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अज्ञान भी ज्ञान है (पुस्तक), दक्षिण एशियाई हरित स्वराज संवाद, 2016
सन 1950 में सेना की नौकरी में लेफ्टिनेंट का पद छोड़ श्री मैलविल डी मैलो ने आकाशवाणी में उद्घोषक की तरह काम प्रारम्भ किया था। अपनी खनकती आवाज और भाषा की समृद्धि के अलावा मन की उदारता और गहराई ने श्री डी मैलो को इतनी ऊँचाई दी कि उनके शब्दों ने रूपों का भी आकार ले लिया था। उस दौर में टेलिविजन नहीं था पर श्री डी मैलो के शब्द उसकी कमी को सहज ही पूरा कर देते थे। गाँधीजी की अंतिम यात्रा का उनके द्वारा किया गया आँखों देखा वर्णन रेडियो की पूरी दुनिया में एक विशिष्ट स्थान रखता है। पद्मश्री से सम्मानित श्री डी मैलो को चैकोस्लोवाकिया रेडियो, इतालवी रेडियो, बीबीसी लंदन जैसी प्रसारण सेवाओं ने भी पुरस्कृत किया था।
किसी महात्मा के बारे में कोई कैसे लिख सकता है? महात्मा गाँधी की मृत्यु के बाद मुझसे इस बारे में कुछ लिखने का आग्रह किया गया। तब मैंने अपने से यही प्रश्न पूछा था। मैं उन पर कुछ लिखकर देने का अपना वायदा पूरा करने बैठा हूँ, पर अभी भी मुझे उस प्रश्न का उत्तर मालूम नहीं है।
मैं रेडियो पर प्रसारण का काम करता था। कुछ इस परिस्थिति के कारण और कुछ भाग्य के कारण मुझे एक ऐसी जगह मिल गई थी, जहाँ से मैं बापू की अंतिम यात्रा के अंतिम दिन, अंतिम घंटे और अंतिम क्षणों का हृदय विदारक दृश्य देख सका था। मेरे लिये वह रात लम्बी थी, आंसुओं से भरी हुई। एक ऐसी त्रासदी थी, शोक की ऐसी धारा थी, जिसका वर्णन करने के लिये आज भी शब्द नहीं हैं मेरे पास। जैसे-जैसे समय बीत चला है, उन क्षणों का अपार दर्द कुछ कम हुआ है और मेरे मन में अब उस समय के कुछ दृश्य थोड़े ज्यादा साफ होकर उभरने लगे हैं। ये दृश्य साधारण नहीं हैं शायद- लेकिन ये वे दृश्य हैं, जिन्हें मैं कभी भुला नहीं पाऊँगा।
उस दिन संस्कार होने वाला था। मैं सुबह जल्दी ही, कोई छह बजे बिड़ला हाउस पहुँच गया था ताकि भीड़ के आने से पहले ही मैं उनके अंतिम दर्शन कर लूँ। पर वहाँ मैंने देखी शोक में डूबे दर्शनार्थियों की एक लंबी टेढ़ी-मेढ़ी कतार। जहाँ उनका शरीर रखा गया था, उस कमरे की खिड़की से उन्हें प्रणाम कर यह कतार धीरे-धीरे आगे सरक रही थी। मुझे बिड़ला-परिवार के एक सदस्य ने घर के एक अन्य रास्ते से उस कमरे तक पहुँचाया। चिरनिद्रा में लेटे महात्मा। खुली चौड़ी छाती। छाती पर गोलियाँ के काले निशान। किसी अनिष्ट, अपशकुन की तरह घृणा और उन्माद के निशान। मैं उन्हें देख सिहर उठा। फिर देखा मैंने उनका चेहरा। मृत्यु में भी एकदम शांत। कैसा अद्भुत चेहरा था उनका।
