आजकल के दूषित खानपान की वजह से लोगों को भयानक बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है जिसकी वजह रसायनयुक्त खाद्य पदार्थों का सेवन है। अपनी परम्परागत खेती को भूल जब से लोगों ने रासायनिक खेती की तरफ कदम रखा तब से लोगों का स्वास्थ्य भी तेजी से बिगड़ने लगा व लोग भयानक बीमारियों से ग्रसित होने लगे।
किसी बीमारी का कारण एक डॉक्टर ही अच्छे से समझ सकता है। आज के इस तनाव भरे माहौल में यदि स्वस्थ रहना है और बीमारियों से दूर रहना है तो विकल्प एक है हमारा खानपान शुद्ध व अच्छा हो, जो हमें सिर्फ जैविक खेती द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। पेशे से कैंसर स्पेशलिस्ट डाॅ. आशुतोष अग्निहोत्री लोगों को जैविक खेती करना सिखा रहे हैं।
डॉ. अग्निहोत्री जबलपुर, मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं और कैंसर स्पेशलिस्ट हैं। उन्होंने रीवा से एम.बी.बी.एस. और जबलपुर मेडिकल कॉलेज से कैंसर में एम. डी. किया है। बतौर कैंसर स्पेशलिस्ट वे लम्बे समय से जबलपुर में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं और वह डाॅक्टरी के साथ-साथ खेती भी करते हैं हालांकि खेती में उनका अनुभव अभी दो साल का ही है।
अपने अनुभवों के आधार पर वे खेती को प्रकृति से जोड़कर समझने और अपनाने की पुरजोर पैरवी करते हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्षों, झाड़ियों, लताओं, पक्षियों, जीव-जन्तुओं, कीट-पतंगों, जीवाणुओं, मिट्टियों, सौर ऊर्जा और पानी द्वारा विकसित जीवन्त पारिस्थितिक तंत्र की मदद से धरती पर जीवन की निरन्तरता सुनिश्चित होती है उसी प्रकार प्रकृतिनिष्ठ खेती से निरोगी खेती का मार्ग प्रशस्त होता है। वही, सहजीवन आधारित प्रकृतिनिष्ठ खेती है। वही विपुल उत्पादन देने वाली सबसे सस्ती कृषि पद्धति है। यह कृषि पद्धति खेती का सही रोडमेप है।
डॉ. आशुतोष अग्निहोत्री ने रीवा से एम.बी.बी.एस.(MBBS) की पढ़ाई (1888-1993) की, सन 1998 में उन्होंने जबलपुर से कैंसर में एम.डी. किया। उसके बाद दिल्ली के राजीव गाँधी कैंसर इंस्टीट्यूट में सीनियर रेसीडेंट के तौर पर 4 महीने काम किया, गुजरात कैंसर एंड रीसर्च इंस्टीट्यूट (अहमदाबाद) में जूनियर लेक्चरार के तौर पर 6 महीने तक काम किया उसके बाद मेडिकल कॉलेज बड़ोदरा में असिस्टेंट प्रोफेसर रहकर 1 साल तक काम किया। वहाँ से वापस आने के बाद जबलपुर में लम्बे समय तक अपनी सेवाएँ दीं। अभी डॉक्टर आशुतोष जबलपुर के चरगवां ब्लॉक में बी.एम.ओ. (BMO) पद पर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं।
