डॉल्फिन को हम अक्सर मछली समझने की भूल कर देते हैं लेकिन वास्तव में डॉल्फिन एक मछली नहीं है। वह तो एक स्तनधारी प्राणी है। जिस तरह व्हेल एक स्तनधारी प्राणी है वैसे ही डॉल्फिन भी इसी वर्ग में आती है, डॉल्फिन का रहने का ठिकाना संसार के समुद्र और नदियां हैं। डॉल्फिन को अकेले रहना पसंद नहीं है यह सामान्यत: समूह में रहना पसंद करती है। इनके एक समूह में 10 से 12 सदस्य होते हैं। हमारे भारत में डॉल्फिन गंगा नदी में पाई जाती है लेकिन गंगा नदी में मौजूद डॉल्फिन अब विलुप्ति की कगार पर है। डॉल्फिन की एक बड़ी खासियत यह है कि यह कंपन वाली आवाज निकालती है जो किसी भी चीज से टकराकर वापस डॉल्फिन के पास आ जाती है। इससे डॉल्फिन को पता चल जाता है कि शिकार कितना बड़ा और कितने करीब है। डॉल्फिन आवाज और सीटियों के द्वारा एक दूसरे से बात करती हैं। यह 60 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से तैर सकती है। डॉल्फिन 10-15 मिनट तक पानी के अंदर रह सकती है, लेकिन वह पानी के अंदर सांस नहीं ले सकती। उसे सांस लेने के लिए पानी की सतह पर आना पड़ता है।
मीठे पानी की डॉल्फिन भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव है। पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राष्ट्रीय एक्वाटिक पशु के रूप में 18 मई 2010 को गंगा नदी डॉल्फिन अधिसूचित किया। यह स्तनधारी जंतु पवित्र गंगा की शुद्धता को भी प्रकट करती है, क्योंकि यह केवल शुद्ध और मीठे पानी में ही जीवित रह सकता है। प्लेटेनिस्टा गेंगेटिका नामक यह मछली लंबे नोकदार मुंह वाली होती है और इसके ऊपरी तथा निचले जबड़ों में दांत भी दिखाई देते हैं। इनकी आंखें लेंस रहित होती हैं और इसलिए ये केवल प्रकाश की दिशा का पता लगाने के साधन के रूप में कार्य करती हैं। डॉलफिन मछलियां सबस्ट्रेट की दिशा में एक पख के साथ तैरती हैं और श्रिम्प तथा छोटी मछलियों को निगलने के लिए गहराई में जाती हैं। डॉलफिन मछलियों का शरीर मोटी त्वचा और हल्के भूरे-स्लेटी त्वचा शल्कों से ढका होता है और कभी कभार इसमें गुलाबी रंग की आभा दिखाई देती है। इसके पख बड़े और पृष्ठ दिशा का पख तिकोना और कम विकसित होता है। इस स्तनधारी जंतु का माथा होता है जो सीधा खड़ा होता है और इसकी आंखें छोटी छोटी होती है। नदी में रहने वाली डॉल्फिन मछलियां एकल रचनाएं है और मादा मछली नर मछली से बड़ी होती है। इन्हें स्थानीय तौर पर सुसु कहा जाता है क्योंकि यह सांस लेते समय ऐसी ही आवाज निकालती है। इस प्रजाति को भारत, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश की गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र नदियों में तथा बांग्लादेश की कर्णफूली नदी में देखा जा सकता है।
