जगदीप सक्सेना
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) द्वारा जारी एक ताजा रिपोर्ट ने देश के पर्यावरण वैज्ञानिकों को चिंता में डालने के साथ ही कई सवाल भी खड़े कर दिये हैं। रिपोर्ट कहती है कि एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के कुछ भागों पर छायी गहरी भूरी धुंध धरती को गरमाने की प्रक्रिया में आग में घी का काम कर रही है। इससे कई प्रमुख शहरों में अंधेरा हावी होता जा रहा है, हिमालय के ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार तेज हो रही है और क्षेत्र में मौसमी उठापटक पहले से कहीं ज्यादा उग्र हो गयी है।
रिपोर्ट ने जलवायु परिवर्तन जैसी महाविपदा के लिए इस भूरी धुंध को दूसरे नंबर का जिम्मेदार ठहराया है। पहले स्थान पर कार्बन डाइ आक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसें हैं। सर्दियां शुरू होते ही नवंबर से मार्च-अप्रैल तक वातावरण पर छायी रहने वाली इस धुंध को पहले स्थानीय मौसमी दशा समझकर ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। परंतु जब हिंद महासागर में किये गये एक व्यापक प्रयोग के बाद सन् 2002 में यूनेप की प्रारंभिक रिपोर्ट सामने आयी तो पता चला कि यह धुंध कई महाद्वीपों तक फैलकर विश्व की जलवायु को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। उस समय इसे ‘एशियन ब्रॉउन क्लाउड’ कहा गया था क्योंकि इसकी उत्पत्ति मुख्य रूप से एशियाई देशों भारत और चीन में हो रही थी। परंतु भारत तथा कुछ अन्य देशों ने इस नामकरण पर कड़ा ऐतराज जताया, तब इसे ‘ऐटमॉस्फीरिक ब्राउन क्लाउड’ कहा जाने लगा। लेकिन मूल मुद्दा अभी भी यही है कि भारत और अन्य विकासशील देश इस धुंध को उपजाने के मुख्य आरोपी हैं? रिपोर्ट में कहा गया है कि भूरी धुंध की उत्पत्ति परंपरागत ईंधन जैसी लकड़ी, कोयला वगैरह जलाने और पेट्रोल/डीजल के उपयोग से होती है। भूरी धुंध को ग्रीनहाउस प्रभाव से जोड़कर यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि जलवायु परिवर्तन की महाविपदा के पीछे प्रमुख हाथ विकासशील देशों का है। इस तरह विकसित पश्चिमी देश जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से अपना पल्ला झाड़ना चाहते हैं ताकि विश्व स्तर पर पर्यावरण–अनुकूल प्रौघोगिकी अपनाने के लिए होने वाले खर्च और साधनों में उनकी सबसे बड़ी हिस्सेदारी पर जोर न डाला जाए। जबकि वास्तविकता इसके उलट है। विकसित देश आज भी हवा में कार्बन डाइआक्साइड छोड़ने के मामले में सबसे आगे हैं। भरोसेमंद आंकड़ों के अनुसार औघोगिक देश सन् 2001 में कुल 11,634 मिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाइआक्साइड हवा में छोड़ रहे थे, जबकि विकासशील देशों के लिए यह आंकड़ा महज 9,118 मिलियन मीट्रिक टन था। अकेले भारत की बात करें तो ‘यूनियन ऑफ कन्संर्ड साइंटिस्ट्स’ नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था के अनुसार कार्बन डाइ आक्साइड छोड़ने वाले 20 प्रमुख देशों में हमारे देश का चौथा स्थान है। नंबर एक पर अमेरिका विराजमान है। यदि इसी आंकड़े को प्रति व्यक्ति द्वारा छोड़े जाने वाले कार्बन के नजरिये से देखें तो दुनिया में अमेरिकी नागरिक नौवें स्थान पर आते हैं, जबकि आम भारतीय 129 वें पायदान पर।
भारतीय वैज्ञानिकों का मानना है कि भूरी धुंध को जलवायु परिवर्तन से जोड़ने की कोशिश अभी मात्र एक वैज्ञानिक परिकल्पना है। ‘यूनेप’ ने ऐसे कोई प्रयोगात्मक या वैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किये हैं, जो स्पष्ट रूप से दर्शा सकें कि हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की दर भूरी धुंध के कारण तेज हो रही है। भूरी धुंध में मुख्य रूप से कार्बन या कहें कालिख के कण मौजूद होते हैं, जो ‘सूट’ कहलाते हैं और इनकी उत्पत्ति लकड़ी या कोयला जलाने से होती है। इसमें दूसरे प्रमुख कण सल्फेट के होते हैं, जो मोटर वाहनों के धुएं से आसमान तक जा पहुंचते हैं। ये दोनों ही कण अपनी-अपनी तरह से जलवायु को प्रभावित करने का काम करते हैं। परंतु इनका सबसे पहला असर धरती तक पहुंचने वाली सूरज की रोशनी पर पड़ता है। कार्बन के कण सूरज की रोशनी को सोख लेते हैं, जिससे धरती तक पहुंचने वाली रोशनी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। दक्षिण–पूर्व एशिया से लेकर अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका तक के 13 प्रमुख शहरों में अंधकार हावी होता जा रहा है, इसमें भारत के तीन प्रमुख शहर (दिल्ली, मुंबई और कोलकाता) शामिल हैं। दिल्ली में रोशनी की कटौती 10 से 25 प्रतिशत तक देखी गयी है।
