग) एवं सीलिंग-प्लास्टर की अनुशंसा से बचना चाहिए।

भवन की आकृति : भवन की योजना सामान्य और आयताकार होनी चाहिए। परिमाण एवं संरचना के दृष्टिकोण से भवन को समरूप होना चाहिए ताकि परिमाण एवं दृढ़ता के केन्द्र यथासम्भव एक-दूसरे में समाहित हों। अगर अधियोजना, परिमाण तथा संरचना में भवन को समरूपता प्रदान करना कठिन हो, तो ऐसी स्थिति में भूकम्पीय बल द्वारा भवन के ढाँचे में ऐंठन उत्पन्न होगा जिसके लिए खासतौर पर उपाय करना चाहिए। अगर यह भी सम्भव न हो तो सम्पूर्ण ढाँचे की संरचना को एक से अधिक भाग में बाँट देना चाहिए और प्रत्येक भाग को अत्यन्त नाजकु जोड़ों से ही जोड़ना चाहिए। ऐसे भवनों को दो जोड़ों के बीच की लम्बाई, इसकी चौड़ाई के अनुपात में तीन गुना से अधिक नहीं होनी चाहिए। ऐसे भवन, जिनकी अधियोजना ‘एल’, ‘टी’ अथवा ‘वाई’ आकृति की हो, को चित्र-2 में दर्शाए गए रेखाचित्र की भाँति आयताकार भागों में बाँट कर परियोजना का निर्माण करना चाहिए।

विभिन्न दिशाओं की मजबूती : दोनों क्षैतिज अक्षों की दिशा में भूकम्पीय बल की सक्रियता को ध्यान में रखते हुए भवन के ढाँचे की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए। इसमें परिवर्तनशील भूकम्पीय बल की भी परिकल्पना की जानी चाहिए।

नींव : ऐसी ढीले मिट्टी पर कभी भी नींव नहीं डालनी चाहिए जो भूकम्प के दौरान जलवत हो और एक बड़ी धसान का कारण बन जाए।

लचीलापन : भवन की रूपरेखा इस तरह से तैयार करनी चाहिए कि भवन के मुख्य अवयवों के टूटने की परिकल्पना हमेशा लचीली हो। ऐसा करने से भूकम्प द्वारा निर्गत ऊर्जा बिना किसी आकस्मिक क्षय के भवन द्वारा ग्राह्य होगा। चिनाई के सूक्ष्म स्थानों पर प्रबलन छड़ों के समुचित सुदृढ़ीकरण, ऐंकरेज तथा जोड़ (ब्रेसिंग) से न सिर्फ भवनों की मजबूती, वरन लचीलापन भी बढ़ जाता है।

अग्नि-सुरक्षा : भूकम्प के तुरन्त बाद अग्नि-काण्ड की सम्भावना भी होती है। अतः भवनों का निर्माण भारतीय मानकों के अनुसार यथासम्भव अग्निरोधी भी होना चाहिए।

भवनों के प्रकार


भवनों में भूकम्परोधी लक्षणों को सुस्पष्ट करने हेतु इन्हें ‘ए’ से ‘ई’ तक पाँच प्रकारों में बाँटा जा सकता है, जो ‘ी’ के मान पर निर्भर है। इसे निम्न प्रकार से परिभाषित किया जाता है :

ी = β Ι 0
जहाँ ी त्र डिजाइन सिस्मिक कोफिसिएँट (गुणक) फॉर द बिल्डिंग
0 = बेसिक सिस्मिक कोफिसिएँट (गुणक) फॉर द सिस्मिक जोन ऑफ बिल्डिंग लोकेशन
Ι = भवन के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
β = मृदा फाउण्डेशन फैक्टर

भूकम्परोधी लक्षणों पर आधारित भवनों के प्रकार

भवनों के प्रकार

का विस्तार

0.04 से 0.05 (0.05 छोड़कर)

बी

0.05 से 0.06 (दोनों को लेकर)

सी

0.06 से अधिक तथा 0.08 से कम

डी

0.08 से 0.12 (0.12 छोड़कर)

0.12 तथा इससे अधिक


चिनाई : 3.5 मेगा-पास्कल (न्यूटन प्रतिवर्ग मिलीमीटर) या अधिक क्षमता वाले ईंटों का उपयोग चिनाई के लिए श्रेयस्कर होता है। दीवारों की मोटाई एवं भवनों में मंजिलों की संख्या के बढ़ने के साथ ही क्रमशः अधिक मजबूत ईंटों की आवश्यकता होती है। कंक्रीट से बनी खोखली ईंटें तथा पत्थरों की चिनाई भी उपयोगी होती है।

