होली पर हम जिस काले रंग का उपयोग करते हैं, वह लेड ऑक्साइड से तैयार किया जाता है। इससे किडनी पर खतरा होता है। हरा रंग कॉपर सल्फेट से बनता है, जिसका असर आँखों पर पड़ता है। लाल रंग मरक्यूरी सल्फाइट के प्रयोग से बनता है। इससे त्वचा का कैंसर तक हो सकता है। ऐसे ही कई रासायनिक रंग हैं, जो स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं। इसलिये हमें सोचना होगा कि होली के त्योहार पर अपनों को रंगने के लिये प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाये, जो न तो हानिकारक होते हैं और न ही पर्यावरण को कोई नुकसान पहुँचता है।
होली रंगों का उत्सव हमे यह बताता है कि यदि हमारे जीवन में रंग न हो,तो दुनिया कितनी बेरंग नज़र आएगी। हर साल होली का त्योहार आगमन फाल्गुन मास यानी कि मार्च के महीने में होता है और हमारे जीवन में खुशियों के रंग भरकर चला जाता है। होली का त्योहार रंग भरने के अलावा हमारे अंदर एक नया जोश, उत्साह और सकारात्मक ऊर्जा भी पैदा करता है। वैसे तो यह त्योहार हिंदुओ का प्रमुख और प्रसिद्ध त्योहारों में से एक होने के बावजूद सभी जाति और धर्म के लोग रंगों के इस महोत्सव को बड़ी ही धूमधाम से मनाते हैं। लेकिन बदलते हालातों में होली की परम्परा अब उतनी खूबसूरत नहीं रह गई, जितनी पहले हुआ करती थी। आधुनिक होली हमारे प्रकृति और पर्यावरण के लिये घातक सिद्ध हो रही है। पानी, लकड़ी और रसायनों का बढ़ता प्रयोग इसके स्वरूप को दूषित कर रहा है। पर्यावरण के प्रति सजग लोग और समाज इसके लिये जरूर प्रयासरत है, लेकिन इसके बावजूद हजारों क्विंटल लकड़ियाँ, लाखों लीटर पानी की बर्बादी और रासायनिक रंगों का प्रभाव मनुष्य की सेहत और पर्यावरण पर हो रहा है।
हर गली-मोहल्ले में होली जलाई जाती है और सैंकड़ों टन लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है। एक होली में औसतन ढाई क्विंटल लकड़ी जलती है। यदि हम एक शहर में जलने वाली होलिका दहनों की संख्या से हिसाब लगाएँ तो लगभग 12 लाख किलो लकड़ी हर साल होली पर जला दी जाती है। होली पर इस तरह हर साल लाखों क्विंटल लकड़ी जलना चिन्ताजनक है। जबकि पुराने जमाने में घर-घर से लकड़ी लेकर होलिका जलाने की प्रथा थी।
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अब समय आ गया है कि हर चौराहे पर सामूहिक होलिका का दहन किया जाना चाहिए। दूसरा विकल्प यह भी है कि अपना देश कृषि और पशुधन की अपार सम्पदा से भरापूरा है। यहाँ पशुओं के बहुतायत में होने से गोबर होता है। मध्य प्रदेश गोपालन और संवर्धन बोर्ड के अनुसार मध्य प्रदेश में उपलब्ध पशुधन से रोजाना 15 लाख किलो गोबर निकलता है। 10 किलो गोबर से पाँच कंडे बनाए जा सकते हैं। यानी प्रदेश में रोज साढ़े सात लाख कंडे बन सकते है। इसलिये लकड़ी की जगह कंडों की होली जलाकर एक सामाजिक सरोकार की पहल व्यापक तौर पर की जानी चाहिए। ताकि पेड़ों की कटाई रोकी जा सके और पर्यावरण को नुकसान होने से बचाया जा सके।
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के रसायन शास्त्री डॉ. मानसकान्त देब कहते हैं कि लकड़ी के बजाय कंडे की होली के कई फायदे हैं। लकड़ी के बराबर कंडे की होली का वजन बीस गुना से कम होता है। इसलिये धुआँ भी कम होता है। तेज आँच में कंडे तुरन्त जलकर खत्म हो जाते हैं। जबकि जली लकड़ी की बची हुई राख हवा में मिलकर और घातक हो जाती है साथ ही हजारों किलो कार्बन हवा में घुलता है।
कोई त्योहार बाजार के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकते इस वजह से होली के त्योहार की प्रकृति ही बदल गई है। अब प्राकृतिक रंगों के जगह रासायनिक रंग, ठंडाई की जगह नशा और लोक संगीत की जगह फिल्मी गीतों ने ले लिया है। रंगों में रसायनों की मिलावट होली के रंग में भंग डालने का काम करता है।
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प्रकृति में अनेक रंग बिखरे पड़े हैं। पहले समय में रंग बनाने के लिये रंग-बिरंगे फूलों का प्रयोग किया जाता था,जो अपने प्राकृतिक गुणों के कारण त्वचा को नुकसान नहीं होता था। लेकिन बदलते समय के साथ शहरों और आबादी का विस्तार होने से पेड़-पौधों की संख्या में भी कमी होने लगी। सीमेंट के जंगलों का विस्तार होने से खेती कृषि प्रभावित हुई है। जिससे फूलों से रंग बनाने का सौदा महंगा पड़ने लगा।
होली पर हम जिस काले रंग का उपयोग करते हैं, वह लेड ऑक्साइड से तैयार किया जाता है। इससे किडनी पर खतरा होता है। हरा रंग कॉपर सल्फेट से बनता है, जिसका असर आँखों पर पड़ता है। लाल रंग मरक्यूरी सल्फाइट के प्रयोग से बनता है। इससे त्वचा का कैंसर तक हो सकता है। ऐसे ही कई रासायनिक रंग हैं, जो स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं। इसलिये हमें सोचना होगा कि होली के त्योहार पर अपनों को रंगने के लिये प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाये, जो न तो हानिकारक होते हैं और न ही पर्यावरण को कोई नुकसान पहुँचता है।
क्या आप जानते हैं कि होली पर हम किस हद तक पानी की बर्बादी करते हैं? बेशक दुनिया का दो तिहाई हिस्सा पानी से सराबोर है, लेकिन इसके बावजूद भी पीने का पानी की किल्लत हर जगह है। अनुमान है कि होली खेलने वाला प्रत्येक व्यक्ति रोजमर्रा से 5 गुना लीटर पानी खर्च करता है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि पूरे इलाके में होली खेलने के दौरान कितने गैलन पानी बर्बाद होता है।
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अब वक्त आ गया है कि बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के लिये हमें अपने त्योहारों के स्वरूप को भी बदलना होगा। ऐसे में होली के त्योहार को भी पर्यावरण सम्मत रूप से मनाए जाने पर गम्भीरता से सोचा जाना चाहिए। अब जैविक खेती से लेकर जैविक खाद का प्रयोग प्रचलन में है। ‘जैविक होली’ के प्रयोग के लिये देश के कुछ शहरों में सक्रिय संगठन लोगों को जागरूक करने के लिये आगे आये हैं। ये संगठन जैविक होली जलाने और जैविक रंगों के प्रयोग का सन्देश दे रहे हैं। वातावरण को प्रदूषण मुक्त रखना है, तो जैविक होली को अपनाना होगा। इसी तरह के विकल्पों और प्रयोगों से होली के स्वरूप और परम्परा को बरकरार रखा जा सकेगा और प्रकृति के संरक्षण के दिशा में एक कदम बेहतरी की ओर बढ़ा सकेंगे।