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कादम्बिनी, मई 2015
हो सकता है कि एकबारगी चम्बल का नाम सुनकर आपके मन में आस्था का वह ज्वार न उमड़े जैसे गंगा का नाम सुनकर उमड़ता है। लेकिन इससे चम्बल उपेक्षिता नहीं हो जाती है। महाभारत काल में भी इसका उल्लेख मिलता है। चर्मण्वती यानी आज की चम्बल के सहारे ही कुन्ती पुत्र कर्ण के राधेय बनने की यात्रा शुरू हुई थी। इस पौराणिक नदी के संग-साथ बिताए अपने दिनों के बहाने नदी और मानवीय सम्बन्धों की पड़ताल कर रही हैं लेखिका
चम्बल से मेरा एक खास रिश्ता है। चम्बल के किनारे स्थित नागदा की औद्योगिक नगरी में मेरा जन्म हुआ इस लिहाज से चम्बल मेरी माँ है। कथानुसार जनमेजय के नाग यज्ञ की बलिवेदी में अनेक नाग प्रजातियाँ होम हुईं। उसी से नगर का नाम नागदाह हुआ। कालांतर में वह नागदा कहलाया। आज नागदा एक औद्योगिक नगरी है। नाग यज्ञ के अग्निकुण्ड से निकलते धुएँ का स्थान चिमनियों से निकलते काले धुएँ ने ले लिया है। शहर के निकट पहुँचते ही रासायनिक गंध नथुनों में चढ़ने लगती है और तब एहसास होने लगता है कि नागदा का स्टेशन आने वाला है।
शहर में बस एक ही स्थल है जिसे मनोरम कह सकते हैं। यकीनन चम्बल की बहती उज्जवल धारा और उस पर बना रेल का पुल अत्यंत चित्ताकर्षक हैं। हालाँकि नदी की धारा बारहमासी अविरल नहीं है, मगर वर्ष के करीब आठ माह तक चम्बल माँ के दर्शन होते हैं। महू के पास स्थित ‘जाना पाओ’ की पहाड़ी चम्बल का उद्गम स्थान है।
पौराणिक कथाओं को सुनने-गुनने की कोशिश करें, तो कुछ यों पता चलेगा कि पशुओं के चर्म के रिसाव से ही इस नदी का उद्भव हुआ। इसी वजह से नदी का नाम चर्मण्वती पड़ा। चर्मण्वती वास्तव में माता स्वरूप है। देवी कुन्ती द्वारा कौमार्य की भयंकर भूल मानकर अश्वनदी में त्यागे गए शिशु कर्ण को चर्मण्वती ने थामा। पौराणिक मान्यता है कि अश्वनदी तो नाम के अनुरूप अत्यंत वेगवती थी। यदि शिशु कर्ण बहता-बहता चर्मण्वती तक नहीं पहुँचता, तो महाभारत के महासमर की धारा कुछ और होती। जमुना किनारे सन्तान के लिए व्याकुल राधा और अनिरुद्ध दम्पत्ती तक शिशु कर्ण को पहुँचाने का बीड़ा चर्मण्वती ने उठाया।
चम्बल से मेरा सम्बन्ध लगता है जैसे अनेक जन्मों का है। मेरा जन्म चम्बल के किनारे हुआ। बचपन चम्बल को निहारते हुए बीता। व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए लोकतांत्रिक धर्मक्षेत्र का चुनाव करना पड़ा, तो वह भी चम्बल का ही क्षेत्र है। वह महज संयोग भला कैसे हो सकता है? माँ चम्बल अपनी सहायक नदियों जैसे रेतम, गुंजाली, शिवना, गम्भीरी के साहचर्य में मंदसौर-नीमच जिले की वसुधा का अलंकरण करती है।
