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विकास संवाद द्वारा प्रकाशित 'पानी' किताब
दस सालों में 90 फीसदी घट गया सिंचाई रकबा
अगस्त 1986 में राज्यों के सिंचाई मंत्रियों को संबोधित करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने कहा था-‘सोलह सालों से हमने धन गंवाया है। सिंचाई नहीं, पानी नहीं, पैदावार में कोई बढ़ोतरी नहीं, लोगों के दैनिक जीवन में कोई मदद नहीं। इस तरह उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ है।’
आज 23 साल बाद भी यह बात खरी है। इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट (आईआईएम) लखनऊ की रिपोर्ट कहती है कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के सिंचाई का इलाका लगातार घट रहा है। हालात यह है कि रनगवां जैसी परियोजना अपनी क्षमता के दस फीसदी इलाके में ही पानी दे पा रही है।
जब ये योजनाएँ बनाई गई थीं तो वादा किया गया था कि इनके निर्माण के बाद किसानों की दशा बदल जाएगी। पानी को तरस रही धरती लहलहा उठेगी। योजनाएँ बने बरसों हो गए लेकिन आज भी किसान की हालत नहीं सुधरी है। अब तो स्थिति और विकट हो गई। कहने को तो लाखों की परियोजनाएँ किसानों के 24 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध करवा रही हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन योजनाओं की उपयोगिता लगातार घट रही है। एक तरफ जहाँ मौसम की बेरुखी के कारण पानी कम मिल रहा है, वहीं रखरखाव का अभाव, लापरवाही और गलत हाथों में जल वितरण होने के कारण छोटे किसानों के खेत सूखे हैं। आईआईएम ने मध्यप्रदेश सहित सात राज्यों उत्तरप्रदेश, बिहार, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में सिंचाई क्षमता निर्मित किए जाने और उसके उपयोग का अध्ययन किया है। इस अध्ययन में प्रदेश की छह सिंचाई परियोजनाओं चंबल, केरवा (भोपाल), रनगवां (छतरपुर), सेगवाल (बड़वानी), कूलगढ़ी (सतना), सातक (खरगोन) का उपयोग जाँचा गया है। बड़ी और मध्यम सिंचाई योजनाओं की सिंचाई क्षमता के पूरे उपयोग के मामले में मध्यप्रदेश को सबसे कमजोर साबित किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक सभी योजनाओं का सिंचाई इलाका लगातार घट रहा है। सबसे बुरा असर छतरपुर की रनगवां परियोजना पर पड़ा है। यह परियोजना 1998-99 में 3805 हेक्टेयर जमीन को सींच रही थी जो 2007-08 में घट कर मात्र 388 हेक्टेयर रह गई है। यानि की दस सालों में सिंचाई इलाका घट कर दस फीसदी ही रह गया। खरगोन की सातक और सतना की कुलगढ़ी परियोजना का सिंचाई इलाका भी लगभग आधा रह गया है। 1998-99 में सातक योजना 1471 हेक्टेयर खेतों में सिंचाई का पानी देती थी। अब यह 882 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए ही उपयोगी रह गई है। कुलगढ़ी योजना का इलाका 732 हेक्टेयर से घट कर 388 हेक्टेयर रह गया है। भोपाल का केरवा डेम 2686 हेक्टेयर खेतों को पानी देता था। यह अब 2182 हेक्टेयर खेतों को ही सींच रहा है।
क्यों घट गया इलाका-
जल उपयोगिता समितियों में छोटे किसानों को जगह नहीं मिलती। लिहाजा, सिंचाई का पानी रसूखदार समिति सदस्यों के हिस्से में जाता है। वे भरपूर पानी लेते हैं और इसके सिंचाई के अलावा मकान निर्माण, पेयजल सहित अन्य कामों में उपयोग लेते हैं और नहर से अंत के किसानों के खेत प्यासे रह जाते हैं। नहरें योजना के मुताबिक नहीं बनाई गई। इस कारण कम क्षेत्र को पानी मिलता है। कई नहरें अंत में कच्ची हैं और गाज-मिट्टी जम जाने से पानी अंत तक नहीं पहुँचता। नहरों के रखरखाव में धन की कमी और इस काम के लिए मिली राशि के अन्य कामों में खर्च होती है। इस निष्कर्ष को विश्व बैंक की 2005 की रिपोर्ट ‘ईंडियाज वॉटर इकॉनोमीः ब्रैसिंग फॉर अ ट्रबुलेंट फ्युचर’ भी साबित करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के सबसे बड़े सिंचाई ढांचे के रखरखाव के लिए भारत में सालाना 17 हजार करोड़ की जरूरत होती है, लेकिन इसकी दस फीसदी राशि ही मिलती है। यह राशि भी रखरखाव में खर्च नहीं होती।
कितना घट गया सिंचाई इलाका
परियोजना का नाम | 1998-99 | 2006-07 | 2007-08 |
केरवा भोपाल | 2686 | 2351 | 2182 |
रनगवां छतरपुर | 3805 | 906 | 388 |
कुलगढ़ी सतना | 732 | 464 | 388 |
सेगवाल | 478 | 464 | 451 |
सातक खरगोन | 1471 | 1172 | 882 |
(आंकड़े हेक्टेयर में)