मनरेगा में बदलाव की कहानी

Submitted by RuralWater on Tue, 03/01/2016 - 15:12
Source
राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 13 फरवरी 2016

मनरेगा जिन्दा रखना है : नौरति



.नौरति बाई मनरेगा के लिये संघर्ष में अग्रणी रही थीं। वह सूचना का अधिकार, काम के अधिकार और अन्य तमाम जनान्दोलनों का हिस्सा भी रहीं। उन्होंने 1983 में न्यूनतम मजदूरी के लिये सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया था। कम्प्यूटर सीखा। अब दूसरों को पढ़ाती हैं। वह हरमदा पंचायत की पूर्व सरपंच हैं।

नौरति कहती हैं कि मनरेगा के इन दस सालों में लोगों के जीवन में खासा सुधार हुआ है। इसके कारण अब महिलाओं ने बैंक खाते खोल लिये हैं। जो बैंकों की ओर पहले जाती तक नहीं थीं, वे पैसा अर्जित कर रही हैं, जिस पर उनका अपना अधिकार होता है। पहली दफा हुआ है कि वे बचत करके बैंकों में पैसा जमा कर रही हैं। अब वे ऋण ले सकती हैं। गाय-बैलगाड़ी या जेवर खरीद सकती हैं। मनरेगा ने महिलाओं को अपने सपने पूरे करने का अवसर मुहैया करा दिया है। पहले वे पैसों के लिये परिवार या पति पर निर्भर रहती थीं। एक-एक पैसे के लिये सोचती थीं। अब उनका अपना खाता है। जो कुछ भी चाहती हैं, खरीद सकती हैं। अपने कमाए पैसे पर उन्हें गर्व है। इस बात का भी गर्व है कि बैंक में उनका अपना पैसा जमा है।

मनरेगा के कारण उनके परिवार का जीवन सुरक्षित हो गया है। वे बच्चों की शिक्षा और चिकित्सा पर पैसा खर्च कर पा रही हैं। पहले पतियों के पास पैसे होते थे तो वे इसे शराब जैसे व्यसनों पर उड़ा देते थे। ऐसे में क्या हम मनरेगा को बन्द कर दें? सच है कि आज मनरेगा के साथ अनेक समस्याएँ हैं। अनेक अनियमितताएँ हैं। लेकिन सच यह भी है कि मनरेगा महिलाओं की आत्मा है। गरीबों का जीवन है। मनरेगा शरीर में धमनी की भाँति है जो गरीबों को जिन्दा रखती है। नौरति कहती हैं कि वह अभी भी मनरेगा स्थल पर जाती हैं, लोगों से बतियाती हैं ताकि जान सकें कि क्या हो रहा है।

वह खुद भी कोई काम करने लग पड़ती हैं, तो लोग यह कह कर उन्हें रोकने की कोशिश करते हैं कि वह सरपंच रह चुकी हैं तो यह काम करने की क्या जरूरत है। जवाब में वह कहती हैं, ‘बीते साल मैंने ढाई सप्ताह तक काम किया था। मैं उन्हें बताती हूँ कि सरपंच को भी भोजन करना होता है। लेकिन मुझे पैसे की भूख नहीं है।’ नौरति चाहती हैं कि मनरेगा को और भी मजबूत बनाया जाना चाहिए। सरकार इस योजना के लिये बजट में कमी लाने के फेर में हैं जबकि इसे बढ़ाया जाना चाहिए।

सुधार का बीड़ा उठाया


मो. अयूब, ग्राम पंचायत चाहतपुर, ब्लॉक पलासी, जिला अररिया निरक्षर हैं। अपने इकलौते पुत्र बेचन को भी पढ़ा-लिखा नहीं सके। बचपन से ही बेचन को काम-धंधा करना पड़ा। लेकिन पढ़ा-लिखा न होने के बावजूद मनरेगा के तहत प्राप्त अपने हक-हकूक से वह अंजान नहीं रहे। उन्होंने बड़ी संख्या में कामगारों, जिनमें ज्यादातर महिलाएँ थीं, को एकजुट करके एक समूह बनाया। इस समूह ने निहित स्वार्थी तत्वों का जमकर मुकाबला किया। उन्हें जान से मार डालने की धमकियाँ मिलीं। ऐसी धमकी भी मिलीं कि उन्हें जेल में ठुँसवा दिया जाएगा। लेकिन ये तमाम बातें उन्हें मनरेगा के तहत विभिन्न योजनाओं में पसरीं विभिन्न अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने से न रोक सकीं। उनके प्रयासों के चलते हाल में वृद्धावस्था पेंशन योजना के तहत भुगतान के तरीके में सुधार हुआ है। उन्हें और उनकी पत्नी, दोनों को 2015-16 में सौ दिन का काम मिला। वह जुटे हैं, यह सुनिश्चित करने को कि उनके गाँव में हर पात्र व्यक्ति को काम मिल सके।

1. क्या मनरेगा ने भला किया है? इसका लोगों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है?
यह एक अच्छा उपाय है। इसने हमें ‘रोजी-रोटी’ दी है। मेरे आसपास के तमाम लोगों को इससे बेहद भला हुआ है। कुछ तो पट्टे पर भूमि लेकर खेती तक करने लगे हैं। मुझे सौ कार्य-दिवस का काम मिला। मैं अपने समूह की महिला कामगारों को काम दिलाने में भी सफल हुआ हूँ।

2. मनरेगा के मौजूदा रंग-ढंग को लेकर आप क्या सोचते हैं?
कार्यान्वयन में खासी समस्याएँ हैं। मजदूरी समय पर नहीं दी जाती। स्टाफ भ्रष्ट है। काम के लिये हमें खासा संघर्ष करना पड़ता है। मेरे ब्लॉक में मनरेगा कार्य अभी भी ठेके पर कराया जाता है।

3. भविष्य में मनरेगा से कितना काम चाहते हैं?
कम-से-कम 150 कार्यदिवस जितना काम तो मिलना ही चाहिए।

भ्रष्टाचार के खिलाफ


ग्राम पंचायत आमगाछी, ब्लॉक सिकटी, जिला अररिया की राधा देवी अकेली वार्ड सदस्य हैं, जो मनरेगा के तहत सिर पर मिट्टी ढोकर अपनी मजदूरी कमाती हैं। अपने कार्य के प्रति निष्ठा से उन्हें हर कहीं सम्मान मिलता है। उनके पति दीपायन पासवान भी मनरेगा कामगार हैं। पति-पत्नी, दोनों निरक्षर हैं। लेकिन मनरेगा के बारे में उनकी जानकारी हैरत में डाल देती है। उन्होंने करीब 130 कामगारों का एक समूह बनाया हुआ है। राधा देवी की भाँति ही इस समूह में अधिकांशत: भूमिहीन दलित हैं। भ्रष्टाचार से लड़कर उन्होंने मनरेगा के तहत काम हासिल किया है।

हाल में मनरेगा से जुड़ने वाले एक पंचायत रोजगार सेवक ने मजदूरी का भुगतान करने की एवज में उनसे पैसा माँगा था। इस समूह ने एक भी पैसा देने से मना कर दिया। इन लोगों ने आवाज उठाई। पंचायत रोजगार सेवक का दूसरी पंचायत में स्थानान्तरण कर दिया गया। लेकिन उससे पहले इन लोगों ने उससे माफी मँगवाई। यह भी शपथ ली कि वह दुबारा ऐसा नहीं करेगा। वह बताती हैं कि मनरेगा हमारे लिये वरदान सरीखी है। हमारे समूह के अनेक लोगों को सौ दिन का काम मिला है। लोगों ने मुझे चुना क्योंकि हमने काम पाने संघर्ष करके काम हासिल किया। कामगारों ने महसूस किया कि हमारे प्रतिनिधि हमारे बीच से ही होने चाहिए। हम कई बार मिल-बैठकर विचार करते हैं कि किस तरह से इस योजना ने हमें लाभान्वित किया है। इसने हमें ‘जमींदारों’ से निजात दिला दी है।

ओडिशा : उमा भोई अब गाँव में ही रहेगी


ओडिशा के जिला बलांगिर के ब्लॉक जीपी-मलिसिरा के गाँव घंटाबहली में रह रहे बेहद गरीब अनुसूचित परिवार से ताल्लुक रखती हैं बयालीस वर्षीया उमा भोई पत्नी ईर भोई। उनके परिवार में पाँच परिजन हैं-दो बेटे, एक बेटी और पति-पत्नी। वह अपने पति के साथ मजदूर के रूप में खेत पर काम करती थीं। उनके पास डेढ़ एकड़ जमीन भी है। लेकिन यह इलाका हमेशा बाढ़ से घिरा रहता है। इसलिये उनके पति को पास के शहर में मजदूरी करने के लिये जाना पड़ता था। इन हालात में परिवार का गुजर-बसर करने में उन्हें खासी समस्याओं का सामना करना पड़ता था। बीते पाँच वर्ष से वह मनरेगा कार्यक्रम से जुड़ी हैं। बीते साल उन्होंने मनरेगा में 150 दिन पूरे किये। इस साल (2015-16) में वह अब तक 106 दिन पूरे कर चुकी हैं और यह सिलसिला जारी है। इस साल वह अभी तक मनरेगा से 21,265 रुपए कमा चुकी हैं।