अपने लम्बे चिकित्सीय अनुभव के आधार पर डॉ. अग्निहोत्री कहते हैं कि बहुत सी मानवीय बीमारियों की असली वजह मौजूदा खान-पान और रासायनिक खेती की मदद से पैदा किए उत्पाद है। इस कारण उन्होंने अपने परिवार को हानिकारक रसायनों और कीटनाशकों से मुक्त सब्जियाँ व अनाज उपलब्ध कराने के लिए जबलपुर से लगभग 30 किलोमीटर दूर जमीन ख़रीद कर सहजीवन आधारित प्रकृतिनिष्ठ खेती प्रारम्भ की है। यह खेती, खेत में कुदरती तौर पर रहने वाले कीटाणुओं से लेकर अपने आप उगने वाली छोटी-मोटी वनस्पतियों के सहजीवन से होने वाली खेती है जिसमें एक घटक दूसरे घटक की मदद करता है। आपस में जैविक सन्तुलन बनता है और उस प्राकृतिक सन्तुलन के साथ तालमेल बनाकर ही अनाज पैदा किया जाता है।
बकौल डॉ. अग्निहोत्री - “मैं खुद एक डॉक्टर हूँ और अच्छी तरह से जानता हूँ कि आधे से ज्यादा बीमारियाँ आज के रसायनों द्वारा उगाए हुए खाद्य उत्पादों के खान-पान की वजह से हो रही हैं जिससे कैंसर व अन्य भयानक बीमारियाँ जन्म ले रही हैं। मैंने पिछले 15 सालों से कुछ खास चीजें जैसे फूलगोभी, बंद गोभी, चना, उरद, मटर, के उत्पाद उत्पाद खाने से परहेज कर रखा था। कारण खेती करने पर समझ आया कि इसमें बहुतायत मात्रा में रसायनों व कीटनाशकों का प्रयोग होता है।”
डाॅ.अग्निहोत्री जोर देकर कहते हैं कि वर्तमान युग की अधिकतर बीमारियाँ आज के रसायनों द्वारा उगाए खाद्य पदार्थों से हमारी खाने की थाली में आ जाने की वजह से हो रही हैं। उनके सेवन के कारण कैंसर जैसी जानलेवा तथा अन्य भयानक बीमारियाँ जन्म ले रही हैं।
रसायन युक्त खाद्यान्न के स्वाद को लेकर उनका कहना था कि उन्होंने पिछले 15 सालों से कुछ खास चीजें जैसे फूलगोभी, बन्द गोभी, चना, मटर, उड़द को खाने से परहेज कर रखा था। उन्हे, उपर्युक्त जिन्सों के स्वाद के बदलाव का कारण प्रकृति निष्ठ खेती के उत्पादों को खाने के बाद समझ आया।
उल्लेखनीय है कि डाॅ. अग्निहोत्री का परिवार कुछ दिनों से रसायनों और कीटनाशकों से मुक्त खाद्यानों का सेवन कर रहा है। उनका अनुभव है कि प्रकृतिनिष्ठ खेती से उत्पादित खाद्यानों के सेवन से उनके और उनके परिवार के सदस्यों के सोच में सकारात्मकता आई है। इसे वे शुद्ध भोजन का प्रतिफल मानते है।
प्रकृतिनिष्ठ खेती की प्रेरणा
साल 2014-15 में खेती करने की इच्छा हुई कि क्यों न अपना उगाया हुआ खाया जाए और फिर अप्रैल 2015 में जबलपुर से 30 किमी. दूर चरगवाँ क्षेत्र के कमतिया गाँव में 5 एकड़ का एक खेत ख़रीदा। सुभाष पालेकर जी की किताबों को पढ़ने व काफी अध्ययन के बाद इन्होंने प्रकृति निष्ठ खेती को चुना।
अक्टूबर 2015 में ढाई एकड़ में इन्होंने आम के 650 पेड़ लगाए व मार्च 2016 में डेढ़ एकड़ में नीबू के 170 पेड़ लगाए। एक एकड़ में घर के खाने-पीने के आनाजों व सब्जियों को उगाया। इन्होंने प्रकृति निष्ठ खेती के सिद्धान्त को अपनाते हुए बिना रसायन वाली खेती की तथा रसायनों की जगह इन्होंने जीवामृत घोल तथा दसपर्णी घोल के साथ अपनी खेती को आगे बढ़ाया। मेड़ों पर फलदार वृक्ष भारी मात्रा में लगाए व अरहर की फसल का जबर्दस्त उत्पादन किया। डॉ. आशुतोष को इस काम में उनकी पत्नी का बखूबी सहयोग मिला। अब इनका फॉर्म हरी सब्जियों, दलहन (अरहर) की फसल, लगभग सभी तरीके के फलदार वृक्ष जैसे- आम, अमरूद, पपीता, आँवला, कटहल, सीताफल, अनार, केला, लीची, चीकू, मुनगा, नारियल, सुपारी, आदि तथा अन्य पेड़-पौधों से हरा-भरा दिखाई पड़ता है।
