भविष्य में होने वाले विकास को ध्यान में रखते हुए भवन निर्माण सामग्री के उद्योग भी स्थापित किये जा सकते हैं। रसायन तथा धातु आधारित उद्योगों के विकास की सम्भावनाएँ भी विद्यमान हैं। कृषि, वनोपज एवं खनिज आधारित इन उद्योगों के विकास के लिये आवश्यक है कि कृषि और खनिज सम्पदा के आधार पर ऐसी आर्थिक नीति बनाई जाए, जिससे समग्र क्षेत्र के विकास के साथ ही लघु उद्योगों का विकास हो।
01, नवम्बर 2000 को अभ्युदय हुआ नया राज्य तथा धान के कटोरे के रूप में सुविख्यात छत्तीसगढ़ औद्योगिक प्रगति से भी अछूता नहीं रहा है। क्षेत्र विशेष के विकास तथा आर्थिक संरचना को सुदृढ़ आधार प्रदान करने में मूलतः औद्योगिक प्रगति ही सहायक होती है। छत्तीसगढ़ प्रदेश कृषि प्रधान क्षेत्र होने के साथ ही खनिज प्रधान क्षेत्र भी रहा है। यहाँ उपलब्ध विपुल खनिज सम्पदा, वनोपज, जल, विद्युत तथा मानव श्रम एवं विस्तारित कृषि आधार के फलस्वरूप प्रदेश में सभी प्रकार के उद्योगों की सम्भावनाएँ विद्यमान हैं।
प्रदेश में स्वतंत्रता से पूर्व कृषि तथा वनोपज आधारित इकाइयाँ औद्योगिक परिदृश्य के रूप में प्रमुख थीं, वहीं स्वतंत्रता के पश्चात खनिज आधारित उद्योगों की प्रमुखता रही। प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न इस क्षेत्र के औद्योगिक विकास में खनिज, वन एवं कृषि सम्पदा का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। प्रदेश में लोहा एवं सीमेंट, विद्युत उत्पादन तथा लौह अयस्क एवं कोयला खनन के क्षेत्र में उद्योगों की स्थापना से औद्योगिक विकास में तेजी आई।
कोरबा ताप विद्युत संयंत्र, भिलाई इस्पात संयंत्र तथा भारत एल्युमिनियम कम्पनी की स्थापना प्रदेश की औद्योगिक प्रगति में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई, इसके साथ ही सीमेंट संयंत्रों की स्थापना का योगदान भी महत्त्वपूर्ण रहा है। इन उद्योगों की स्थापना के पश्चात प्रदेश में रसायन, विस्फोटक पदार्थ तथा कृषि आधारित उद्योगों की स्थापना की शुरुआत हुई।
प्रदेश में औद्योगिक विकास से सम्बन्धित कठिनाइयाँ :- प्रत्येक क्षेत्र की आर्थिक, भौतिक तथा सामाजिक विशेषताएँ होती है, जिनमें पाए जाने वाले नकारात्मक घटक औद्योगिक विकास की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करते हैं। प्रदेश में आदिवासी बाहुल्य होना तथा शिक्षा के स्तर में कमी औद्योगिक विकास में एक प्रमुख बाधा दिखाई देती है। प्रदेश में शिक्षा का स्तर बढ़ाकर तथा पिछड़े क्षेत्रों को मुख्य धारा में लाकर विकास की रणनीति को सुनिश्चित किया जा सकता है। सामाजिक विकास एवं आधुनिकीकरण, शिक्षा का स्तर तथा साक्षरता से जुड़ा हुआ है तथा आधुनिकीकरण की दिशा का एक मुख्य पहलू सामाजिक, आर्थिक तथा औद्योगिक विकास का है।
क्षेत्र में उपलब्ध परिवहन साधन उस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। प्रदेश के औद्योगिक विकास में परिवहन साधनों का अभाव प्रमुख बाधा है। प्रदेश के दुर्गम एवं दूरस्थ क्षेत्रों बस्तर, सरगुजा, जशपुर जो अधिकांशतः आदिवासी बहुल क्षेत्र हैं, इन क्षेत्रों में रेल साधन के साथ-साथ सड़कें भी अपर्याप्त हैं, जो उद्योगों के विकास में एक प्रमुख बाधा है। जबकि यहाँ के खनिज एवं वनोपजों के दोहन के लिये सड़कों एवं रेलमार्गों के विकास की अत्यन्त आवश्यकता है।