मैंने चम्बल के साथ अकेले बहुत वक्त बिताया है। उसके जल को निहारते समय एक अलग अनुभूति होती है। उसे देखकर लगता है कि वह कठोर है। कोमलांगी नहीं है। उसे किसी हिमालय का वरदहस्त प्राप्त नहीं हुआ। वह स्वयंसिद्धा है। वनों एवं वृक्षों से ही उसने पानी को खींचा है। किसान जब धरती को मेहनत से जोतता है, तब उसके शरीर से मेहनत के प्रमाणस्वरूप पसीने की बूँदें बहती हैं। चम्बल की धारा भी उन स्वेद कणों की तरह अपनी कर्मशीलता की कहानी कहती प्रतीत होती है। चम्बल की प्रकृति उन्मुक्त है, निर्लिप्त या तटस्थ नहीं। मौन रहकर स्थितियों के समक्ष घुटने नहीं टेकती। उसकी प्रकृति में बगावत है, फिर क्या आश्चर्य कि चम्बल के तट पर श्योरपुर में मुक्तिबोध का जन्म हुआ। चम्बल के किनारे पैदा हुआ व्यक्ति ही चाँद पर फब्तियाँ कस सकता था और उसके मुँह को टेढ़ा बता सकता था। ‘सरफरोशी की तमन्ना’ लिए बिस्मिल के पूर्वज चम्बल के तट पर ही रहते थे।
जल से जीवन की शुरूआत हुई। यह मात्र एक मिथक नहीं है, अपितु एक वैज्ञानिक सत्य भी है। पहले पहले जीव जल में ही पनपे और कई सहस्त्र वर्ष तक जल में मग्न रहे, फिर ऐसे जीव पैदा हुए जो जल और जमीन दोनों में जिन्दा रह सकते थे। इस चरण के बाद जमीन पर विचरण करने वाले जीवों का उद्भव हुआ। दशावतार के पहले तीन रूप इसी क्रमिक विकास की कहानी को मत्स्य-कूर्म-वराह के माध्यम से कहते दिखाई देते हैं।चम्बल के बीहड़ एक समय में डाकुओं की शरणस्थली बन गए। विनोबाजी के नेतृत्व में उन डाकुओं ने, जो स्वयं को बागी कहते थे, हिंसा के मार्ग का त्याग किया। जौरा का गाँधी आश्रम इस हृदय परिवर्तन का साक्षी है। चम्बल की धारा धवल है। चम्बल के किनारे ज्यादा बड़े उद्योग नहीं हैं। चम्बल के तट पर कोई बड़ा तीर्थ स्थल नहीं है। उसकी साफ, स्वच्छ धारा की शायद यह वजह है। चम्बल की अनन्य सखी बनस अरावली की पुत्री है। अरावली पर्वत शृंखलाओं की खामनौर पहाड़ी से ‘वन की आशा’ कहलाने वाली बनस नदी बहती है। ये दोनों नदियाँ यमुना में मिलती हैं। चम्बल के तट पर धौलपुर में चम्बल अभ्यारण्य देखने लायक है। यहाँ बड़ा बसंता, हंस, छिलछिल, किनाई और तकरीबन विलुप्त हो चुकी पौना पक्षियों का कलरव और संगीत पौ फटते ही सुनाई देने लगता है। पक्षियों की यह संगीत लहरी मन को सुकून देती है। इस अभ्यारण्य क्षेत्र में घड़ियाल और डाॅल्फिन भी पाए जाते है। चम्बल पर बना गाँधी सागर का बाँध मंदसौर जिले में है।
यह भी अद्भुत संयोग है कि चम्बल की दो सहायक नदियों के तट पर महादेव विराजते हैं। क्षिप्रा और शिवना महाकाल और पाशुपात रूप में महादेव के चरण स्पर्श करती हैं। धार जिले में स्थित विंध्य पर्वतमाला की काकड़ी बद्री पहाड़ी से क्षिप्रा प्रकट होती है। काल और कल्प की परिधि से परे महादेव ‘महाकाल’ के रूप में क्षिप्रा नदी के किनारे बसते हैं। क्षिप्रा के ही तट पर उज्जैन नगरी में सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने पर सिंहस्थ का आयोजन होता है। क्षिप्रा के तट पर किशोर अवस्था में आए नटखट कान्हा को गीता के निर्माता कृष्ण के रूप में ऋषि सांदीपनी ने तैयार किया। हम समझ सकते हैं कि उस शिक्षण प्रक्रिया में गुरू सांदीपनी के संस्कारों के साथ-साथ क्षिप्रा माँ के वात्सल्य का बराबर का योगदान रहा ही होगा।
