विफलता के स्मारक, स्वागत क्यों

Submitted by RuralWater on Tue, 02/23/2016 - 09:07
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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 13 फरवरी 2016

इस कार्यक्रम के तहत 44 प्रतिशत पारिश्रमिक का भुगतान समय पर किया गया। 64 प्रतिशत से ज्यादा राशि कृषि और इससे जुड़ी सहायक गतिविधियों में खर्च की गई। यह तीन साल में सबसे अधिक है। 57 प्रतिशत श्रमिक महिलाएँ हैं, जो अनिवार्य 33 प्रतिशत की सीमा से कहीं अधिक है। यह भी तीन साल में सबसे अधिक है। सभी मानव दिवसों में से 23 प्रतिशत हिस्सेदारी अनुसूचित जाति वर्ग के श्रमिकों की है, जबकि अनुसूचित जनजाति वर्ग के श्रमिकों की हिस्सेदारी 18 प्रतिशत है। दोनों तीन साल में सबसे अधिक है।

हालांकि कांग्रेस इस समय विपक्ष में है, लेकिन मनरेगा की दसवीं वार्षिकी मनाने उपाध्यक्ष राहुल गाँधी आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर के बंदलापल्ली गाँव गए जहाँ से इस योजना को आरम्भ किया गया था। तत्कालीन संप्रग सरकार ने इसे गरीबी हटाने की दिशा में ऐतिहासिक कदम बताया था और कांग्रेस का रुख आज भी यही है। किन्तु दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी सरकार शुरू से इसके प्रति आलोचनात्मक रही और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले वर्ष संसद में इसे कांग्रेस की विफलताओं का जीता-जागता स्मारक बताया था। उन्होंने कहा था कि क्या आप सोचते हैं कि मैं इस योजना को बन्द करुँगा। मेरी राजनीतिक समझ मुझे ऐसा करने की इजाजत नहीं देती।

यह पिछले 60 वर्षों में गरीबी से निपटने की दिशा में विफलताओं का जीता-जागता स्मारक है, और मैं गाजे-बाजे के साथ इसे जारी रखूँगा। यानी हर वर्ष औसत 40 हजार करोड़ रुपया इस पर फूकूँगा। उसी सरकार ने अब कहा है कि एक दशक में मनरेगा की उपलब्धियाँ राष्ट्रीय गर्व और उत्सव का विषय हैं। तो क्या सरकार का विचार बदल गया है? उसे लगने लगा है कि मनरेगा ने वाकई रोजगार गारंटी के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में परिसम्पत्तियों के निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है? या इस कार्यक्रम की राजनीतिक प्रशंसा और राजनीतिक दलों के समर्थन के दबाव में उसने ऐसा कर दिया ताकि उसके जन समर्थन पर असर डालने का मौका विपक्ष को न मिले?

इन प्रश्नों का उत्तर तलाशना आवश्यक है, क्योंकि हमारे देश का अरबों रुपया ऐसे कार्यक्रमों की भेंट चढ़ता रहता है, जिससे आम जनता को लाभ कम होता है, बिचौलियों की गाँठें मजबूत होती हैं और अन्तत: यह देश के लिये भी अहितकर साबित होता है।

हालांकि अपने बयान में सरकार ने यह भी कहा कि पिछले वित्त वर्ष के दौरान यह कार्यक्रम पटरी पर लौटा है और आने वाले वर्ष में इस कार्यक्रम से जुड़ी प्रक्रियाओं को और सरल व मजबूत बनाने तथा इसके द्वारा गरीबों के लाभ के मकसद से सतत परिसम्पत्ति के रूप में विकसित करने पर फोकस होगा। इसमें कहा गया है कि दूसरी और तीसरी तिमाही में सबसे अधिक व्यक्ति दिवस क्रमश: 45.88 करोड़ और 46.10 करोड़ उत्पन्न हुए जो पिछले पाँच वर्ष में सर्वाधिक हैं।

ऐसे और कई दावे किये गए। मसलन, 1980.01 करोड़ रुपए के मानव दिवस सृजित किये गए। इस कार्यक्रम के तहत 44 प्रतिशत पारिश्रमिक का भुगतान समय पर किया गया। 64 प्रतिशत से ज्यादा राशि कृषि और इससे जुड़ी सहायक गतिविधियों में खर्च की गई। यह तीन साल में सबसे अधिक है।

57 प्रतिशत श्रमिक महिलाएँ हैं, जो अनिवार्य 33 प्रतिशत की सीमा से कहीं अधिक है। यह भी तीन साल में सबसे अधिक है। सभी मानव दिवसों में से 23 प्रतिशत हिस्सेदारी अनुसूचित जाति वर्ग के श्रमिकों की है, जबकि अनुसूचित जनजाति वर्ग के श्रमिकों की हिस्सेदारी 18 प्रतिशत है। दोनों तीन साल में सबसे अधिक है। लगभग ऐसा ही दावा संप्रग सरकार अपने कार्यकाल में करती थी। तो दोनों में अन्तर क्या रहा?