परिवहन व्यवस्था में सुधार हेतु सड़क तंत्र को पुनर्गठित कर मजबूत बनाया जाना चाहिए, जर्जर सड़कों का प्राथमिकता से दुरुस्तीकरण, गाँवों एवं जिला मुख्यालयों को आपस में जोड़ने वाली सड़कों का निर्माण, बेहतर रेल सुविधाओं का निर्धारण तथा दूरस्थ अंचलों में परिवहन की सुविधा की आवश्यकता है। इन समस्याओं के अतिरिक्त सरकारी नीतियाँ तथा बिजली की असामान्य आपूर्ति अविभाजित छत्तीसगढ़ में उद्योगों से सम्बन्धित प्रमुख समस्या रही है। विद्युत की असामान्य आपूर्ति तथा बढ़ी हुई विद्युत दरों के फलस्वरूप जहाँ अनेक औद्योगिक इकाइयाँ बन्द हो चुकी हैं, वहीं मांढर स्थित सीमेंट उत्पादक इकाई को बीमार इकाई घोषित कर तथा संयंत्र की लीज निरस्त कर इस इकाई को बन्द किया जा चुका है। बिजली की दरों में बढ़ोत्तरी के साथ ही कच्चे माल पर शासकीय रॉयल्टी में वृद्धि, रेलवे के माल भाड़े में वृद्धि प्रमुख समस्या है, जिससे उत्पादन लागत में वृद्धि हुई है।
प्रदेश के दूरस्थ क्षेत्रों में औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा का भी अभाव है। ग्रामों के नगरीकरण के दृष्टिकोण से यह नकारात्मक पहलू उजागर होता है। इसी से औद्योगिक विकास की समस्या जुड़ी हुई है। प्रदेश में शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक कौशल तथा स्थानीय व्यक्तियों में पर्याप्त तकनीकी कौशल के ना होने के कारण स्थानीय उद्योगों में रोजगार के अवसर यहाँ के निवासियों में प्रशस्त नहीं हो पा रहे हैं, अतः उन्हें बाहरी क्षेत्रों में भी अकुशल श्रमिक के रूप में ही कार्य मिल पाता है। इसका विशेष ध्यान रखकर स्थानीय श्रमिकों को व्यवसाय में कुशल बनाया जाना चाहिए।
औद्योगिक विकास हेतु सुझाव :- लघु उद्योग इकाइयाँ सामाजिक - आर्थिक विकास के साथ ही बेरोजगारी जैसी विकट समस्या के समाधान में सकारात्मक भूमिका निभाती हैं। उद्योगों के विकास हेतु समुचित स्थल का चयन महत्त्वपूर्ण तथा प्राथमिक विषय है। इनकी स्थापना ऐसे स्थलों पर की जानी चाहिए, जहाँ से इन्हें समुचित मात्रा में कच्चे पदार्थ, श्रम की उपलब्धता, बाजार तथा आवागमन के साधनों की प्राप्ति सुनिश्चित हो। साथ ही लघु उद्योगों को समूहों में स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिए, जिससे कम आर्थिक दबाव के साथ ही ये इकाइयाँ अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकें।
उद्योगों के उन्नयन की योजना तैयार करते समय अन्तरराष्ट्रीय स्तर की स्पर्धा को ध्यान में रखा जाना चाहिए तथा तदनुसार इन्हें परिष्कृत एवं आधुनिकतम उत्पादन तकनीक उपलब्ध करना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। साथ ही इन इकाइयों को उच्च स्तरीय गुणवत्ता तथा प्रतिस्पर्धा तक लाने में उत्पादन के अन्तरराष्ट्रीय मानकों आई.एस.आई. 9000 तथा 14000 जैसे महत्त्वपूर्ण मानकों के प्रमाणीकरण का पर्याप्त ज्ञान कराया जाना आवश्यक है। प्रदेश के औद्योगिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में शासन द्वारा औद्योगिक विकास हेतु प्रस्तुत कार्य व योजनाएँ निम्नांकित हैं :-
1. उद्यमिता विकास कार्यक्रम :- चूँकि छत्तीसगढ़ प्रदेश कृषि प्रधान क्षेत्र है, अतः यहाँ के निवासियों का रुझान कृषि कार्यों की ओर अधिक है। उद्योगों के प्रति नागरिकों में चेतना जागृत करने के लिये औद्योगिक विकास की दृष्टि से पिछड़े हुए क्षेत्रों में औद्योगिक प्रेरणात्मक शिविर एवं उद्यमिता विकास कार्यक्रम आयोजित किये जाने अत्यन्त आवश्यक हैं, जिससे लोग उद्योगों की ओर प्रेरित हों तथा प्रदेश में उद्योगों का विकास हो।
2. औद्योगिक अभियान :- औद्योगिक अभियान से आशय प्रदेश में औद्योगिक विकास हेतु वातावरण निर्मित करना है। प्रदेश में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित उद्योग प्रदेश में प्रारम्भ किये जा सकते हैं। परामर्श, तकनीकी ज्ञान तथा विभिन्न शासकीय सुविधाओं की जानकारी के अभाव में उद्योगों की ओर रुझान की कमी दृष्टिगोचर होती है। अतः गहन औद्योगिक अभियान चलाया जाना आवश्यक है।
3. औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना :- औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े हुए क्षेत्रों जैसे बस्तर, रायगढ़ में अर्द्ध शहरीय औद्योगिक क्षेत्र हैं, जो अभी भी अविकसित अवस्था में हैं, जिसका प्रमुख कारण उद्योग प्रारम्भ करने वाले उद्यमियों का अभाव है। अतः शासन द्वारा इन क्षेत्रों के विकास के लिये प्रयत्न किये जाने चाहिए।
औद्योगिक रूप से अविकसित क्षेत्रों में उद्योगों की प्रगति ना होने के कारण तथा औद्योगिक विकास हेतु सुझाव एवं सम्भावनाएँ :-
1. बस्तर :- आदिवासी बहुल क्षेत्र तथा शिक्षा में पिछड़ा हुआ बस्तर जिला क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत के केरल राज्य की तुलना में बड़ा है। प्राकृतिक सम्पदा की दृष्टि से सम्पन्न होने के बाद भी बस्तर औद्योगिक विकास की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है जिसके कारणों में प्रमुख हैं :-
1. जनमानस में उद्यमिता की कमी, सीमित सोच एवं जोखिम न उठाने की मानसिकता,
2. औद्योगिक अधोसंरचना का अभाव,
3. अविकसित बाजार तथा औद्योगिक पूँजी निवेश के प्रति सामान्य उदासीनता,
4. कुशल श्रम शक्ति का अभाव तथा अपर्याप्त परिवहन साधन
बस्तर के विकास की समस्या संसाधनों के अभाव अथवा प्रौद्योगिक कुप्रबन्धन से सम्बन्धित ना होकर मानव संसाधनों को उचित प्रशिक्षण तथा उपयोग से ज्यादा सम्बन्धित है। जिले में जहाँ एक ओर कुशल श्रमिकों का अभाव है, वहीं परम्परागत कौशल व हस्तशिल्प के उचित दिशा दर्शन की आवश्यकता है। साथ ही उपलब्ध खनिज पदार्थों के दोहन तथा उद्योगों की स्थापना हेतु परिवहन साधनों का विकास आवश्यक है।
जिले में औद्योगिक विकास की सम्भावनाओं वाले क्षेत्र :-
बस्तर जिले में औद्योगिक विकास हेतु आवश्यक है कि ग्रामीण अंचलों से कृषि आधारित उद्योगों से शुरुआत की जाए। इसके लिये ग्रामीण अंचलों में परम्परागत कौशल, उपलब्ध कच्चा माल एवं माँग को ध्यान में रखकर उद्योग स्थापना के लिये प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
कृषि पर आधारित उद्योगों में सम्भावनाएँ :- कृषि उपज के अन्तर्गत जिले में धान, मक्का, रागी, कुल्थी, रामतिल, सरसों इत्यादि का उत्पादन हो रहा है। इन क्षेत्रों में उद्योगों के विकास की अच्छी सम्भावनाएँ बन सकती है। कृषि उत्पाद पर आधारित चावल मिल, तेल मिल, आटा चक्की, राइस ब्रान तेल मिल इत्यादि उद्योगों की सम्भावनाएँ है।
वनोपज पर आधारित उद्योग :- जिले में वन उपज के अन्तर्गत टीक, साल, इमली, हर्रा, बांस, महुआ एवं औषधीय पौधे भी पाए जाते हैं, इन संसाधनों पर आधारित बीड़ी निर्माण इकाइयाँ, दोना पत्तल, मधुमक्खी पालन, बाँस की टोकरी, लघु पेपर मिल तथा प्लाईवुड उद्योग यहाँ स्थापित किये जा सकते हैं।
खनिज पर आधारित उद्योग :- जिले में लौह अयस्क, चूना पत्थर, डोलोमाइट, टिन अयस्क, कोरण्डम आदि खनिज संसाधनों के विपुल भण्डार हैं, जिनके आधार पर यहाँ इस्पात संयंत्र, पिग आयरन, स्पंज आयरन संयंत्र, रोलिंग मिल, फेरो एलाय उद्योग, चूना भट्ठा, मार्बल तथा क्वार्ट्ज कटिंग उद्योग तथा ग्रेनाइट पॉलिशिंग उद्योग के विकास की सम्भावनाएँ हैं।
इन उद्योगों के अतिरिक्त जिले में वृहत शिल्प, पत्थर की मूर्तियाँ, बाँस के खिलौने, कालीन दरी बुनाई, चर्म शिल्प, टाइल्स निर्माण, ईंट निर्माण, रेशम उद्योग में कीट पालन एवं धागा निर्माण आदि इकाइयों को ग्रामीण अंचलों से शुरू किया जाए तो लोगों को रोजगार के साथ-साथ स्थानीय कच्चे मालों का दोहन भी सम्भव होगा।
हथकरघा, खादी व रेशम उत्पादन हेतु इस जिले में अनुकूल वातावरण है। इन उद्योगों की स्थापना द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण औद्योगीकरण का स्वप्न भी पूरा किया जा सकेगा। (बस्तर जिले की औद्योगिक सम्भावनाएँ, कार्य योजना, वर्ष 1998-99, लघु उद्योग सेवा संस्थान)।
प्रदेश के खनिज संचालनालय द्वारा बस्तर जिले में सीमेंट उद्योग की सम्भावनाओं वाले क्षेत्र निम्नांकित हैं-
बस्तर जिला जो कि औद्योगिक विकास की दृष्टि से पिछड़ा हुआ क्षेत्र है, यहाँ चूना पत्थर के 2985.6 लाख टन के संचित भण्डार हैं। बस्तर जिले के अन्तर्गत सीमेंट उद्योग की सम्भावना वाले क्षेत्र निम्नांकित हैं:-
1. मांझी डोंगरी क्षेत्र :- यह क्षेत्र जगदलपुर-कोन्टा मार्ग पर जगदलपुर से 30 किमी की दूरी पर स्थित है। यहाँ 1200 लाख टन सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के संचित भण्डार उपलब्ध हैं, जिस आधार पर यहाँ एक वृहद सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है।
2. चीतापुर देवरापाल क्षेत्र :- यह क्षेत्र जगदलपुर से 35 किमी की दूरी पर स्थित है जहाँ 190 लाख टन उच्च कोटि के चूना पत्थर के संचित भण्डार हैं। इस आधार पर इस क्षेत्र में लघु सीमेंट संयंत्र स्थापित किये जा सकते हैं।
3. जूनागुड़ा क्षेत्र :- यह क्षेत्र जगदलपुर से 17 किमी की दूरी पर जूनागुड़ा ग्राम में स्थित है, जहाँ 1215.6 लाख टन सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के संचित भण्डार हैं, जिस आधार पर यहाँ सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है।
रायगढ़ :- रायगढ़ जिला हावड़ा मुम्बई रेलमार्ग पर स्थित है तथा यह पिछड़े जिलों की ‘ब’ श्रेणी में आता है, अतः राज्य शासन द्वारा दी जाने वाली सुविधाएँ यहाँ प्राप्त हैं। इस जिले की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि प्रधान है साथ ही यह जिला खनिज प्रधान भी है। इन सबके अलावा वनोपज, उद्यानिक एवं पशु धन भी विपुल मात्रा में उपलब्ध है। संसाधनों से भरपूर यह जिला मानवीय संसाधनों एवं अधोसंरचना की दृष्टि से भी सम्पन्न जिला है। मुख्य रेलमार्ग पर स्थित होने के फलस्वरूप निकटस्थ बाजार कोलकाता, रायपुर, बिलासपुर कटनी तथा जबलपुर है।
कृषि पर आधारित उद्योगों में सम्भावनाएँ :- जिले में कृषि खाद्यान्न के अन्तर्गत धान, ज्वार, मक्का कोदो कुटकी एवं दलहन के अन्तर्गत मूँगफली, तिल, सोयाबीन, रामतिल एवं सूर्यमुखी इत्यादि का उत्पादन हो रहा है, इन उत्पादों पर आधारित-राइस मिल, स्ट्राबोर्ड मिल, खाद्य तेल, कैटलफीड, सोया एक्सट्रेक्शन प्लांट, सोया उत्पाद, दाल मिल आदि उद्योग स्थापित किये जा सकते हैं।
रायगढ़ जिले में उपलब्ध चावल का उपयोग कर एनर्जी फूड इकाई अथवा शक्तिदायक भोजन निर्माण इकाई की स्थापना की जा सकती है। इसके लिये गेहूँ, चने की दाल, मूँगफली की खली, सोयाखली, गुड़, विटामिन्स तथा अन्य खनिज उपयोग में लाए जाते हैं, जो यहाँ बहुतायत से उपलब्ध हैं।
