गाँवों में जल के बिना कल

Submitted by Shivendra on Tue, 12/16/2014 - 11:49
Source
योजना, जून 2008
मानसून के अनिश्चित मिजाज़ की वजह से भारतीय कृषि सदैव अनिश्चितता का शिकार रही है, अतिवृष्टि, सूखा और बाढ़ के फलस्वरूप कृषि को होने वाला नुकसान आज भी एक गम्भीर समस्या बना है और ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन और तेजी से पिघलते हिम ग्लेशियरों से जल संकट में और बढ़ोतरी हुई है। गौरतलब है कि हिमालय दुनिया का सबसे बड़ा ‘वाटर टावर’ यानी पानी का टैंक कहा जाता है जिसमें करीब 8 हजार ग्लेशियर हैं। इसलिए इनके पिघलने की स्थिति में पानी की समस्या के गम्भीर रूप धारण करने में कोई सन्देह नहीं होना चाहिए। यों तो जल का ग्रामीण और शहरी जीवन दोनों के लिए समान रूप से महत्व है क्योंकि जल जीवन है। जल के बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। शहरी जीवन में जल की उपादेयता जहाँ पेयजल तथा दैनिक उपभोग तक सीमित है, वहीं ग्रामीण जीवन में इसका महत्व पेयजल के साथ-साथ कृषि तथा बागवानी और पशुधन आदि के लिए भी है। दूसरे शब्दों में कृषि क्षेत्र जल का सबसे बड़ा पयोगकर्ता है।

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का मेरुदण्ड कृषि है और आज भी लगभग एक तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। इसलिए कृषि के लिए जल का महत्व सर्वविदित है। यहाँ पर्यावरण में उल्लेखनीय योगदान हेतु नोबेल पुरस्कार से सम्मानित संयुक्त राष्ट्र के अन्तर सरकारी समिति के अध्यक्ष डॉ. आर.के. पचौरी ने चेतावनी दी है कि भारत सहित कई देशों की कृषि पैदावार जलवायु परिवर्तन के कारण बुरी तरह से प्रभावित होने की आशंका है। उनका कहना है कि गेहूँ, चावल तथा दाल की पैदावार पर इसका ज्यादा प्रभाव पड़ेगा। इसलिए उन्होंने वर्षा पोषित कृषि पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रेखांकित करते हुए जल संकट के निदान हेतु किसानों को जल तथा प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में संयम बरतने की अपील की है। उन्होंने किसानों को यह भी सुझाव दिया है कि वे अपने कृषि के तौर तरीके बदलें और फसल चक्र में जलवायु और स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार बदलाव लाएँ। केन्द्र तथा राज्य सरकारों का यह भी प्रयास हो कि खेती और सिंचाई के ऐसे नए तरीके ईज़ाद किए जाएँ जो कम-से-कम पानी और सूखे की स्थिति में पूरी उपज दे सकें।

यद्यपि जल राज्य का विषय है परन्तु केन्द्र सरकार ने जल संसाधन के संरक्षण हेतु कई महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। ‘स्वजल धारा’ तथा ‘हरियाली’ जैसी जल स्कीमों के अलावा, केंद्र सरकार ने देश के सभी ग्रामीणों के लिए पेयजल की व्यवस्था सुनिश्चित करने के प्रति अपनी वचनबद्धता व्यक्त की है। उसने 7 राज्यों के चट्टानी इलाकों में डग वैल रिचार्ज योजना प्रारम्भ करने की भी घोषणा की है और समय-समय पर पंचायती राज संस्थाओं, अन्य निकायों और संगठनों की जल संरक्षण में महत्वपूर्ण भागीदारी को रेखांकित करते हुए उनसे सहयोग की भी अपील की है।

पठारी इलाकों में गहरे खड्डों और कुओं के जरिए पानी एकत्र कर कृत्रिम तरीके से भूजल स्तर बढ़ाने की योजना को मंजूरी दी गई है। इसमें बहुत छोटे किसानों को शत-प्रतिशत सब्सिडी देने की व्यवस्था है जबकि अन्य किसानों को 50 प्रतिशत सब्सिडी प्रदान की जाएगी। इसे 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दौरान तीन वर्षों में लागू किया जाएगा।

