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राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप, 19 अगस्त 2017
एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीआरडी हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने दावा, संभवत: कुछ जिम्मेदारी दूसरों पर डालने के फेर में, किया है कि हॉस्पिटल में लाए गए इन्सेफलाइटिस ग्रसित बच्चों में से 70 प्रतिशत कुपोषण के शिकार थे। जाहिर है कि पोषण और स्वच्छता तो डॉक्टरों और अस्पतालों की जिम्मेदारी नहीं हैं। हालाँकि अस्पताल और डॉक्टर इन कारकों के असर को कुछ हद तक कमजोर जरूर कर सकते हैं।
आजादी की 70वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर सत्तर बच्चों की मौत! राष्ट्र सदमे में। राज्य सरकार द्वारा संचालित बीआरडी हॉस्पिटल के दो डॉक्टरों को उत्तरदायी ठहराया गया और उ.प्र. सरकार ने उन्हें उनके पद से हटा दिया। अपने बचाव में राज्य सरकार ने आंकड़ों के हवाले से साबित करने की कोशिश की कि अगस्त माह में बच्चों की मौतें गोरखपुर में पहले भी होती रही हैं विशेषकर अरसे से चली आ रही इन्सेफलाइटिस नाम की बीमारी की समस्या के चलते। और इसके लिये मात्र पाँच माह पूर्व सत्ता में आई इस सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इन दोनों डॉक्टरों का भ्रष्टाचार बच्चों की मौत के मामले में भले ही तात्कालिक कारण हो सकता है, लेकिन गोरखपुर, या उत्तर प्रदेश और देश में बड़े स्तर पर होने वाली बच्चों की मौतों के सिलसिले के लिये किसे दोषी ठहराया जाएगा? 1953-पहला वर्ष जब से बच्चों की सिलसिलेवार मौतों के आंकड़े उपलब्ध हैं-के बाद से भारत विश्व में तमाम कारणों से बच्चों की मौतों का गवाह रहा है। शुरुआती वर्ष (1953) में भारत में पाँच साल से कम आयु के बच्चों के काल का ग्रास बनने का आंकड़ा करीबन 4.7 मिलियन सालाना था, जिसे आज हम अपनी कोशिशों से करीब-करीब सालाना 4 मिलियन के स्तर पर ले आए हैं।1969 और 1979 के मध्य चीन पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मौत के मामलों को 2.4 मिलियन कम करने में सफल हुआ। किसी भी देश के रिकॉर्डशुदा इतिहास में किसी एक दशक में यह सर्वाधिक मुफीद आंकड़ा है। मिलेनियम डवलपमेंट गोल्स (एमडीजी) की शुरुआत से ही भारत में प्रगति की रफ्तार में रवानी आई लेकिन चीन एक बार फिर हम से बाजी मार गया। हमारे पड़ोसी देशों मालदीव, नेपाल और बांग्लादेश ने भी 1990 और 2015 के मध्य बच्चों का जीवन बचाने संबंधी एमडीजी के लक्ष्यों को पूरा करने में हमसे बेहतर प्रदर्शन किया। हम एमडीजी के अपने लक्ष्यों को नहीं बींध पाए। हालाँकि एमडीजी-पूर्व दौर में पाँच साल से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर हमारे देश में पड़ोसी देशों की तुलना में नीची थी। मालदीव ऐसा देश रहा है, जिसने एमडीजी युग में न केवल दक्षिण एशिया, बल्कि समूची दुनिया में पाँच साल के कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर में सर्वाधिक कमी लाने का रिकॉर्ड कायम कर दिया। हम अपने पड़ोसी देशों की उपलब्धियों को यह कहकर कमतर करार दे सकते हैं कि वे छोटे देश हैं, लेकिन बच्चों का जीवन बचाने के मामले में क्या उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता से नहीं सीख सकते? दूसरी बात, चीन के बारे में क्या कहेंगे जिसकी आबादी का आकार अभी भी हमसे ज्यादा है, और जिसकी प्रति व्यक्ति जीडीपी 1990 से पहले तक हमारी तुलना में कम थी?