गारा (मोर्टार) : गारा में सीमेण्ट तथा बालू का अनुपात अलग-अलग श्रेणियों के भवनों के लिए निम्नलिखित ढँग से निर्धारित किया गया हैः

भवनों के प्रकार

सीमेण्ट-बालू का अनुपात

सीमेण्ट-बालू = 1 : 6

बी, सी

सीमेण्ट-बालू = 1 : 6 अथवा बेहतर

डी,

सीमेण्ट-बालू = 1 : 4


ऊपर अनुशंसित किए गए गारा का उपयोग अधिक से अधिक 15 मीटर तक चिनाई अथवा चार मंजिलों तक के भवनों में ही करना चाहिए।

चिनाई के बन्धन : मजबूती के दृष्टिकोण से चिनाई में वर्णित सामान्य बन्धनों को अवश्य सुनिश्चित करना चाहिए। किसी भी रद्दे को दूसरे रद्दे में उदग्र जोड़ों से नहीं जोड़ना चाहिए। दीवार में प्रत्येक 450 मि.ली. उन्नति पर, दर्शाए गए चित्र-3 की भाँति, दाँतदार जोड़ों की रचना की जानी चाहिए।

दीवारों में रिक्तियाँ


(क) दीवारों में रिक्त स्थान छोटे तथा यथासम्भव दीवार के मध्य भाग में अवस्थित होने चाहिए।
(ख) रिक्तियों के ऊपरी सतह एक ही तल में हों ताकि उक्त सतह के ठीक ऊपर सभी लिण्टलों को जोड़ते हुए एक निर्बाध बन्धन का निर्माण किया जा सके।
(ग) दीवार में रिक्तियों के आकार तथा उनके स्थान निम्नलिखित प्रावधनों के अनसुार ही देना चाहिए, जिसे चित्र-4 में दर्शाया गया है।

भूकम्पीय दृष्टिकोण से भवन की चिनाई में किए जा सकने योग्य विभिन्न प्रबन्ध


भवन की चिनाई में विभिन्न उपायों से भवन की मजबूती एवं लचक के परिमाण को बढ़ाया जा सकता है। चिनाई कार्य में ऐसे ही प्रबन्ध को नीचे सारणीबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है :

जहाँ,
क — सीमेण्ट का गारा,
ख — लिण्टल तल पर निर्बाध बन्धन,
ग — छत तिकोने शीर्ष का बन्धन,
घ — दीवारों के संगम स्थल तथा कोनों पर उदग्र इस्पात छड़ों का प्रावधान,
ङ — रिक्तियों के पाखा (जैम्ब) में उदग्र इस्पात का प्रावधन,
च — छत के ठीक नीचे की दीवारों पर तल-बन्धन,
छ — कुर्सी तल का बन्धन और
ज — चिनाई की क्रमागत क्षैतिज और उदग्र तलों को बाँधने वाले छड़ है।
(देखें चित्र-5 एवं चित्र-6)।

बन्धन का सविस्तार विवरण


प्रबलित सीमेण्ट, कंक्रीट से बने बन्धन एम-20 क्षमता एवं प्रबलित-ईंट से बने बन्धन का गारा 1:3 सीमेण्ट बालू के अनुपात से कम नहीं होना चाहिए। बन्धन की चौड़ाई दीवार की चौड़ाई के बराबर तथा ऊँचाई न्यूनतम 75 मि.मी. होनी चाहिए। इन्हें लम्बायमान लौह-छड़ों द्वारा प्रबलित करना चाहिए।

इस्पात की लम्बायमान छड़ों को 6 मि.मी. व्यास की छड़ से बनी कड़ियों के अन्दर रखना चाहिए। ये कड़ियाँ लगातार 150 मि.मी. के अन्तर पर तले तारों से बाँधी जानी चाहिए। क्रमशः दो एवं चार लम्बायमान छड़ों से बने बन्धन के विभिन्न काट-चित्रों को चित्र-7 में दर्शाया गया है।

उदग्र प्रबलन


375 मि.मी. (डेढ़ फीट) तक मोटी दीवार के कोनों तथा सन्धियों पर उदग्र इस्पात-छड़ों का प्रावधन निम्नलिखित रूप से किया जाना चाहिए :

