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योजना, नवम्बर 2013
प्रकृति के साथ आवश्यकता से अधिक छेड़छाड़ न करें। अन्यथा हमें बहुत ही गम्भीर परिणाम को भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए कि कृषि के बिना हम जी नहीं सकते हैं और कृषि का आधार उपजाऊ भूमि तथा मिट्टी है।भारत के लिए कृषि का क्या महत्व है इसे बहुत आसानी से समझा जा सकता है। विश्व का केवल 2.4 प्रतिशत भारत के नाम से जाना जाता है और भारत के पास विश्व के कुल जल स्रोत का केवल 4 प्रतिशत है। यह सब इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि विश्व की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत से अधिक इसी भारत में बसता है और पृथ्वी पर उपस्थित कुल पशुधन का 15 प्रतिशत से अधिक ही भारत में है। स्पष्ट है कि पूरी जनसंख्या और कुल पशुधन को आवश्यक आहार देने की जिम्मेवारी लगभग पूरी तरह कृषि पर ही है।
इसका एक अतिरिक्त कारण भी है। वह यह कि भारत के पास पूरे विश्व के चारागाह के केवल 0.5 प्रतिशत क्षेत्र हैं। इतने कम क्षेत्र के द्वारा पूरे पशुधन को पोषण उपलब्ध कराना सम्भव ही नहीं है और पशु आहार भी कृषि के माध्यम से ही उपलब्ध होता है। चूँकि भारत की अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी हालत में नहीं है इस कारण निर्यात को बहुत अधिक प्राथमिकता दी जाती है। यही कारण है कृषि पर निर्यात का भी बहुत बोझ है। देश से कुल निर्यात का लगभग 11 प्रतिशत कृषि क्षेत्र से होता है। अगर कुल घरेलू उत्पाद अर्थात् जीडीपी की बात की जाए तो देश की कुल जीडीपी का लगभग 14 प्रतिशत कृषि के ऊपर ही निर्भर है।
कुल मिलाकर भारतवासियों के लिए कृषि बहुत अधिक महत्वपूर्ण है और हम यह जानते हैं कि कृषि का आधार भूमि है। इसमें सन्देह नहीं है कि कुछ कृषि उत्पाद जल से प्राप्त होते हैं परन्तु उनकी मात्रा एवं अनुपात बहुत कम है। यही कारण है कि भूमि के कटाव को बहुत घातक माना जाता है। भूमि के निम्नीकरण का अर्थ है कृषि उत्पाद में कमी और हम किसी भी तरह कृषि उत्पाद में कमी को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं।
वर्तमान में भी देश में कुपोषण और पर्याप्त खाद्य सामग्री की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। ऐसी स्थिति में अगर किसी कारण से कृषि उत्पादन में कमी होगी तो समस्या अधिक गम्भीर हो जाएगी। इसलिए भूमि के निम्नीकरण को हमें बहुत गम्भीरता से लेना चाहिए और हर सम्भव प्रयास होना चाहिए कि भूमि का निम्नीकरण न हो। भूमि निम्नीकरण का सीधा प्रभाव खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। पहले ही स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। वह और बिगड़ सकती है।
वर्ष 2010 के लिए जो आँकड़े उपलब्ध हैं उनसे ज्ञात होता है कि कुल उपलब्ध भूमि अर्थात् 3287.3 लाख हेक्टेयर में से 1204 लाख हेक्टेयर किसी न किसी प्रकार के निम्नीकरण का शिकार है। इस कारण प्रतिवर्ष 5.3 अरब टन उपजाऊ मिट्टी का अपरदन होता है। इसमें से लगभग 29 प्रतिशत समुद्र में चला जाता है और हमेशा के लिए खो जाता है।यह सब हम जानते हैं। फिर भी देश में भूमि का निम्नीकरण बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2010 के लिए जो आँकड़े उपलब्ध हैं उनसे ज्ञात होता है कि कुल उपलब्ध भूमि अर्थात् 3287.3 लाख हेक्टेयर में से 1204 लाख हेक्टेयर किसी न किसी प्रकार के निम्नीकरण का शिकार है। इस कारण प्रतिवर्ष 5.3 अरब टन उपजाऊ मिट्टी का अपरदन होता है। इसमें से लगभग 29 प्रतिशत समुद्र में चला जाता है और हमेशा के लिए खो जाता है। 10 प्रतिशत जलाशयों में पहुँच जाता है। उस कारण जलाशयों की जल संग्रह क्षमता कम हो जाती है। एक ओर वर्षा उपरान्त जल उपलब्धता पर प्रभाव पड़ता है तो दूसरी ओर वर्षा ऋतु में बाढ़ की सम्भावना बढ़ जाती है। बाकी 61 प्रतिशत मिट्टी एक स्थान से हटकर दूसरे स्थान तक पहुँच जाती है। उससे भी भूमि के उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। कारण है कि मिट्टी की परत बहुत मोटी नहीं होती है और अगर मिट्टी की परत एक से.मी. से कम हो जाती है तो उस पर पेड़-पौधे, फसल इत्यादि नहीं उग पाते हैं। पहाड़ी ढलानों पर ऐसा दृश्य प्रायः देखने को मिलता है। मिट्टी के कटाव के कारण चट्टान अनावृत हो जाते हैं। फिर उस जगह पेड़-पौधों का उगना सम्भव नहीं होता है।
