एक कहानी नकार की

Submitted by RuralWater on Mon, 02/22/2016 - 15:54
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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 13 फरवरी 2016

मोदी और जेटली ही अकेले नहीं थे जिन्होंने मनरेगा की ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों के लिये रोजगार सृजन को लेकर सन्देह जतलाया था। उन्होंने गाँवों से शहरों की तरफ मौसमी पलायन पर रोक लगाने और शारीरिक श्रम को उत्पादक बनाने के मद्देनजर इस योजना की क्षमता पर भी सवाल उठाए थे। कांग्रेस में भी ऐसे लोगों, जिनमें स्वयं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी शामिल थे, की खासी संख्या थी, जो इसी प्रकार से सोच रहे थे। इन लोगों ने योजना को खतरे की घंटी माना था जिससे अदक्ष खेत मजदूरों को ज्यादा मजदूरी दिये जाने से मुद्रास्फीति बढ़ जाने की शंका थी। उनका यह भी मानना था कि असली जरूरतमन्दों तक इस योजना के लाभ नहीं पहुँच पाएँगे। क्या महात्मा गाँधी नेशनल रूरल इम्पलॉयमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आर्थिक नीतियों की नाकामी की ‘जीती-जागती’ मिसाल है, जिसने अगस्त, 1947 में देश के आजाद होने बाद करीब 14 साल छोड़कर बाकी के समय में देश पर राज किया है? या यह वही मनरेगा, रोजगार सृजन करने के लिये कोई एक दशक पूर्व आरम्भ की गई विश्व की सबसे बड़ी और सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी योजना, है जो उन चुनिन्दा कार्यक्रमों में शुमार है जिनसे न केवल गरीबी-उन्मूलन करने में सफलता मिली है बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में वंचितों का सशक्तिकरण भी हो सका है।

अच्छी खबर यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जो एक साल पहले ही इस योजना का लोकसभा में उपहास उड़ा रहे थे, अपने पूर्व में कहे गए शब्दों से फिरते दिखलाई पड़ रहे हैं। उनके वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि केन्द्र सरकार इस कार्यक्रम के लिये धन में इस समय कटौती नहीं करेगी जब लगातार दो वर्षों से वर्षा की कमी से जूझते देश के बड़े ग्रामीण हिस्से खासी परेशानियाँ झेलनी पड़ रही हैं। यकीनन 29 फरवरी को आगामी वर्ष के लिये पेश किये जाने वाले बजट प्रस्तावों में वह इस योजना को धन के समुचित आवंटन की घोषणा करेंगे।

मोदी और जेटली ही अकेले नहीं थे जिन्होंने मनरेगा की ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों के लिये रोजगार सृजन को लेकर सन्देह जतलाया था। उन्होंने गाँवों से शहरों की तरफ मौसमी पलायन पर रोक लगाने और शारीरिक श्रम को उत्पादक बनाने के मद्देनजर इस योजना की क्षमता पर भी सवाल उठाए थे।

कांग्रेस में भी ऐसे लोगों, जिनमें स्वयं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी शामिल थे, की खासी संख्या थी, जो इसी प्रकार से सोच रहे थे। इन लोगों ने योजना को खतरे की घंटी माना था जिससे अदक्ष खेत मजदूरों को ज्यादा मजदूरी दिये जाने से मुद्रास्फीति बढ़ जाने की शंका थी। उनका यह भी मानना था कि असली जरूरतमन्दों तक इस योजना के लाभ नहीं पहुँच पाएँगे बल्कि भ्रष्ट ठेकेदार इन लाभों और पैसे को खुर्द-बुर्द कर देंगे। कुछ हद ये आशंकाएँ पूरी तरह से बेवजह भी नहीं हैं।

मनरेगा को लेकर नकारात्मक विचार रखने वालों का तर्क था कि ग्रामीण इलाकों में उन सड़कों का निर्माण नहीं किये जाने का कोई फायदा नहीं होगा जो अगले मानसून में बह जाएँ। उनका कहना था कि किसी समय जिन नीतियों की वकालत ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स (1883-1946) ने की थी, उस समय से विश्व कहीं आगे निकल आया है।

कीन्स ने तर्क दिया था कि मंदी (या आर्थिक शिथिलता) के दौर से बाहर निकलने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि सरकार हस्तक्षेपकारी भूमिका निभाते हुए ढाँचागत क्षेत्र में व्यय बढ़ाकर अर्थव्यवस्था में जान फूँके। उन्होंने तो यहाँ तक सुझाया था कि मन्दी के दौर में सरकार को लोगों के लिये रोजगार के अवसर बढ़ाने चाहिए। भले ही उन्हें गढ्डा खोदने और फिर इसे भरने के काम में लगाया जाये।

प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कीन्स द्वारा सत्तर दशक पूर्व दिये गए तर्क से रंच मात्र भी सहमत नहीं दिखते। लेकिन मोदी ने इस योजना की खिल्ली उड़ाते हुए राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की। उन्होंने कहा, ‘क्या आप यही मानते हैं कि मैं इस योजना को समाप्त कर दूँगा। मेरा राजनीतिक विवेक मुझे इस बात की इजाजत नहीं देता। मनरेगा साठ वर्षों में गरीबी का उन्मूलन में आपकी नाकामी की एक जिन्दा मिसाल है। मैं खुशी-खुशी इसे जारी रखूँगा।’

दरअसल, मोदी कांग्रेस में अपने विरोधियों को ही सम्बोधित कर रहे थे। हालांकि उनके कथन में छिपे व्यंग्य का पता नहीं चलता। न ही उनके हाव-भाव ही बयाँ होते। पाठकों के लिये बेहतर हो कि वे चार मार्च, 2015 को संसद के निचले सदन में उनके सम्बोधन का अवलोकन कर लें।

यह यूट्यूब पर भी मौजूद है। नवम्बर, 2015 में बिहार विधानसभा के चुनावी नतीजे आने के पश्चात मोदी और जेटली ने सम्भवत: महसूस कर लिया कि भले ही मनरेगा के कार्यान्वयन में कुछ कमियाँ और अपर्याप्तता हैं (या रही हों) तो भी यह कार्यक्रम गाँवों में गरीबों की आय में बढ़ोत्तरी का एक कारगर उपाय है।

भाजपा और कांग्रेस-देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ जो देश के आधे से ज्यादा मतदाताओं पर असर रखती हैं-की आर्थिक नीतियाँ खासतौर पर असमान नहीं रही हैं। जैसा कि जेएनयू के प्रोफेसर हिमांशु, जिन्होंने इस योजना की प्रगति पर बराबर नजर रखी है, के अनुसार कांग्रेस-जो इस बाबत कानून को बनाने का श्रेय लेती है-भी 2010 में इस कार्यक्रम के कारगर नहीं रह पाने के लिये जिम्मेदार है। उन्होंने कहा कि न केवल मनरेगा के लिये धन में कटौती की गई बल्कि कार्यक्रम की प्रकृति को भी बदलने का प्रयास भी किया गया। इसे माँग-आधारित से आपूर्ति - आधारित बनाने की कोशिश की गई।

नतीजन, कुल रोजगार सृजन मे तेजी से गिरावट देखने को मिली। रोजगार का स्तर जो 2009-10 में 2.84 बिलियन श्रम दिवस था, 2014-15 में गिरकर 1.66 बिलियन श्रम दिवस रह गया। दिनों के लिहाज से रोजगार का औसत प्रति परिवार 2009-10 में 54 दिन था, जो 2014-15 में कम होकर चालीस रह गया। जहाँ 2009-10 में सात लाख परिवारों को सौ दिन का रोजगार मिला वहीं यह आँकड़ा 2014-15 में कम होकर ढाई लाख मिलियन रह गया।

भाजपा सरकार अभी हाल तक भुगतान में विलंब करने का वही तरीका अपनाए हुए थी जैसा कि यूपीए सरकार ने अपनाया था। मनरेगा पर कुल परिव्यय 2006-07 के 8,823 करोड़ रुपए से बढ़कर 2010-11 में 39,377 करोड़ रुपए के स्तर पर जा पहुँचा था। लेकिन उसके बाद इसमें तेजी से गिरावट आई।

वर्ष 2014-15 में यह 36,224 करोड़ रुपए दर्ज किया गया। मौजूदा वर्ष के लिये यह आँकड़ा मामूली कम होकर 33,000 करोड़ रुपए से थोड़ा सा ज्यादा है लेकिन वास्तविक व्यय कम ही है क्योंकि इसमें चार हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का अधिशेष भी शामिल है, जो वास्तविक मजदूरी में वृद्धि का द्योतक नहीं है।

प्रो. हिमांशु के मुताबिक, मजदूरी में बढ़वार का समायोजन करने पर हम पाते हैं कि मनरेगा पर व्यय बीते पाँच वर्षों में आधा रह गया है जबकि प्रशासनिक व्यय, जो पाँच प्रतिशत से कम थे, बढ़कर 9 प्रतिशत हो गए हैं। बहरहाल, हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि सरकारी पक्ष, जो यह दावा करता रहा है कि उसका दिल किसानों के लिये ही धड़कता है, ने महसूस कर लिया है कि मनरेगा कार्यक्रम में कोई काट-छांट उसके लिये राजनीतिक हाराकिरी साबित होगा।

सहज नहीं बने हालात


1. दिनों के लिहाज से रोजगार का औसत प्रति परिवार 2009-10 में 54 दिन था, जो 2014-15 में कम होकर चालीस दिन रह गया
2. 2009-10 में सात लाख परिवारों को सौ दिन का रोजगार मिला वहीं यह आँकड़ा 2014-15 में कम होकर ढाई लाख मिलियन रह गया
3. रोजगार का स्तर जो 2009-10 में 2.84 बिलियन श्रम दिवस था, 2014-15 में गिरकर 1.66 बिलियन श्रम दिवस रह गया
4. मनरेगा पर कुल परिव्यय 2006-07 के 8,823 करोड़ रुपए से बढ़कर 2010-11 में 39,377 करोड़ रुपए के स्तर पर जा पहुँचा था

5. लेकिन उसके बाद इसमें तेजी से गिरावट आई। वर्ष 2014-15 में यह 36,224 करोड़ रुपए दर्ज किया गया। मौजूदा वर्ष के लिये यह आँकड़ा मामूली कम होकर 33,000 करोड़ रुपए से थोड़ा सा ज्यादा है।

लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।