शिवना के तट पर पशुपतिनाथ का स्थान है। शिवना का उद्गम राजस्थान के शेवना गाँव से हुआ है। वह बालोदिया गाँव के पास मंदसौर में प्रकट होती है, फिर मंदसौर शहर में प्रवेश करती है। यहीं पर भगवान पशुपति नाथ का मन्दिर है। पाशुपत का रूप हमारे उद्भव और स्वभाव का प्रतीक स्वरूप है। जल से जीवन की शुरूआत हुई। यह मात्र एक मिथक नहीं है, अपितु एक वैज्ञानिक सत्य भी है। पहले पहले जीव जल में ही पनपे और कई सहस्त्र वर्ष तक जल में मग्न रहे, फिर ऐसे जीव पैदा हुए जो जल और जमीन दोनों में जिन्दा रह सकते थे। इस चरण के बाद जमीन पर विचरण करने वाले जीवों का उद्भव हुआ। दशावतार के पहले तीन रूप इसी क्रमिक विकास की कहानी को मत्स्य-कूर्म-वराह के माध्यम से कहते दिखाई देते हैं। मनुष्य रूप में आने के पहले हमने पशु रूप में अनेक वर्ष बिताए। आज भी पशु जगत के वानरों से हमारा काफी निकट का रिश्ता है। हमारे व्यवहार में पाशविकता आज भी शेष है। इस पाशविकता पर विजय प्राप्त करने पर ही पाशुपत रूप में महादेव दर्शन देते है।
यह और बात है कि कभी-कभी हम मनुष्यों का व्यवहार पशु जगत् की पाश्विकता को भी लज्जित करने-जैसा होता है। नदियों के प्रति भी हमारा व्यवहार पशुओं की तुलना में अधिक क्रूर दिखाई देता है। पशु तो मात्र अपनी प्यास बुझाने के लिए नदी का उपयोग करते हैं। भैंसें अपने शरीर को ठण्डा रखने के लिए पानी में मजे से बैठकर अलसाती हैं। पक्षी अपने पंखों को पानी में डुबोते हैं। पानी की छोटी-छोटी बूँदों को पंख फड़फड़ाकर उड़ाते हैं। यह सब मासूम, अहिंसक, प्रीतभरा और निश्चल उपयोग है। मगर हम मनुष्यों ने नदी के साथ बेहद दुर्व्यवहार किया है। उद्योगों का कचरा, घरेलू कचरा और अपने शरीर का मैल हम उसमें बहाने से पहले तनिक भी विचार नहीं करते। नदियों की वास्तविक आराधना यही होगी कि हम उन्हें अकेला छोड़ दें। अपनी आवश्यकता की पूर्ति अवश्य करें, मगर लालच को आवश्यकता के रूप में सजाकर उसका दोहन न करें।
नदियों को जोड़ने के विचार से मैं कभी सहमत नहीं रही। हर नदी का अपना एक जीवन चक्र होता है। अतः उसे छेड़ा नहीं जा सकता। प्रकृति की बनावट और बुनाहट को छेड़ने का हमें कोई हक नहीं। सच तो यह है कि प्रकृति हमें छेड़खानी करने भी नहीं देगी। हमारी छेड़छाड़ पर मौन नहीं साधेगी। असल में प्रकृति के अनुरूप हमें ढलना है। प्रकृति को अपने अनुरूप ढालने की चेष्टा प्रलयंकारी साबित होगी।
ये नदियाँ जीवन दायिनी हैं। उनके सूखते ही जीवन भी जैसे सूख जाएगा। उनके बिना जीवन अभिशाप है। अज्ञेय ठीक कहते हैं कि - ‘हम नदी के द्वीप मात्र हैं।’ यदि वह हमसे रूठ गई तो हमारा कोई अस्तित्व नहीं। मालवा की धरती के लिए कहते हैं कि यहाँ ‘डग-डग पर नीर है।’ यह नीर नर्मदा, चम्बल एवं इनकी सहायक नदियों का प्रसाद है। इनका संरक्षण और इन्हें यथावत् सहेजकर रखना हमारी पीढ़ी का दायित्व है।
