Source
द गार्जियन, 9 मार्च 2016
यह स्टोरी ‘द गार्जियन’ में जब छपी थी, तब ध्रुवज्योति घोष जीवित थे। उनका निधन 16 फरवरी 2018 को हार्ट अटैक से हो गया। ध्रुवज्योति घोष ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स के गार्जियन की तरह थे। उन्होंने लम्बे समय तक न केवल इसकी देखभाल की बल्कि दुनिया को यह भी बताया कि किस तरह इस आर्द्रभूमि में लाखों लीटर गन्दा पानी प्राकृतिक तरीके से साफ हो जाता है। यह स्टोरी आर्द्रभूमि को बचाने के लिये ध्रुवज्योति घोष के संघर्ष को भी दर्शाती है। गमले में रखे परित्यक्त पौधे की तरह ही जनवरी में कोलकाता की सड़कों पर लगे पेड़ धूल से सने होते हैं। ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ियाँ रुकती हैं, तो हॉकर धूल झाड़ने वाला डस्टर लेकर कार ड्राइवरों के पास दौड़ पड़ते हैं।
शहर के फ्लाईओवरों के बीच की जगह में पौधे लगाए गए हैं और इनके आसपास क्लीन व ग्रीन शहर के पोस्टर चस्पां कर दिये गए हैं। शहर में जितने पोस्टर ‘क्लीन व ग्रीन शहर’ के दिखते हैं, उससे कहीं ज्यादा पोस्टर निवेशकों से यहाँ निवेश करने की अपील वाले हैं।
सुसंस्कृत शहर के रूप में मशहूर कोलकाता की आबादी करीब 14.5 मिलियन है और ब्रिटिश हुकूमत के वक्त यह लंदन के बाद दूसरा सबसे बड़ा शहर था जहाँ अंग्रेजों का शासन चलता था। अब यह शहर दिल्ली, मुंबई, चेन्नई व बंगलुरु जैसा बन जाने को उतावला है।
कोलकाता शहर समुद्र की सतह से महज 5 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और पानी से घिरा हुआ है। इस शहर के पूर्वी हिस्से में वृहत आकार की एक अनोखी आर्द्रभूमि है। ठीक ऐसे समय में जब कोलकाता को इस आर्द्रभूमि की सख्त जरूरत है, इस पर रीयल एस्टेट डेवलपरों की गिद्ध दृष्टि पड़ गई है।
जिन क्षेत्रों में कानूनन कंस्ट्रक्शन करने की इजाजत नहीं है, वहाँ भी सैकड़ों रिहायशी इमारतें, स्कूल-कॉलेज व छोटे मकान बन रहे हैं।
समुद्र के जलस्तर में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी व जलवायु परिवर्तन के असर के मद्देनजर विश्व बैंक ने एक स्टडी की थी जिसमें कहा गया था कि इसके असर से मियामी, न्यूयॉर्क, न्यू ऑर्लींस व मुम्बई को सबसे ज्यादा नुकसान हो सकता है। स्टडी में बाढ़ से प्राकृतिक व कृत्रिम तरीके से बचाव के उपायों पर विचार करने का मशविरा दिया गया था।
विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2050 तक समुद्र के जलस्तर में 20 सेंटीमीटर तक की बढ़ोत्तरी होने पर कोलकाता विश्व का तीसरा शहर होगा, जो जोखिम के दायरे में आएगा।
विश्व बैंक के इस पूर्वानुमान से भले ही यह महसूस हो रहा हो कि वर्ष 2050 के आने में देर है, लेकिन इसके जो प्राथमिक संकेत दिख रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि वो घड़ी करीब है।
पिछले साल नवम्बर में चेन्नई में आई बाढ़ ने 18 लाख लोगों को बेघर कर दिया था। बाढ़ की बात हो रही है तो यह भी सनद रहे कि 20 साल पहले चेन्नई शहर के आसपास 650 आर्द्रभूमि थी। अभी इनकी संख्या महज 27 रह गई है।
चेन्नई में सुपर-पावर विकास आर्द्रभूमि की कीमत पर आया है। वही आर्द्रभूमि जो बाढ़ से बचाव का सबसे कारगर माध्यम होती है। आर्द्रभूमि न हो, तो बाढ़ के पानी के निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता है जिससे यह घरों में ही प्रवेश करता है।
आसमान से अगर कोलकाता को देखा जाये, तो यह सुनहरा दिखता है। इसके पूरब की तरफ पानी का एक बड़ा क्षेत्र है। इसकी सीमाएँ हरी घास से ढँकी हुई हैं। दूर से देखने पर लगता है कि मैदान में बाढ़ आई हो। इसमें तालाब भी हैं, चैनल भी व बड़ी झील भी।
अगर आप सड़क मार्ग से ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स की तरफ जाएँ, तो आपको ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स की ओर से दोपहिया ट्रैलर व मोटरसाइकिलों पर सब्जियाँ व मछलियाँ लेकर बाजार जाते लोग दिखेंगे।
इस आर्द्रभूमि में जिस प्रक्रिया से पानी की सफाई होती है, वह कुछ प्राकृतिक है और कुछ मानव निर्मित। इस अद्भुत प्रक्रिया को खोज लाने का श्रेय जाता है इंजीनियर से इकोलॉजिस्ट व फिर मानव विज्ञानी बने ध्रुवज्योति घोष को।
ध्रुवज्योति घोष बांग्ला टोनवाली अंग्रेजी नहीं बोलते हैं। उनकी अंग्रेजी बहुत सॉफ्ट व एकदम शुद्ध है।
सन 1981 में घोष को यह पता लगाने को कहा गया था कि आखिर कोलकाता के घरों से निकलने वाला गन्दा पानी जाता कहाँ है। कोलकाता से भारी मात्रा में सीवेज निकलता है जबकि कोलकाता में कोई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। इसके बावजूद यहाँ सीवेज से प्रदूषण जैसी कोई समस्या नहीं है। शहर से निकलने वाला गन्दा पानी कहीं जाकर विलुप्त हो जाता है।
69 वर्षीय घोष कहते हैं, ‘जिस प्रक्रिया से यहाँ गन्दा पानी साफ होता है, उसके लिये अंग्रेजी में ‘सेरेंडिपिटी’ (आकस्मिक हुई खोज) शब्द सबसे उपयुक्त है।’
हम आर्द्रभूमि के एक तालाब के बगल में खड़े हैं। यहाँ एक टूटा-फूटा ढाँचा नजर आ रहा है, जो कुछ-कुछ मन्दिर जैसा दिखता है। युवाकाल में घोष रोजाना कोलकाता से पैदल यहाँ आया करते थे, यह पता लगाने कि गन्दा पानी यहाँ कैसे खुद-ब-खुद साफ हो जाता है। जानते-समझते उन्हें पता चला कि यहाँ का पानी बेहद खूबसूरत है। वह कहते हैं, ‘यहाँ जो हो रहा है उसे समझने के लिये जीवविज्ञान की डिग्री की जरूरत नहीं, कॉमन सेंस ही काफी है। गन्दे पानी में 95 प्रतिशत पानी और महज 5 प्रतिशत हिस्सा समस्यादायक होता है।’
कोलकाता से निकलने वाला गन्दा पानी चैनलों के मार्फत वेटलैंड्स में पहुँचता है। वेटलैंड्स में जाकर सूरज की अल्ट्रा वायलेटेड (यूवी) किरणों से गन्दे पानी में मौजूद तत्व टूटने लगता है। (विडम्बना देखिए कि कोलकाता का मध्यवर्ग पानी को पीने लायक बनाने के लिये यूवी ट्रीटमेंट पर पैसे खर्च करता है।)
शहर से निकलने वाले गन्दे पानी में जो तत्व होते हैं, वे बैक्टीरिया व सूरज की किरणों से मछलियों के लिये भोजन में तब्दील हो जाते हैं। वेटलैंड्स से इस पानी को चैनलों के जरिए तालाबों तक पहुँचाया जाता है जहाँ मछलीपालन किया जाता है।
हालांकि, सीवेज से पलने वाली मछलियों में हानिकारक तत्व होने का एक सन्देह उभरता है। लेकिन, घोष व अन्य विशेषज्ञों की राय है कि ये मछलियाँ बिल्कुल हानिकारक नहीं होतीं, क्योंकि कोलकाता से निकल वाले पानी में हेवी मेटल्स बहुत कम होते हैं।
मैं घोष से जर्जर इमारत के बारे में पूछता हूँ। वह मुस्करा देते हैं। घोष स्थानीय लोगों से कहते हैं कि वे इस इमारत को यों ही रहने दें क्योंकि यह महत्त्वपूर्ण धरोहर है। यह इमारत असल में ब्रिटिश के समय बनाए गए पारम्परिक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का हिस्सा है, जो अब काम नहीं करता।
उष्णकटिबन्धीय देशों में महंगे वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए हानिकारक बैक्टीरिया को बाहर निकाला जाता है। लेकिन, कोलकाता का यह वेटलैंड्स गन्दे पानी को महज 20 दिनों में साफ कर देता है। वैसे पारम्परिक तरीके से जल परिशोधन में शैवाल परेशानी का सबब बन सकता है। लेकिन, ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स से मछुआरे ही शैवाल हटा देते हैं और उनका इस्तेमाल मछलियों के भोजन के रूप में करते हैं। वेटलैंड्स में चूँकि प्रचूर मात्रा में पोषक तत्व होते हैं, इसलिये मछलियों का विकास तेजी से होता है।
घोष कहते हैं, ‘यहाँ मछलीपालन के लिये कुछ नहीं लगता है। आपको मछलियों के लिये भोजन की भी जरूरत नहीं पड़ती है।’
ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स यहाँ दो भूमिकाएँ निभाते हैं, हालांकि दोनों ही परस्पर विरोधी हैं। अव्वल तो यहाँ सीवेज का ट्रीटमेंट होता है और यह उर्वर एक्वाटिक मार्केट भी है। दूसरा इसका पानी मछलियों के काम तो आता ही है साथ ही इसका उपयोग धान व सब्जियों की सिंचाई के लिये भी किया जाता है। यानी इसके लिये अतिरिक्त खर्च भी नहीं करना पड़ता है। सम्भवतः यह भी एक वजह है कि कोलकाता देश के दूसरे शहरों की तुलना में सस्ता है।
ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स में हर साल करीब 10 हजार टन मछलियों का उत्पादन होता है और कोलकाता के बाजारों में बिकने वाली साग-सब्जियों का 40 से 50 प्रतिशत हिस्सा वेटलैंड्स गार्बेज फार्म से तैयार किया जाता है। कोलकाता में मिलने वाली सब्जियाँ सस्ती व ताजी होती हैं। सस्ती इसलिये कि उसे बाजार तक लाने में साइकिल का इस्तेमाल किया जाता है और ताजी इसलिये कि बाजार से खेतों की दूरी कम है।
घोष कहते हैं, ‘इस शहर को मैं इकोलॉजिकली सब्सिडाइज्ड शहर कहता हूँ। अगर आप इन आर्द्रभूमियों को खो देंगे, तो सब्सिडी खो देंगे। लेकिन, कोलकाता के लोग यह जानने के इच्छुक नहीं हैं कि आखिर कोलकाता इतना सस्ता शहर क्यों है।’
ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स में लम्बे समय से इस प्रक्रिया से गन्दे पानी का परिशोधन हो रहा है, लेकिन घोष से पहले आधिकारिक तौर पर यह किसी को नहीं पता था। हाँ, वहाँ के मछुआरे यह जानते थे।
बताया जाता है कि अंग्रेजी हुकूमत के वक्त एक बंगाली जिसने ग्लासगो से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी, ने एक चैनल बनाया ताकि कोलकाता के घरों से निकलने वाला गन्दा पानी इस वेटलैंड्स में जा सके।
बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में स्थानीय मछुआरे इस पानी का इस्तेमाल मत्स्यपालन के लिये किया करते थे। तालाबों में धान की खेती हुआ करती थी। फिलवक्त इस वेटलैंड्स से 30000 लोगों का रोजगार जुड़ा हुआ है।
घोष का शोध महत्त्वपूर्ण तो था, लेकिन उसे तुरन्त आधिकारिक मान्यता नहीं मिली। वह कहते हैं, ‘दस सालों तक मेरे शोध को चुनौती दी जाती रही, लेकिन यह इतना सीधा था कि चुनौती देने लायक इसमें कुछ था ही नहीं।’
रीयल एस्टेट का हमला
हम वेटलैंड्स के हरी घास से भरे किनारे से गुजर रहे हैं। काले रंग का पानी तेजी से चैनल से बह रहा है। पानी से शहरी ड्रेन जैसी बदबू निकल रही है। घोष कहते हैं, ‘बहुत ज्यादा तो नहीं है, क्या?’
सन 1980 में वेटलैंड्स के महत्त्व की शिनाख्त करने के बाद घोष ने अगला काम जो किया वह था इसके क्षेत्र का निर्धारण व मैप का निर्माण। इस मैप में कुछ तालाबों व वेटलैंड्स को शामिल किया गया। इसके एक हिस्से पर साल्टलेक शहर का निर्माण कर दिया गया।
घोष ने यह भाप लिया था कि मैं इसको लेकर भावुक हो रहा था। वह कहते हैं, ‘भावुक होने की कोई जरूरत नहीं। शहर को विकसित भी तो करना है। यह संगठित शहरीकरण है। अभी जो हो रहा है वह जैविक शहरीकरण नहीं है।’
जिस वक्त साल्टलेक शहर बना था, घोष ने तत्कालीन मुख्यमंत्री से ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स देखने की गुजारिश की थी। वह राज्य के नेताओं को दिखाना चाहते थे कि यहाँ फ्री फिल्ट्रेशन सिस्टम है। उन्होंने कहा, ‘मैंने तालाब से एक गिलास पानी निकाला और पी गया। मुख्यमंत्री चिन्तित थे। मैंने उनसे कहा कि मेरे पास लेवेटरी नहीं है। यह सही भी था क्योंकि पानी बिल्कुल साफ था।’
घोष ने कहा, ‘ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स अपने आप में अद्वितीय है, लेकिन लोग इसे भूल जाना चाहते हैं।’
उल्लेखनीय है कि इस वेटलैंड्स पर 90 के दशक में पश्चिम बंगाल सरकार वर्ल्ड ट्रेड सेंटर स्थापित करना चाहती थी। उस वक्त उन्होंने एक एनजीओ पब्लिक को सलाह दी कि वे इसका विरोध करें। मामला कलकत्ता हाईकोर्ट पहुँचा।
हाईकोर्ट के एक जज ने वेटलैंड्स का दौरा किया और इसके बाद वही फैसला सुनाया गया, जिसकी उम्मीद घोष कर रहे थे। कोर्ट ने कहा कि वेटलैंड्स को मत्स्यपालन व खेती के लिये संरक्षित किया जाना चाहिए। यह भारत की पहली कानूनी लड़ाई थी जिसमें पर्यावरण की जीत हुई।
इस फैसले के बाद घोष निश्चिन्त हो गए, ऐसा नहीं था। उन्हें भरोसा नहीं था कि पश्चिम बंगाल सरकार वेटलैंड्स की सुरक्षा कर पाएगी। इसलिये उन्होंने जूलॉजिस्ट जेन गुडाल व सर डेविड एटनब्रो को चुना। घोष को संयुक्त राष्ट्र ने ग्लोबल 500 अवार्ड दिया। इससे कम-से-कम राजनीतिज्ञों को उनके कामकाज का महत्त्व समझ में आ गया।
उन्होंने रामसर कन्वेंशन के पदाधिकारियों से सम्पर्क साधा। रामसर कन्वेंशन वेटलैंड्स को अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व के वेटलैंड्स का दर्जा देता है। घोष ने कहा कि उन्हें पता नहीं था कि इस वेटलैंड्स से बहुत सारे लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी हुई है।
इस वेटलैंड्स को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान कायम करने में लम्बा वक्त लग गया और आखिरकार वर्ष 2002 में रामसर कन्वेंशन ने इसे अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व के वेटलैंड्स का दर्जा दे दिया।
घोष ने पाया कि यह दर्जा मिल जाने के बावजूद इसे कोई कानूनी कवच नहीं मिल पाया। किसी भी वेटलैंड को अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व का दर्जा मिलने के बाद रामसर स्थानीय सरकार से माँग करता है कि छह महीने के भीतर वेटलैंड्स के प्रबन्धन की योजना तैयार करे। लेकिन, 14 वर्ष बीत चुकने के बावजूद अब तक इसके प्रबन्धन की कोई योजना नहीं बनाई गई है।
घोष ने कहा, ‘इससे भी बुरा यह है कि पश्चिम बंगाल सरकार 1992 के कलकत्ता हाईकोर्ट के फैसले को भी लागू करने की इच्छुक नहीं है। हर तरफ अवैध निर्माण चल रहा है। लोगों को कानून के लागू होने की जगह कानून के उल्लंघन पर ज्यादा विश्वास है। सरकार चुप क्यों है?’