और शोक में डूबे दर्शनार्थियों के चेहरे तो जैसे एक किसी धुंध में बिलकुल एक शून्य से बन गए थे। अगरबत्तियों की पावन सुगंध मानो किसी दूर के स्वर्ग से उस जगह नीचे उतर आई थी। और जो शांति पाठ चल रहा था, लगता था वह उन देवदूतों द्वारा किया जा रहा था, जब बापू की आत्मा स्वर्ग की ओर ऊपर उठ रही थी। चेहरे ने मुझे बाँध-सा रखा था। श्रद्धांजलि अर्पित करने वाले लोग खिड़की से उनके पार्थिव शरीर के दर्शन करते और गुलाब की पंखुड़ियाँ अर्पित करते। इन पंखुड़ियों की बौछार के बीच उस चेहरे को देखते हुए कुछ शब्द मेरे मन में उठने लगे। स्तब्ध से हो चले मेरे शरीर में ये शब्द धीरे-धीरे कहीं गहरे उतर चले थे। ये वे शब्द थे, जिन्हें मैंने अपने बचपन में सुना, सीखा था। ये वे शब्द थे जिन्हें ईसा मसीह ने सूली को उठाते हुए कहा थाः “परम पिता, उन्हें आप क्षमा कर देना; वे जानते नहीं कि वे क्या कर रहे हैं।” तब मुझे लगा कि बापू के ओंठ कुछ हिले-से हैं और वे यही तो कह रहे थे। क्षमाभाव का मूर्तरूप था उनका वह चेहरा।
मैं मौन, स्तब्ध खड़ा था। मेरे पीछे कोई थे जो किसी तरह अपनी सिसकियाँ रोकने की असफल कोशिश कर रहे थे। मैंने सीधे मुड़कर देखा। घोर संताप से ग्रस्त देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का चेहरा था वह। मैं धीमे से पीछे हटा, हमारे इस युग की उस महान विभूति को आंसुओं से और गुलाब की पंखुड़ियों से भरे कमरे में छोड़ कर।
राजकीय शोक यात्रा में रेडियो की मेरी गाड़ी धीरे-धीरे रेंगती चल रही थी। क्वीन्सवे, किंग्जवे, हार्डिंग एवेन्यू और बेला रोड, होते हुए राजघाट की ओर। हमारी रेडियो गाड़ी के ठीक पीछे था वह विशेष वाहन, जिस पर महात्मा गाँधी का पार्थिव शरीर आम जनता के दर्शन के लिये रखा हुआ था। उनके शरीर के आस-पास पंडित नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, देवदास गाँधी, सरदार बलदेव सिंह, आचार्य कृपालानी और राजेन्द्र प्रसाद कुछ ऐसे स्थिर से खड़े थे मानो संगमरमर की मूर्ति हों। और खड़े थे रास्ते में दोनों तरफ लाखों लोग। लाखों कंठ बापू के प्रिय भजनों को गा रहे थे। लाखों उनकी अमरता, उनकी जय-जयकार कर रहे थे। और सब रो रहे थे- लोगों के इस समुद्र में मुझे एक भी आँख ऐसी नहीं दिखी जो सूखी हो।
हम जिला जेल के पास से गुजर रहे थे। कोई दो माह पहले ही बापू यहाँ के कैदियों को संबोधित करने आए थे। इसी के आगे अकेली अलग-थलग पड़ी वह उदास सड़क थी जो हमें चिता तक ले जाने वाली थी। यहीं मुझे साक्षी बनना था, उस अद्भुत दृश्य का जो प्यार और स्नेह का एक बहुत बड़ा दर्शन था। डकोटा हवाई जहाज कतार में उड़ रहे थे। वे ऊपर से अर्थी वाली गाड़ी पर गुलाब की पंखुड़ियों की वर्षा करते, फिर अपने डैने जरा झुकाते, मानो वे नमन कर रहे हों और फिर कहीं घूम जाते, वापस लौट आने के लिये। आस-पास के पेड़ों से, घरों की छतों से भी इसी तरह पुष्प वर्षा होती जा रही थी। यहाँ लाखों लोग भोर सुबह से दर्शन के लिये खड़े थे। उनके सूखे कंठों से ‘महात्मा गाँधी की जय’ के नारे चारों तरफ फैल जाते थे।
