चलो, चले-गाँव की ओर

Submitted by RuralWater on Sun, 09/20/2015 - 14:56
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16-30 सितम्बर यथावत

‘मेरे गाँव, मेरे तीर्थ’ कार्यक्रम में संघ के लोग उत्तराखण्ड के गाँव से पलायन कर चुके प्रवासियों को साल में एक बार अपने गाँव आने का आग्रह कर रहे हैं। संघ यह कार्यक्रम अपने सामाजिक संगठन ‘उत्तरांचल उत्थान परिषद’ के बैनर तले चला रहा है। जिसमें संघ के कार्यकर्ता प्रवासियों को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वे साल में कम-से-कम एक बार अपने पैतृक गाँव जरूर आएँ। उत्तराखण्ड में गाँव-के-गाँव खाली होने से जो कठिनाइयाँ पैदा हुई हैं, वह किसी त्रासदी के कम नहीं हैं। अब इससे उबरने की सकारात्मक कोशिश हो रही है।

रोज़गार की खोज में लोग पहाड़ियों से नीचे आते गए। फिर घाटियों से बाहर निकलते गए। इससे कई गाँव खाली हो गए। 2013 के बाद इस प्रक्रिया में काफी तेजी आई। पलायन को रोकना तो दूर, उसे कम करने में भी कोई सरकार सफल नहीं हो पाई है।

उत्तराखण्ड के अस्तित्व में आने के करीब डेढ़ दशक बाद जो तस्वीर उभरकर सामने आई है, वह भयावह है। प्रदेश के सैकड़ों गाँवों में आबादी नहीं है। अब वहाँ जंगली जानवरों का आधिपत्य है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया है। संघ की ओर से ‘मेरे गाँव, मेरे तीर्थ’ कार्यक्रम की शुरुआत की गई है, ताकि पलायन कर चुके लोगों को अपने गाँव, अपनी माटी और जड़ों से जोड़ा जा सके। संघ के इस कार्यक्रम को कुछ राजनीतिक विश्लेषक विधानसभा चुनाव 2017 की तैयारी के तौर पर भी देखते हैं।

‘मेरे गाँव, मेरे तीर्थ’ कार्यक्रम में संघ के लोग उत्तराखण्ड के गाँव से पलायन कर चुके प्रवासियों को साल में एक बार अपने गाँव आने का आग्रह कर रहे हैं। संघ यह कार्यक्रम अपने सामाजिक संगठन ‘उत्तरांचल उत्थान परिषद’ के बैनर तले चला रहा है।

संघ से जुड़े उत्तराखण्ड के लोग देश-विदेश में बसे प्रवासी उत्तराखण्डियों के साथ लगातार बातचीत कर रहे हैं। पिछले महीने ऐसी ही एक बैठक दिल्ली के एनडीएमसी सभागार में हुई थी। बैठक में संघ के कार्यकर्ता प्रवासियों को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वे साल में कम-से-कम एक बार अपने पैतृक गाँव जरूर आएँ। वहाँ कुछ दिन व्यतीत करें।

गाँव के प्रवासी आपस में सम्पर्क कर समूह में आएँ। साल में एक बार गाँवों में प्रवास करने से पहाड़ पर फैला सन्नाटा टूटेगा। गाँवों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार होगा। संघ के एक स्थानीय कर्ताधर्ता ने बताया कि इस पहल से यदि पाँच हजार प्रवासी भी अपने-अपने गाँवों में आते हैं तो उनकी आवाजाही से 10 से 15 करोड़ रुपए की अर्थव्यवस्था विकसित होगी।

इनका मानना है कि प्रवासियों के आने पर स्थानीय उत्पादों मसलन-कोदा, झंगोरा, गैत, राजमा, तोर, काला भट्ट सरीखी पहाड़ी दालों को भी एक नया बाजार मिलेगा। स्थानीय उत्पादों की खपत बढ़ेगी। इससे कश्तकार और अधिक उत्पादन करने के लिये प्रेरित होंगे। प्रवासियों के गाँव लौटने की प्रवृत्ति बनने पर स्थानीय अर्थव्यवस्था बढ़ेगी, जिससे उनका गाँवों के प्रति लगाव बढ़ेगा।

सूत्र बताते हैं कि उत्तराखण्ड में संघ अगले साल से हर गाँव में एक मेले का आयोजन करेगा। प्रयास यह किया जाएगा कि वह मेला उक्त गाँव के ऐतिहासिक, धार्मिक या फिर सांस्कृतिक दिवस पर हो। इसे ‘ग्राम्य उत्सव’ के नाम से मनाया जाएगा।

इस तरह संघ राज्य के ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजनों में भी दिलचस्पी ले रहा है। इस दौरान जो प्रवासी गाँवों में आएँगे, उन्हें लौटते समय स्थानीय उत्पाद साथ ले जाने के लिये प्रेरित किया जाएगा। यह सब कैसे सम्भव होगा?

इस बारे में संघ के प्रान्तीय प्रचारक डॉ. हरीश रौतेला कहते हैं, “संघ ने 670 न्याय पंचायतों में संयोजक तैनात कर दिये हैं। संयोजकों की भूमिका प्रवासियों को गाँव लौटाने के लिये प्रेरित करने की होगी। साथ ही वे गाँव आने वाले प्रवासियों को स्थानीय उत्पाद खरीदने आदि के लिये भी प्रेरित करेंगे।” इसके अलावा संघ प्रवासियों के संगठनों से भी सम्पर्क कर रहा है।

संघ के मुताबिक पलायन कर चुके उत्तराखण्ड के लोगों ने विभिन्न शहरों में करीब 1200 संगठनों का गठन किया है। संघ विभिन्न शहरों में स्थित इन उत्तराखण्डी संगठनों से सम्पर्क कर उन्हें भी इस मुहिम से जुड़ने का आग्रह कर रहा है।

2011 में हुई जनगणना के अनुसार उत्तराखण्ड राज्य की आबादी 1,01,16,752 है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दावा है कि इससे डेढ़ गुना उत्तराखण्डी पलायन कर चुके हैं। इनमें से 30-35 लाख उत्तराखण्डी प्रवासी तो केवल में ही हैं।

दिल्ली के अलावा मुम्बई, लखनऊ, मुरादनगर जैसे शहरों में भी इनकी आबादी लाखों में है। इसके साथ-साथ अमेरिका, जापान, यूएई सहित दुनिया भर में उत्तराखण्ड के लोग फैले हुए हैं। संघ का दावा है कि जापान जैसे छोटे देश में भी करीब 35 हजार उत्तराखण्डी रहते हैं। संघ अब इन लोगों को वर्ष में कम-से-कम एक बार सप्ताह भर के लिये अपने मूल गाँव वापस लाने की योजना पर बड़े स्तर पर काम कर रहा है।

इसी तैयारी के मद्देनज़र बीते मई महीने में संघ ने दिल्ली में रहने वाले प्रवासी उत्तराखण्डियों के साथ बैठक की थी। डॉ. हरीश रौतेला कहते हैं, ‘पलायन उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी समस्या है। इसकी वजह से इस सीमान्त राज्य के गाँव-के-गाँव खाली हो रहे हैं। इससे देश की सीमाएँ भी खाली और सामरिक दृष्टिकोण से कमजोर होती जा रही हैं।’ वे आगे कहते हैं कि पहाड़ को पलायन के अभिशाप से मुक्त कराने के लिये यह पहल की जा रही है। पिछले महीने दिल्ली में केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस योजना की शुरुआत की है।

डॉ. हरीश रौतेला स्वयं इस योजना के योजनाकार हैं। वे स्वयं उत्तराखण्ड से हैं। संघ अपना यह कार्यक्रम उत्तरांचल उत्थान परिषद के तहत कर रहा है। परिषद के उपाध्यक्ष हरपाल सिंह नेगी को ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में एक ही स्थान पर उत्तराखण्ड के 25 हजार परिवार मिले। इन्होंने उन प्रवासियों से ‘मेरे गाँव, मेरे तीर्थ’ कार्यक्रम के बारे में बात की तो वे सभी परिवार अपने गाँव आने के लिये उत्साहित हैं।

हरपाल सिंह नेगी बताते हैं, “इस साल अभी तक हम लोग 20 गाँवों में ग्राम्य उत्सव मना चुके हैं। टिहरी जिले के ऋषिधार गाँव में 80 प्रवासी परिवार आये और पूरे सप्ताह रहे। गाँव में इन लोगों ने गोष्ठी की। अपने ग्राम्य देवता के सामने एकत्र होकर धार्मिक आयोजन किये। हफ्ता भर गाँव और आसपास के क्षेत्र में मेरे जैसा वातावरण बना रहा।” प्रदेश के कुल 15,745 गाँवों में से 1,143 गाँव गैरआबादी वाले हो चुके हैं। इन गाँवों में अब एक भी व्यक्ति नहीं रह रहा है। गाँवों में बने घर खण्डहर में हो चुके हैं। खेती की ज़मीन बंजर हो गई है।

राज्य के दो जनपदों अल्मोड़ा की आबादी बढ़ने की बजाय 1.73 फीसदी और पौड़ी की 1.51 फीसदी घट गई है। अन्य पहाड़ी जिलों यानी चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी, पिथौरागढ़ और बागेश्वर की आबादी भी पाँच फीसदी से भी कम की रफ्तार से बढ़ी है।

वहीं इसके उल्टे राज्य के मैदानी जिलों उधमसिंह नगर की आबादी 33.40, हरिद्वार 33.16, देहरादून की 32 और नैनीताल की आबादी 25 फीसद की रफ्तार से बढ़ी है। जबकि प्रदेश की आबादी के बढ़ने की औसत दशकीय दर 16 और देश की 17 फीसद है।