बीते साल उन्होंने मनरेगा से मिली मजदूरी से चार बकरियाँ खरीदी थीं। आज बकरियों की संख्या बारह हो गई है। अपने गाँव की पल्ली सभा में उन्हें बकरियों का एक बाड़ा रखने का अधिकार मिल गया है। इस साल वह अपना मकान बनवाने की सोच रही हैं। उनके बड़े पुत्र ने बारह कक्षा तक की पढ़ाई पूरी कर ली है। दूसरा बेटा अभी दसवीं कक्षा में पढ़ रहा है। अब यह परिवार खुशनुमा माहौल में गाँव में रह रहा है। वह कहती हैं कि वह कभी भी गाँव से बाहर जाने के बारे में नहीं सोचेंगी। शुक्रिया अदा करती हैं मनरेगा का।

महाराष्ट्र : हुआ स्त्री सशक्तीकरण


महाराष्ट्र की राधाबाई चंद्रकांत कुंवर। एक गाँव की सरपंच। आत्मविास से लबरेज राधाबाई पहले एक मामूली मजदूर थीं। आज हैं चुनी हुई जनप्रतिनिधि। वह मनरेगा से दिहाड़ी मजदूरों खासकर महिला मजदूरों की जिन्दगी में आये बदलावों की तस्वीर हैं। पेठ ब्लॉक के एक सुदूर गाँव आमलोन की रहने वाली राधाबाई और उनके पति चंद्रकांत ने गाँव में इस योजना के कार्यान्वयन के लिये जोरदार पैरवी की थी। कुंवर परिवार के पास दो एकड़ जमीन है जिसमें सिंचाई का कोई साधन नहीं है। जीवन मुश्किलों से भरा हो गया था।

बड़े सदस्यों और बच्चों को छोड़कर परिवार के सभी सदस्यों के निर्माण कार्य में मजदूरी करने के लिये निकटवर्ती ओजर शहर जाना पड़ता था। लेकिन घर, परिवार और अपने पशुओं से दूर रहने के कारण सभी परिजन खुश नहीं थे। चंद्रकांत ने इस योजना को अपने गाँव में लागू करवाने के लिये प्रयास शुरू कर दिये। योजना के तहत पहले पहल गाँव में एक सड़क का निर्माण कराया गया। गाँव के 72 लोगों को पन्द्रह दिनों का काम मिला। 150 रुपए की दिहाड़ी मिली। उसके बाद गाँव वालों को कुओं, चेकडैम आदि में काम मिलने लगा। जब ग्राम पंचायत के चुनाव हुए तो सरपंच का पद महिला प्रत्याशी के लिये आरक्षित था। ग्रामीण महिलाओं ने सोचा कि राधाबाई इस पद के लिये सर्वाधिक उपयुक्त रहेंगी। वे चाहती थीं कि उनकी सरपंच ऐसी होनी चाहिए जो मनरेगा को अच्छे से लागू करवा सके।

बहरहाल, राधाबाई सरपंच चुन ली गई। उन्होंने उसके बाद महिलाओं को स्व-सहायता समूह बनाने को प्रेरित किया। मनरेगा में स्थानीय लोगों को रोजगार मुहैया कराया जाता है। स्थानीय लोगों को रोजगार की तलाश में अपने गाँव से बाहर नहीं जाना पड़ता। अब राधाबाई वनीकरण, पौधरोपण, बागवानी जैसे कार्यों में भी रोजगार के अवसर सृजन करानी चाहती हैं। वह एक सच्चे लोकतांत्रिक नेता की भाँति अपने दायित्वों का निर्वाह कर रही हैं।

झारखण्ड : रोशनी को मिली नई रोशनी


झारखण्ड में मनरेगा से लोगों के जीवन में आये बदलाव की कहानियाँ सुनी-सुनाई जा रही हैं। ऐसी ही एक कहानी रोशनी गुड़िया की कहानी है। खूंटी जिला के सुदूर ब्लॉक टोरपा की पंचायत हुसिर के गाँव गोपला, पकरटोली की रहने वाली हैं-रोशनी गुड़िया। एक समय था जब ग्रामीणों के लिये तमाम योजनाएँ कार्यान्वित कराई जाती थीं। वह इनमें काम करती थीं, लेकिन उन्हें पता नहीं था कि मजदूरी कितनी है। कौन भुगतान कर रहा है और कैसे कर रहा है। उन्हें काम नहीं मिला तो वह 2012 में ऑफ सीजन के दौरान पति और बच्चों के साथ मुम्बई जा पहुँचीं। पूछने पर कि मुम्बई क्यों गई? बताती हैं कि कम-से-कम वहाँ काम तो मिलता था, भरपेट खाना हो जाता है। यहाँ तो काम भी सही से नहीं मिलता था। 2014 में वह अपने पति और बच्चों के साथ गाँव लौट आई।