यहाँ आकर गाड़ियाँ थम गई थीं। यात्रा का अंतिम पड़ाव आने वाला था। लोगों को अंतिम दर्शन मिल सके- शायद इसलिये गाड़ियाँ रुक गई थीं। मैं वेदना में डूबे लोगों के चेहरों को टकटकी लगाए देख रहा था। तभी मुझे एक स्त्री की हल्की-सी आवाज सुनाई पड़ीः “ऐसा तो हो नहीं सकता। मुझे तो लगता है कि वे कल की प्रार्थना सभा में वापस आ जाएँगे और हमें भरोसा दिलाएँगे कि वह तो बस एक गलती थी।” वह अपने आपसे ही बात कर रही थी- क्योंकि उसके पास खड़ा था एक बूढ़ा, जर्जर हो चुका भिखारी। उसकी आँखें रो-रोकर सूज चुकी थीं। ओंठ नीले पड़ गए थे और कुछ घाव थे जो न जाने कब से साफ नहीं हो पाए थे। चिथड़ों में लपटा उसका शरीर गरीबी के एक अंतहीन जीवन में बिना किसी आशा के भटक रहा था। भिखारी रोए चला जा रहा था। पास खड़ी यह संभ्रात महिला भी रो रही थी। ये दो छोर थे जिन्हें इस घटना ने एक दूसरे के साथ ऐसा खड़ा कर दिया था, जैसा और कोई घटना शायद ही कभी कर पाती। गाँधीजी उस भारत के मूर्तरूप बन गए थे, जिस भारत ने इतना कुछ सहा था और इतना परिश्रम किया था। उनकी सादगी ने लाखों का मन जीत लिया था, उन्हें अपनी तरफ खींच लिया था।
गाँधीजी उस भारत के मूर्तरूप बन गए थे, जिस भारत ने इतना कुछ सहा था और इतना परिश्रम किया था। रेडियो की हमारी गाड़ी थोड़ी और आगे बढ़ी थी। हमने सुना एक बच्चा अपनी माँ से बहुत भोलेपन से पूछ रहा था कि क्या ये बापू हमेशा के लिये चले गए हैं? वे अब वापस नहीं आने वाले क्या? माँ ने कुछ उत्तर तो दिया था पर वह उत्तर घोड़ों की टापों की आवाज में, लोगों की सिसकियों की आवाज में कहीं खो चुका था। उनकी सादगी ने लाखों का मन जीत लिया था, उन्हें अपनी तरफ खींच लिया था।
पार्थिव शरीर को लेकर आ रही गाड़ी से कुछ पहले ही हम राजघाट पहुँच गए थे। रेडियो की एक और गाड़ी भी थी जो हमसे भी पहले चिता की जगह के पास जा खड़ी हुई थी। भीड़ से थोड़ा ऊपर उठ कर देखने के लिये मैं अपनी गाड़ी की छत पर चढ़ गया था। जो पहली बात ऊपर चढ़ने पर समझ आई, वह थी चिता के आस-पास की व्यवस्था। आर.आई. ए.एफ. और पुलिस के असंख्य जवान एकदम कंधे से कंधा सटा कर चिता के स्थान को घेरे खड़े थे। इसी बीच पार्थिव शरीर लिये गाड़ी वहाँ आ पहुँची थी। बहुत कुछ तश्तरी जैसी जमीन के इस बड़े से टुकड़े पर इंतजार कर रहे लाखों लोग अब फिर अपने को रोक नहीं पाए और सुबक-सुबक कर रोने लगे थे।
चंदन की लकड़ियों की चिता से पहली लपट आकाश की ओर उठी और उधर सूरज डूब गया था। लहरों की तरह लोग आगे बढ़ रहे थे। और इन लहरों से उठ रही थी सिसकियों की आवाजें। लगता था मानो राजघाट पर कोई तूफान उतर आया हो। यह भावनाओं का तूफान था। अब तक की व्यवस्था इसने तोड़ दी थी। स्त्री-पुरुष सब ने बाड़ तोड़ दी, रस्से, खंबे, तार, गार्ड, पुलिस सब कुछ उस तूफान का अब एक हिस्सा बन चुके थे। अब सब धीरे-धीरे उस चंदन की चिता की परिक्रमा में लगे थे। चंदन की लपटें भी ऊपर-ऊपर उठ चली थीं और उसकी सुगंध अब पूरी सांझ के प्रकाश में फैल गई थी। राज्यपाल, राजदूत, केन्द्रीय मंत्री और सर्व साधारण- सब लोग यमुना के किनारे के इस छोटे से टुकड़े में समा गए थे आज। मानवता की अटूट इस श्रृंखला में उठती लहरों के बीच मैंने अपने को पत्ती पर, तिनके पर सवार उस लाचार चींटी की तरह पाया था जो एक भँवर के बीच फँस गई हो।