मोदी सरकार का दावा


सरकार का दावा है कि कार्यक्रम में नई रफ्तार ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से शुरु किये गए कई सुधार कार्यक्रमों की वजह से आई है। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण राज्यों को समय पर कोष जारी करना रहा है। इस योजना को लागू करने वाली एजेंसियों और लाभार्थियों को समय और पारदर्शी ढंग से कोष जारी करने के लिये इलेक्ट्रॉनिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम शुरू किया गया। इसके लिये बैंकों और डाकघरों के बीच बेहतर समन्वय की व्यवस्था की गई।

भुगतान के लम्बित होने के मामलों पर नजर रखी गई। साथ ही, पारिश्रमिक भुगतान में लगने वाली अवधि भी घटाई गई। मंत्रालय ने सूखाग्रस्त नौ राज्यों में संकट पर तुरन्त कदम उठाए। वहाँ के संकटग्रस्त इलाकों में 50 दिनों का अतिरिक्त रोजगार दिया गया। लेकिन प्रश्न है कि कोई विफलता का जीवित स्मारक है, तो उसमें इतना परिश्रम और संसाधन का व्यय क्यों? उसे कैसे सफल बता दिया गया? दूसरे, एक तथाकथित विफल कार्यक्रम को तार्किक और बेहतर बनाने में परिश्रम करने की जगह कोई नया कार्यक्रम आरम्भ करने में समस्या कहाँ है?

आखिर, मोदी सरकार ने पिछले डेढ़ वर्ष में कई कार्यक्रम लांच किये हैं। मनरेगा की जगह गरीबों को रोजगार देने के साथ परिसम्पत्तियों के निर्माण वाल दूसरा कार्यक्रम आरम्भ किया जा सकता था। सरकार इसे तार्किक बनाने की बात कर रही है। ठीक ऐसा ही दावा संप्रग सरकार ने भी किया था। वर्ष 2012 में केन्द्रीय रोजगार गारंटी परिषद ने मनरेगा के क्रियान्वयन के अनेक पहलुओं की समीक्षा के लिये छह कार्यबलों का गठन किया था।

योजना आयोग ने भी मनरेगा सुधारों से सम्बन्धित सुझाव दिये। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने राष्ट्रीय संसाधन प्रबन्धन पर फोकस को इस कार्यक्रम का अभिन्न अंग बनाने की अनुशंसाएँ कीं। नागरिक संगठनों के संघ (नेशनल कन्सोर्टयिम ऑफ सिविल सोसायटी ऑर्गनाइजेशन) ने भी ‘मनरेगा : अवसर, चुनौतियाँ एवं आगे का रास्ता’ नाम से अपनी रिपोर्ट दी। मिहिर शाह की अध्यक्षता वाली समिति ने नियमों एवं मार्ग निर्देशों को फिर से लिखने का कार्य किया।

इन सभी अनुशंसाओं को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण मंत्रालय ने सुधारों की शुरुआत कर दी। तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कई बार कहा कि कमियों को दूर कर इसे दुरुस्त कर दिया जाएगा। इस दिशा में कदम भी बढ़ाए। लेकिन यदि अप्रैल, 2013 में आई नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट पर गौर करें तो यह कार्यक्रम वास्तव में सफेद हाथी ही साबित हुआ। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की अंकेक्षण रिपोर्ट अप्रैल, 2007 से मार्च, 2012 की अवधि के लिये थी, जिसे 28 राज्यों और चार संघ-शासित प्रदेशों की 3848 ग्राम पंचायतों में मनरेगा की जाँच करने के बाद प्रस्तुत किया गया। इसने जो कुछ कहा उसके मुख्य अंश को देखिए।

1. 47687 से अधिक मामलों में न तो लाभार्थियों को रोजगार मिला और न बेरोजगारी भत्ता।
2. 23 राज्यों में लाभार्थियों को रोजगार दिया गया लेकिन मजदूरी नहीं। मजदूरी मिली भी तो काफी देर से।
3. मनरेगा के तहत किये गए अनेक काम पाँच वर्षों में भी आधे-अधूरे हैं। जो कार्य हुए उनकी गुणवत्ता भी खराब है।
4. मनरेगा के तहत आवंटित धन का 60 प्रतिशत मजदूरी और 40 प्रतिशत निर्माण सामग्री पर खर्च के अनुपात का पालन नहीं हो रहा है।
5. केन्द्र के स्तर पर निधियों के आवंटन में भी कई खामियाँ हैं। 2011 में जारी 1960.45 करोड़ रुपए का हिसाब नहीं मिला है।
6. 25 राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में 2,252.43 करोड़ रुपए के 1,02,100 ऐसे कार्य कराए गए जिनकी कभी मंजूरी ही नहीं ली गई थी।
7. उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब और राजस्थान ने सात साल गुजर जाने पर भी मनरेगा की नियमावली नहीं बनाई है।
8. उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, समेत नौ राज्यों ने ग्राम रोजगार सहायक नहीं रखे हैं।
9. उत्तर प्रदेश के लाख 66 हलार 569 और बिहार के 6836 दस्तावेज अपूर्ण मिले।

मनरेगा से हो रहा मोहभंग


नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने सबसे बड़ी बात यह कही कि मनरेगा से गरीबों का मोहभंग हो रहा है। श्रम दिवसों की संख्या घट रही है। वर्ष 2009-10 में 283.59 करोड़ श्रम दिवस के मुकाबले 2011-12 में 216.34 करोड़ श्रम दिवस ही रह गए।

ध्यान रखिए, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की भूमिका अंकेक्षण की होती है, अन्यथा इसने अप्रत्यक्ष रूप से इस कार्यक्रम में भ्रष्टाचार के साथ अव्यावहारिकता तथा इसके दुष्प्रभावों को उजागर कर इसकी उपादेयता पर प्रश्न तो खड़ा कर ही दिया था। वास्तव में धरातल का सच यही है कि मनरेगा ने खेती को चौपट कर दिया है। परिश्रम करने वालों को परिश्रम से दूर कर उन्हें कामचोर बनाके तथा गरीब किसानों को मजदूरों से वंचित करके यह ग्रामीण व्यवस्था को इस तरह ध्वस्त कर रहा है कि बाद में जिसे सम्भालना मुश्किल हो जाएगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।