नदी में पाई जाने वाली डॉल्फिन भारत की एक महत्वपूर्ण संकटापन्न प्रजाति है और इसलिए इसे वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 में शामिल किया गया है। इस प्रजाति की संख्या में गिरावट के मुख्य कारण हैं अवैध शिकार और नदी के घटते प्रवाह, भारी तलछट, बेराज के निर्माण के कारण इनके अधिवास में गिरावट आती है और इस प्रजाति के लिए प्रवास में बाधा पैदा करते हैं। गंगा नदी डॉल्फिन (Platanista gangetica gangetica) और सिंधु नदी डॉल्फिन (Platanista gangetica minor) मीठे पानी की डॉल्फिन की दो प्रजातियां हैं। ये भारत, बांग्लादेश, नेपाल तथा पाकिस्तान में पाई जाती हैं। गंगा नदी डॉल्फिन सभी देशों के नदियों के जल, मुख्यतः गंगा नदी में तथा सिंधु नदी, पाकिस्तान के सिंधु नदी के जल में डॉल्फिन पाई जाती है। केंद्र सरकार ने ०५ अक्टूबर २००९ को गंगा डॉल्फिन को भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया। गंगा नदी में पाई जाने वाली गंगा डॉल्फिन एक नेत्रहीन जलीय जीव है, जिसकी घ्राण शक्ति अत्यंत तीव्र होती है। विलुप्त प्राय इस जीव की वर्तमान में भारत में २००० से भी कम संख्या रह गयी है जिसका मुख्य कारण गंगा का बढता प्रदूषण, बांधों का निर्माण एवं शिकार है। इनका शिकार मुख्यतः तेल के लिए किया जाता है, जिसे अन्य मछलियों को पकडनें के लिए चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। एस समय उत्तर प्रदेश के नरोरा और बिहार के पटना साहिब के बहुत थोड़े से क्षेत्र में गंगा डॉल्फिन बचीं हैं। बिहार व उत्तर प्रदेश में इसे 'सोंस' जबकि आसामी भाषा में 'शिहू' के नाम से जाना जाता है। यह इकोलोकेशन (प्रतिध्वनि निर्धारण) और सूंघने की अपार क्षमताओं से अपना शिकार और भोजन तलाशती है। यह मांसाहारी जलीय जीव है। यह प्राचीन जीव करीब १० करोड़ साल से भारत में मौजूद है। यह मछली नहीं दरअसल एक स्तनधारी जीव है। मादा के औसत लम्बाई नर डोल्फिन से अधिक होती है। इसकी औसत आयु २८ वर्ष रिकार्ड की गयी है। 'सन ऑफ़ रिवर' कहने वाले डॉल्फिन के संरक्षण के लिए सम्राट अशोक ने कई सदी पूर्व कदम उठाये थे। केंद्र सरकार ने १९७२ के भारतीय वन्य जीव संरक्षण कानून के दायरे में भी गंगा डोल्फिन को शामिल लौया था, लेकिन अंततः राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित करने से वन्य जी संरक्षण कानून के दायरे में स्वतः आ गया। १९९६ में ही इंटर्नेशनल यूनियन ऑफ़ कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर भी इन डॉल्फिनों को तो विलुप्त प्राय जीव घोषित कर चुका था। गंगा में डॉल्फिनों की संख्या में वृद्धि 'मिशन क्लीन गंगा' के प्रमुख आधार स्तम्भ होगा, जिस तरह बाघ जंगल की सेहत का प्रतीक है उसी प्रकार डॉल्फिन गंगा नदी के स्वास्थ्य की निशानी है।
हाल ही में भारत में डॉल्फिन पार्क बनाए जाने की योजना बनी । इन्हें राजधानी नई दिल्ली, मुंबई और कोची में बनाया जाना था। लेकिन कोची में डॉल्फिन पार्क का निर्माण शुरू होते ही पर्यावरणविदों ने प्रदर्शन शुरू कर दिए। वे इन जानवरों को मनोरंजन का जरिया बनाने के खिलाफ थे। इन प्रदर्शनों को देखते हुए सरकार ने अब डॉल्फिन पार्क बनाने पर रोक लगा दी है। भारत सरकार ने डॉल्फिन को नॉन ह्यूमन पर्सन या गैर मानवीय जीव की श्रेणी में रखा है । यानी ऐसा जीव जो इंसान न होते हुए भी इंसानों की ही तरह जीना जानता है और वैसे ही जीने का हक रखता है । इसके साथ ही भारत दुनिया का चौथा ऐसा देश बन गया है जहां सिटेशियन जीवों को मनोरंजन के लिए पकड़ने और खरीदे जाने पर रोक लगा दी गयी है । भारत के अलावा कोस्टा रीका, हंगरी और चिली में भी ऐसा ही कानून है।