रायगढ़ जिले में धान का उत्पादन 5 से 10 हजार मीट्रिक टन प्रति वर्ष होता है। स्थानीय राइस मिलों द्वारा धान प्रोसेसिंग के बाद निकलने वाला धान का छिलका 2,55,000 मीट्रिक टन प्रतिवर्ष होता है। इस धान के छिलके से सोडियम सिलिकेट निर्माणक इकाई स्थापित की जा सकती है जिसका उपयोग डिटर्जेन्ट, क्लीनिंग मिश्रण, प्लाईवुड आदि में किया जाता है। साथ ही धान के छिलके पर आधारित एक या दो मेगावाट क्षमता का विद्युत संयंत्र भी स्थापित किया जा सकता है इसके लिये लगभग 5000 टन धान के छिलके की आवश्यकता हो सकती है। रायगढ़ जिले में उपलब्ध इस कच्चे माल का उचित उपयोग कर एक लघु विद्युत संयंत्र सहकारी अथवा निजी क्षेत्र में लगाया जा सकता है।
जिले में धान उत्पादन के आधार पर पोहा निर्माण इकाई भी स्थापित की जा सकती है। साथ ही स्ट्राबोर्ड के निर्माण के लिये कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। इसका उपयोग पैकिंग, बुक-बाइंडिंग, कार्डबोर्ड निर्माण आदि में किया जाता है। इन संसाधनों के आधार पर यहाँ पाँच टन प्रतिदिन क्षमता वाली एक स्ट्राबोर्ड निर्माण इकाई स्थापित की जा सकती है।
उद्यानिकी फसलों पर आधारित उद्योग :- उद्यानिकी फसलों के अन्तर्गत जिले में आम, अमरूद, केला, पपीता, नींबू, कटहल, सन्तरा, मौसमी, काजू आदि फल तथा मसालों के अन्तर्गत मिर्च, अदरक, लहसुन, हल्दी, धनिया आदि फसलों का उत्पादन जिले में हो रहा है, जिसके आधार पर यहाँ केले की चिप्स, नींबू, सन्तरा मौसमी के पेय पदार्थ, फ्रूट, जैम जैली, काजू प्रोसेसिंग प्लांट, मसाला उद्योग आदि इकाइयाँ जिले में स्थापित की जा सकती हैं।
वन सम्पदा पर आधारित उद्योग :- वन सम्पदा के अन्तर्गत तेंदूपत्ता, साल बीज, हर्रा, गोंद, महुआ, बहेड़ा, लाख आदि का उत्पादन जिले में हो रहा है। इन पर आधारित बीड़ी उद्योग तथा आयुर्वेदिक औषधि निर्माणक इकाइयाँ यहाँ स्थापित की जा सकती हैं।
खनिज पर आधारित उद्योग :- जिले में मुख्य खनिजों के अन्तर्गत कोयला, चूना, पत्थर, क्वार्ट्ज, फायर क्ले, क्वार्टजाइट तथा गौण खनिजों में पत्थर, रेत, गिट्टी तथा चूना पत्थर का उत्पादन हो रहा है। इन खनिजों पर आधारित कोयला खनन कार्य, कोल ब्रिकेट्स चूना उद्योग, फायर क्ले आधारित उत्पाद, ब्रिक्स स्टोन क्रशिंग प्लांट तथा लघु विद्युत संयंत्र स्थापित किये जा सकते हैं। (रायगढ़ जिले की औद्योगिक सम्भावनाएँ, कार्य योजना, 1998-99, लघु उद्योग सेवा संस्थान)
धमतरी एवं राजनांदगाँव :- धमतरी एवं राजनांदगाँव जिले की अर्थव्यवस्था में कृषि एवं चावल निर्यात मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। जिले में कृषि पर आधारित इकाइयाँ स्थापित होने की सम्भावना है। जैसे पोहा मिल, एनर्जी फूड, स्ट्राबोर्ड इत्यादि। रायपुर सम्भाग में कन्टेनर सुविधा उपलब्ध होने से धमतरी जिले के चावल निर्यात में बढ़ोत्तरी एवं सुधार लाया जा सकता है। जिलों में उपलब्ध वन सम्पदा के आधार पर वनोपज पर आधारित इकाइयाँ जैसे अगरबत्ती निर्माण, सालबीज, एक्स्ट्रेक्शन प्लांट, पशु आहार इत्यादि उद्योग लगाए जा सकते हैं।
राजनांदगाँव जिले में जहाँ 250 लाख टन चूना पत्थर के भण्डार पाए गए हैं यहाँ सीमेंट उद्योग की सम्भावनाओं के क्षेत्र निम्नांकित हैं :-