हमें इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए कि एक से.मी. मोटी मिट्टी की परत के बनने में 100 से 400 वर्ष तक लगते हैं और किसी जगह पर पर्याप्त मिट्टी के बनने में जिस पर कृषि सम्भव हो या पेड़-पौधे सफलतापूर्वक उग सकें 3,000 से 12,000 वर्ष का समय लगता है। यही कारण है कि मिट्टी को उस श्रेणी में नहीं रखा जाता है जिसका नवीकरण हो सकता है। एक बार अगर किसी जगह से मिट्टी हट जाती है तो फिर से उसका बनना असम्भव हो जाता है। एक और भी महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि उपजाऊ मिट्टी में केवल खनिज पदार्थ नहीं होते हैं। वह तो चट्टानों के टूटने से जमा हो सकते हैं। परन्तु मिट्टी का अर्थ है कि उसमें कार्बनिक तत्व भी हों और जीव भी हों, सूक्ष्म जीव के रूप में, कीड़े-मकोड़ों के रूप में तथा फफूंद इत्यादि के रूप में। तब जाकर मिट्टी अपने सही रूप को प्राप्त करती हैं खनिज पदार्थ के जमा होने के बाद भी इन सबके जमा होने में बहुत अधिक समय लग सकता है। उसके लिए अनुक्रमण की प्रक्रिया की आवश्यकता होगी जो बहुत लम्बे समय में ही पूरी हो सकती है।
वैसे तो भूमि के निम्नीकरण के दूसरे भी कारण है और उन सबका प्रभाव उत्पादकता पर पड़ता है। परन्तु भूमि या मिट्टी का कटाव बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। कारण है कि अन्य प्रकार के निम्नीकरण में मिट्टी अपनी जगह पर रहती हैं उसके गुण में परिवर्तन अवश्य होता है। जिसका परिणाम होता है कि भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है। मिट्टी के अपनी जगह बने रहने के कारण उसका गुण वापस पूर्व अवस्था में आ सकता है या हम हस्तक्षेप कर उसे वापस स्वस्थ अवस्था में पहुँचा सकते हैं। परन्तु एक बार मिट्टी अपनी जगह से हट जाए तो ऐसा सम्भव नहीं है। पहले ही चर्चा हो चुकी है कि मिट्टी के बनने की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है और जटिल भी। वर्तमान में अनुमान है कि भूमि निम्नीकरण के कारण देश को प्रतिवर्ष 28,500 करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है और उसका बहुत बड़ा भाग भूमि या मिट्टी के कटाव के कारण है। उदाहरणार्थ लवणता से प्रभावित भूमि का क्षेत्रफल देखें तो वह केवल 43.6 लाख हेक्टेयर है।
एक से.मी. मोटी मिट्टी की परत के बनने में 100 से 400 वर्ष तक लगते हैं और किसी जगह पर पर्याप्त मिट्टी के बनने में जिस पर कृषि सम्भव हो या पेड़-पौधे सफलतापूर्वक उग सकें 3,000 से 12,000 वर्ष का समय लगता है। अगर हम भूमि या मिट्टी के कटाव की प्रक्रिया पर ध्यान दें तो वह मुख्यतः तीन कारणों से होता है या तीन प्रकार से होता है। पहला, पानी के कारण कटाव, दूसरा हवा के कारण कटाव और तीसरा गुरुत्व के कारण। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है पहले प्रकार के कटाव में पानी अपनी भूमिका निभाती हैं एक ओर जब वर्षा होती है तो पानी की बूंदे वेग के साथ नीचे आती है। अगर उन्हें किसी प्रकार की रुकावट का सामना नहीं करना पड़ता है तो उनका सारा वेग और पूरी ऊर्जा भूमि अर्थात् मिट्टी पर पड़ती है। मिट्टी के कण अपनी जगह से विस्थापित हो जाते हैं। उसके बाद जब भूमि पर पानी बहता है तो उस पानी के लिए मिट्टी के कणों को अपने साथ ले जाना आसान हो जाता है। वैसे अगर वर्षा की बूंदों का योगदान नहीं हो तो भी बहता हुआ पानी अपने साथ मिट्टी के कणों को ले जा सकता है परन्तु उसको उतनी सफलता नहीं मिलेगी जितनी कि उस स्थिति में जब मिट्टी के कण पहले से ही विस्थापित हों। यही कारण है कि खाली भूमि से मिट्टी का कटाव तेजी में होता है अपेक्षाकृत उस भूमि के जिस पर पेड़-पौधे काफी हों।
पेड़-पौधों की उपस्थिति के कारण वर्षा की बूंदे सीधे भूमि पर मार नहीं करती हैं। वह पहले पेड़-पौधों से टकराती हैं फिर वहाँ से नीचे भूमि पर गिरती हैं। परिणाम यह होता है कि भूमि अर्थात् मिट्टी को बहुत कम आघात सहना पड़ता है। दूसरी बात यह होती है कि जब पानी सतह पर बहता है तो उसका वेग और उसकी शक्ति कम हो जाती है क्योंकि उसे पेड़-पौधों के बीच से बहना पड़ता है। यही कारण है कि वन क्षेत्र से जो वर्षा का जल बहकर निकलता है वह बहुत साफ होता है। वहीं जल अगर किसी परती भूमि पर से गुजरता है तो वह मटियाला होता है। कई बार हम देखते हैं कि वर्षा ऋतु में नदी, तालाब, झील इत्यादि का पानी मटियाला हो जाता है। कारण वही है कि वर्षा जल के साथ मिट्टी के कण बड़ी मात्रा में पानी में आते हैं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में ऐसा प्रायः होता है। पानी में जो गाद दिखाई देता है वह असल में मिट्टी के कण होते हैं जो वर्षा जल के साथ बह जाते हैं।