नदी-नाले में बाढ़ आने पर दधि-मटकी को प्रवाहित करनाः नदी या नाले में जब इतनी अधिक बाढ़ आ जाए कि उसके किनारे पर बसे गाँवों के डूबने का खतरा बढ़ जाए तब गाँव के बुजुर्गों के सुझाव पर गाँव के स्त्री-पुरूष एक दधि-मटकी पर चूनर और चूड़ी रखकर बाढ़ का पूजन करते हैं और फिर इस सामग्री के साथ ही दधि-मटकी नदी या नाले में प्रवाहित कर दी जाती है। लोक विश्वास है कि इससे बाढ़ उतरने लग जाती है। सभी प्रदेशों में यह लोक विश्वास प्रचलित है।
नदी किनारे घटोईया की स्थापना नदी के जिन घाटों पर नावें चलती हैं उन घाटों पर घटोईया देवता की स्थापना होती है। ये घाट देवता माने जाते हैं। इनका समय-समय पर केवट पूजन करते हैं। इन्हें नारियल-सिंदूर आदि अर्पित किया जाता है। यह माना जाता है कि घटोईया देवता नाव दुर्घटना को रोकते हैं। मल्लाहों और सवारियों की रक्षा करते हैं।
असम में यह मान्यता है कि ब्रह्मपुत्र को ताम्बूल का चढ़ावा चढ़ाने पर वर्षा होती है। एक लोकगीत में कहा गया है कि ब्रह्मपुत्र बाबा, हमें मत बहाना क्योंकि तुम्हें पान ताम्बूल देकर बुलाने वाला कोई नहीं है। उतुवाई निनिवा ब्रह्मपुत्र देवता तामुल दि मोतोता नाई।
भोजन के अवसर पर पंगत में नदियों को आमन्त्रणः विवाह आदि के समय ज्यौनार के प्रारम्भ में बैठे भोजन करने वालों को जल परोसा जाता है तब ज्यौनार के गीत गातीं स्त्रियाँ देश की सभी प्रमुख नदियों को अपने लोकगीत में आमन्त्रित करती हैं और ज्यौनार के लोटों में उन्हें भरती हैं। ज्यौनार में भोजन करने वाले इस तरह देश की पवित्र नदियों का जल ही पीते हैं। ‘गंगा जलु जमुना जलु परसौ। नदी नरबदा को जलु परसौ। सरजू को जलु परसौ। सिंधु सरसुती को जलु परसौ।’
-बघेलखण्ड, बुंदेलखण्ड, छत्तीसगढ़ और मालवा में इस तरह के लोकगीत हैं।
(लेखिका अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की सचिव हैं।)
चम्बल से मेरा एक खास रिश्ता है। चम्बल के किनारे स्थित नागदा की औद्योगिक नगरी में मेरा जन्म हुआ इस लिहाज से चम्बल मेरी माँ है। कथानुसार जनमेजय के नाग यज्ञ की बलिवेदी में अनेक नाग प्रजातियाँ होम हुईं। उसी से नगर का नाम नागदाह हुआ। कालांतर में वह नागदा कहलाया। आज नागदा एक औद्योगिक नगरी है। नाग यज्ञ के अग्निकुण्ड से निकलते धुएँ का स्थान चिमनियों से निकलते काले धुएँ ने ले लिया है। शहर के निकट पहुँचते ही रासायनिक गंध नथुनों में चढ़ने लगती है और तब एहसास होने लगता है कि नागदा का स्टेशन आने वाला है।
शहर में बस एक ही स्थल है जिसे मनोरम कह सकते हैं। यकीनन चम्बल की बहती उज्जवल धारा और उस पर बना रेल का पुल अत्यंत चित्ताकर्षक हैं। हालाँकि नदी की धारा बारहमासी अविरल नहीं है, मगर वर्ष के करीब आठ माह तक चम्बल माँ के दर्शन होते हैं। महू के पास स्थित ‘जाना पाओ’ की पहाड़ी चम्बल का उद्गम स्थान है।
