दिमागी बुख़ार - स्वास्थ्य नीति पुनर्विचार जरूरी ( Encephalitis - Rethinking Health Policy)

Submitted by Hindi on Sun, 08/20/2017 - 13:21
Source
राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप, 19 अगस्त 2017

अच्छा स्वास्थ्य सरकार एवं लोगों के बीच ‘सामाजिक अनुबंध’ का हिस्सा है और देश के सतत आर्थिक विकास के लिये अनिवार्य है। स्वतंत्रता प्राप्ति का 70वां वर्ष एक उपयुक्त अवसर है, जब हम अपनी प्राथमिकताओं पर फिर से विचार करें एवं स्वास्थ्य को नीति एवं विकास एजेंडा में शीर्ष स्थान दें। अगर ऐसा होता है और यह जारी रहता है तो आज से 5 वर्षों के बाद, स्वतंत्रता प्राप्ति के 75वें वर्ष का समारोह अभी की तुलना में कहीं अधिक स्वस्थ लोगों एवं राष्ट्र के साथ मनाया जाएगा।

आजादी के सात दशकों में, भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र ने बेशुमार सफलता पाई है। जीवन प्रत्याशा में तेज बढ़ोत्तरी हुई है, नवजात मृत्यु दर में गिरावट आई है, मातृ मृत्यु दर में कमी आई है, छोटी चेचक, पोलियो एवं मातृ तथा नवजात टिटनस का उन्मूलन हो चुका है। ये निश्चित रूप से जश्न मनाने की वजह है। बहरहाल, अभी भी चुनौतियाँ बनी हुई हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र पर सरकारी व्यय बेहद कम है; समग्र स्वास्थ्य प्रणाली कमजोर है और सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में कर्मचारियों की कमी है। यहाँ तक कि गरीबों को भी निजी स्वास्थ्य सुविधाएँ लेने को विवश होना पड़ता है और इसके लिये खुद से बिल भरना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप, लगभग 63 मिलियन व्यक्ति सालाना स्वास्थ्य खर्च के कारण गरीबी की सीमा में आ जाते हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में विषमताओं का अस्तित्व कई कारकों की वजह से है जैसे-भौगोलिक कारण, सामाजिक-आर्थिक स्थिति एवं आय समूह शामिल हैं। श्रीलंका, थाइलैंड एवं चीन जैसे देशों, जिन्होंने लगभग एक ही स्तर पर अपनी शुरुआत की, भारत स्वास्थ्य परिणामों के मामले में अपने प्रतिस्पर्धी देशों से काफी पीछे है।

स्वास्थ्य नीतियों के बावजूद चुनौतियाँ


इन चुनौतियों पर विचार करते हुए, सरकार ने कई सारी स्वास्थ्य नीतियाँ बनाई हैं एवं स्वास्थ्य कार्यक्रम आरंभ किए हैं। कई कानून भी बनाए गए हैं। बहरहाल, इन कोशिशों से ज्यादा सफलता मिलती नहीं प्रतीत हो रही है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (एनएचपी) 2002 में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को 2010 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 2 प्रतिशत तक करने का प्रस्ताव रखा गया। 12वीं पंचवर्षीय योजना के आखिर तक सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को बढ़ कर 1.87 प्रतिशत करने का प्रस्ताव रखा गया। लेकिन 15 वर्षों के बाद भी, सरकारी खर्च जीडीपी का महज 1.3 प्रतिशत है। अब एनएचपी 2017 में इसे 2025 तक जीडीपी के 2.5 प्रतिशत तक ले जाने का प्रस्ताव रखा गया है। पर यह सवाल अभी भी बना हुआ है : क्या यह नया लक्ष्य पूरा किया जा सकेगा?

देश में केंद्रीय एवं राज्य बजटों के एक विश्लेषण से निम्न लचीलेपन (जीडीपी में प्रतिशत बदलाव की तुलना में स्वास्थ्य व्यय में प्रतिशत बदलाव) का संकेत मिलता है, जो कि इसका कारण है कि क्यों हमें सरकारी व्यय में एक तेज बढ़ोत्तरी की निश्चित रूप से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, केंद्रीय वित्त मंत्रालय फंडिंग के न बढ़ने के लिये अक्सर स्वास्थ्य क्षेत्र की निम्न अवशोषण क्षमता को कारण मानता है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय निम्न उपयोग के लिये फंडों के हस्तांतरण में देरी पर आरोप लगाता है। निश्चित रूप से, बिना अतिरिक्त योजनाओं के परिणाम का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। स्वच्छ भारत मिशन के कार्यान्वयन से, जो कि किसी सरकारी पहल के त्वरित एवं समयबद्ध क्रियान्वयन का एक उदाहरण है, स्वास्थ्य क्षेत्र के लिये कुछ सबक लिये जा सकते हैं। फोकस लक्ष्यों को अर्जित करने एवं वांछित परिणाम पाने के लिये प्रगति की निगरानी पर रहा है। यह लगातार सफल उपायों एवं संबंधित मंत्रालयों और विभागों से भी आगे सर्वोच्च राजनीतिक नेतृत्व की निगरानी के कारण संभव हो पाया। स्वास्थ्य क्षेत्र के लिये भी निश्चित रूप से ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।