पहले भी चर्चा हो चुकी है कि वह गाद या मिट्टी के कण झील, तालाब तथा दूसरे जलाशयों में एकत्रित होकर उनकी क्षमता को कम कर देते हैं। इस प्रकार दोहरा नुकसान होता है। नदियों की पानी ले जाने की क्षमता भी कम हो जाती है और नदियों के आसपास बाढ़ की सम्भावना बढ़ जाती है। एक और समस्या भी उत्पन्न होती है कटी हुई मिट्टी के साथ पोषक तत्वों के कारण। वह पोषक तत्व पानी में पहुँचते हैं और पानी में पोषक तत्चों की मात्रा आवश्यकता से अधिक हो जाती है। परिणाम यह होता है कि पानी में अपतृण तेजी से बढ़ते हैं। कई बार तो तालाब, झील इत्यादि पूरी तरह अपतृणों से ढँक जाते हैं। उनकी उपस्थिति के कारण पानी का सही प्रकार से उपयोग कठिन हो जाता है। उस प्रकार के तालाब, झील, नदी इत्यादि में मछली तथा अन्य जलीय जीव जो साधारणतः होते हैं वह गायब हो जाते हैं। कारण होता है कि रात के समय पानी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। अपतृण सारा ऑक्सीजन सोख लेते हैं और पानी ऑक्सीजन रहित हो जाता है। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में या बहुत कमी के कारण मछली तथा अन्य जीव समाप्त हो जाते हैं। वैज्ञानिक इस स्थिति को यूट्रोफीकेशन का नाम देते हैं।
हवा के कारण भी मिट्टी का कटाव उसी तरह होता है जिस प्रकार पानी के कारण। जब हवा चलती है तो उसमें काफी शक्ति होती है। हवा की शक्ति या ऊर्जा का उपयोग ऐतिहासिक तौर पर होता रहा है, जहाज को चलाने के लिए, पवनचक्की चलाने के लिए, अनाज साफ करने के लिए तथा अन्य कार्य के लिए हवा की वही शक्ति जो भी सामने आता है उसे अपने साथ ले जाने की कोशिश करती है। मिट्टी भी उसी समूह में आता है। अगर मिट्टी के कण आपस में अच्छी तरह जुड़े हुए नहीं हो तो आसानी से हवा के साथ जा सकते हैं। यही कारण है कि सूखी मिट्टी और विशेषकर वैसी मिट्टी जिसमें कार्बनिक पदार्थ कम हो वह बहुत आसानी से हवा के दबाव में आ जाती है और उसके कण हवा के साथ बिखरने लगते हैं और उड़ने लगते हैं।
मिट्टी के कणों के बिखरने तथा उड़ने की गति हवा के वेग पर निर्भर करेगी। अगर तेज आँधी हो तो मिट्टी के कण बहुत तेजी से उड़ते हैं और हवा के साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। जब हवा का वेग कम होता है तब वह गुरुत्व के कारण नीचे बैठने लगते हैं। स्पष्ट है कि भारी कण पहले बैठेंगे फिर हल्के। हवा के कारण भी जो मिट्टी का कटाव होता है उससे सुरक्षा प्रदान करने में पेड़-पौधों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक ओर पेड़-पौधे हवा के वेग और उसकी शक्ति को कम कर सकते हैं तो दूसरी ओर जहाँ भी पेड़-पौधे पर्याप्त रूप में होंगे वहाँ की मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ भी पर्याप्त मात्रा में होगा और हमें मालूम है कि ह्यूम मिट्टी के कणों को एक-दूसरे से चिपकाने में सहायक होता है। यही कारण है कि जंगल की या उपजाऊ खेत की मिट्टी कभी भी भुरभुरी नहीं होती है जबकि परती भूमि की मिट्टी भुरभुरी होती है। स्पष्ट है कि भुरभुरी मिट्टी का कटाव बहुत आसानी से सम्भव है वैसी मिट्टी की अपेक्षा जो ढेलों के रूप में हो या पानी की उपस्थिति के कारण पंकिल हो।
हम भूमि या मिट्टी के कटाव की प्रक्रिया पर ध्यान दें तो वह मुख्यतः तीन कारणों से होता है या तीन प्रकार से होता है। पहला, पानी के कारण कटाव, दूसरा हवा के कारण कटाव और तीसरा गुरुत्व के कारण। तीसरे प्रकार का मिट्टी या भूमि का कटाव गुरुत्व के कारण होता है। स्पष्ट है कि इस प्रकार का कटाव समतल भूमि में सम्भव नहीं है। ऐसा केवल ढलान वाली जगह में ही सम्भव है। यही कारण है कि इस प्रकार का कटाव केवल पहाड़ी क्षेत्र में होता है या किसी ऐसी जगह पर जहाँ ढलान का निर्माण किया जाता है किसी विशेष कारण से। ढलान जितना ही अधिक होगा कटाव की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी। यही कारण है कि जहाँ कहीं ढलान अधिक होता है वहाँ ऊपर से ढलान वाली सामग्री नीचे की तरफ खिसकती है और अपने साथ रास्ते की सामग्री को भी नीचे की ओर ले जाती है। यह सब उस सामग्री के अपने वजन के कारण होता है। वर्षा के समय खिसकने की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है। क्योंकि पानी भी नीचे बहता है और उस कारण भी मिट्टी तथा अन्य सामग्री नीचे खिसकती है। दूसरा कारण यह होता है कि ढलान पर उपस्थित सामग्री पानी को सोख लेती है और उसका वजन बढ़ जाता है। जब वह नीचे खिसकती है तो उसका प्रभाव अधिक तीव्र होता है।