सभी उदग्र इस्पात छड़ एम-20 क्षमता वाले कंक्रीट अथवा 1:3 अनुपात के सीमेण्ट-बालू के गारे से अच्छे प्रकार से ढँके होने चाहिए। इन छड़ों को एक चौड़े अथवा गोल काट के पाइप में डालकर पाइप में गारा डालते और चिनाई करते हुए पाइप को धीरे-धीरे खींचते रहना चाहिए। चिनाई कार्य समाप्त होते-होते पाइप छड़ एवं गारे को निर्दिष्ट स्थान पर छोड़ते हुए बाहर निकाल लेना चाहिए।

लकड़ी-निर्मित बन्धन


चित्र-8 के अनुसार लकड़ी के दो समानान्तर शहतीरों पर अनुप्रस्थ शहतीरों को स्थापित कर बन्धन का निर्माण किया जा सकता है।

प्रबलित सीमेण्ट कंक्रीट अवयवों में लचक की सम्पुष्टि


धरन (बीम) में लम्बायमान प्रबलन
(क) शिखर-तल एवं पेन्दी-तल के प्रबलनों में कम से कम दो-दो छड़ें निर्बाध रूप से स्थापित होनी चाहिए।
(ख) धरन को स्तम्भों से जोड़ते समय, इसके शिखर एवं पेन्दी, दोनों तलों में उपस्थित छड़ों की विस्तारित लम्बाई स्तम्भ के अन्तःस्थल से पार तक, दर्शाए गए चित्र-9 के अनुसार होना चाहिए। लम्बायमान लौह छड़ के दो टुकड़ों को जोड़ने के लिए पतली छड़ों की कड़ियों का उपयोग करना चाहिए जो पूरे जोड़ की लम्बाई में (चित्र-10 के अनुसार) 150 मि.मी. के अन्तराल पर बाँधी गई हों। जोड़-पट्टी की लम्बाई तनाव वाली छड़ की विस्तारित लम्बाई से कम नहीं होनी चाहिए। स्तम्भ एवं धरन के जोड़ में तथा जोड़ से 2 ग क (जहाँ क = धरन की गहराई) दूरी तक लम्बायमान छड़ों के टुकड़ों को नहीं जोड़ना चाहिए। धरन के किसी भी अनुप्रस्थ-काट में आधे से अधिक छड़ नहीं जोड़ी जानी चाहिए।

धरन में कड़ियों की व्यवस्था
धरन के दोनों सिरों पर कम से कम 2 ग क (जहाँ क = धरन की गहराई) दूरी तक कड़ियों (रिंग्स) का अन्तराल निम्नलिखित से अधिक नहीं होना चाहिए :

(क) क घ 4, जहाँ क = धरन की गहराई
(ख) 100 मि.मी.
(ग) सबसे पतली लम्बायमान छड़ के व्यास का आठ गुणा
(घ) धरन एवं स्तम्भ के दोनों सिरों पर कम से कम 2 ग क (जहाँ क = धरन की गहराई) दूरी जोड़ पर पहला अन्तराल 50 मि.मी. से अधिक नहीं होना चाहिए।

धरन के दोनों सिरों पर 2 ग क दूरी के बाद भी कड़ियों को क/2 अन्तराल से अधिक पर नहीं रखना चाहिए (जैसा चित्र-11 से स्पष्ट है)।

अनुशंसा


स्तम्भ एवं धरन के जोड़ के ठीक ऊपर और नीचे की तरफ भूकम्पीय बल के प्रभाव से स्तम्भों में अत्यधिक लचक पैदा होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः उपर्युक्त जोड़ के ऊपरी एवं निचली तलों से स. (मान लिया) दूरी तक कड़ियों को एक खास अन्तराल पर रखना चाहिए, जैसा चित्र-12 में दर्शाया गया है, यह अन्तराल निम्नलिखित में से न्यूनतम होना चाहिए :

— स्तम्भ के न्यूनतम आड़े आयाम के आधे के बराबर।
— स्तम्भ की नींव के पास विशेष परिसीमित प्रबलन के सन्दर्भ में यह अन्तराल न्यूनतम आड़े आयाम का चौथाई, परन्तु 75 मि.मी. से कम नहीं तथा 100 मि.मी. से अधिक नहीं होना चाहिए।
— स. का मान निम्नलिखित से कम नहीं होना चाहिए :

(1) 450 मि.मी.।
(2) स्तम्भ की खुली लम्बाई का छठा भाग।
(3) स्तम्भ का अधिकतम आड़ा आयाम।