मगर जानकार मानते हैं कि मसला सिर्फ पलायन से निपटने तक सीमित नहीं है। असली मर्ज तो सीमान्त गाँवों में तेजी से फैल रहे सन्नाटे को लेकर है। संघ के लिये बड़ी चिन्ता का विषय यही है। डॉ. हरीश कहते हैं, “सीमा से लगे गाँवों के तेजी से खाली होने की चिन्ता भी इस योजना से जुड़ी है। राष्ट्र की सीमाओं को सुरक्षित बनाने के लिये पलायन का ठहरना जरूरी है।” जानकार मानते हैं कि संघ ने इस दिशा में काफी पहले से मोर्चा सम्भाल रखा है। सीमान्त गाँवों में बच्चों के लिये आवासीय गुरुकुल खोलने की रणनीति इसी योजना का हिस्सा है।

संघ का ‘मेरे गाँव, मेरे तीर्थ’ कार्यक्रम का उद्देश्य जो भी हो, लेकिन इसके राजनीति मायने भी निकाले जा रहे हैं। कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह कांग्रेस सरकार की ‘मेरा गाँव, मेरा धन’ और ‘हरेला महोत्सव’ का जवाब है।

यह आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र किया जा रहा है। इस तर्क के पीछे जो तथ्य सामने आ रहे हैं, वह यह है कि संघ के 90 सालों के इतिहास में उत्तराखण्ड प्राथमिकता में नहीं बन पाया है। इस साल अचानक उत्तराखण्ड संघ की प्राथमिकता में है।

संघ ने अपनी दो प्रमुख बैठक उत्तराखण्ड में रखकर इसके संकेत भी दे दिये हैं। शीर्ष समिति ‘अखिल भारतीय प्रान्त प्रचारक’ की बैठक नैनीताल में 21 से 24 जुलाई तक आयोजित की गई थी। वहीं अक्टूबर में दूसरी शीर्ष समिति ‘अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा’ की बैठक हरिद्वार में प्रस्तावित है।

नैनीताल में हुई शीर्ष समिति की बैठक में सर संघचालक मोहन भागवत सहित देश भर के करीब 180 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया, जिसमें सर कार्यवाह भैयाजी जोशी, सह सर कार्यवाह सुरेश सोनी, कृष्ण गोपाल और दत्तात्रेय होसबोले के साथ भाजपा के महा मंत्री संगठन रामलाल जैसे लोग उपस्थित थे।

 

 

गाँव को आबाद करना है : डॉ. हरीश रौतेला


डॉ. हरीश रौतेला से गुंजन कुमार द्वारा बातचीत पर आधारित कुछ अंश।

‘मेरे गाँव, मेरे तीर्थ’ कार्यक्रम को अब तक कितनी सफलता मिली है?

जनवरी 2014 में इसे सैद्धान्तिक रूप से और जनवरी 2015 में इस पर काम शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी समस्या पलायन पर रोक लगाना है। उत्तराखण्ड के प्रवासियों को उनकी मिट्टी और संस्कृति से रूबरू कराना है। पिछले कुछ माह में 2,500 से ज्यादा प्रवासी उत्तराखण्ड आ चुके हैं। यदि पलायन को रोका नहीं गया तो यह कल्पना नहीं की जा सकती कि एक-दो दशक बाद पहाड़ पर कौन बचेगा।

केवल एक सप्ताह अपने गाँव में रहने से पलायन कैसे थमेगा?

हमने प्रवासियों को कहा है कि वे समूह में अपने गाँव आएँ। जब वे लोग गाँव आएँगे तो खाना बनाने के लिये वहाँ से सामान खरीदेंगे। खण्डहर बन चुके अपने घरों की मरम्मत करेंगे। फिर जाते समय अपनी मिट्टी की खूशबू यानी खेतों में उपजने वाले दाल, चावल, जड़ी-बूटी आदि ले जाएँगे। इससे स्थानीय लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी। जब उनके उत्पाद गाँव में ही बिकेंगे तो स्थानीय लोग खेती भी करेंगे। तब वे पलायन की नहीं सोचेंगे।

इसके पीछे क्या कोई राजनीतिक उद्देश्य भी है?

कहने वाले कुछ भी कह सकते हैं। संघ 12 महीने बिना प्रचार-प्रसार के अपना सामाजिक-सांस्कृतिक कार्य करता रहता है। संघ का कोई भी कार्य राजनीतिक नफा-नुकसान के लिये नहीं होता, बल्कि समाज के उत्थान के लिये होता है। संघ कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है। सीमा से लगे गाँव तेजी से खाली हो रहे हैं, जिससे राष्ट्र की सुरक्षा संकट में है। सीमाओं को सुरक्षित बनाने के लिये पलायन का रुकना बेहद जरूरी है।