(1) भटगाँव चारभाटा क्षेत्र :- यह क्षेत्र राजनांदगाँव से 35 किमी दक्षिण दिशा में स्थित है, जहाँ 25 लाख टन के संचित भण्डार हैं। इस निक्षेप के आधार पर यहाँ 200 टन प्रतिदिन उत्पादन क्षमता का सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त ग्रेनाइट कटिंग एवं पॉलिशिंग उद्योग भी राजनांदगाँव में स्थापित किया जा सकता है। यहाँ ग्रेनाइट के निक्षेप खूबटोला, सेवाटोला, मक्काटोला तथा रामटोला क्षेत्र में उपलब्ध है।
सरगुजा :- सरगुजा जिला पिछड़े जिलों की ‘स’ श्रेणी में आता है। यहाँ खनिज आधारित उद्योगों की मात्रा नगण्य है। खनिज संसाधनों के आधार पर यहाँ कोयले पर आधारित ताप विद्युत संयंत्र तथा ग्रेनाइट कटिंग एवं पॉलिशिंग उद्योग स्थापित किये जा सकते हैं।
उपर्युक्त पिछड़े हुए जिलों के अतिरिक्त प्रदेश के वे जिले जहाँ खनिज आधारित उद्योगों का विकास कर औद्योगिक विकास को बढ़ाया जा सकता है, उनमें सीमेंट उद्योग की स्थापना के लिये उपयुक्त क्षेत्र निम्नांकित हैं :-
रायपुर जिले में 8390 लाख टन चूना पत्थर के संचित भण्डार पाए गए हैं। भौमिकी तथा खनिकर्म संचालनालय द्वारा इस जिले में सीमेंट उद्योग हेतु सम्भावित क्षेत्र इस प्रकार बताए गए हैं :- 1. करही-चाँदी क्षेत्र (सिमगा तहसील) :- सिमगा तहसील के करही चाँदी क्षेत्र में सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के 800 लाख टन के संचित निक्षेप पाए गए हैं। यह निक्षेप क्षेत्र दक्षिण - पूर्व रेलवे के मुम्बई - हावड़ा मार्ग पर तिल्दा रेलवे स्टेशन से 14 किमी दक्षिण पूर्व में स्थित है। इस निक्षेप के आधार पर एक मिलियन टन वार्षिक क्षमता का सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है। इस क्षेत्र में जल एवं विद्युत की सुविधा भी उपलब्ध है। बंजारी नाला इस क्षेत्र से प्रवाहित होता है तथा 33 किलोवाट की विद्युत लाइन इस क्षेत्र से 5 किमी की दूरी से गुजरती है।
2. मोहरा क्षेत्र (सिमगा तहसील) :- पूर्वी मोहरा क्षेत्र में 700 लाख टन से अधिक सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के निक्षेप उपलब्ध हैं। यह क्षेत्र तिल्दा रेलवे स्टेशन से 20 किमी पूर्व दिशा में स्थित है। उपलब्ध निक्षेप के आधार पर यहाँ लघु सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है।
3. मल्दी मोपार क्षेत्र (बलौदा बाजार तहसील) :- इस क्षेत्र में 3050 लाख टन सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के निक्षेप क्षेत्र मुम्बई हावड़ा मुख्य रेलमार्ग पर भाटापारा रेलवे स्टेशन से 20 किमी पूर्व दक्षिण पूर्व में स्थित है। इस निक्षेप के आधार पर यहाँ 4 मिलियन टन वार्षिक क्षमता का सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है। जल आपूर्ति के स्रोत के रूप में बंजारी नाला प्रवाहित होता है तथा विद्युत आपूर्ति हेतु 33 किलोवॉट की विद्युत लाइन 5 किमी की दूरी से गुजरती है।
4. सुकेला भाटा-परसाभादर क्षेत्र (बलौदा बाजार तहसील) :- इस क्षेत्र में 1750 लाख टन सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के निक्षेप उपलब्ध हैं। यह निक्षेप क्षेत्र भाटापारा रेलवे स्टेशन से 18 किमी पूर्व दक्षिण पूर्व दिशा में स्थित है। इस निक्षेप के आधार पर यहाँ 2 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन क्षमता का सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है। जलापूर्ति हेतु खोरसीनाला क्षेत्र में प्रवाहाति होता है तथा विद्युत आपूर्ति हेतु 33 किलोवाट की विद्युत लाइन 03 किमी की दूरी से गुजरती है।