लपटें और ऊँची उठती गईं। लाखों लोग के कदमों से उठी धूल अब राजघाट के आकाश में छा-सी गई थी। इन लोगों को लग रहा था कि उनका भविष्य स्वतंत्रता और प्रेम के इस पिता के बिना कितना शून्य जैसा होगा। इन लपटों में, चिंगारियों में वे अपनी आशाओं को भी जलते देख रहे थे। उनकी वह आशा कि बापू फिर से मुस्कराएँगे और बोल पड़ेंगेः भाईयों और बहनों! चेहरों के इस उदास समुद्र को देखते-देखते मुझे अचानक लगा कि मेरा गला रुंध गया है। यह भाव तो सुबह से था पर अब तो कुछ ज्यादा ही था। मैं इसे गुटक जाना चाहता था पर वह हो नहीं पा रहा था। मैंने रेडियो कमेंट्री रोक-सी दी थी। दो चार ऊट-पटांग वाक्य जरूर मुँह से निकल गए थे। फिर मैंने अपना माईक हटा दिया। सारी ताकत बटोर कर मैंने अपनी नाक, मुँह में कुछ किया। गले की वह रुकावट अब दूर हो गई थी। और फिर मुझे लगा कि मैं उदास मन वाले उस विशाल जन समूह का एक अभिन्न अंग बन गया हूँ। अब मैं भवर में फंसी चींटी नहीं हूँ।
मुझे ऐसा लगा कि ये लाखों उदास मन अब सुनहरे-चमकीले तारों से, उसमें कहीं दूर छिपी अज्ञात शक्ति से अपने ज्ञात की, अपने प्रियजन की, अपने भरोसे की, अपने सत्य की वापसी माँग रहे हैं- पूरी विनम्रता के साथ। रेडियो कमेंट्री खत्म हो गई थी। बचा भी क्या था बताने के लिये। मैं अपनी रेडियो-गाड़ी की छत पर चुपचाप बैठा था, इस इंतजार में कि यह भीड़ कुछ छंटे तो मैं भी वापस लौटूं। पर अब इस जरा-सी जगह में मेरे साथ कुछ विचित्र साथी जुड़ गए थे। एक महिला लगभग बेहोश हो गई थी, उसे भी इसी गाड़ी की छत पर सुरक्षा और हवा के कारण लिटा दिया गया था। छोटे-छोटे दो बच्चे भीड़ में कुचल गए थे, उन्हें भी इसी पर बिठा कर संभाला जा रहा था।
और तभी मैंने देखा एक हाथ जो छत की पट्टी को पकड़ने की कोशिश में था। अरे ये तो प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। मैंने उनका हाथ पकड़ा और खींच कर उन्हें ऊपर उठाकर मोटरगाड़ी की इस छोटी-सी छत पर बिठाया। आते ही उन्होंने पूछा कि क्या तुमने गवर्नर-जनरल को देखा है? हाँ वे कोई आधे घंटे पहले लौट चुके हैं। और सरदार पटेल कहीं दिखे? मैंने फिर उत्तर दिया कि वे भी गवर्नर जनरल के पीछे कुछ समय बाद चले गए थे। भीड़ थी। भीड़ में मित्र, नेता सब गुम गए थे।
मोटर की छत पर खड़े नेहरूजी पहचान में आ गए थे अब तक। भीड़ गाड़ी के आस-पास जमा हो गई थी। लोगों को उम्मीद थी कि मोटर की छत से नेहरूजी लोगों को कुछ कहेंगे, सांत्वना देंगे। वे खड़े थे। मैं झुक गया था। साथ छोड़ गए पिता, बापू के शरीर को अब आग की लपटों ने पूरी तरह लपेट लिया था और इधर खड़ा था बेटा, उनका अनुयायी, जिसके हाथ में थी उनके विचारों की मशाल।