पौराणिक कथाओं को सुनने-गुनने की कोशिश करें, तो कुछ यों पता चलेगा कि पशुओं के चर्म के रिसाव से ही इस नदी का उद्भव हुआ। इसी वजह से नदी का नाम चर्मण्वती पड़ा। चर्मण्वती वास्तव में माता स्वरूप है। देवी कुन्ती द्वारा कौमार्य की भयंकर भूल मानकर अश्वनदी में त्यागे गए शिशु कर्ण को चर्मण्वती ने थामा। पौराणिक मान्यता है कि अश्वनदी तो नाम के अनुरूप अत्यंत वेगवती थी। यदि शिशु कर्ण बहता-बहता चर्मण्वती तक नहीं पहुँचता, तो महाभारत के महासमर की धारा कुछ और होती। जमुना किनारे सन्तान के लिए व्याकुल राधा और अनिरुद्ध दम्पत्ती तक शिशु कर्ण को पहुँचाने का बीड़ा चर्मण्वती ने उठाया।
चम्बल से मेरा सम्बन्ध लगता है जैसे अनेक जन्मों का है। मेरा जन्म चम्बल के किनारे हुआ। बचपन चम्बल को निहारते हुए बीता। व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए लोकतांत्रिक धर्मक्षेत्र का चुनाव करना पड़ा, तो वह भी चम्बल का ही क्षेत्र है। वह महज संयोग भला कैसे हो सकता है? माँ चम्बल अपनी सहायक नदियों जैसे रेतम, गुंजाली, शिवना, गम्भीरी के साहचर्य में मंदसौर-नीमच जिले की वसुधा का अलंकरण करती है।
मैंने चम्बल के साथ अकेले बहुत वक्त बिताया है। उसके जल को निहारते समय एक अलग अनुभूति होती है। उसे देखकर लगता है कि वह कठोर है। कोमलांगी नहीं है। उसे किसी हिमालय का वरदहस्त प्राप्त नहीं हुआ। वह स्वयंसिद्धा है। वनों एवं वृक्षों से ही उसने पानी को खींचा है। किसान जब धरती को मेहनत से जोतता है, तब उसके शरीर से मेहनत के प्रमाणस्वरूप पसीने की बूँदें बहती हैं। चम्बल की धारा भी उन स्वेद कणों की तरह अपनी कर्मशीलता की कहानी कहती प्रतीत होती है। चम्बल की प्रकृति उन्मुक्त है, निर्लिप्त या तटस्थ नहीं। मौन रहकर स्थितियों के समक्ष घुटने नहीं टेकती। उसकी प्रकृति में बगावत है, फिर क्या आश्चर्य कि चम्बल के तट पर श्योरपुर में मुक्तिबोध का जन्म हुआ। चम्बल के किनारे पैदा हुआ व्यक्ति ही चाँद पर फब्तियाँ कस सकता था और उसके मुँह को टेढ़ा बता सकता था। ‘सरफरोशी की तमन्ना’ लिए बिस्मिल के पूर्वज चम्बल के तट पर ही रहते थे।
जल से जीवन की शुरूआत हुई। यह मात्र एक मिथक नहीं है, अपितु एक वैज्ञानिक सत्य भी है। पहले पहले जीव जल में ही पनपे और कई सहस्त्र वर्ष तक जल में मग्न रहे, फिर ऐसे जीव पैदा हुए जो जल और जमीन दोनों में जिन्दा रह सकते थे। इस चरण के बाद जमीन पर विचरण करने वाले जीवों का उद्भव हुआ। दशावतार के पहले तीन रूप इसी क्रमिक विकास की कहानी को मत्स्य-कूर्म-वराह के माध्यम से कहते दिखाई देते हैं।चम्बल के बीहड़ एक समय में डाकुओं की शरणस्थली बन गए। विनोबाजी के नेतृत्व में उन डाकुओं ने, जो स्वयं को बागी कहते थे, हिंसा के मार्ग का त्याग किया। जौरा का गाँधी आश्रम इस हृदय परिवर्तन का साक्षी है। चम्बल की धारा धवल है। चम्बल के किनारे ज्यादा बड़े उद्योग नहीं हैं। चम्बल के तट पर कोई बड़ा तीर्थ स्थल नहीं है। उसकी साफ, स्वच्छ धारा की शायद यह वजह है। चम्बल की अनन्य सखी बनस अरावली की पुत्री है। अरावली पर्वत शृंखलाओं की खामनौर पहाड़ी से ‘वन की आशा’ कहलाने वाली बनस नदी बहती है। ये दोनों नदियाँ यमुना में मिलती हैं। चम्बल के तट पर धौलपुर में चम्बल अभ्यारण्य देखने लायक है। यहाँ बड़ा बसंता, हंस, छिलछिल, किनाई और तकरीबन विलुप्त हो चुकी पौना पक्षियों का कलरव और संगीत पौ फटते ही सुनाई देने लगता है। पक्षियों की यह संगीत लहरी मन को सुकून देती है। इस अभ्यारण्य क्षेत्र में घड़ियाल और डाॅल्फिन भी पाए जाते है। चम्बल पर बना गाँधी सागर का बाँध मंदसौर जिले में है।
