खामियाँ कई : कानून सही
यह सच है कि मनरेगा के भ्रष्टाचार ने अन्तिम जन को भी भ्रष्ट बनाया है। मनरेगा, अपने मन्तव्य में पूरी तौर पर सफल नहीं साबित हुआ। मनरेगा के तहत बनी जलसंरचनायें, महज इसलिए कारगर नहीं हुई, चूँकि इनके डिज़ाइन तथा जगह के चुनाव में बड़ी चूक हुई। काम करते वक्त एम.बी यानी ‘मेजरमेन्ट बुक’ का ज्यादा ख्याल रखा गया; वास्तविक प्रभाव के नाप की चिन्ता कम की गई। मनरेगा के तहत योजनाओं का चुनाव और स्वरूप तय करते वक्त राज्य सरकारों ने न तो लाभार्थियों से राय ली और न ही उन्हें पूर्ण जानकारी देने की कोई गम्भीर कोशिश की।
मनरेगा में साफ-साफ लिखा गया है कि इसके तहत श्रमिकों का चुनाव करना ग्राम प्रधान का अधिकार ज़रूर है, किन्तु काम कहाँ होगा और कौन सा होगा; ये तय करना पूरी तरह ग्रामसभा का अधिकार होगा। भारत सरकार का एक विज्ञापन बार-बार लगातार यह बताता रहा। एक तरह से यह कानून गाँव की ग्राम-सभा को अपने ग्राम योजना खुद बनाने और खुद ही उसे मूर्त रूप देने का हक देता है। यह कानून, सामाजिक प्रभाव का आकलन कर योजना में बदलाव का अधिकार भी ग्राम-सभा के हाथ में देता है। यह और बात है कि ज्यादातर ग्राम-सभाओं ने इस विज्ञापन को कभी गौर से सुना ही नहीं। उन्होंने अपनी यह हकदारी न कभी ठीक से जानी और न ही निभाई। इसमें दोष, व्यवस्था का भी है और लाभार्थियों का भी। इसमें कानून का क्या दोष? यदि कानून दोषी नहीं, तो माननीय प्रधानमन्त्री जी ने इसका और इसे बनाने वाली कांग्रेस सरकार का मज़ाक क्यों उड़ाया?
अच्छी मंशा: व्यापक प्रभाव
ताज्जुब है कि उक्त तमाम खामियों के बावजूद, प्रधानमन्त्री जी यह कैसे भूल गये कि महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून ग्रामीणों को साल में 100 दिन रोजगार की गारण्टी देता है। इस कानून को अन्तिम रूप देते हुए संप्रग सरकार के तत्कालीन ग्रामीण विकास मन्त्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने सोचा था कि यह कानून रोजगार देने से ज्यादा, प्रत्येक गाँव में ऐसे स्थानीय बुनियादी ढाँचे का विकास करेगा, जिससे कालान्तर में गाँवों को रोजगार के लिए न शहरों की ओर ताकने की जरूरत रहेगी और न ही किसी रोजगार गारण्टी कानून की। यही इस कानून का असल मन्तव्य था। दुर्भाग्य से सरकार ने इसे रोजगार गारण्टी कानून के रूप में प्रचारित किया और ग्रामीणों ने भी इसका मकसद इतना भर ही समझा; बावजूद इसके इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि मनरेगा अपना सकारात्मक सामाजिक-आर्थिक प्रभाव सामाजिक प्रभाव दिखाने में कामयाब रहा है। इस कानून ने अन्तिम जन के पक्ष में प्रभाव दिखाने शुरु कर दिए हैं। गाँवों का समाज और अन्तिम जन का आकाश बदलने लगा है। भूदान आन्दोलन जो नहीं कर सका, वह बिना भूदान ही मनरेगा कर दिखायेगा। यह मनरेगा का सच है और आने वाले समय का भी।
पूछिए कैसे?