दरअसल, उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। सो, उन्हें लौटना पड़ा। यहाँ लौटकर वह गाँव में स्वयं-सहायता समूह में शामिल हो गई। एक एनजीओ प्रधान से प्रशिक्षण लेकर खेतिहर काम करने लगीं। लेकिन इससे उनके परिवार का अच्छे से गुजर-बसर नहीं हो पा रहा था। पास के गाँवों में वह अपने पति के साथ मिलकर दिहाड़ी पर काम करने लगीं। लेकिन बीते साल हालात बदलने लगे। उन्हें प्रधान की सहायता से मनरेगा में काम मिल गया। इसके बाद उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता मिली। पकरटोली के ग्रामीणों की सहायता से उन्होंने गाँव में मनरेगा लागू किये जाने की योजना बनाने में हाथ बँटाया। वह बताती हैं, ‘हम सब योजना बनाए। फिर रोजगार सेविका को आवेदन लिखकर दिये कि हमें काम चाहिए। पहले तो रोजगार सेविका रिसीविंग नहीं दे रही थीं। फिर गाँव वालों के दबाव देने पर उसने रिसीविंग दिया। मस्टर रॉल निकला और हमें काम मिला।’

इस प्रकार, उन्हें और दूसरे ग्रामीणों को मनरेगा के तहत काम करने का अवसर मिल सका। डोभास खोदने, भूमि का समतलीकरण और बाँध बनाने जैसे तमाम कार्यों में उन्हें काम मिला। अब तक वह अपने पति के साथ मिलकर इस योजना के तहत करीबन 14 हजार रुपए कमा चुकी हैं। वह याद करते हुए बताती हैं कि मनरेगा के तहत उन्होंने करीब 90 दिन तक काम किया था। इससे उनका सामाजिक विकास होने के साथ ही जीवन में भी सुधार हुआ है। अब वह मुम्बई लौटने के बारे में सोचती तक नहीं हैं। वह बताती हैं कि बॉम्बे की फैक्टरी में बच्चे को देखने के लिये कोई रहता नहीं था। बच्चे को साथ लेके भी हम कहीं काम करने नहीं जा सकते थे।

मनरेगा के काम के दौरान कम-से-कम बच्चों का देखभाल करने के लिये कोई तो होता है। बच्चा मेरे सामने होता है। आज उनकी वित्तीय स्थिति इतनी अच्छी हो गई है कि अभी हाल में उन्होंने एक मोबाइल खरीदा है। बच्चों की पढ़ाई पर भी खर्च किया है। परिवार को अच्छा भोजन भी मिलने लगा है। पहले मात्र चावल-दाल मिल पाता था। अब चपाती और हरी सब्जियाँ भी मिलने लगी हैं। रोशनी अभी मनरेगा के तहत बनने वाले एक तालाब में काम कर रही हैं। बताती हैं, ‘पहले घर में पैसे कौड़ी को लेकर खूब लड़ाई होती थी। आजकल वो भी कम हो गया है। घर में कुछ जरूरी काम होता है, उसका निर्णय भी मैं ही लेती हूँ। यहाँ तक कि मेरे पति जो भी करते हैं, वो पैसे मेरे हाथ में थमा देते हैं। मैं ही उसका इस्तेमाल कहाँ होना चाहिए, तय करती हूँ।’ यह देखकर हैरत ही होती है कि किस प्रकार रोशनी का सशक्तीकरण हुआ है। वह आज खुश हैं। अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर सफल नागरिक बनाना चाहती हैं।

श्यामा के बदले हालात


ऐसी ही कहानी श्यामा की है। भारत के बेहद वंचित और संघर्ष से घिरे जिलों में शुमार किये जाने वाले लातेहर के एक गाँव सतवाडीह की आदिवासी महिला श्यामा मनरेगा योजना आरम्भ होने के बाद से ही ग्रामीण कामगारों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के काम में जुटी हैं। अपने स्वयंसेवकों के साथ मिलकर उन्होंने मनरेगा ‘सहायता केंद्र’ में वह बेखौफ होकर कामगारों को भ्रष्टाचार और निजी ठेकेदारों के शोषण से बचा रही हैं। जब झारखण्ड सरकार ने गाँवों में कुएँ बनाने का काम शुरू किया तो उन्होंने सुनिश्चित किया कि गाँव में बनने वाले सभी कुएँ समय से बन जाएँ। बाद में उन्होंने मध्य प्रदेश में ‘बेयरफुट इंजीनियर’ का प्रशिक्षण लिया। श्यामा कामगार महिलाओं में खासी लोकप्रिय हैं। कुछ महीने पहले उन्होंने ग्राम पंचायत का चुनाव भी लड़ा। खासे बड़े अन्तर से जीत भी हासिल की। सफलता मिलने के पश्चात सुस्ताने के बजाय वह पहले से कहीं ज्यादा सक्रिय हो गई हैं।