ग्रामीण पेयजल केन्द्रीय सरकार के ‘भारत निर्माण’ का एक महत्वपूर्ण संघटक है, इसलिए केंद्र सरकार त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम और वर्षापोषित विकास कार्यक्रम तथा जल संसाधनों के प्रबन्धन और संवर्धन में भारी निवेश कर रही है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत वर्ष 2007-08 के बजट में 24 बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाएँ तथा 753 छोटी सिंचाई परियोजनाएँ पूरी कर लेने की सम्भावना है। इससे 500,000 हेक्टेयर में अतिरिक्त सिंचाई क्षमता सृजित हो सकेगी।

वर्ष 2007-08 के लिए 3,580 करोड़ रुपए के अनुदान घटक के साथ परिव्यय 11,000 करोड़ रुपए था जबकि 2008-09 में इसे बढ़ाकर 5550 करोड़ रुपए के अनुदान घटक के साथ अनुमानित 20,000 करोड़ रुपए किया जा रहा है। इसके अलावा वर्षा पोषित क्षेत्र विकास कार्यक्रम को अन्तिम रूप दिया जा रहा है और इसे 348 करोड़ रुपए के आवण्टन के साथ 2008-09 में क्रियान्वित किया जाएगा।

इस कार्यक्रम के तहत ऐसे क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जाएगी जो अभी तक जल सम्भरण विकास योजनाओं के लाभार्थी नहीं रहे हैं। जनवरी, 2006 में शुरू की गई नई सूक्ष्म सिंचाई सम्बन्धी केन्द्रीय प्रायोजित योजना के तहत साल के भीतर 548,000 हेक्टेयर क्षेत्र को ड्रिप और स्प्रिकलर सिंचाई के अन्तर्गत लाया गया है।

साथ ही वर्ष 2008-09 में 400,000 हेक्टेयर को शामिल करते हुए इस योजना के लिए 500 करोड़ रुपए का आवण्टन प्रस्तावित है। यह भी उल्लेखनीय है कि जल संरक्षण कार्यक्रम को गाँवों में राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी योजना में सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए। वर्तमान में इस कार्यक्रम के तहत महज 3 प्रतिशत काम हो रहा है। यहाँ तक कि जल समस्या से जूझ रहे उत्तराखण्ड और झारखण्ड जैसे राज्यों में यह प्राथमिकता सूची में नहीं है। इसलिए इस ओर ध्यान दिया जाना जरूरी है।

चूँकि गाँव में घटता भूजल स्तर भी चिन्ता का कारण है। इसके मूल में चाहे कृषि हेतु सिंचाई का उपयोग करना हो या लोगों द्वारा जल के उपयोग के सम्बन्ध में अपनाई जा रही लापरवाही या बढ़ती जनसंख्या का दबाव। हमें गाँवों में भूजल के गिरते स्तर को रोकने के साथ ही जल संरक्षण तथा उसके किफायती उपयोग पर भी बल देना होगा। राज्यों को भूजल संरक्षण कानून बनाने पर जोर देना होगा और प्रति व्यक्ति को जल की उपलब्धता उसकी गुणवत्ता और भूजल क्षरण के रोकथाम के बारे में ठोस कार्रवाई करनी होगी।

एक सुझाव यह भी है कि गाँवों में पोखरों, जोहड़ों, तालाबों कुओं और बावड़ियों के जरिए पानी संरक्षण की प्राचीन पद्धति को पुनर्जीवित किया जाए। इससे पानी की सप्लाई में जहाँ लीकेज दूर होती है वहीं इनके पुनर्जीवन से कई फायदे भी हैं। पोखरों से पानी की आपूर्ति के साथ-साथ उसके किनारे की नमी से औषधियाँ, वनस्पतियाँ पैदा की जा सकती हैं। सिंघाड़े और मखाने की बेल उगाई जा सकती है। पोखरों से अनेक पक्षियों और जलजीवों को आश्रय मिलता है। पोखरों के पुनर्जीवन से मत्स्यपालकों को रोजगार मिलता है। ‘जिला सुरक्षा योजना’ को अमली जामा पहनाना होगा। राज्यों को वर्षाजल संचयन के साथ भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण सम्बन्धी जागरूकता कार्यक्रम और प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों का आयोजन, वर्षाजल संचयन सुविधाओं को बढ़ावा देने हेतु भवन उपनियमों में संशोधन, जल संचयन प्रोत्साहन देने वालों को कर छूट जैसे उपाय भी करने होंगे।

खुशी की बात है कि जल निकायों की मरम्मत पुनरुद्धार और बहाली की परियोजना के अन्तर्गत तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक की सरकारों ने विश्व बैंक के साथ करारों पर हस्ताक्षर किए हैं। अन्य राज्य सरकारों के बीच शीघ्र ही ऐसे करार हस्ताक्षरित होने की आशा है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय वर्षा सिंचित भूमि प्राधिकरण के तहत जल संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए साथ में बंजर भूमि, उसका विकास, मृदा संरक्षण कार्यक्रम पर विभिन्न मन्त्रालयों के बीच समन्वय पर जोर दिया गया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में भी जल संसाधन के विकास को उच्च प्राथमिकता देते हुए उपलब्ध जल का वर्षा पोषित क्षेत्र में इष्टतम उपयोग करने पर बल दिया गया है।

भूजल के सही ढंग से उपयोग को बढ़ावा देने हेतु “कृत्रिम भूजल संभरण सलाहकार परिषद” का भी गठन किया गया है जिसके तहत 5 हजार गाँवों में किसान भागीदारी कार्रवाई और अनुसंधान कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया है। हर गाँव में एक पुरुष को “जल पुरुष” तथा एक महिला को “जल महिला” के रूप में नामित किया गया है। ये लोग गाँवों में एक रोल मॉडल की भूमिका का निर्वहन करेंगे जो गाँव के भूजल संरक्षण के साथ ही किसानों को पानी के कम उपयोग करते हुए अधिकतम सिंचाई की विधियों के बारे में जानकारी मुहैया कराएँगे।

चूँकि जल का सिंचाई और बाढ़ के अलावा जंगल से भी अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है, इसलिए यह आवश्यक है कि पर्यावरण सुरक्षा पर भी हमारा फोकस हो। इस हेतु हमें जल सम्भरण के विकास पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा क्योंकि इसके तहत मृदा, जल संरक्षण, वर्षाजल संचयन, उसकी रिचार्जिंग के साथ ही वृक्षारोपण और पारिस्थितिकी सन्तुलन पर भी जोर दिया जाता है।

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि पहाड़ी इलाके भी अब ग्लोबल वार्मिंग की वजह से अछूते नहीं रहे हैं और वहाँ भी भूजल में तेजी से गिरावट देखी गई है। इस सन्दर्भ में केन्द्र सरकार द्वारा “हरित भारत” अभियान के तहत् 60 लाख हेक्टेयर बंजर वनभूमि पर पेड़ लगाने का निर्णय लेना निश्चित तौर पर एक स्वागत योग्य कदम है।

यह भी तथ्य है कि वर्तमान परिदृश्य में लगभग 85 प्रतिशत ग्रामीण आबादी भूजल पर निर्भर है और आज भी बामुश्किल लगभग 50 फीसदी आबादी को निरन्तर व स्वच्छ सुरक्षित पेयजल उपलब्ध है। यही नहीं, 2017 तक प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता घटकर 1600 क्यूबिक मीटर हो गई है। जल संरक्षण में लोगों की भागीदारी स्वयंसिद्ध है। इसलिए गैर सरकारी संगठनों के साथ पानी के सरोकार से जुड़े संगठनों, नौकरशाही व जनता के बीच सहयोग बढ़ाने की भी जरूरत है।

जल संरक्षण में निजी क्षेत्र की भागीदारी से भी इनकार नहीं किया जा सकता। जल प्रबन्धन की बदौलत राजस्थान के गाँवों में पानी पहुँचाने के लिए मैगसैसे अवार्ड विजेता राजेंद्र सिंह का कहना है कि अगर जल संकट की रफ्तार यही बनी रही तो भविष्य में पानी के लिए अगला विश्व युद्ध होने से हम इनकार नहीं कर सकते।

स्मरण रहे कि उन्होंने 1058 गाँवों में पानी का संकट दूर कर वहाँ लोगों की जिन्दगी बदल दी। इसलिए समय की माँग है कि भूजल संसाधनों को फिर से सक्रिय करने का राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया जाए। जल संचयन करके कुओं में पानी पहुँचाया जाए ताकि साल भर में निकाले गए पानी की भरपाई हो सके।