पूरे भारत में सन् 1960 से 2000 के बीच प्रति दशक दो प्रतिशत की दर से रोशनी कम होती जा रही है। दूसरी आ॓र धुंध में मौजूद सल्फेट कण सूरज की गर्मी को अंतरिक्ष में परावर्तित कर देते हैं और वातावरण में मौजूद गर्मी सोख भी लेते हैं। इस तरह से धरती की सतह के तापमान को कम बनाये रखने का सार्थक काम लगातार करते रहते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर किसी तरीके से इस भूरी धुंध को रातों–रात साफ कर दिया जाए तो धरती का तापमान अचानक दो डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। यानी यह भूरी धुंध धरती को बढ़ते तापमान के कहर से बचाने में कवच का काम कर रही है।
रिपोर्ट कहती है कि भारत और चीन में हो रही मौसम की गड़बड़ी की मुख्य जिम्मेदारी इसी भूरी धुंध पर है न कि धरती के गरमाने पर जबकि भारतीय वैज्ञानिकों की मानें तो भूरी धुंध वातावरण में मध्यम स्तर की ऊंचाई पर मौजूद रहती है और वह भी केवल सर्दियों के चंद महीनों के लिए। इसलिए इसे स्थानीय प्रदूषण से ज्यादा मान नहीं देना चाहिए।
रिपोर्ट के अनुसार इस धुंध के कारण भारत और चीन की प्रमुख नदियों को जीवनदायी जल प्रदान करने वाले ग्लेशियर लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं। गंगा का 70 प्रतिशत पानी अकेले गंगोत्री ग्लेशियर से आता है, जबकि ब्रह्मपुत्र भी अपने प्रवाह के लिए काफी हद तक हिमालय के ग्लेशियरों पर निर्भर है। रिपोर्ट के अनुसार यह विपदा ग्लेशियरों पर कार्बन जमा होने के कारण उत्पन्न हो रही है जबकि विश्व स्तर पर किये गये वैज्ञानिक अध्ययनों से हमेशा यह बात सामने आयी कि ग्लेशियरों के दरकने की प्रमुख वजह धरती का गरमाना यानी ‘ग्लोबल वार्मिंग’ है।
रिपोर्ट में भूरी धुंध को मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बताया गया है, क्योंकि इसमे जहरीले ऐरोसॉल, कैंसर पनपाने वाले कण और सांस में तकलीफ पैदा करने वाले महीन कणों की भरमार देखी गयी है। भूरी धुंध सांस के रोगों के साथ ही दिल के रोगों और इससे जुड़ी अन्य बीमारियों को बढ़ावा देने का काम भी करती है। अगर हवा में महीन कणों की तादाद बीस माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर हो जाए तो चीन और भारत में लगभग 3,40,000 अतिरिक्त मौतें होने की आशंका जतायी गयी है। इससे भारत को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 2.2 प्रतिशत में बराबर आर्थिक नुकसान झेलना पड़ सकता है। देखा गया है कि सर्दियां शुरू होने पर जैसे ही भूरी धुंध का प्रकोप शुरू होता है, विशेष रूप से महानगरों में सांस के रोगियों की तादाद और दमा का कहर बढ़ जाता है। देश के अनेक प्रमुख शहरों में वायु प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों और मौतों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। आज भी हमारे देश में, खासतौर से ग्रामीण इलाकों में खाना पकाने के लिए लकड़ी या कोयला जलाया जाता है, जो घर में जहरीला धुआं भरता है और वातावरण में भूरी धुंध भी पनपाता है।
अनुमान है कि भारत में इस कारण लगभग पांच लाख असामयिक मौतें होती हैं। सर्दी के महीनों में भूरी धुंध का छाना निश्चित रूप से एक पर्यावरणीय समस्या है, जो सीधे तौर पर हमारी प्रदूषणणकारी करतूतों की उपज है। इसका निदान होना जरूरी है, परंतु इसके लिए किसी क्षेत्र विशेष को अपराधी करार देना और ‘ग्लोबल वार्मिंग’ जैसी वैश्विक आपदा के प्रभावों को भूरी धुंध की देन बताना शायद वैज्ञानिक पूर्वाग्रह की आ॓र संकेत करता है। गौरतलब है कि ‘यूनेप’ को इस शोध परियोजना के लिए इटली, स्वीडन और अमेरिका की सरकारों से धनराशि प्राप्त हुई थी।
साभार – अमर उजाला
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