अपनी शर्तों पर श्रम का सूत्रधार
सम्भवतः महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम के रचनाकारों ने भी न सोचा होगा कि यह अधिनियम एक दिन सामाजिक वर्ग क्रान्ति का सूत्रधार बन जायेगा। एक एक्ट किसी की हाथ की लकीरें बदल सकता है। पूरे सामाजिक विन्यास को उलट सकता है। यह सच... सोच से परे हो सकता है। किसने सोचा था कि मनरेगा के आने से शहरों में मजदूरी बढ़ेगी और मनरेगा में मिली रोजगार की गारण्टी, खेतों में मजदूर मिलने की गारण्टी छीन लेगी? खेतों में मजदूर नहीं मिलने का मतलब यह कतई नहीं कि भारत के खेत अब बिना बोये-काटे रह जायेंगे। इसका मतलब यह है कि जो श्रमिक वर्ग अब तक मजदूर बनकर खेतों में काम करता था, वह अब हिस्सेदार व किरायेदार बनकर खेती करना चाहता है। मनरेगा में भले ही वह अभी अपनी शर्तों पर काम न पाता हो, लेकिन खेत मालिक की शर्तों पर काम करने की बजाय, वह अब अपनी शर्तों पर और अपनी मनमाफिक खेती करना चाहता है। इसमें वह सफल भी हो रहा है क्योंकि भूमिधरों के पास मज़दूरों का कोई विकल्प नहीं है। वाया मनरेगा, श्रमिक वर्ग नेे अपने श्रम के महत्त्व को पहचान लिया है। वह चाहे तो अब कभी खाली नहीं है। गाँव में काम न हो, तो अब शहर में लोग उसकी जुहार करने बैठे हैं। मनरेगा के तहत होने वाले कार्यों में ठेका और मशीनों के उपयोग की मनाही के प्रावधान ने उसके लिए काम के अवसर बढ़ा दिए हैं।
मनरेगा के बदलाव रचनात्मक व प्रेरक
मनरेगा के बदलाव भिन्न हैं। कई मायने में रचनात्मक और प्रेरित करने वाले। मनरेगा जातियों में भेद नहीं करता। वह हर श्रमनिष्ठ को काम की गारण्टी देता है। श्रमेव जयते! अन्तिम जन को कई और गारण्टी देने आई भिन्न सरकारी योजनायें जनजागृति के अभाव में पहले नाकामयाब रहीं। दिलचस्प है कि जेब मे मजदूरी के पैसे की गारण्टी से जगी जिज्ञासा और आये विश्वास ने उन योजनाओं की कामयाबी की उम्मीद भी बढ़ा दी है। अब निश्चित आय की गारण्टी के बूते वे स्वरोजगार की योजनाओं मे दिलचस्पी लेने लगे हैं। मनरेगा जागरुकता के नाम पर सामाजिक संगठनों के साथ हुए सम्पर्क ने अन्तिम जन को बता दिया है कि रास्ते और भी रोने के सिवा.....। लौटने लगी है सपने देखने की आजादी। ग्रामीण स्कूलों में बालिकाओं के प्रवेश की संख्या भी बढ़ने लगी है और उनके अव्वल आने की सुनहरी लकीरें भी। कभी भूमिधरों के शिकार रहे अन्तिम जन के आगे अब निहोरे करते हाथ हैं। “मजदूर नहीं मिलेगा’’ का भय अब भूमिधरों को दंडवत मुद्रा में ले आया है। मालिकों को अब पता चली है श्रम की कीमत। हालाँकि यह बदलाव अभी ऊँट के मुँह में जीरे जैसा ही है। लेकिन इसकी गति इतनी तेज है कि यदि मनरेगा थोड़ा और ईमानदारी और समझदारी से लागू हो सका, तो जल्द ही मनरेगा गाँवों मे सामाजिक विन्यास की नई चुनौतियों व विकास का पर्याय बन जायेगा। लाइन में खड़ा आखिरी आदमी पहुँच जायेगा एक दिन आगे...और आगे।
बदलेगा सामाजिक विन्यास
देखिएगा, अगले एक दशक में मनरेगा.. मजदूर को मालिक बनाने वाला अधिनियम साबित होगा। भारत के गाँवों के सामाजिक विन्यास में इसके दूरगामी परिणाम होंगे। अब खेती उसी की होगी, जो अपने हाथ से मेहनत करेगा। विकल्प के तौर पर खेती के आधुनिक औजार गाँव में प्रवेश करेंगे। छोटी काश्तकारी को पछाड़कर विदेशी तर्ज पर बड़ी फार्मिंग को आगे लाने की व्यावसायिक कोशिशें तेज होंगी। किसान जातियों का पलायन बढ़ेगा। उनकी आर्थिकी पर संकट बढ़ेगा। वे खेती से विमुख होंगी। नई पीढ़ी का पढ़ाई पर जोर बढ़ेगा। श्रमिक वर्ग के पलायन में कमी आयेगी। श्रमिक वर्ग की समृद्धि बढ़ेगी। खेती पर उनका मालिकाना बढ़ेगा। किसान और श्रमिक जातियों के बीच वर्ग संघर्ष की सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन अब जंगलराज का जमाना जा रहा है। अतः जीत श्रम की ही होगी। क्योंकि खेती में श्रम के विकल्प के रूप में आई मशीनों की भी एक सीमा है। आजादी के बाद भारत के गाँवों में सामाजिक बदलाव का यह दूसरा बड़ा दौर है। पहला दौर, मण्डल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने का परिणाम था।
मजाक नहीं, सुधार कीजिए
कहना न होगा कि इस कानून को असल जरूरत मज़ाक या बजट की नहीं, बल्कि गम्भीर आकलन, निगरानी व इसके तहत चल रही योजनाओं की कार्यप्रणाली पर पुनर्विचार की है। जरूरत है कि इसे इसके मूल मन्तव्य के अनुकूल लागू करने के गम्भीर प्रयास हों। इसे भ्रष्टाचार से मुक्त किया जाये। भारत के अन्तिम जन को समझे बगैर यह हो नहीं सकता। अतः जरूरी है कि प्रधानमन्त्री जी, कानून में कोई भी बदलाव करने अथवा इसका मज़ाक उड़ाने से पहले भारत के अन्तिम जन को समझें। सुना है कि नई सरकार इस तीसरे कारण को खत्म करने की तैयारी में है। यह न होने पाये। इससे मजदूर घटेंगे; मशीनें बढेंगी और भ्रष्टाचार भी।