अंतिम यात्रा। नई दिल्ली। फरवरी ग्यारह। समय है साढ़े चार बजे भोर सुबह। मैं उस हरे रंग की विशेष रेल के उस डिब्बे के आगे खड़ा हूँ, जिसमें गाँधीजी की अस्थियों का कलश रखा हुआ है। यह डिब्बा रेलगाड़ी के बीच में लगाया गया है। पूरी विशेष गाड़ी तीसरे दर्जे के डिब्बों की है- गाँधीजी हमेशा तीसरे दर्जे में ही यात्रा करते थे। बीच का वह विशेष डिब्बा। प्रदीप्त रंगों से रंगा हुआ। एक आयताकार टेबिल पर एक पालकी में अस्थिकलश रखा था। टेबिल पर बिछा था फूलों और हरी पत्तियों से बना चादर। कलश ढंका था हाथ से बुने और हाथकते तिरंगे झंडे से। डिब्बे के चारों कोनों पर सुंदर पताकाएं टंगी थीं। डिब्बे के भीतर पूरी छत भी तिरंगे से ढंकी थी। कलश पर पड़ती विशेष रोशनी सारे वातावरण को एक अजीब-सी पवित्रता में स्नान करा रही थी।
प्लेटफार्म पर हजारों लोग अस्थिकलश की इस रेलगाड़ी को बिदा देने खड़े थे। छह बजकर तीस मिनिट पर इंजिन ने सीटी बजाई। रेल धीरे-धीरे सरकने लगी। लोग रोते हुए उस गाड़ी को देख रहे थे जो बापू के पार्थिव शरीर के अंतिम अवशेषों को लेकर अब उनसे दूर जा रही थी। कुछ हाथ बंधे थे, कुछ हाथ फूलों की पंखुड़ियाँ अर्पित कर रहे थे चलती रेल पर तो कुछ बस चुपचाप सिर झुकाए खड़े थे, उस व्यक्ति को बिदा देने, जिसने उन्हें सिखाया था सिर उठाकर जीना।
यह हरी रेलगाड़ी दिल्ली से निकल धीरे-धीरे आगे बढ़ ही रही थी कि ठंडी सुबह की लालिमा उस पर पूरी तरह से बिखर गई थी। हमारा डिब्बा अस्थिकलश वाले डिब्बे के बाद वाला था। रास्ते में सब शोक मग्न लोग पटरी के दोनों तरफ कलश वाली गाड़ी को अंतिम प्रणाम करने सिर झुकाए खड़े थे। दोनों तरफ खेतों में सरसों की पीली चादर बिछी पड़ी थी। हवा चलती, यह बड़ी चादर यहाँ से वहाँ लहरों में बदल जाती। बीच में कहीं-कहीं पगडंडियाँ थीं। मुझे न जाने क्यों इन पगडंडियों में उस विभूति के पगचिन्ह दिखते। वह पूरा हिंदुस्तान घूमा था, उन सबसे मिला था जो आज रेल की पटरी के दोनों ओर सिर झुकाकर उसे बिदा कर रहे थे।
गाड़ी चलती रही। दिल्ली से निकल कर गाजियाबाद, खुर्जा, अलीगढ़ हाथरस, टुंडला, फिरोजाबाद, इटावा, फफूंद, कानपुर, फतेहपुर और रसीलाबाद स्टेशनों पर जमा हुई भीड़ का वर्णन ही नहीं किया जा सकता। टुंडला में तो हमारा डिब्बा अस्पताल में बदल गया था। इस भीड़ में कुछ महिलाएँ बेहोश हो गई थीं, कुछ बच्चे कुचल गए थे और उन्हें बचाने में कुछ सिपाही भी घायल हुए थे। इन सबको हमारे ही डिब्बे में लाकर इनका प्राथमिक उपचार किया गया था। हर जगह हजारों की संख्या में लोग अंतिम दर्शन के लिये आए थे और इनमें से हरेक कलश पर फूल अर्पित किए बिना वापस नहीं लौटा था। डिब्बे के नीचे लोहे के पहिये का तालबद्ध संगीत तो डिब्बे में भजनों का उतना ही लय में बंधा गान। और दोनों तरफ अभी भी सरसों के सुंदर पीले-पीले खेत।
“संतरा लीजिए।” आवाज सुनकर मुझे एकदम याद आया कि मैंने तो रात से अभी तक कुछ भी नहीं खाया है। मैंने अपनी बगल की सीट पर अभी-अभी आकर बैठे उस व्यक्ति को देखा। हम थोड़ी ही देर में मित्र बन गए। वे मुझे धीरे-धीरे बापू के प्रेरणादायी किस्से सुनाते गए। उनका नाम था श्री वी.के. सुंदरम। वे पिछले बत्तीस बरस से बापू के साथ थे।