डॉल्फिन को अधिकार दिलाने की मुहीम शुरू हुई तीन साल पहले फिनलैंड में। उस समय दुनिया भर से वैज्ञानिक और पर्यावरणकर्ता राजधानी हेलसिंकी में जमा हुए और डिक्लेरेशन ऑफ राइट्स फॉर सिटेशियन पर हस्ताक्षर किए. जल जीवन पर काम कर रही जानी मानी वैज्ञानिक लोरी मरीनो भी वहां मौजूद थीं I उन्होंने इस बात के प्रमाण दिए कि सिटेशियन जीवों के पास मनुष्यों की ही तरह बड़े और पेचीदा दिमाग होते हैंI इस कारण वे काफी बुद्धिमान होते हैं और आपस में संपर्क साधने में काफी तेज भीI उन्होंने अपने शोध में दर्शाया है कि डॉल्फिन में भी इंसानों की ही तरह आत्मबोध होता है । साथ ही वे इतने समझदार होते हैं कि औजारों से काम करना भी सीख लेते हैं I हर डॉलफिन एक अलग तरह की सीटी बजाता है जिस से कि उसकी पहचान हो सकती है. इसी से वह अपने परिवारजनों और दोस्तों को पहचानते हैंI लेकिन डॉल्फिन की यही काबिलियत उनकी दुश्मन बन गयी हैI वे इतने समझदार होते हैं कि लोग उन्हें तमाशा करते देखना पसंद करते हैंI दुनिया भर में सबसे अधिक डॉल्फिन पार्क जापान में हैं I यहीं सबसे अधिक डॉल्फिन पकड़े भी जाते हैंI
डॉल्फिन खुले पानी में तैरने के आदि होते हैं और रास्ता ढूंढने के लिए वे सोनार यानी ध्वनि की लहरों का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन जब उन्हें पकड़ कर टैंक में रख दिया जाता है तो वे बार बार टैंक की दीवारों से टकराते हैं. इससे वे तनाव में आ जाते हैं और खुद को नुकसान भी पहुंचाने लगते हैं. दीवारों से टकराने के कारण कई बार उन्हें चोटें आती हैं या फिर दांत टूट जाते हैंI यह सब देखते हुए भारत का यह कदम दूसरे देशों के लिए सीख बन सकता है. भारत 2020 तक गंगा में मौजूद डॉलफिन को बचाने की मुहीम भी चला रहा है।
डॉल्फिन, मानव की भांति सामाजिक प्राणी है। इस जीव का गर्भधारण काल दस महीनों का होता है। डॉल्फिन एक बार में एक ही बच्चे को जन्म देती है। प्रसव के कुछ दिन पहले से गर्भवती डॉल्फिन की देखभाल के लिये पाँच-छह मादा डॉल्फिन उसके आस-पास रहती हैं। प्रसव के पूरे समय जो लगभग दो घंटे का होता है, उस समय डॉल्फिनों का एक समूह, माँ और नवजात डॉल्फिन की मदद को तैयार रहता है। बच्चे के जन्म के समय डॉल्फिनों का समूह मानव की भांति प्रसन्न होकर उत्सव मनाता है। चूँकि डॉल्फिन में मछलियों की भांति श्वसन प्रणाली नहीं होती है, इसलिए उन्हें सांस लेने के लिये जल की सतह पर आना पड़ता है। इसी कारण प्रसव के बाद नवजात शिशु को शुद्ध हवा की आपूर्ति के लिये अन्य डॉल्फिनें उसे जल की सतह पर लाती हैं। मानव की भाँति माँ डॉल्फिन भी बच्चों का लालन-पालन बड़े प्यार से करती है। डॉल्फिन के बच्चे एक साल तक स्तनपान करते हैं।
इस दौरान डॉल्फिन बच्चे को जीवन यापन के लिये शिकार करने और तैराकी में निपुण बनाती है। अधिकतर कम उम्र की डॉल्फिन तट के समीप आकर झुंड में खेलती हैं। डॉल्फिन का बच्चा घूम-फिर कर अपनी माँ की सीटी की आवाज को पहचान कर उसके पास आ जाता है। अपने संपूर्ण जीवनकाल, जो तीस वर्ष तक हो सकता है, में अधिकतर डॉल्फिन अपने पूरे परिवार या केवल माता-पिता के साथ रहते हैं। डॉल्फिन आपस में एक-दूसरे की मदद करती हैं। एक डॉल्फिन अन्य डॉल्फिन के भाषा संकेतों को समझ आपस में बोलकर संचार स्थापित करती हैं।
डॉल्फिन 5 फुट से 18 फुट तक की लंबी हो सकती है। इसका निचला हिस्सा सफेद और पार्श्व भाग काला होता है। इसका मुँह पक्षियों की चोंच की भांति होता है। डॉल्फिन के शरीर पर बाल नहीं होने के कारण यह अपने शरीर का तापमान स्थिर रखने में असमर्थ होने के कारण से प्रवास यात्राएं करती है। डॉल्फिन के सामान्य तैरने की गति 35 से 65 किलोमीटर प्रति घंटे होती है, लेकिन गुस्से में यह अधिक तेज करीब 90 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से तैरती हुई बिना रूके करीब 113 किलोमीटर तक यात्रा कर सकती है। डॉल्फिन को समुद्र में जहाजों के साथ मीलों तक तैराकी का विशेष शौक होता है। डॉल्फिन जल में करीब 300 मीटर गहरा गोता लगा सकती है। जब यह गोता लगाती है तो इसकी हृदयगति आधी रह जाती है, ताकि ऑक्सीजन की जरूरत कम पड़े और यह अधिक गहराई तक गोता लगा सके। यह कुशल तैराक जीव 5 से 6 मिनट तक जल के अंदर रह सकता है।
डॉल्फिन की चरणबद्ध रूप से सीखने की प्रवृत्ति इसको सभी जलचरों में सर्वाधिक बुद्धिमान जीव बनाती है। इसका मनुष्यों के साथ, विशेष रूप से बच्चों के प्रति विशेष लगाव होता है। डॉल्फिन को इंसानों के साथ खेलना अच्छा लगता है। काफी समय से डॉल्फिन मनोरंजन का साधन रही है। यह प्रशिक्षण से विभिन्न प्रकार के खेल भी दिखाती है। डॉल्फिन कभी गेंद को अपनी नाक पर उछालती है तो कभी पानी में लबीं छलांग लगाने के अतिरिक्त यह रिंग में से भी निकल सकती है। प्रशिक्षण से डॉल्फिन तरह-तरह के करतब करती है ।
डॉल्फिन सभी समुद्रों में मिलती है लेकिन भूमध्यसागरीय समुद्र में इनकी संख्या सर्वाधिक है। पूरे विश्व में डॉल्फिन की 40 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें से मीठे पानी की डॉल्फिन प्रजातियों की संख्या चार है। भारत की सोंस भी मीठे पानी की प्रसिद्ध डॉल्फिन प्रजाति है जो यहाँ की नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन प्रजातियों में प्रमुख है। डॉल्फिन की इस प्रजाति का सोंस इसके द्वारा सांस लेने और छोड़ने के क्रम में निकलने वाली एक विशेष ध्वनि पर रखा गया है। सोंस का प्रथम वैज्ञानिक अध्ययन सन 1879 में जॉन एंडरसन ने किया। लेकिन मुख्य रूप से सोंस संरक्षण के कार्यों में 1972 से तेजी आई और तब से इस विलक्षण जलीय जीव को वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 द्वारा संरक्षित जीवों की श्रेणी