बिलासपुर जिले में चूना पत्थर के 15,410 लाख टन के संचित भण्डार उपलब्ध हैं। इस जिले में वे क्षेत्र, जहाँ सीमेंट उद्योग विकसित किये जा सकते हैं, उनमें प्रमुख हैं :- 1. बारगाँव क्षेत्र :- बारगाँव क्षेत्र में 320 लाख टन सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के संचित भण्डार हैं, जिस आधार पर यहाँ 900 टन प्रतिदिन उत्पाद क्षमता का सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है। यह क्षेत्र अकलतरा रेलवे स्टेशन से 30 किमी दक्षिण दिशा में स्थित है।
2. तेंदुआ क्षेत्र :- तेंदुआ क्षेत्र में 120 लाख टन के चूना पत्थर के संचित भण्डार हैं। यह निक्षेप 200 टन प्रतिदिन उत्पादन क्षमता के सीमेंट संयंत्र हेतु पर्याप्त है।
दुर्ग जिले में चूना पत्थर के 8810 लाख टन संचित भण्डार हैं। वे सम्भावित क्षेत्र, जहाँ सीमेंट संयंत्र स्थापित किये जा सकते हैं, निम्नांकित हैं -
1. सेमरिया क्षेत्र :- यह क्षेत्र दुर्ग धमधा मार्ग पर दुर्ग से 30 किमी उत्तर उत्तर पूर्व दिशा में स्थित है। इस क्षेत्र में 800 लाख टन के सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के निक्षेप स्थित हैं, जिस आधार पर यहाँ 10 लाख टन वार्षिक उत्पादन क्षमता का सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है।
2. अछोली क्षेत्र :- यह क्षेत्र दुर्ग धमधा गंड़ई मार्ग पर दुर्ग से 55 किमी. उत्तर दिशा में स्थित है। यहाँ 800 लाख टन सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के उपलब्ध भण्डार के आधार पर 10 लाख टन वार्षिक उत्पादन क्षमता का सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है।
3. मत्रागोता क्षेत्र :- यह क्षेत्र दुर्ग बेरला मार्ग पर दुर्ग से 45 किमी उत्तर पूर्व दिशा में स्थित है। इस क्षेत्र में भी 800 लाख टन सीमेंट ग्रेड चूना पत्थर के भण्डार के आधार पर 10 लाख टन वार्षिक उत्पादन क्षमता का सीमेंट संयंत्र स्थापित किया जा सकता है।
इस प्रकार प्रदेश में उपलब्ध विपुल खनिज संसाधनों के दोहन हेतु खनिज आधारित अनेक उद्योग यहाँ स्थापित किये जा सकते हैं। इसी प्रकार कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण तथा वनोपज पर आधारित उद्योगों की स्थापना की भी अनेक सम्भावनाएँ हैं। भविष्य में होने वाले विकास को ध्यान में रखते हुए भवन निर्माण सामग्री के उद्योग भी स्थापित किये जा सकते हैं। रसायन तथा धातु आधारित उद्योगों के विकास की सम्भावनाएँ भी विद्यमान हैं। कृषि, वनोपज एवं खनिज आधारित इन उद्योगों के विकास के लिये आवश्यक है कि कृषि और खनिज सम्पदा के आधार पर ऐसी आर्थिक नीति बनाई जाये, जिससे समग्र क्षेत्र के विकास के साथ ही लघु उद्योगों का विकास हो। इसके लिये यह आवश्यक है, कि उद्योगों हेतु आधारभूत सुविधाएँ जैसे सड़कों का अपेक्षित विकास तथा विद्युत की सुलभ आपूर्ति सुनिश्चित हो सके।
छत्तीसगढ़ चारों ओर से जमीन से घिरा होने तथा 6 प्रदेशों की सीमाओं के बीच स्थित होने के कारण इसे ‘वेयर हाउसिंग हब’ के रूप में विकसित किया जा सकता है, जिसके लिये नवीन घोषित राष्ट्रीय राजमार्गों का उन्नयन अत्यन्त आवश्यक होगा।
सर्व विदित है कि राष्ट्र का विकास उसके औद्योगीकरण पर निर्भर करता है, जो मनुष्य के उच्च रहन-सहन के लिये आवश्यक है। औद्योगीकरण के साथ ही पर्यावरण प्रदूषण सर्वाधिक बढ़ा है तथा वर्तमान में विकास का एकमात्र मापदंड माना जाने वाला औद्योगिक विकास प्रदूषण कर प्रमुख स्रोत बन गया है।