यह भी अद्भुत संयोग है कि चम्बल की दो सहायक नदियों के तट पर महादेव विराजते हैं। क्षिप्रा और शिवना महाकाल और पाशुपात रूप में महादेव के चरण स्पर्श करती हैं। धार जिले में स्थित विंध्य पर्वतमाला की काकड़ी बद्री पहाड़ी से क्षिप्रा प्रकट होती है। काल और कल्प की परिधि से परे महादेव ‘महाकाल’ के रूप में क्षिप्रा नदी के किनारे बसते हैं। क्षिप्रा के ही तट पर उज्जैन नगरी में सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने पर सिंहस्थ का आयोजन होता है। क्षिप्रा के तट पर किशोर अवस्था में आए नटखट कान्हा को गीता के निर्माता कृष्ण के रूप में ऋषि सांदीपनी ने तैयार किया। हम समझ सकते हैं कि उस शिक्षण प्रक्रिया में गुरू सांदीपनी के संस्कारों के साथ-साथ क्षिप्रा माँ के वात्सल्य का बराबर का योगदान रहा ही होगा।
शिवना के तट पर पशुपतिनाथ का स्थान है। शिवना का उद्गम राजस्थान के शेवना गाँव से हुआ है। वह बालोदिया गाँव के पास मंदसौर में प्रकट होती है, फिर मंदसौर शहर में प्रवेश करती है। यहीं पर भगवान पशुपति नाथ का मन्दिर है। पाशुपत का रूप हमारे उद्भव और स्वभाव का प्रतीक स्वरूप है। जल से जीवन की शुरूआत हुई। यह मात्र एक मिथक नहीं है, अपितु एक वैज्ञानिक सत्य भी है। पहले पहले जीव जल में ही पनपे और कई सहस्त्र वर्ष तक जल में मग्न रहे, फिर ऐसे जीव पैदा हुए जो जल और जमीन दोनों में जिन्दा रह सकते थे। इस चरण के बाद जमीन पर विचरण करने वाले जीवों का उद्भव हुआ। दशावतार के पहले तीन रूप इसी क्रमिक विकास की कहानी को मत्स्य-कूर्म-वराह के माध्यम से कहते दिखाई देते हैं। मनुष्य रूप में आने के पहले हमने पशु रूप में अनेक वर्ष बिताए। आज भी पशु जगत के वानरों से हमारा काफी निकट का रिश्ता है। हमारे व्यवहार में पाशविकता आज भी शेष है। इस पाशविकता पर विजय प्राप्त करने पर ही पाशुपत रूप में महादेव दर्शन देते है।
यह और बात है कि कभी-कभी हम मनुष्यों का व्यवहार पशु जगत् की पाश्विकता को भी लज्जित करने-जैसा होता है। नदियों के प्रति भी हमारा व्यवहार पशुओं की तुलना में अधिक क्रूर दिखाई देता है। पशु तो मात्र अपनी प्यास बुझाने के लिए नदी का उपयोग करते हैं। भैंसें अपने शरीर को ठण्डा रखने के लिए पानी में मजे से बैठकर अलसाती हैं। पक्षी अपने पंखों को पानी में डुबोते हैं। पानी की छोटी-छोटी बूँदों को पंख फड़फड़ाकर उड़ाते हैं। यह सब मासूम, अहिंसक, प्रीतभरा और निश्चल उपयोग है। मगर हम मनुष्यों ने नदी के साथ बेहद दुर्व्यवहार किया है। उद्योगों का कचरा, घरेलू कचरा और अपने शरीर का मैल हम उसमें बहाने से पहले तनिक भी विचार नहीं करते। नदियों की वास्तविक आराधना यही होगी कि हम उन्हें अकेला छोड़ दें। अपनी आवश्यकता की पूर्ति अवश्य करें, मगर लालच को आवश्यकता के रूप में सजाकर उसका दोहन न करें।