मुझे विश्वास है कि कोई भी यह तर्क उछाल सकता है कि चीन सत्तावादी देश है, जो अपनी मर्जी के तमाम फैसलों को लागू कर सकता है, हमारी तरह नहीं है। ठीक है, लेकिन जहाँ तक बच्चों का जीवन बचाए रखने की प्रतिबद्धता की बात है, तो हम जैसा भी कोई नहीं है! क्या इस मामले में अपनी खासियत को हम बनाए रखना चाहेंगे? बच्चों की मृत्यु दर नीची रखने के मामले में भी यही कहानी रही है। नवजात शिशु के मामले (जन्म के बाद के 28 दिन) में 2011 में देश में बीमारू राज्यों में नवजात शिशुओं की मौत का आंकड़ा देश के आंकड़े के बरक्स 55%- उ.प्र. (27%), मध्य प्रदेश और बिहार (10%) तथा राजस्थान (8%) है। वैश्विक आंकड़ा 15% है। चीन ने इस चरण में भी बेहतर प्रदर्शन किया। वह एमडीजी दौर में नवजात शिशुओं की मौत के आंकड़े में काफी कमी (90%) लाने में सफल रहा। 2015 में हमारे देश में 6,95,852 नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई-जो चीन की तुलना में सात गुणा ज्यादा है।
टाला जा सकता था मौतों को
स्पष्ट है कि दक्ष और सर्वसुलभ डॉक्टरों और स्वास्थ्य प्रणाली-विशेषकर प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के मामले में-की सहायता से इन मौतों को टाला जा सकता था। लेकिन जैसा कि उ.प्र. के मुख्यमंत्री ने स्वयं ही, जिम्मेदारी अन्य व्यक्तियों पर डालने के प्रयास में, कहा है कि उनके चुनाव क्षेत्र में बच्चों की मौतें साफ-सफाई की स्थिति बेहतर नहीं होने के कारण हुई। एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीआरडी हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने दावा, संभवत: कुछ जिम्मेदारी दूसरों पर डालने के फेर में, किया है कि हॉस्पिटल में लाए गए इन्सेफलाइटिस ग्रसित बच्चों में से 70% कुपोषण के शिकार थे। जाहिर है कि पोषण और स्वच्छता तो डॉक्टरों और अस्पतालों की जिम्मेदारी नहीं हैं। हालाँकि अस्पताल और डॉक्टर इन कारकों के असर को कुछ हद तक कमजोर जरूर कर सकते हैं, लेकिन ये दोनों कारक लोगों के सामाजिक-आर्थिक स्तर खासकर शैक्षणिक और आर्थिक स्तर से प्रभावित होते हैं। साथ ही, नगर पालिकाओं की दक्षता और सर्वसेवा के भाव के साथ ही पोषणाहार मामलों में सरकार के हस्तक्षेप से भी प्रभावित होते हैं। बच्चों की मौत के लिये स्वास्थ्य प्रणाली और डॉक्टर तात्कालिक कारण के तौर पर जरूर गिनाए जा सकते हैं, लेकिन आखिर में इसके लिये ढाँचागत और सुविधागत नाकामियों को ही जिम्मेदार ठहराना पड़ेगा।
यह अभिभावकों का दोष है कि वे गरीब और अनपढ़ हैं-या कि उनके इलाकों की साफ-सफाई नगरपालिकाएं अच्छे से नहीं करतीं। कुछ हद तक तो उनका अपना सामाजिक-आर्थिक स्तर जिम्मेदार हो सकता है। लेकिन मिल्टन फ्रीडमैन जैसे उदारवादी अर्थशास्त्री तक ने ‘बच्चों के अभिभावकों की चिंता’ और जमीनी स्तर पर सरकार द्वारा ‘शिक्षा के वित्त-पोषण’ को बच्चों के लिये ज्यादा जरूरी करार दिया है। लखनऊ में 2009 में राज्य सरकार के एक अधिकारी ने मुझे बताया था कि गरीब ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, और उम्मीद करते हैं कि हम उनका ख्याल रखेंगे। तो कहना यह कि यह आर्थिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर लोगों के ज्यादा बच्चे होते हैं। बहरहाल, आप इस मुद्दे को किसी भी तरह से देखें जिम्मेदारी तो सरकार की ही बनती है। मौजूदा सरकारों को अपनी जिम्मेदारी को स्वीकारना ही होगा लेकिन एक राष्ट्र के रूप में हम और भारतीय राज आजादी के बाद से ही बच्चे की मौतों के लिये व्यापक अर्थ में जिम्मेदार कहा जाएगा।
सामाजिक और सिलसिलेवार अन्यायों ने अपनी भूमिका निभाई है। लोग दोनों ही तरह के अन्यायों के चलते गरीब और अनपढ़ रह गए। हम तात्कालिक चिकित्सा कारणों तक ही सीमित रहे तो बच्चों की मौतों के सिलसिले की तह तक नहीं जा पाएँगे। इसे खत्म नहीं कर पाएँगे। यकीनन लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है, जैसी वे चाहते हैं। तो क्या हम अपने स्तर पर शपथ नहीं ले सकते कि उन्हीं उम्मीदवारों को वोट करेंगे जिनके पास हमारे बच्चों-राष्ट्र का भविष्य-का जीवन बचाने के लिये स्पष्ट दूर-दृष्टि है? और ऐसे सामाजिक अन्यायों से बाज आएँगे जो गरीबी और अनपढ़ के दलदल को ज्यादा से ज्यादा घना कर देते हैं।
अली मेहदी, प्रोजेक्ट लीडर, हेल्थ पॉलिसी इनिशिएटिव इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च अॉन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस