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राष्ट्रीय सहारा, 29 फरवरी, 2016
दिल्ली की स्थिति भी बड़ी विचित्र है। राजस्थान में आँधी चलती है तो दिल्ली धूल से अट जाती है। पंजाब के खेतों में आग लगती है तो दिल्लीवासियों की आँखों में जलन होने लगती है। हिमाचल अथवा कश्मीर में बर्फ गिरती है तो दिल्ली के लोग ठिठुरने लगते हैं। हरियाणा में जाट आंदोलन होता है तो दिल्ली में पानी के लिये त्राहि-त्राहि मच जाती है। पानी जिंदगी के लिये इतना अहम है कि इसके अर्थ कई लगाए जाते हैं। आँखों का पानी शर्म है तो पानी-पानी किसी को शर्मसार करने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। पानी इज्जत भी है। इसे तो खुद ही संभालकर रखना पड़ता है, दूसरे के भरोसे तो अपना पानी नहीं बचाया जा सकता। जाट आंदोलन के दौरान हरियाणा में बहुत कुछ हुआ, उनमें से एक यह भी था कि मुनक नहर को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया गया और दो तिहाई दिल्ली में पानी की भीषण किल्लत हो गई। आंदोलन तो खत्म हो गया, लेकिन दिल्ली में पानी की किल्लत बदस्तूर जारी है। इसे सामान्य होने में अभी दो हफ्ते लग जाएँगे।
दिल्ली के पास पानी के अपने स्रोत नहीं हैं। दिल्ली ने विकास तो खूब किया, लेकिन पानी की ओर ध्यान नहीं दिया। यमुना नदी को यहाँ तबाह कर दिया गया। जलाशयों को खत्म कर दिया गया। भूमिगत जल का इतना दोहन हो गया कि पाताल भी सूखने लगा है और बचा हुआ पानी पीने लायक नहीं है। मुगलिया सल्तनत ने दिल्ली के पानी का हमेशा ख्याल रखा, कई प्रयोग किए, जिनके निशान आज भी दिखते हैं। तब शायद तकनीकी ने इतनी तरक्की नहीं की थी, जो भी संसाधन थे, उनके जरिए पानी की व्यवस्था की गई थी। दिल्ली में मौजूदा जो 17 नाले यमुना नदी में जहर घोल रहे हैं, उनमें से कई में कभी मीठे पानी की धारा बहा करती थी। विकास की तेजी में पानी का तो ख्याल ही नहीं रहा, नतीजा सबके सामने है कि पानी के मामले में अब हम लगभग पूरी तरह से दूसरों पर ही निर्भर हैं।
ऐसा नहीं है कि कोशिश करने के बाद भी दिल्ली पानी की व्यवस्था नहीं कर सकती। हर साल बरसात के दौरान पल्ला से लेकर ओखला के बीच यमुना में करीब छह लाख क्यूसेक पानी आता है, जो यूँ ही बेकार चला जाता है। इतने पानी से तो तीन-चार महीने की जरूरत पूरी हो सकती है। अब तो ऐसी तकनीक आ गई है, जो कि खारे पानी को भी पीने योग्य बना सकती है। पिछले कुछ वर्षों से वाटर हार्वेस्टिंग की योजनाएं बन रही हैं। कुछ हद तक दक्षिणी दिल्ली के वसंत कुंज जैसे इलाकों में भूमिगत जल का स्तर वाटर हार्वेस्टिंग ने सुधारा भी है, लेकिन यह प्रयास ऊँट के मुँह में जीरा के समान ही है। बरसात के पानी को अगर जमीन में इंजेक्शन वेल के जरिए जमीन के अंदर डाला जाए तो उससे भी भूमिगत जल का स्तर बेहतर हो सकता है। इस तरह के उपाय जब तक नहीं किए जाएँगे और वर्तमान में पानी की लीकेज की मात्रा को कम नहीं किया जाएगा, तब तक दिल्ली में पानी की स्थिति सुधरने वाली नहीं दिखती।
जाट आंदोलन से सबक लेकर दिल्ली जल बोर्ड भी हरकत में आया है। अब बात चल रही है कि दिल्ली में कम से कम सात से दस दिनों का पानी का बैकअप रहे, इसके लिये बड़े-बड़े जलाशयों का निर्माण किया जाएगा और सभी जलशोधन संयंत्रों को आपस में जोड़ दिया जाएगा, ताकि अगर हरियाणा से पानी बंद हो तो उत्तर प्रदेश से मिलने वाला पानी पश्चिमी दिल्ली में पहुँच सके और कम से कम खाना बनाने व मुँह धोने तक पानी तो लोगों को अपने घरों में नसीब हो सके। हरियाणा में आंदोलन हुआ, मुनक नहर क्षतिग्रस्त हुई और भुगतना पड़ा दिल्ली को। अब तो दिल्ली सरकार पर उस नहर की मरम्मत का भी ठीकरा फूटा है, इसके लिये दिल्ली सरकार को पैसे भी देने होंगे। जब तक दिल्ली को पानी के मामले में कुछ हद तक आत्मनिर्भर नहीं बनाया जाता, पानी वितरण के प्रबंधन को ठीक नहीं किया जाता और मृत स्रोतों को पुनर्जीवित नहीं किया जाता, तब तक बात बनने वाली नहीं है। रहीम तो सैकड़ों वर्ष पहले ही कह गए हैं, बिन पानी सब सून...।