नदियों को जोड़ने के विचार से मैं कभी सहमत नहीं रही। हर नदी का अपना एक जीवन चक्र होता है। अतः उसे छेड़ा नहीं जा सकता। प्रकृति की बनावट और बुनाहट को छेड़ने का हमें कोई हक नहीं। सच तो यह है कि प्रकृति हमें छेड़खानी करने भी नहीं देगी। हमारी छेड़छाड़ पर मौन नहीं साधेगी। असल में प्रकृति के अनुरूप हमें ढलना है। प्रकृति को अपने अनुरूप ढालने की चेष्टा प्रलयंकारी साबित होगी।
ये नदियाँ जीवन दायिनी हैं। उनके सूखते ही जीवन भी जैसे सूख जाएगा। उनके बिना जीवन अभिशाप है। अज्ञेय ठीक कहते हैं कि - ‘हम नदी के द्वीप मात्र हैं।’ यदि वह हमसे रूठ गई तो हमारा कोई अस्तित्व नहीं। मालवा की धरती के लिए कहते हैं कि यहाँ ‘डग-डग पर नीर है।’ यह नीर नर्मदा, चम्बल एवं इनकी सहायक नदियों का प्रसाद है। इनका संरक्षण और इन्हें यथावत् सहेजकर रखना हमारी पीढ़ी का दायित्व है।
नदी को लेकर, लोक विश्वास
नदी-नाले में बाढ़ आने पर दधि-मटकी को प्रवाहित करनाः नदी या नाले में जब इतनी अधिक बाढ़ आ जाए कि उसके किनारे पर बसे गाँवों के डूबने का खतरा बढ़ जाए तब गाँव के बुजुर्गों के सुझाव पर गाँव के स्त्री-पुरूष एक दधि-मटकी पर चूनर और चूड़ी रखकर बाढ़ का पूजन करते हैं और फिर इस सामग्री के साथ ही दधि-मटकी नदी या नाले में प्रवाहित कर दी जाती है। लोक विश्वास है कि इससे बाढ़ उतरने लग जाती है। सभी प्रदेशों में यह लोक विश्वास प्रचलित है।
नदी किनारे घटोईया की स्थापना नदी के जिन घाटों पर नावें चलती हैं उन घाटों पर घटोईया देवता की स्थापना होती है। ये घाट देवता माने जाते हैं। इनका समय-समय पर केवट पूजन करते हैं। इन्हें नारियल-सिंदूर आदि अर्पित किया जाता है। यह माना जाता है कि घटोईया देवता नाव दुर्घटना को रोकते हैं। मल्लाहों और सवारियों की रक्षा करते हैं।
असम में यह मान्यता है कि ब्रह्मपुत्र को ताम्बूल का चढ़ावा चढ़ाने पर वर्षा होती है। एक लोकगीत में कहा गया है कि ब्रह्मपुत्र बाबा, हमें मत बहाना क्योंकि तुम्हें पान ताम्बूल देकर बुलाने वाला कोई नहीं है। उतुवाई निनिवा ब्रह्मपुत्र देवता तामुल दि मोतोता नाई।
भोजन के अवसर पर पंगत में नदियों को आमन्त्रणः विवाह आदि के समय ज्यौनार के प्रारम्भ में बैठे भोजन करने वालों को जल परोसा जाता है तब ज्यौनार के गीत गातीं स्त्रियाँ देश की सभी प्रमुख नदियों को अपने लोकगीत में आमन्त्रित करती हैं और ज्यौनार के लोटों में उन्हें भरती हैं। ज्यौनार में भोजन करने वाले इस तरह देश की पवित्र नदियों का जल ही पीते हैं। ‘गंगा जलु जमुना जलु परसौ। नदी नरबदा को जलु परसौ। सरजू को जलु परसौ। सिंधु सरसुती को जलु परसौ।’
-बघेलखण्ड, बुंदेलखण्ड, छत्तीसगढ़ और मालवा में इस तरह के लोकगीत हैं।
(लेखिका अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की सचिव हैं।)