संसदीय लोकतंत्र में राजनीति ही सर्वोपरि है। नीति-निर्धारण से लेकर उसके क्रियान्वयन तक में राजनीति की ही मुख्य भूमिका है। अगर राजनीति में शुचिता नहीं है तो फिर पूरी व्यवस्था अपवित्र, भ्रष्ट, दिशाहीन..कुछ भी हो सकती है। वास्तव में जितने संकल्पों की प्रधानमंत्री बात करते हैं, उसके केंद्र में राजनीतिक शुचिता ही हो सकती है। राजनीतिक दल केवल चुनाव लड़ने और सत्ता या विपक्ष में जाने के लिये नहीं बने हैं।
महात्मा गांधी ने 29 जनवरी 1948 को अपने अंतिम दस्तावेज में जब एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस को भंग करने का सुझाव दिया तो उनके मन में कांग्रेस नेताओं के प्रति कोई वितृष्णा का भाव नहीं था। वस्तुत: वे देश में एक श्रेष्ठ राजनीतिक संस्कृति कायम करना चाहते थे। जैसे वे जीवन के हर क्षेत्र में शुचिता के हिमायती थे, वैसे ही राजनीति के क्षेत्र में। वे उसके बाद जीवित रहते तो इसके लिये बहुत कुछ करते। वस्तुत: गांधी जी का मानना था कि आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों को चुनाव आदि के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए, उन्हें अपना समय जन सेवा में लगा देना चाहिए। अगर ऐसा होता तो इससे एक नई राजनीतिक संस्कृति पैदा होती, जिसके पीछे केवल और केवल जन सेवा, देश सेवा का भाव होता। गांधी जी स्थायी रूप से संसदीय व्यवस्था के पक्ष में भी नहीं थे। उनका लक्ष्य भारत में ग्राम स्वराज की स्थापना करना था। संसदीय प्रणाली को उन्होंने एक संक्रांतिकालीन व्यवस्था के रूप में ही स्वीकार किया था। उनके मुताबिक संसदीय प्रणाली में चुनाव में जीत और आगे लोकप्रियता बनाए रखने के लिये दल और नेता राजनीतिक शुचिता का परित्याग कर देते हैं।
गांधीजी की मानें तो दोष इस व्यवस्था में है। किंतु आज जब प्रधानमंत्री आज़ादी के दिन को कई प्रकार का ‘संकल्प दिवस’ के रूप में मनाने की अपील कर रहे हैं तो इस संसदीय व्यवस्था के अंदर ही। जाहिर है, उसमें राजनीतिक शुचिता सर्वोपरि हो जाती है। इसका कारण साफ है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीति ही सर्वोपरि है। नीति-निर्धारण से लेकर उसके क्रियान्वयन तक में राजनीति की ही मुख्य भूमिका है। अगर राजनीति में शुचिता नहीं है तो फिर पूरी व्यवस्था अपवित्र, भ्रष्ट, दिशाहीन..कुछ भी हो सकती है। वास्तव में जितने संकल्पों की प्रधानमंत्री बात करते हैं, उसके केंद्रबिंदु में राजनीतिक शुचिता ही हो सकती है। राजनीतिक दल केवल चुनाव लड़ने और सत्ता या विपक्ष में जाने के लिये नहीं बने हैं। संसदीय लोकतंत्र में उनकी भूमिका ऐसी है कि आम नागरिक उनसे प्रेरणा लेकर अपनी भूमिका तय करते हैं, समाज जागरण से लेकर उसे कुछ अच्छा करने के लिये प्रेरित करने का कार्य भी राजनीतिक प्रतिष्ठान के जिम्मे ही है। अगर राजनीति ही पवित्र नहीं है, वह ही आदर्शों और मूल्यों से च्युत है, उसके सामने समाज और देश को प्रतिमानों के स्तर पर ले जाने का लक्ष्य नहीं है तो फिर उस देश का बेड़ा गर्क मानिए। दुर्भाग्य से हमारा देश इसी का शिकार रहा है।
सत्ता की भूख में
राजनीति के लिये सत्ता केवल अपने द्वारा तय लक्ष्यों और प्रतिमानों को पाने का साधन मात्र होना चाहिए। राजनीतिक शुचिता तभी आ सकती है जब उसके सामने उदात्त और उच्चतर लक्ष्य हो और उसके अनुसार उसकी भूमिका के लिये मूल्य निर्धारित हों। हमारे देश में कोई यह स्वीकार करेगा कि हमारी राजनीति इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती है। वस्तुत: संसदीय लोकतंत्र ने हमारे देश में अपना क्रूर प्रभाव दिखाया है। अच्छे उद्देश्यों से आरंभ राजनीतिक दल भी वोट और सत्ता के लिये अपने मार्ग से भटक गए। समय के थपेड़ों ने उन लोगों के अंदर भी सत्ता की भूख जगा दी जो इसके लिये योग्य नहीं थे। इसलिये जाति, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा के नाम तक पर पार्टियाँ बनने लगी और उसे भी चुनावी सफलता मिलती रही। बीच में सामाजिक न्याय के नाम को उछालकर कुछ पार्टियाँ बनीं, जिनका चरित्र व्यवहार में शुद्ध जातिवादी और संप्रदायवादी था। जो बड़ी