लेकिन इस क्षेत्र से जुड़ी कई समस्याएँ हैं। पहली, किसी भी स्वास्थ्य युक्ति को आगे बढ़ाए जाने और इसका ठोस प्रभाव पाने में लगभग दो से तीन वर्ष लग जाते हैं। इसलिये, सरकारें सत्ता में रहने के उत्तरार्ध में कोई भी कार्यक्रम आरंभ करने में हिचकिचाती हैं। अगर निर्वाचित नेता सरकार के सत्ता में आने के पहले वर्ष में त्वरित नीति अनुपालन के विचार का समर्थन करें तो इससे मदद मिल सकती है और कार्यान्वयन के लिये शेष अवधि का उपयोग हो सकता है।

निर्देशात्मक पाँच क्षेत्र


1. इस संदर्भ में, संयुक्त कार्यसमूह (जेडब्ल्यूजी), नीति आयोग एवं उत्तर प्रदेश सरकार की अनुशंसाएं स्वास्थ्य क्षेत्र के भविष्य-योजनाओं के निर्माण एवं भारतीय राज्यों द्वारा इसके कार्यान्वयन में काफी अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकती है। जेडब्ल्यूजी की अनुशंसाएं सरकार के पद भार संभालने के छह महीनों के भीतर उपलब्ध हैं, जो इसके कार्यान्वयन के लिये शेष साढ़े चार वर्ष के समय का उपयोग हो सकता है। चूँकि जेडब्ल्यूजी का उच्च स्तरीय राजनीतिक एवं तकनीकी नेतृत्व (राज्य के मुख्यमंत्री एवं नीति आयोग से) से सीधा संपर्क है, अगर यह ‘नीति को कार्यान्वयन के गहरे मतभेदों’ को पाटने के कार्य में कामयाब नहीं हो पाया तो इसका कोई विकल्प ढूँढ पाना मुश्किल होगा।

2. बेहतर स्वास्थ्य के लिये कई सारे निर्धारक-बेहतर पेयजल आपूर्ति एवं स्वच्छता; बेहतर पोषण संबंधी परिणाम, महिलाओं एवं बालिकाओं के लिये स्वास्थ्य एवं शिक्षा; बेहतर वायु गुणवत्ता एवं सुरक्षित सड़कें-स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं। सूक्ष्मजीव-रोधी प्रतिरोधिता, वायु प्रदूषण एवं गैर संक्रमण वाले रोगों (एनसीडी) जैसी उभरती चुनौतियों के साथ धीरे-धीरे इन मुद्दों पर ध्यान दिया जा रहा है। एक बहु-क्षेत्रवार योजना निर्माण एवं ‘सभी नीतियों में स्वास्थ्य’ के दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जहाँ विभिन्न विभागों एवं मंत्रालयों की पहलों का विकास किया जाता है और समन्वयन की योजना बनाई जाती है, जवाबदेही निर्धारित की जाती है और संयुक्त रूप से प्रगति की निगरानी की जाती है। इसका समन्वयन प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री, जैसा भी मामला हो, के स्तर से किया जाना चाहिए।

3. जहाँ निजी क्षेत्र स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की समग्र प्रदायगी में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, निजी क्षेत्र के साथ सरकारी अस्पतालों की किसी भी संलिप्तता को संदेह की नजर से देखा जाता है। अभी हाल ही में दूसरी एवं तीसरी श्रेणी के शहरों में जिला अस्पतालों के माध्यम से चुने हुए एनसीडी के लिये सेवाएं प्रदान करने के लिये निजी सार्वजनिक साझीदारों (पीपीपी) के एक प्रारूप दस्तावेज के बाद ऐसी स्थिति देखने में आई थी जिसे नीति आयोग द्वारा राज्य सरकारों के साथ साझा किया गया था। भारत में पीपीपी को कानूनी एवं नियामकीय पहलुओं समेत एक सूक्ष्म दृष्टिकोण एवं प्रणालीगत तंत्र की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया के लिये व्यापक हितधारक भागीदारी एवं विचार विमर्शों तथा उच्च नेतृत्व की तरफ से निगरानी किए जाने की आवश्यकता है।

4. ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से स्थापित कई स्वास्थ्य संस्थानों की उपयोगिता का समय गुजर चुका है अर्थात ये संस्थान पूरी तरह परिवार कल्याण पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। सतत विकास लक्ष्यों को अर्जित करने में योगदान देने के लिये तथा व्यापक स्वास्थ्य प्रणाली उद्देश्यों को हासिल करने के लिये संस्थानों में सुधार लाने तथा उनकी रूपरेखा में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। ठीक इसी तर्ज पर भारतीय चिकित्सा सेवा की स्थापना, सार्वजनिक स्वास्थ्य संवर्ग एवं मध्य स्तरीय स्वास्थ्य प्रदाताओं की स्थापना और स्वास्थ्य मंत्रालय (संयुक्त सचिव तथा अपर सचिव के स्तर तक) समेत शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य नीति संस्थानों में तकनीकी विशेषज्ञों की नियुक्ति की संभावना पर भी विचार किया जाना चाहिए एवं इसे समुचित प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

स्वास्थ्य : सतत विकास लक्ष्य


अंत में, सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (यूएचसी) वैश्विक स्तर पर व्यापक रूप से स्वीकृत एवं सहमति प्राप्त स्वास्थ्य लक्ष्य है और इसे व्यापक सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की कार्यसूची में भी शामिल किया गया है। भारत में यूएचसी को लेकर प्रारंभिक उत्साह और राष्ट्रीय स्वास्थ्य आश्वासन मिशन (एनएचएएम) तथा सार्वभौमिक स्वास्थ्य आश्वासन (2014-2016 के बीच) पर कुछ बहसों के बाद, ऐसा लगता है कि अब यह उत्साह ठंडा-सा पड़ गया है। एनएचपी 2017 के मुख्य लक्ष्य के रूप में यूएचसी के मूल सिद्धांतों को शामिल किया जाना और इसकी सुस्पष्ट अभिव्यक्ति से कुछ उम्मीदें बंधी हैं। बहरहाल, इसे कार्रवाई-योग्य कदमों का आकार दिया जाना चाहिए तथा कार्यान्वयन के लिये एक रोडमैप तैयार किया जाना चाहिए।

ऊपर सूचीबद्ध किए गए पाँच क्षेत्र निर्देशात्मक हैं और वैश्विक रूप से निःशुल्क दवाओं तथा नैदानिक योजनाओं में तेज बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है। यह आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली से लोगों की बढ़ती वैध अपेक्षाओं की पूर्ति से भी संबंधित है। चुनौतियों की प्रकृति एवं सीमा पर विचार करते हुए, यह कोई बड़ी महत्त्वाकांक्षा नहीं होगी कि केंद्रीय एवं राज्य दोनों ही स्तरों पर सर्वोच्च राजनीतिक नेतृत्व देश के लोगों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिये प्रत्यक्ष और स्थायी निगरानी करे। एक पूरक, व्यावहारिक कार्यनीति यह हो सकती है कि देश के प्रत्येक राज्य के स्वास्थ्य मंत्री एवं केंद्र सरकार के सभी मंत्री अपने प्रत्यक्ष नेतृत्व एवं निगरानी में वार्षिक रूप से एक जिले की स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी लें। यह कदम पहले वर्ष में 130 जिलों में तथा पाँच वर्षों की समाप्ति तक समस्त देश में स्वास्थ्य को बेहतर बना सकता है।

अच्छा स्वास्थ्य सरकार एवं लोगों के बीच ‘सामाजिक अनुबंध’ का हिस्सा है और देश के सतत आर्थिक विकास के लिये अनिवार्य है। स्वतंत्रता प्राप्ति का 70वां वर्ष एक उपयुक्त अवसर है, जब हम अपनी प्राथमिकताओं पर फिर से विचार करें एवं स्वास्थ्य को नीति एवं विकास एजेंडा में शीर्ष स्थान दें। अगर ऐसा होता है और यह जारी रहता है तो आज से 5 वर्षों के बाद, स्वतंत्रता प्राप्ति के 75वें वर्ष का समारोह अभी की तुलना में कहीं अधिक स्वस्थ लोगों एवं राष्ट्र के साथ मनाया जाएगा।

चंद्रकांत लहारिया, सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