अगर हम भूमि या मिट्टी के कटाव के कारणों पर विचार करें तो उसके पीछे अनेक कारण दिखाई देते हैं। पहला कारण है भूमि का गलत तरीके से उपयोग। स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया में हमारी अपनी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। जब हम भूमि का उपयोग गलत तरीके से करते हैं तो कटाव की सम्भावना बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए जब किसी क्षेत्र से वन को समाप्त कर दिया जाता है तो उसके साथ वहाँ उगने वाले अन्य प्रकार के पेड़-पौधे भी गायब हो जाते हैं या बहुत कम हो जाते हैं। परिणाम होता है कि भूमि नंगी हो जाती है। उसके बाद मिट्टी से ह्यूम भी धीरे-धीरे गायब हो जाता है। वैसी स्थिति में अगर तेज हवा चलती है या वर्षा होती है तो मिट्टी के कटाव में किसी प्रकार की रुकावट नहीं होती है और वह हवा तथा पानी के साथ कटती जाती है।
जिस क्षेत्र में मवेशी या पशुधन अधिक होते हैं वहाँ भी भूमि के कटाव की सम्भावना बढ़ जाती है। कारण है कि चराई के कारण घास, शाकीय पौधे एवं पौध इत्यादि समाप्त होते चले जाते हैं। भूमि नंगी अवस्था में या उसके निकट पहुँच जाती है। एक दूसरी बात यह होती है कि पशुओं के चलने-फिरने के कारण भूमि सख्त हो जाती हैं वर्षा जल को भूमि के नीचे जाने का अवसर नहीं मिलता है। वह सतह पर ही बहता है। कुल मिलाकर हवा तथा पानी के कारण कटाव तेजी से होने लगता है। गलत तरीके से खेती के कारण भी मिट्टी तथा भूमि का कटाव तीव्र हो जाता है। उदाहरण के लिए जब भूमि को एक वर्ष में कई बार जोता जाता है। वार्षिक फसल उगाने के लिए। अगर जोतने के समय गहरे हल का उपयोग किया जाता है तो उससे कटाव की सम्भावना अधिक हो जाती है। भूमि पर अगर जल्दी-जल्दी नई फसल उगाई जाती है तो भी कटाव की सम्भावना बढ़ जाती है। उसके विपरीत अगर ऐसी फसल लगाई़ जाती है जो लम्बी अवधि तक खड़ी रहती है तो मिट्टी को सुरक्षा मिलती है। उसी प्रकार अगर एक ही फसल को बार-बार उगाया जाता़ है तब भी भूमि के कटाव की सम्भावना बढ़ जाती है। एक अन्य कारण है कि अगर भूमि पर समोच्य के साथ-साथ पौधों को नहीं रोपा जाता है बल्कि ऊपर से नीचे की ओर रोपा जाता है तो भूमि या मिट्टी का कटाव तेज हो जाता है।
कटी हुई मिट्टी के साथ पोषक तत्व पानी में पहुँचते हैं और पानी में पोषक तत्चों की मात्रा आवश्यकता से अधिक होने की वजह से पानी में अपतृण तेजी से बढ़ते हैं। अपतृण सारा ऑक्सीजन सोख लेते हैं और पानी ऑक्सीजन रहित हो जाता है। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में या बहुत कमी के कारण मछली तथा अन्य जीव समाप्त हो जाते हैं। वैज्ञानिक इस स्थिति को यूट्रोफीकेशन का नाम देते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमि या मिट्टी के कटाव के लिए मुख्यरूप से हम ही जिम्मेवार हैं। वैसे तो वर्षा अधिक होने पर तेज हवा के चलने के कारण, ढलान अधिक होने के कारण, कटाव की सम्भावना होती है। मिट्टी की बनावट एवं संरचना तथा उसमें उपस्थित अवयवों का भी योगदान होता है कटाव को बढ़ाने या घटाने में। परन्तु कोई भी भूमि इन सबसे केवल एक सीमा तक ही प्रभावित होती है। जब मानवीय हस्तक्षेप अधिक होता है तो इन सबका प्रभाव भी बढ़ जाता है। इसका एक सरल उदाहरण हम अपने शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्रों में देख सकते हैं। वहाँ विकास के नाम पर भवन, उद्योग, सड़क, पार्किंग इत्यादि बनते जाते हैं। कहीं भी मुश्किल से ही जगह छोड़ा जाता है कि भूमि खाली रहे और उस पर पेड़-पौधे उगे। परिणाम यह होता है कि वर्षा के समय पूरा पानी सतह पर ही रहता है और बहता है। उसे नीचे रिसने का अवसर ही नहीं मिलता है।
स्पष्ट है कि वह पानी कहीं न कहीं से बहने के लिए रास्ता ढूँढता है या फिर बाढ़ जैसी स्थिति पैदा करता है। जब वह बहता है तो उसकी मात्रा बहुत अधिक होती है और उसकी शक्ति भी अधिक होती है। स्पष्ट है कि जहाँ भी उसे अवसर मिलता है वह मिट्टी तथा भूमि को काटता जाता है। पहाड़ों की ढलानों पर भी लोग शहर बसा रहे हैं। पक्की सड़के बना रहे हैं, उद्योग लगा रहे हैं। ऐसा करने के लिए जंगल को काटा जाता है और हरियाली को नष्ट किया जाता है। जब उस क्षेत्र में वर्षा होती है या तेज हवा चलती है तो मिट्टी तथा भूमि का कटाव होना स्वाभाविक है। भूस्खलन उसी का एक रूप है।