फ्लोरा तथा फौना (प्राणी समूह तथा वनस्पति समूह) की खेती में भूमिका
डॉ. आशुतोष का मानना है कि खेती में फ्लोरा तथा फौना (प्राणी समूह व वनस्पति समूह) का अपना अहम रोल होता है। हर क्षेत्र की अपनी अलग फ्लोरा और फौना होती है जिसे हमें समझने की जरूरत है। ये खुद ही बताते हैं कि मिट्टी किस चीज के उत्पादन के लिये बेहतर है। फाॅर्मिंग व वातावरण के बीच ये सामंजस्य बनाते हैं जिसे किसान को जानने व समझने की जरूरत है।
गौरतलब है कि खेतों में पैदा होने वाली तथा सामान्य दिखने वाली घासें भी, मिट्टी में मौजूद रसायनों के हानिकारक प्रभाव को दर्शाने का काम करती है। यह घास के रंग-रुप और उसकी वृद्धि से समझ में आता है।
डाॅ. अग्निहोत्री के अनुसार बरसात के दिनों में ऊँची जाने वाली घास के प्रजाति की फसल जैसे गन्ना, ज्वार, बाजरा, मक्का इत्यादि या अरहर की फसल लेना अधिक उपयुक्त होता है। ऐसा करने से हम निराई के खर्च से बच सकते हैं। हमें प्रकृति द्वारा पैदा किए मानसूनी कचरे को सम्मान सहित स्वीकार करना चाहिए। वह वास्तव में जमीन की उर्वरकता बढ़ाने के लिए पैदा किया जाता है। हमारी बरसाती फसल, लम्बी होने के कारण ऊपर उठ जाती है और सौर ऊर्जा से अपनी आवश्यकता पूरी कर लेती है।
किसानी का उद्देश्य और सिद्धान्त
डाॅ. आशुतोष अग्निहोत्री का मानना है कि खेती करने वाले व्यक्ति को प्रकृति के नियम तथा दिशा-निर्देशों को जानना आवश्यक है। यह सिद्धान्त, कुछ लोगों को लीक से हटकर लग सकता है, पर आवश्यक है। उसे समझे बिना गुजारा नहीं है। इसे अपनाने के बाद किसानी की लागत कम होने लगती है। अपने-आप आमदनी बढ़ने लगती है।
जरूरी है कि किसान अपना देशी बीज बचाए, उसे ही खेत में लगाए, पानी बचाए और अपनी खाद खुद ही बनाए। बाजार को अपने से दूर रखे क्योंकि खेती हमें बाजार के लिये नहीं अपने खान-पान के लिये करनी है। जाहिर है जब किसान अपनी खाद, पानी, अपना बीज बचा लेगा तो वह खुद-ब-खुद मजबूत स्थिति में पहुँच जाएगा, समृद्ध होने लगेगा। डाॅक्टर आशुतोष अग्निहोत्री का यह भी मानना है जो प्रकृति से मेल नहीं खाए, जो प्रकृति के अधीन नहीं है उसे खेती में शामिल नही करना चाहिए। वह सहजीवन आधारित प्रकृतिनिष्ठ खेती नहीं है।
जब हम अपने खेत में अपने ही खेत का पैदा किया हुआ बीज बोते हैं तो वो बीज वहाँ की आवोहवा से अवगत होता है और संस्कारित भी और वह उसके डी.एन.ए. में संरक्षित हो जाता है। जब वह देसी बीज उसी मिटटी में फिर से बोया जाता है तो पहले से ज्यादा बलवान होकर निकलता है। इस कारण वह अधिक प्रतिरोधक क्षमता के साथ बाहर आता है। यही तो लगभग 5000 साल से चली आ रही परम्परागत खेती थी। अब जरूरत है कि हम अपने परम्परागत ज्ञान को समझें और उसे अपनाते हुए खेती करें।