एक संगीतमय आवाज पर खतरा

Submitted by editorial on Sat, 11/10/2018 - 16:59
ट्रैगोपानट्रैगोपान (फोटो साभार - विकिपीडिया)उत्तराखण्ड के हिमालयी क्षेत्रों में गूँजने वाले पक्षियों की चहचहाहट से कौन वाकिफ नहीं! यह क्षेत्र पक्षी प्रेमियों को भी खूब आकर्षित करता है। लेकिन मानों इसे किसी की नजर लग गई हो। हिमालयी क्षेत्र में नित बढ़ रहे मानवीय हस्तक्षेप के कारण पक्षियों की चहचहाहट मद्धिम पड़ती जा रही है। इस क्षेत्र में पक्षियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है।

उतराखण्ड में मिश्रित वनों के संरक्षक और पर्यावरणविद जगत सिंह जंगली, रक्षासूत्र आन्दोलन के प्रणेता और पर्यावरण के जानकार सुरेश भाई का मानना है कि पक्षियों का संसार इसलिये जिन्दा है कि यहाँ के लोग प्रकृति संरक्षण के प्रति संवेदनशील हैं। वे कहते हैं कि सरकार के हिमालय की प्राकृतिक सुन्दरता को व्यावसायिक रूप से दोहन करने की नीति संकट को बढ़ा दिया है। इसीलिये पक्षी प्रेमियों को राज्य के लोगों के साथ जल, जंगल, जमीन के आन्दोलनों में सरीक होना पड़ेगा। उनका यह भी मानना है कि पक्षी, स्वच्छता के अवैतनिक कार्यकर्ता हैं इसलिये उनका जीवित रहना अति आवश्यक है।

स्टेट वाइल्ड लाइफ एडवाइजरी बोर्ड के सदस्य अनूप साह का कहना है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भी बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप को रोकना होगा तभी पक्षियों के प्राकृतिक वासस्थल बचेंगे। उन्होंने बताया कि हिमालय के निचले भूभाग में चल रही पेड़ों का अन्धाधुन्ध कटाई भी पक्षियों के विलुप्त होने के एक प्रमुख कारण है। वे बताते हैं कि माउंटेन क्वेल 1860 में स्नो व्यू से लगे सेंडलू (नैनीताल) में देखी गई थी वहीं स्नो कॉक भी संरक्षित श्रेणी में आ गई है।

हिमालयी क्षेत्र की आबोहवा स्थानीय व मेहमान परिन्दों के लिये उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराती है पर मौजूदा समय में इसके वजूद पर भी संकट मँडराने लग गया है। हिमालयन माउंटेन क्वेल तो विलुप्त हो ही गया है लेकिन अस्तित्व को जूझ रहे वेस्टर्न ट्रेगोपैन व राज्य पक्षी मोनाल परिवार की चीर फेजेंट के बाद अब स्नो कॉक यानी हिमाल भी संरक्षित श्रेणी में शामिल हो गया है। विशेषज्ञ राज्य के हिमालयी क्षेत्र में पक्षियों की इस दुर्दशा के लिये हांविया हस्तक्षेप के अलावा वनाग्नि, प्रदूषण को बड़ा कारण मान रहे हैं।

ज्ञात हो कि पश्चिमी हिमालय में 2400 से 2500 मीटर की ऊँचाई पर पाया जाने वाला वेस्टर्न ट्रेगोपैन पक्षी विलुप्त हो चुका है। पाँच से नौ हजार फिट की ऊँचाई पर पाई जाने वाली लम्बी पूँछ वाली चीर फेजेंट दुर्लभ हो चली है, वहीं, अब 12 से 19 हजार मीटर की ऊँचाई वाले हिमालय में मिलने वाले स्नो कॉक के अस्तित्व पर भी खतरा पैदा हो गया है।

हिमालयी परिन्दों के पर कुतरने के लिये वनों की आग में इजाफा हो रहा है। बुग्यालों व अन्य वासस्थलों तक जलवायु परिवर्तन व ताप में भारी वृद्धि नजर आ रही है। अवैध शिकार, कीड़ा जड़ी जैसी दुर्लभ जड़ी बूटी का दोहन, कीटनाशकों व रसायनों का प्रयोग जैसी स्थितियाँ, पक्षियों के वास स्थल के लिये खतरा पैदा कर रही हैं। पक्षियों का विनाश जैवविविधता के दृष्टिकोण से काफी घातक है। आपको यह जानकार काफी आश्चर्य होगा कि सन बर्ड परागण में सहायक होता है, फ्लाई कैचर फसलों के दुश्मन कीटों का शिकारी है, लाफिंग ट्रश मानव को तनाव मुक्त करता है, गिद्ध सफाई कर्मी, गौरैया धान व गेहूँ के फसलों की रक्षक है।