में रखा गया। प्रकृति ने इसे विशिष्ट श्रवण शक्ति प्रदान की है। डॉल्फिन की अद्भुत श्रवण शक्ति इसके जीवन यापन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ये दूर से आती ध्वनि तंरगों को पहचान लेती है। यह पानी में 24 किलोमीटर की दूरी तक की ध्वनियों को सुनने की अद्भुत क्षमता रखती है। डॉल्फिन का आवाज को सुनकर पहचानने का विलक्षण गुण उन्हें भोजन की दिशा की सूचना देता है। सोंस का मुख्य भोजन वह छोटी मछलियाँ होती हैं जो पानी में उगने वाली घास या खरपतवार को खाती हैं। नदी पारितंत्र में छोटी मछलियों की संख्या सीमित रहने से तथा जलीय वनस्पतियों की पर्याप्तता से पानी में ऑक्सीजन की उचित मात्रा पाई जाती है। इस प्रकार सोंस जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका अदा करती है।
भारत में डॉल्फिन का शिकार, दुर्घटना और उसके आवास से की जा रही छेड़छाड़ इस जीव के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाए हुए है। डॉल्फिन स्वच्छ व शांत जल क्षेत्र को पसंद करने वाला प्राणी है। लेकिन मशीनीकृत नावों जैसी मानवीय गतिविधियों से नदी में बढ़ रहा शोर इनके स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। डॉल्फिन के आवास क्षेत्रों से की जा रही छेड़छाड़ जैसे बाँधों का निर्माण और मछली पालन से भी डॉल्फिन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। बढ़ती सैन्य गतिविधियाँ, तेल और गैस शोध कार्य से समुद्र में फैलते ध्वनि प्रदूषण से डॉल्फिन भी अछूती नहीं रही हैं। जलवायु परिवर्तन से डॉल्फिन की रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी होने से इनकी संख्या लगातार कम होने वाली है। जल में बढ़ता रासायनिक प्रदूषण भी इनकी कार्यकुशलता पर असर डाल रहा है।
भारत के नदियों में बढ़ते प्रदूषण से डॉल्फिनों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। जहाँ दो दशक पूर्व भारत में इनकी संख्या 5000 के आस-पास थी, वहीं वर्तमान में यह संख्या घटकर करीब डेढ-दो हजार रह गई है। ब्रह्मपुत्र नदी में भी जहाँ 1993 में प्रति सौ किलोमीटर में औसत 45 डॉल्फिन पाई जाती थी। वहीं यह संख्या 1997 में घटकर 36 रह जाना इस अनोखे जीव की संख्या में तेजी से कमी की सूचना देता है। भारत में नदी की गहराई कम होने और नदी जल में उर्वरकों व रसायनों की अत्यधिक मात्रा मिलने से भी डॉल्फिन के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। डॉल्फिन का शिकार अधिकतर उसके तेल के लिये किया जाता है। अब वैज्ञानिक डॉल्फिन के तेल की रासायनिक संरचना जानने का प्रयत्न करने में लगे हुए हैं, ताकि वैकल्पिक तेल के निर्माण से डॉल्फिन का शिकार रूक जाए। भारत में डॉल्फिन के शिकार पर कानूनी रोक लगी हुई है। हमारे देश में इनके संरक्षण के लिये बिहार राज्य में गंगा नदी में विक्रमशिला डॉल्फिन अभ्यारण्य बनाया गया है।
लेखक
डाॅ. दीपक कोहली, उपसचिव
वन एवं वन्य जीव विभाग, उत्तर प्रदेश
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