आवश्यक है कि हम इन तथ्यों पर विचार करें तथा प्रकृति के साथ आवश्यकता से अधिक छेड़छाड़ न करें। अन्यथा हमें बहुत ही गम्भीर परिणाम को भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए कि कृषि के बिना हम जी नहीं सकते हैं और कृषि का आधार उपजाऊ भूमि तथा मिट्टी है।
(लेखक वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में निदेशक रह चुके हैं)
ई-मेल: arrarulhoque@hotmail.com
इसका एक अतिरिक्त कारण भी है। वह यह कि भारत के पास पूरे विश्व के चारागाह के केवल 0.5 प्रतिशत क्षेत्र हैं। इतने कम क्षेत्र के द्वारा पूरे पशुधन को पोषण उपलब्ध कराना सम्भव ही नहीं है और पशु आहार भी कृषि के माध्यम से ही उपलब्ध होता है। चूँकि भारत की अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी हालत में नहीं है इस कारण निर्यात को बहुत अधिक प्राथमिकता दी जाती है। यही कारण है कृषि पर निर्यात का भी बहुत बोझ है। देश से कुल निर्यात का लगभग 11 प्रतिशत कृषि क्षेत्र से होता है। अगर कुल घरेलू उत्पाद अर्थात् जीडीपी की बात की जाए तो देश की कुल जीडीपी का लगभग 14 प्रतिशत कृषि के ऊपर ही निर्भर है।
कुल मिलाकर भारतवासियों के लिए कृषि बहुत अधिक महत्वपूर्ण है और हम यह जानते हैं कि कृषि का आधार भूमि है। इसमें सन्देह नहीं है कि कुछ कृषि उत्पाद जल से प्राप्त होते हैं परन्तु उनकी मात्रा एवं अनुपात बहुत कम है। यही कारण है कि भूमि के कटाव को बहुत घातक माना जाता है। भूमि के निम्नीकरण का अर्थ है कृषि उत्पाद में कमी और हम किसी भी तरह कृषि उत्पाद में कमी को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं।
वर्तमान में भी देश में कुपोषण और पर्याप्त खाद्य सामग्री की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। ऐसी स्थिति में अगर किसी कारण से कृषि उत्पादन में कमी होगी तो समस्या अधिक गम्भीर हो जाएगी। इसलिए भूमि के निम्नीकरण को हमें बहुत गम्भीरता से लेना चाहिए और हर सम्भव प्रयास होना चाहिए कि भूमि का निम्नीकरण न हो। भूमि निम्नीकरण का सीधा प्रभाव खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। पहले ही स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। वह और बिगड़ सकती है।
वर्ष 2010 के लिए जो आँकड़े उपलब्ध हैं उनसे ज्ञात होता है कि कुल उपलब्ध भूमि अर्थात् 3287.3 लाख हेक्टेयर में से 1204 लाख हेक्टेयर किसी न किसी प्रकार के निम्नीकरण का शिकार है। इस कारण प्रतिवर्ष 5.3 अरब टन उपजाऊ मिट्टी का अपरदन होता है। इसमें से लगभग 29 प्रतिशत समुद्र में चला जाता है और हमेशा के लिए खो जाता है।यह सब हम जानते हैं। फिर भी देश में भूमि का निम्नीकरण बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2010 के लिए जो आँकड़े उपलब्ध हैं उनसे ज्ञात होता है कि कुल उपलब्ध भूमि अर्थात् 3287.3 लाख हेक्टेयर में से 1204 लाख हेक्टेयर किसी न किसी प्रकार के निम्नीकरण का शिकार है। इस कारण प्रतिवर्ष 5.3 अरब टन उपजाऊ मिट्टी का अपरदन होता है। इसमें से लगभग 29 प्रतिशत समुद्र में चला जाता है और हमेशा के लिए खो जाता है। 10 प्रतिशत जलाशयों में पहुँच जाता है। उस कारण जलाशयों की जल संग्रह क्षमता कम हो जाती है। एक ओर वर्षा उपरान्त जल उपलब्धता पर प्रभाव पड़ता है तो दूसरी ओर वर्षा ऋतु में बाढ़ की सम्भावना बढ़ जाती है। बाकी 61 प्रतिशत मिट्टी एक स्थान से हटकर दूसरे स्थान तक पहुँच जाती है। उससे भी भूमि के उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। कारण है कि मिट्टी की परत बहुत मोटी नहीं होती है और अगर मिट्टी की परत एक से.मी. से कम हो जाती है तो उस पर पेड़-पौधे, फसल इत्यादि नहीं उग पाते हैं। पहाड़ी ढलानों पर ऐसा दृश्य प्रायः देखने को मिलता है। मिट्टी के कटाव के कारण चट्टान अनावृत हो जाते हैं। फिर उस जगह पेड़-पौधों का उगना सम्भव नहीं होता है।
हमें इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए कि एक से.मी. मोटी मिट्टी की परत के बनने में 100 से 400 वर्ष तक लगते हैं और किसी जगह पर पर्याप्त मिट्टी के बनने में जिस पर कृषि सम्भव हो या पेड़-पौधे सफलतापूर्वक उग सकें 3,000 से 12,000 वर्ष का समय लगता है। यही कारण है कि मिट्टी को उस श्रेणी में नहीं रखा जाता है जिसका नवीकरण हो सकता है। एक बार अगर किसी जगह से मिट्टी हट जाती है तो फिर से उसका बनना असम्भव हो जाता है। एक और भी महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि उपजाऊ मिट्टी में केवल खनिज पदार्थ नहीं होते हैं। वह तो चट्टानों के टूटने से जमा हो सकते हैं। परन्तु मिट्टी का अर्थ है कि उसमें कार्बनिक तत्व भी हों और जीव भी हों, सूक्ष्म जीव के रूप में, कीड़े-मकोड़ों के रूप में तथा फफूंद इत्यादि के रूप में। तब जाकर मिट्टी अपने सही रूप को प्राप्त करती हैं खनिज पदार्थ के जमा होने के बाद भी इन सबके जमा होने में बहुत अधिक समय लग सकता है। उसके लिए अनुक्रमण की प्रक्रिया की आवश्यकता होगी जो बहुत लम्बे समय में ही पूरी हो सकती है।
वैसे तो भूमि के निम्नीकरण के दूसरे भी कारण है और उन सबका प्रभाव उत्पादकता पर पड़ता है। परन्तु भूमि या मिट्टी का कटाव बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। कारण है कि अन्य प्रकार के निम्नीकरण में मिट्टी अपनी जगह पर रहती हैं उसके गुण में परिवर्तन अवश्य होता है। जिसका परिणाम होता है कि भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है। मिट्टी के अपनी जगह बने रहने के कारण उसका गुण वापस पूर्व अवस्था में आ सकता है या हम हस्तक्षेप कर उसे वापस स्वस्थ अवस्था में पहुँचा सकते हैं। परन्तु एक बार मिट्टी अपनी जगह से हट जाए तो ऐसा सम्भव नहीं है। पहले ही चर्चा हो चुकी है कि मिट्टी के बनने की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है और जटिल भी। वर्तमान में अनुमान है कि भूमि निम्नीकरण के कारण देश को प्रतिवर्ष 28,500 करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है और उसका बहुत बड़ा भाग भूमि या मिट्टी के कटाव के कारण है। उदाहरणार्थ लवणता से प्रभावित भूमि का क्षेत्रफल देखें तो वह केवल 43.6 लाख हेक्टेयर है।
एक से.मी. मोटी मिट्टी की परत के बनने में 100 से 400 वर्ष तक लगते हैं और किसी जगह पर पर्याप्त मिट्टी के बनने में जिस पर कृषि सम्भव हो या पेड़-पौधे सफलतापूर्वक उग सकें 3,000 से 12,000 वर्ष का समय लगता है। अगर हम भूमि या मिट्टी के कटाव की प्रक्रिया पर ध्यान दें तो वह मुख्यतः तीन कारणों से होता है या तीन प्रकार से होता है। पहला, पानी के कारण कटाव, दूसरा हवा के कारण कटाव और तीसरा गुरुत्व के कारण। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है पहले प्रकार के कटाव में पानी अपनी भूमिका निभाती हैं एक ओर जब वर्षा होती है तो पानी की बूंदे वेग के साथ नीचे आती है। अगर उन्हें किसी प्रकार की रुकावट का सामना नहीं करना पड़ता है तो उनका सारा वेग और पूरी ऊर्जा भूमि अर्थात् मिट्टी पर पड़ती है। मिट्टी के कण अपनी जगह से विस्थापित हो जाते हैं। उसके बाद जब भूमि पर पानी बहता है तो उस पानी के लिए मिट्टी के कणों को अपने साथ ले जाना आसान हो जाता है। वैसे अगर वर्षा की बूंदों का योगदान नहीं हो तो भी बहता हुआ पानी अपने साथ मिट्टी के कणों को ले जा सकता है परन्तु उसको उतनी सफलता नहीं मिलेगी जितनी कि उस स्थिति में जब मिट्टी के कण पहले से ही विस्थापित हों। यही कारण है कि खाली भूमि से मिट्टी का कटाव तेजी में होता है अपेक्षाकृत उस भूमि के जिस पर पेड़-पौधे काफी हों।
पेड़-पौधों की उपस्थिति के कारण वर्षा की बूंदे सीधे भूमि पर मार नहीं करती हैं। वह पहले पेड़-पौधों से टकराती हैं फिर वहाँ से नीचे भूमि पर गिरती हैं। परिणाम यह होता है कि भूमि अर्थात् मिट्टी को बहुत कम आघात सहना पड़ता है। दूसरी बात यह होती है कि जब पानी सतह पर बहता है तो उसका वेग और उसकी शक्ति कम हो जाती है क्योंकि उसे पेड़-पौधों के बीच से बहना पड़ता है। यही कारण है कि वन क्षेत्र से जो वर्षा का जल बहकर निकलता है वह बहुत साफ होता है। वहीं जल अगर किसी परती भूमि पर से गुजरता है तो वह मटियाला होता है। कई बार हम देखते हैं कि वर्षा ऋतु में नदी, तालाब, झील इत्यादि का पानी मटियाला हो जाता है। कारण वही है कि वर्षा जल के साथ मिट्टी के कण बड़ी मात्रा में पानी में आते हैं। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में ऐसा प्रायः होता है। पानी में जो गाद दिखाई देता है वह असल में मिट्टी के कण होते हैं जो वर्षा जल के साथ बह जाते हैं।
पहले भी चर्चा हो चुकी है कि वह गाद या मिट्टी के कण झील, तालाब तथा दूसरे जलाशयों में एकत्रित होकर उनकी क्षमता को कम कर देते हैं। इस प्रकार दोहरा नुकसान होता है। नदियों की पानी ले जाने की क्षमता भी कम हो जाती है और नदियों के आसपास बाढ़ की सम्भावना बढ़ जाती है। एक और समस्या भी उत्पन्न होती है कटी हुई मिट्टी के साथ पोषक तत्वों के कारण। वह पोषक तत्व पानी में पहुँचते हैं और पानी में पोषक तत्चों की मात्रा आवश्यकता से अधिक हो जाती है। परिणाम यह होता है कि पानी में अपतृण तेजी से बढ़ते हैं। कई बार तो तालाब, झील इत्यादि पूरी तरह अपतृणों से ढँक जाते हैं। उनकी उपस्थिति के कारण पानी का सही प्रकार से उपयोग कठिन हो जाता है। उस प्रकार के तालाब, झील, नदी इत्यादि में मछली तथा अन्य जलीय जीव जो साधारणतः होते हैं वह गायब हो जाते हैं। कारण होता है कि रात के समय पानी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। अपतृण सारा ऑक्सीजन सोख लेते हैं और पानी ऑक्सीजन रहित हो जाता है। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में या बहुत कमी के कारण मछली तथा अन्य जीव समाप्त हो जाते हैं। वैज्ञानिक इस स्थिति को यूट्रोफीकेशन का नाम देते हैं।
हवा के कारण भी मिट्टी का कटाव उसी तरह होता है जिस प्रकार पानी के कारण। जब हवा चलती है तो उसमें काफी शक्ति होती है। हवा की शक्ति या ऊर्जा का उपयोग ऐतिहासिक तौर पर होता रहा है, जहाज को चलाने के लिए, पवनचक्की चलाने के लिए, अनाज साफ करने के लिए तथा अन्य कार्य के लिए हवा की वही शक्ति जो भी सामने आता है उसे अपने साथ ले जाने की कोशिश करती है। मिट्टी भी उसी समूह में आता है। अगर मिट्टी के कण आपस में अच्छी तरह जुड़े हुए नहीं हो तो आसानी से हवा के साथ जा सकते हैं। यही कारण है कि सूखी मिट्टी और विशेषकर वैसी मिट्टी जिसमें कार्बनिक पदार्थ कम हो वह बहुत आसानी से हवा के दबाव में आ जाती है और उसके कण हवा के साथ बिखरने लगते हैं और उड़ने लगते हैं।
मिट्टी के कणों के बिखरने तथा उड़ने की गति हवा के वेग पर निर्भर करेगी। अगर तेज आँधी हो तो मिट्टी के कण बहुत तेजी से उड़ते हैं और हवा के साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। जब हवा का वेग कम होता है तब वह गुरुत्व के कारण नीचे बैठने लगते हैं। स्पष्ट है कि भारी कण पहले बैठेंगे फिर हल्के। हवा के कारण भी जो मिट्टी का कटाव होता है उससे सुरक्षा प्रदान करने में पेड़-पौधों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक ओर पेड़-पौधे हवा के वेग और उसकी शक्ति को कम कर सकते हैं तो दूसरी ओर जहाँ भी पेड़-पौधे पर्याप्त रूप में होंगे वहाँ की मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ भी पर्याप्त मात्रा में होगा और हमें मालूम है कि ह्यूम मिट्टी के कणों को एक-दूसरे से चिपकाने में सहायक होता है। यही कारण है कि जंगल की या उपजाऊ खेत की मिट्टी कभी भी भुरभुरी नहीं होती है जबकि परती भूमि की मिट्टी भुरभुरी होती है। स्पष्ट है कि भुरभुरी मिट्टी का कटाव बहुत आसानी से सम्भव है वैसी मिट्टी की अपेक्षा जो ढेलों के रूप में हो या पानी की उपस्थिति के कारण पंकिल हो।
हम भूमि या मिट्टी के कटाव की प्रक्रिया पर ध्यान दें तो वह मुख्यतः तीन कारणों से होता है या तीन प्रकार से होता है। पहला, पानी के कारण कटाव, दूसरा हवा के कारण कटाव और तीसरा गुरुत्व के कारण। तीसरे प्रकार का मिट्टी या भूमि का कटाव गुरुत्व के कारण होता है। स्पष्ट है कि इस प्रकार का कटाव समतल भूमि में सम्भव नहीं है। ऐसा केवल ढलान वाली जगह में ही सम्भव है। यही कारण है कि इस प्रकार का कटाव केवल पहाड़ी क्षेत्र में होता है या किसी ऐसी जगह पर जहाँ ढलान का निर्माण किया जाता है किसी विशेष कारण से। ढलान जितना ही अधिक होगा कटाव की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी। यही कारण है कि जहाँ कहीं ढलान अधिक होता है वहाँ ऊपर से ढलान वाली सामग्री नीचे की तरफ खिसकती है और अपने साथ रास्ते की सामग्री को भी नीचे की ओर ले जाती है। यह सब उस सामग्री के अपने वजन के कारण होता है। वर्षा के समय खिसकने की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है। क्योंकि पानी भी नीचे बहता है और उस कारण भी मिट्टी तथा अन्य सामग्री नीचे खिसकती है। दूसरा कारण यह होता है कि ढलान पर उपस्थित सामग्री पानी को सोख लेती है और उसका वजन बढ़ जाता है। जब वह नीचे खिसकती है तो उसका प्रभाव अधिक तीव्र होता है।