जनसंख्या वृ्द्धि के परिणामस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के अनियमित दोहन, ऊर्जा की बढ़ती माँग, पर्यावरण असन्तुलन आदि ऐसे गम्भीर विषय हैं, जिनका विकास के साथ सामंजस्य नितांत आवश्यक है। पर्यावरण सन्तुलन तथा विकास में सामंजस्य स्थापित करने हेतु उत्पादन की प्रक्रिया, उत्पादों तथा तकनीकी में वर्तमान परिवेश के अनुसार परिवर्तन करना होगा, जिससे पर्यावरण स्वच्छता के साथ-साथ औद्योगीकरण की दर भी बढ़ाई जा सके, क्योंकि संसाधनों के अनुचित दोहन, अनियोजित औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों का उत्सर्जन तथा निस्राव की गति में निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति की स्वयं शुद्धीकरण की क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
विकास तथा विनाश सतत चलने वाली प्रक्रिया है। संरक्षित विकास से पर्यावरणीय असन्तुलन पर कुछ सीमा तक नियंत्रण किया जा सकता है। अतः विकास के साथ-साथ पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए स्वच्छ उत्पादन की प्रक्रिया पर ध्यान देना होगा, जिसके अन्तर्गत प्राकृतिक संसाधनों का सीमित उपयोग, अपशिष्टों का पुनः उपयोग तथा उत्पादन की उचित तकनीक का उपयोग करते हुए अधिकाधिक उत्पादन कर पर्यावरण सन्तुलन की दिशा में सकारात्मक सहयोग आदि प्रमुख बिन्दु हैं।
उद्योगों से कुछ ऐसे अवांछनीय पदार्थों का उत्सर्जन होता है, जिससे पर्यावरण प्रदूषित होता है। स्पष्ट है कि देश के औद्योगिक विकास को रोका नहीं जा सकता आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी व्यवस्था की जाए कि उद्योगों से प्राप्त अपशिष्ट पदार्थों का उपयोग अन्य उपयोगी पदार्थों के निर्माण में किया जा सके। औद्योगीकरण के अन्तर्गत जैसे-जैसे उद्योगों की गति बढ़ेगी वैसे-वैसे इन उद्योगों से उत्सर्जित अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा में भी वृद्धि होगी जिसके फलस्वरूप पर्यावरण पर दुष्प्रभाव बढ़ेंगे। इन अपशिष्ट पदार्थों से उत्पन्न समस्या के निराकरण के लिये आवश्यक है कि इनके प्रयोग हेतु राष्ट्रीय स्तर पर एक सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित नीति का निर्धारण किया जाए।
बढ़ते हुए पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिये रचनात्मक दिशा में पहल करनी होगी। जिससे न तो पर्यावरण प्रदूषित हो और न ही आर्थिक सामाजिक विकास की गति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। औद्योगिक विकास को जारी रखते हुए यह भी ध्यान रखना होगा कि पर्यावरण प्रदूषण कम-से-कम हो। उद्योगों द्वारा होने वाले पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिये अनेक प्रौद्योगिकियाँ विकसित हुई हैं, जो किसी भी उद्योग को प्रदूषण रहित बनाने में सक्षम हो सकती हैं। आज पर्यावरण को स्वच्छ रखने वाले उद्योगों (Environmental friendly industries) को बढ़ावा देने के लिये अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।
प्राकृतिक संसाधनों का असीमित एवं अविवेक पूर्ण दोहन भी उचित नहीं है। यद्यपि प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग मानव सभ्यता एवं जीवन का प्रमुख अंग है, फिर भी प्राकृतिक संसाधनों का सीमित एवं नियमित दोहन ही अन्ततः देश के विकास में सहायक होगा।
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