जहाँ स्तम्भ की शुरुआत उसकी मूल उथली (शैलो) नींव से हो, वहाँ ऐसे विशेष परिसीमित प्रबलन को नींव में 300 मि.मी. तक बढ़ाना चाहिए।

ढाँचे के जोड़


धरन और स्तम्भों से बने ढाँचे के प्रत्येक जोड़ के पास विशेष प्रबलन पहले बताए गए नियमानुसार ही देना चाहिए। ऐसे में स्तम्भ की किसी खास जगह पर अगर स्तम्भ की मोटाई का कम से कम 3/4 गुना गहरी धरनें चारों तरफ आकर मिलती हों, तो उक्त स्तम्भ में विशेष परिसीमित प्रबलन की मात्र आधी की जा सकती है परन्तु किसी भी हालत में कड़ियों का आपसी अन्तराल 150 मि.मी. से अधिक नहीं होना चाहिए।

उपसंहार


भूकम्प से उत्पन्न ऊर्व्> और क्षैतिज दिशा में पृथ्वी पर वेग के गमन से भवन जिस सतह पर स्थित रहते हैं, उसी के साथ उठते और हिलते हैं। भारतीय मानक संहितानुसार बनाए गए भवनों की इकाइयों में भूकम्प के समय यदि दरार भी पड़ जाए, तब भी भवनों के पूर्ण विनाश की सम्भावना कम रहती है।

तीव्र वेग से आक्रमणकारी श्रेणी की अन्य सभी प्राकृतिक आपदाएँ सम्मिलित रूप से जान-माल की जितनी हानि पहुँचाती हैं, भूकम्प अकेले उन सब से अधिक हानि पहुँचाता है। इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं में मानव असहाय इनकी विनाशलीला को झेलता है। निस्संदेह जब आपदाएँ अकस्मात धावा बोलती हैं तो जीवन का नाश और क्षति रोकना असम्भव होता है किन्तु भवनों का रूपाँकन भारतीय मानक रीति संहिता के अनुरूप करने पर इस नाश और क्षति को कम अवश्य किया जा सकता है।

क्र. सं.

रिक्तियों की स्थिति

भवनों के विभिन्न प्रकारों हेतु रिक्तियों के मान

ए तथा बी

सी

डी तथा ई

1.

4 का मान

शून्य

230 मि.मी.

450 मि.मी.

2.

1+2+3/प्1 अथवा इ6+7/प्2 का अधिकतम मान निम्नलिखित अनुसार होना चाहिए

(क) एक मंजिले भवनों में

(ख) दो मंजिले भवनों में

(ग) तीन अथवा चार मंजिले भवनों में




0.60

0.50

0.42




0.55

0.46

0.37




0.50

0.42

0.33

3.

 दो लगातार रिक्तियों के बीच के घाट की इ4 की न्यूनतम दूरी

340 मि.मी.

450 मि.मी.

560 मि.मी.

4.

उदग्र दिशा में दो लगातार रिक्तियों के बीच ी3 की न्यूनतम दूरी

600 मि.मी.

600 मि.मी.

600 मि.मी.


उच्च शक्ति रुद्र छड़ (एचवाईएसडी) का व्यास भवनों के प्रकार

मंजिलों की संख्या

मंजिल

बी

सी

डी

एक

भूतल

0

0

10

12

दो

ऊपरी तल

भूतल

0

0

0

0

10

12

12

16

तीन

ऊपरी तल

मध्य तल

भूतल

0

0

0

10

10

12

10

12

12

12

16

16

चार

ऊपरी तल

दूसरा तल

प्रथम तल

भूतल

10

10

10

12

10

10

12

12

10

10

16

20

चर

तल

नहीं

होंगे


भवनों के विभिन्न प्रकार

लम्बाई (मीटर)

बी

सी

डी

छड़ों की संख्या

व्यास (मि.मी.)

छड़ों की संख्या

व्यास (मि.मी.)

छड़ों की संख्या

व्यास (मि.मी.)

छड़ों की संख्या

व्यास (मि.मी.)

5 या कम

2

8

2

8

2

8

2

8

6

2

8

2

8

2

10

2

12

7

2

8

2

10

2

12

4

10

8

2

10

2

12

4

10

4

12


(लेखकद्वय में से क्रमशः प्रथम मुजफ्फरपुर इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, मुजफ्फरपुर में सिविल के प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष हैं एव द्वितीय वहीं व्याख्याता हैं)