फतेहपुर शहर छूट चला था। गाड़ी धीरे-धीरे बढ़ रही थी। लोग और बच्चे गाड़ी के साथ-साथ भाग रहे थे। हाथों को फैलाए हुए, कलश पर चढ़े फूलों का प्रसाद पाने। कुछ बच्चे अपनी कमीज को झोली की तरह फैलाए खड़े थे कि गुजरती यह विशेष गाड़ी उनकी इस झोली में प्रसाद डालकर आगे जाए। अब गाड़ी ने गति पकड़ ली थी। महात्मा गाँधी की जय-जयकार कीआवाजें धीमी पड़ती जा रही थीं। बगल में बैठे हमारे साथी एक सूख चुके फूल को हाथ में लिये बस देखते ही चले जा रहे थे। फिर उनकी आँखों से आँसू टपकने लगे। मैं कुछ पूछता उसके पहले ही उन्होंने बहुत ही भावुक और धीमी आवाज में उत्तर दे दिया, इसी फूल को मैंने उनकी छाती पर गोली से बने घाव पर रख दिया था। इसके बाद हम दोनों के बीच फिर कोई बातचीत नहीं हुई। हमारी गाड़ी किसी छोटे स्टेशन को पार कर आगे बढ़ रही थी। पटरी के किनारे पर बने एक मकान की छत पर एक सिपाही खड़ा था। अपनी पूरी वर्दी में। कलश का डिब्बा जब उसके सामने से गुजरा तो उसने पूरे आदर के साथ सिर झुका कर सलामी दी। एक शहीद को एक सिपाही की सलामी थी यह। लाखों इस रेलगाड़ी के दोनों तरफ खड़ेहोकर पूरे रास्ते रोते रहे।
लाखों इस गाड़ी के सामने प्लेटफार्म पर खड़े रोते रहे। और ये सब तरह के लोग थे। समाज के हर अंग से, हर कोने से आए ये लोग थे। ये पूरे देश की भावनाओं की झलक थी। और यह भावना धरती से होते हुए अब नदी में भी उतर आई थी।
हम प्रयाग में त्रिवेणी पर थे। यहाँ फूल प्रवाहित किए जा रहे थे। अनंत काल से, अनंत युगों से जो स्थान पवित्रमय माना गया है, आज उसमें अपने इस युग के पवित्रतम व्यक्ति के फूल विसर्जित किए जा रहे थे। प्रवाहित कर रहे थे श्री रामदास गाँधी। हमारी यह नाव किनारे से कोई चालीस गज दूरी पर थी। हजारों लोग ऐसे थे जो भूमि समाप्त होने पर वहीं रुक नहीं गए थे। वे अब नाव के पीछे-पीछे जहाँ-तक हो सकता, घुटने-घुटने, कमर-कमर तक पानी में आ खड़े थे। कलश पूरा गंगा में उंडेला जा चुका था। साथ ही दूध भी। नदी सफेद हो चमक उठी थी। यात्रा का अंत था। दिव्य प्रवाह के माध्यम से बापू अनंत में जा मिले थे।
प्रयाग पर अंधेरा छाने लगा था। दीये जलने लगे थे। हम सब भी वापस लौटने की तैयारी में थे। जाते-जाते हमने एक बार फिर संगम की तरफ देखा। गंगा में धीरे-धीरे दीये तैरते हुए टिमटिमा रहे थे तो ऊपर आकाश में उतने ही तारे स्थिर से खड़े थे। टिमटिमाते तारे और टिमटिमाते दीये। बापू उन तारों में जा मिले थे, नीचे छूट गई उनकी स्मृतियाँ उन दीयों की तरह थीं जो अंधेरे में भी कुछ आशा बिखेर रहे थे। ये दीये जलते रहेंगे, चमकते रहेंगे, तब तक जब तक हमारी यह सभ्यता रहेगी।
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क्रम | अध्याय |
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4 | |
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