घोष आगे कहते हैं, ‘सरकार समझती है कि रीयल एस्टेट चुनाव प्रचार का असल साधन है। वेटलैंड्स रीयल एस्टेट में तब्दील होने का इन्तजार कर रहा है।’
वेटलैंड्स की तरफ जाने वाली सड़क पर बैनर चमक रहा है जिसमें लिखा है कि यहाँ से 80 किलोमीटर दूर यूनेस्को विश्व धरोहर सुन्दरवन का मैंग्रोव जंगल है। लेकिन, ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स से जुड़ा कोई साइन बोर्ड नहीं है। असल में यह मानचित्र में ही नहीं है।
बादलों में आपका घर
कोलकाता के पूर्वी हिस्से के हाईवे से गुजरिए, तो राजारहाट में चमचमाते गगनचुम्बी अपार्टमेंट्स मिलेंगे। इनका निर्माण वेटलैंड्स से मिट्टी निकालकर किया गया है। एक बिलबोर्ड पर लिखा है– मौसम, बादलों में आपका घर।
सड़क से गुजरती कारों में कर्मचारी बैठे हैं। उनके शरीर में कोई जुंबिश नहीं। कारें स्कॉलरशिप टेस्ट व मॉक एग्जाम के पोस्टर जिस पर ‘सीखिए, प्रतिस्पर्धा करिए, सफल बनिए’ लिखा है, को तेजी से पार करते हुए गुजर रही हैं। इन्हीं पोस्टरों के बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की एक अपील भी है– बंगाल में आइए व विकास की सवारी कीजिए। राज्य में इस बार विधानसभा चुनाव है।
वर्ष 2011 के चुनाव में वाममोर्चा को हराकर ममता बनर्जी सत्ता में आई थीं। वह कोलकाता को विकसित करने को बेकरार हैं। उन्होंने यह भी घोषणा की है कि वह कोलकाता को भारत का लंदन बनाकर ही रहेंगी। एयरपोर्ट की तरफ जाने वाली सड़क के किनारे पॉलिमर का बना बिग बेन का रेप्लिका है।
इन्हीं अट्टालिकाओं से आगे निकलिए, तो एक टाउन व एक्वाटिका मिलता है। एक्वाटिका के प्रवेश द्वार पर रिंग से निकलते एक डॉल्फिन की तस्वीर है। इन सबके अलावा सड़क के किनारे छोटी दुकानें भी हैं। इन्हीं में से एक दुकान से मैं एक दम्पती कार्तिक चन्द्र मंडल व शिवानी मंडल के साथ नमक वाली चाय पीता हूँ।
कार्तिक मछुआरा थे, लेकिन अब शिक्षक हैं। उनकी पत्नी अब भी मछली को पैक करने का काम करती हैं। कार्तिक कहते हैं, ‘मत्स्यपालन पर सबसे बड़ा संकट विकास है।’ हमारे आसपास की बिल्डिंगों की ओर इशारा करते हुए कार्तिक व शिवानी कहते हैं, ‘यहाँ कभी धान के खेत हुआ करते थे। बाद में इसे वेटलैंड्स की श्रेणी से निकाल दिया गया, ताकि यहाँ मकान बनाया जा सके।’
ऐसा ही षड्यंत्र दूसरे वेटलैंड्स के साथ भी हो रहा है। अल्पकालिक लाभ के लिये दीर्घकालिक फायदे की अनदेखी की जा रही है। मछुआरा परिवार का आरोप है कि तालाबों तक पानी पहुँचने वाले चैनलों को जान-बूझकर ब्लॉक कर दिया जा रहा है ताकि तालाबों पर कब्जा किया जा सके। इससे उनका रोजगार खत्म हो रहा है।