आजकल बर्ड वाचिंग का दौर तेजी से बढ़ रहा है। यदि हिमालय में पक्षियाँ ही नहीं हों तो बर्ड वाचिंग के जरिए लोगों को मिलने वाले स्वरोजगार समाप्त हो जाएँगे। यह तभी जिन्दा रहेगा जब तक जंगल, पानी के साथ-साथ पक्षियों का संसार जिन्दा है। हिमालय में पक्षियों का अद्भुत संसार है। दुर्लभ पक्षियों को देखने के लिये पर्यटकों की भीड़ अब जुटने लगी है। अलग-अलग जगहों पर शीतकाल में बर्ड वाचिंग आरम्भ हो गई है। मोनाल संस्था के अध्यक्ष सुरेंद्र पंवार बताते हैं कि शीतकाल में पक्षियों को देखने के लिये देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर के पर्यटक यहाँ पहुँचने लगे हैं। बर्ड वाचिंग से पर्यटन बढ़ने के कारण लोगों को रोजगार भी मिल रहा है।

ट्रैगोपान

एक बेहद खूबसूरत पक्षी है जो शोर-शराबे से बिल्कुल दूर रहता है। उच्च हिमालय क्षेत्र इसका निवास स्थल है। यह दुर्लभ पक्षी छह माह के प्रवास के लिये मध्य हिमालय की रुख करती है। उतराखण्ड हिमालय में मोनाल के बाद ट्रैगोपान ही पक्षी प्रेमियों के आकर्षण का केन्द्र है। हिमरेखा के पास रहने वाली ये पक्षी शीत ऋतु में शिखर से उतरकर लोगों के इतने करीब आ जाती हैं और लोग सहजता से इनका दीदार करते हैं। उच्च हिमालय में हिमरेखा के नजदीक रहने वाली और शीतकाल में अधिकतम 22 सौ मीटर की ऊँचाई पर अपना डेरा बसाने वाले इन पक्षियों के चलते मध्य हिमालय में पक्षियों का संसार ही बदल जाता है। ट्रैगोपान देखने में बेहद खूबसूरत होता है। मादा पक्षी गहरे भूरे रंग की होती है। यह शिकारियों के निशाने पर अक्सर रहता है। इनकी घटती संख्या के पीछे का मुख्य कारण भी यही है। ट्रैगोपान भारत, नेपाल और भूटान के हिमालयी क्षेत्र में पाया जाता है। गर्मियों में 8000 से 14000 फुट तक यह नजर आता है, जबकि शीतकाल में यह नीचे उतर आता है। 70 सेंटीमीटर ऊँचाई वाला यह पक्षी ज्यादातर बुरांश के घने जंगलों में रहता है। बेहद शर्मीले स्वभाव का यह पक्षी ज्यादा लम्बी उड़ान नहीं भरता। अमूमन 2900 से 3400 मीटर की ऊँचाई पर रहने वाला ट्रैगोपान फीमेल को आकर्षित करने के लिये गले से नीला वेतल निकालता है। स्थानीय लोग इस पक्षी को लौंग नाम से जानते हैं।

कोकलास फीजैंट

यह पक्षी 2200 से 3000 मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है। कोकलास फीजैंट भी बेहद खूबसूरत है लेकिन अपनी तीखी आवाज के कारण यह बदनाम है। यह अक्सर बांझ, बुरांश जैसी अन्य प्रजातियों के पेड़ पर छेद बनाकर अपना बसेरा करता है। यह भी बर्फिले स्थानों पर ज्यादा पाया जाता है।

रेड बुलफिंच

बुलफिंच नाम की यह चिड़िया पाँच रंगों की छोटी पक्षी है। फूलों का रस चूसने वाली यह पक्षी बहुत ही आकर्षक होती है। यह केवल 25 सौ मीटर की ऊँचाई तक ही पहुँच पाती है। इसे झाड़ीनुमा या चौड़ी पत्ती के जंगल सर्वाधिक पसन्द है।

विंटर रेन

विंटर रेन भी छोटी सी फुदकने वाली चिड़िया है। यह एक डाली से दूसरी डाली पर उड़ती है तो इसके सुनहरे पंख लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।

गोल्डन बुश रोबिन

गोल्डन बुश रोबिन पक्षी भी उच्च हिमालय में पाई जाती है। उच्च हिमालय में निवास करने वाली रंग-बिरंगी छोटी सी चिड़िया बेहद सुन्दर होती है। इसको देखना शुभ माना जाता है।

मोनाल

मोनाल को सुरखाब नाम से भी जाना जाता है। सुरखाब के पर वाली कहावत इसी पक्षी पर आधारित है। सुनहरे पंखों और खूबसूरत फर वाला मोनाल अपनी उपस्थिति से जंगल में पेड़ों की शोभा बढ़ा देता है। उतराखण्ड में इसे राज्य पक्षी का दर्जा प्राप्त है।

 

 

 

 

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