पार्टियाँ थीं उन्होंने भी इनके दबाव में लोकप्रियता के लिये ऐसे हथकंडे अपनाए। इससे राजनीति विखंडित हुई और फिर कई पार्टियों की सरकारों का युग आया, जिसमें बड़ी पार्टियों ने सरकार बनाने और सरकार बनाए रखने के लिये इन पार्टियों को राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकृति प्रदान कर दी। इसलिये स्थिति आज ज्यादा विकृत हो गई है। इसमें कुछ लोग यह मानने लगे हैं कि भारतीय राजनीति में सकारात्मक बदलाव लाया ही नहीं जा सकता तो उन्हें केवल निराशावादी कहकर आप खारिज नहीं कर सकते। अगर ऐसा नहीं होता तो राजनीतिक शुचिता की आवश्यकता होती ही नहीं। राजनीति का स्वाभाविक व्यवहार ही होना चाहिए था शुचिता का।
तो प्रश्न है कि राजनीतिक शुचिता कैसे वापस लाई जाए? शुद्धता के लिये जरूरी है आमूल सफाई। यह वर्तमान स्थिति में संभव नहीं लगता। किंतु इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है। तो फिर? कोई यह कह दे कि हम राजनीतिक शुचिता का संकल्प लेते हैं तो उससे यह स्थिति नहीं बदलने वाली। कोई पूरी पार्टी में राजनीतिक शुचिता का संकल्प करा ले तब भी ऐसा नहीं होने वाला। हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल इस अवस्था में जा चुके हैं, जहाँ से उसे जन सेवा, देश सेवा जैसे उदात्त लक्ष्यों और उसके अनुसार मूल्य निर्धारित करने की स्थिति में नहीं लाया जा सकता। यह आज की भयावह सच्चाई है, जिसे न चाहते हुए भी स्वीकार करना पड़ेगा। वास्तव में इसके लिये व्यापक संघर्ष, रचना और बलिदान की आवश्यकता है। जिस तरह से आज़ादी के संकल्प को पूरा करने के लिये लोगों ने अपना जीवन, कॅरियर सब कुछ दाँव पर लगाया उसी तरह काम करना होगा। वास्तव में यह नई आज़ादी के संघर्ष जैसा ही है। अगर प्रधानमंत्री संकल्प का आह्वान कर रहे हैं तो उन्हें कम-से-कम अपने दल में इसकी अगुवाई करनी होगी। भाजपा का चरित्र भी अन्य दलों से बिल्कुल अलग है; ऐसा नहीं माना जा सकता।
प्रधानमंत्री मोदी अगर यह मानक बना दें कि पार्टी में नीचे से जनता की सेवा करते हुए, उसके लिये संघर्ष करते हुए और जहाँ आवश्यक है वहाँ निर्माण कराते हुए जो अपनी विश्वसनीयता स्थापित करेगा वही पार्टी का पदाधिकारी होगा, उसे ही चुनाव में टिकट मिलेगा या टिकट किसे मिले इसके निर्णय में भूमिका होगी तो बदलाव आरंभ हो सकता है।
न्यू इंडिया बनाम ‘नया भारत’
लेकिन जैसा मैंने कहा केवल घोषणा करने से यह नहीं होगा, इसे मानक बनाना होगा। इस समय पार्टियों का जो चरित्र है, उसमें ऐसा कर पाना आसान नहीं है। किंतु शुरुआत तो करें। प्रधानमंत्री जिस न्यू इंडिया की बात कर रहे हैं उसे हम ‘‘नया भारत” कहना ज्यादा पसंद करेंगे। वर्तमान अपिवत्र राजनीति के बोलबाला में उसका आविर्भाव संभव नहीं होगा। वह ऐसे बदलाव से ही संभव होगा। जब पार्टी मशीनरी स्वच्छ और देश सेवा के लक्ष्यों को समर्पित होगी तभी तो नये भारत की कल्पना को साकार किया जा सकता है। अगर भाजपा ऐसा करती है तो संभव है कुछ दूसरी पार्टियाँ भी देखा-देखी ऐसा करे। किंतु इसके परे जो लोग भी देश और समाज के लिये चिंतित हैं उनको राजनीतिक संस्कृति बदलने के लिये अपना सर्वस्व दाँव पर लगाकर काम करना होगा। हम इस समय के राजनीतिक दलों से ज्यादा उम्मीद नहीं कर सकते। आखिर जो लोग समूची राजनीतिक दुर्दशा के लिये जिम्मेवार हैं वे लोग ही इसे ठीक कर देंगे ऐसा मानना तो बेमानी ही होगा। गांधी जी ने ही कहा था कि अंग्रेजों से मुक्ति के बाद कहीं ज्यादा परिश्रम और संघर्ष की आवश्यकता होगी। वह समय आ गया है। अगर हमने अपनी राजनीति में बदलाव नहीं किया तो फिर हम कहाँ पहुँच जाएँगे इसके बारे में शायद कल्पना भी नहीं की जा सकती। साथ ही हमें व्यवस्था के संदर्भ में भी गंभीर मंथन करने की आवश्यता है। व्यवस्था पर बात करते ही वे सारे दल छाती पीटने लगते हैं, जिनका निहित स्वार्थ इससे सध रहा है। वे आपको लोकतंत्र विरोधी तक करार देंगे। यह ठीक नहीं है। इस प्रश्न पर तो विचार करना ही पड़ेगा कि क्या संसदीय लोकतंत्र ही लोकतंत्र की एकमात्र उपयुक्त प्रणाली है? अगर नहीं है तो फिर इसका उपयुक्त विकल्प क्या हो सकता है?