उनके अनुसार, भू-माफिया डेवलपर के लिये काम कर रहे हैं। कुछ मामलों में तो अथॉरिटी खुद नियमों की अनदेखी कर रही है। ऐसा मौका विरले होता है, जब वेटलैंड्स को बचाने की मीडिया रिपोर्टिंग होती है। इसके पीछे तर्क होता है कि ‘एलीट क्लास’ आन्दोलन कर रहा है। कोलकाता के मेयर ने एक बार कहा था कि वेटलैंड्स का संरक्षण आम लोगों के लिये बेमानी है।
गरीबों का मसीहा कही जाने वाली ममता बनर्जी ने पिछले साल वेटलैंड्स के क्षेत्र में बने 25000 अवैध बिल्डिंगों के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए उन पर कार्रवाई नहीं करने की इच्छा जाहिर की थी।
सामान्यतः माना जाता है कि शिक्षा की बदौलत पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है, लेकिन यहाँ इसका उल्टा हो रहा है।
मैं सोचता हूँ कि क्या सचमुच शिक्षा की बदौलत वेटलैंड्स की रक्षा हो सकती है। इस पर घोष कहते हैं, ‘कोई भी स्कूल प्रबन्धन अपने छात्रों को वेटलैंड्स दिखाने नहीं लाता है और न ही किसी स्कूल में वेटलैंड्स को समझने के लिये कोई चैप्टर रखा गया है।’
शिक्षक कार्तिक मानते हैं कि आज के छात्र इन चीजों को समझने में रुचि नहीं ले रहे हैं। वह कहते हैं, ‘बच्चे न ही पढ़ें तो बेहतर है, क्योंकि जो पढ़े-लिखे हैं, वे ही वेटलैंड्स को बर्बाद कर रहे हैं।’
घोष ने अपना पूरा करियर वेटलैंड्स के लिये समर्पित कर दिया। उनकी पत्नी का निधन हो चुका है और एकमात्र पुत्र हांगकांग में नौकरी करता है। घोष कहते हैं, ‘रामसर कन्वेंशन से पहचान दिलाने के लिये मैंने बहुत मेहनत की, लेकिन कोई परिणाम नहीं मिला। यह सब करते हुए मैंने अपना जीवन खपा दिया।’
उनकी बातों में निराशा झलकती जरूर है, लेकिन वह वेटलैंड्स के लिये अब भी लड़ रहे हैं। अभी वह पर्यावरणीय इंजीनियर कम और मानवविज्ञानी ज्यादा हैं व लोगों को वेटलैंड्स के पास रहने वालों के जीवन-जीविका के बारे में अधिक बातें करते हैं। वह मानते हैं कि अगर वेटलैंड्स को हेरिटेज के बतौर देखा जाये, तो लोगों का नजरिया बदल सकता है।
एक आखिरी उम्मीद अब भी जिन्दा है। हेरिटेज का दर्जा दिलाने के अलावा मुक्त सीवेज व्यवस्था व जलीय मार्केट गार्डन व बाढ़ के शहर को बचाने में इसकी भूमिका अपरिहार्य है। इस मामले में चेन्नई का अनुभव बड़ी सीख देता है।
घोष मानते हैं कि चेन्नई की नकल कर कोलकाता अल्पकालिक लाभ के लिये वेटलैंड्स का दोहन कर भविष्य के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करेगा।
उनके अनुसार, अगर कोलकाता के राजनीतिज्ञ व नीति-निर्माताओं को भरोसे में लिया जा सके, तो वैचारिक रूप से धनी यह शहर दूसरे अर्बन पावर हाउस की राह पर चलने से बच जाएगा।
अनुवाद – उमेश कुमार राय