अगर हम भूमि या मिट्टी के कटाव के कारणों पर विचार करें तो उसके पीछे अनेक कारण दिखाई देते हैं। पहला कारण है भूमि का गलत तरीके से उपयोग। स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया में हमारी अपनी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। जब हम भूमि का उपयोग गलत तरीके से करते हैं तो कटाव की सम्भावना बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए जब किसी क्षेत्र से वन को समाप्त कर दिया जाता है तो उसके साथ वहाँ उगने वाले अन्य प्रकार के पेड़-पौधे भी गायब हो जाते हैं या बहुत कम हो जाते हैं। परिणाम होता है कि भूमि नंगी हो जाती है। उसके बाद मिट्टी से ह्यूम भी धीरे-धीरे गायब हो जाता है। वैसी स्थिति में अगर तेज हवा चलती है या वर्षा होती है तो मिट्टी के कटाव में किसी प्रकार की रुकावट नहीं होती है और वह हवा तथा पानी के साथ कटती जाती है।
जिस क्षेत्र में मवेशी या पशुधन अधिक होते हैं वहाँ भी भूमि के कटाव की सम्भावना बढ़ जाती है। कारण है कि चराई के कारण घास, शाकीय पौधे एवं पौध इत्यादि समाप्त होते चले जाते हैं। भूमि नंगी अवस्था में या उसके निकट पहुँच जाती है। एक दूसरी बात यह होती है कि पशुओं के चलने-फिरने के कारण भूमि सख्त हो जाती हैं वर्षा जल को भूमि के नीचे जाने का अवसर नहीं मिलता है। वह सतह पर ही बहता है। कुल मिलाकर हवा तथा पानी के कारण कटाव तेजी से होने लगता है। गलत तरीके से खेती के कारण भी मिट्टी तथा भूमि का कटाव तीव्र हो जाता है। उदाहरण के लिए जब भूमि को एक वर्ष में कई बार जोता जाता है। वार्षिक फसल उगाने के लिए। अगर जोतने के समय गहरे हल का उपयोग किया जाता है तो उससे कटाव की सम्भावना अधिक हो जाती है। भूमि पर अगर जल्दी-जल्दी नई फसल उगाई जाती है तो भी कटाव की सम्भावना बढ़ जाती है। उसके विपरीत अगर ऐसी फसल लगाई़ जाती है जो लम्बी अवधि तक खड़ी रहती है तो मिट्टी को सुरक्षा मिलती है। उसी प्रकार अगर एक ही फसल को बार-बार उगाया जाता़ है तब भी भूमि के कटाव की सम्भावना बढ़ जाती है। एक अन्य कारण है कि अगर भूमि पर समोच्य के साथ-साथ पौधों को नहीं रोपा जाता है बल्कि ऊपर से नीचे की ओर रोपा जाता है तो भूमि या मिट्टी का कटाव तेज हो जाता है।
कटी हुई मिट्टी के साथ पोषक तत्व पानी में पहुँचते हैं और पानी में पोषक तत्चों की मात्रा आवश्यकता से अधिक होने की वजह से पानी में अपतृण तेजी से बढ़ते हैं। अपतृण सारा ऑक्सीजन सोख लेते हैं और पानी ऑक्सीजन रहित हो जाता है। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में या बहुत कमी के कारण मछली तथा अन्य जीव समाप्त हो जाते हैं। वैज्ञानिक इस स्थिति को यूट्रोफीकेशन का नाम देते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमि या मिट्टी के कटाव के लिए मुख्यरूप से हम ही जिम्मेवार हैं। वैसे तो वर्षा अधिक होने पर तेज हवा के चलने के कारण, ढलान अधिक होने के कारण, कटाव की सम्भावना होती है। मिट्टी की बनावट एवं संरचना तथा उसमें उपस्थित अवयवों का भी योगदान होता है कटाव को बढ़ाने या घटाने में। परन्तु कोई भी भूमि इन सबसे केवल एक सीमा तक ही प्रभावित होती है। जब मानवीय हस्तक्षेप अधिक होता है तो इन सबका प्रभाव भी बढ़ जाता है। इसका एक सरल उदाहरण हम अपने शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्रों में देख सकते हैं। वहाँ विकास के नाम पर भवन, उद्योग, सड़क, पार्किंग इत्यादि बनते जाते हैं। कहीं भी मुश्किल से ही जगह छोड़ा जाता है कि भूमि खाली रहे और उस पर पेड़-पौधे उगे। परिणाम यह होता है कि वर्षा के समय पूरा पानी सतह पर ही रहता है और बहता है। उसे नीचे रिसने का अवसर ही नहीं मिलता है।
स्पष्ट है कि वह पानी कहीं न कहीं से बहने के लिए रास्ता ढूँढता है या फिर बाढ़ जैसी स्थिति पैदा करता है। जब वह बहता है तो उसकी मात्रा बहुत अधिक होती है और उसकी शक्ति भी अधिक होती है। स्पष्ट है कि जहाँ भी उसे अवसर मिलता है वह मिट्टी तथा भूमि को काटता जाता है। पहाड़ों की ढलानों पर भी लोग शहर बसा रहे हैं। पक्की सड़के बना रहे हैं, उद्योग लगा रहे हैं। ऐसा करने के लिए जंगल को काटा जाता है और हरियाली को नष्ट किया जाता है। जब उस क्षेत्र में वर्षा होती है या तेज हवा चलती है तो मिट्टी तथा भूमि का कटाव होना स्वाभाविक है। भूस्खलन उसी का एक रूप है।
आवश्यक है कि हम इन तथ्यों पर विचार करें तथा प्रकृति के साथ आवश्यकता से अधिक छेड़छाड़ न करें। अन्यथा हमें बहुत ही गम्भीर परिणाम को भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए कि कृषि के बिना हम जी नहीं सकते हैं और कृषि का आधार उपजाऊ भूमि तथा मिट्टी है।
(लेखक वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में निदेशक रह चुके हैं)
ई-मेल: arrarulhoque@hotmail.com