गौरतलब है कि बरसात के पानी को संरक्षित करने की तकनीक कोई नई नहीं है। राजस्थान के मरुक्षेत्र में इसका वर्षों से प्रयोग हो रहा है। यद्यपि गाँवों में छोटे बाँध बनाकर पानी को थोड़े दिनों के लिए रोकना सम्भव है लेकिन हमारा जोर इस बात पर हो कि 15 से 25 प्रतिशत पानी जमीन के अंदर चला जाए। इससे दो फायदे होंगे। पहला, जल संकट की समस्या से निजात मिलेगी और दूसरा, पानी की गुणवत्ता में सुधार होगा क्योंकि जमीन के अन्दर मौजूद क्लोराइड नाइट्रेट की वजह से ऐसा सम्भव होता है।

देशभर की नदियों को 30 स्थानों पर जोड़कर राष्ट्रीय नदी ग्रिड बनाने की योजना पर भी अमल करना जरूरी है। यहाँ पर अभी हाल में गुजरात राज्य द्वारा नर्मदा नदी का पानी सरदार सरोवर परियोजना के मार्फत राजस्थान के पिछड़े रेगिस्तानी इलाके के 2 लाख 40 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई हेतु छोड़ना एक महत्वपूर्ण पहल कही जा सकती है। इससे राजस्थान को 500 क्यूसेक पानी की आपूर्ति होगी और इस पहल से जल विवाद में फँसे राज्यों को भी एक सीख मिलेगी।हमें जल संरक्षण को एक राष्ट्रीय मिशन बनाना होगा और विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और प्रौद्योगिकी संस्थानों में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के बारे में समाज में एक जन चेतना पैदा करनी होगी।

किसानों को घटते भूजल स्तर की रोकथाम हेतु रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खेती को प्रोत्साहन देना होगा। यहाँ पर कृषि विश्वविद्यालयों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। इसके साथ ही केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारें अपूर्ण/अधूरी सिंचाई परियोजनाओं पर शीघ्र कार्रवाई आरम्भ करे और गोदावरी, कृष्णा और कावेरी जैसी नदियों को जोड़ने की दिशा में तेजी से पहल की जाए तथा राज्यों के बीच जल विवादों का शीघ्र निपटारा हो।

हमें इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि जल एक राष्ट्रीय सम्पत्ति है और उस पर किसी राज्य द्वारा अपना अधिकार जताना किसी भी मायने में उचित नहीं कहा जा सकता। इसलिए इस साँझी सम्पत्ति की निर्बाध तथा मुक्त उपलब्धि सभी प्राणियों का मूल अधिकार है। हमें वाणिज्यिक लाभ हेतु उसके दोहन पर भी पूरी रोक लगाना होगा और बोतलबन्द पानी की संस्कृति पर लगाम कसना होगा और सभी के लिए स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित करना होगा।

हमें इस बात को भी ध्यान रखना होगा कि जल का निजीकरण आगे जाकर गम्भीर सामाजिक तथा पर्यावरण संकट भी पैदा करेगा। क्या यह विडम्बना नहीं कि गाँवों में जहाँ एक ओर पेयजल आपूर्ति सम्बन्धी ढाँचागत विकास और रखरखाव पर यथोचित मात्रा में धनखर्च नहीं किया जाता और गाँवों की अधिसंख्य आबादी विशेषकर बच्चे व गर्भवती महिलाएँ दूषित पेयजल से अपनी जान गँवा रहीं हैं तो वहीं दूसरी ओर शीतल पेयजल कम्पनियाँ स्वच्छ पेयजल के नाम पर रुपया कमाने की होड़ में लगी हैं। इसलिए हम उम्मीद करेंगे कि प्रधानमंत्री के भूजल परामर्शी परिषद की उप समिति की उस सिफारिश पर शीघ्रता से अमल हो जिसमें शीतल पेय तैयार करने वाली कम्पनियों पर अत्यधिक शुल्क वसूली की व्यवस्था है क्योंकि वे कम्पनियाँ एक ओर कच्ची सामग्री के बतौर भूजल का भारी मात्रा में उपयोग कर रहीं हैं तो दूसरी ओर उसके द्वारा पानी के उपयोग के बदले में दी जा रही कीमत आम उपभोक्ता द्वारा प्रदान की जा रही जल के उपयोग की कीमत से कम है।

विश्व बैंक का अनुमान है कि भारत में 21 प्रतिशत संक्रामक बीमारियाँ अस्वच्छ पानी की वजह से होती हैं। केवल डायरिया से ही 1600 से अधिक मौतें हर रोज होती हैं। संयुक्त राष्ट्र की फूड एण्ड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की हालिया रिपोर्ट में जल पर ग्लोबल वार्मिंग के खतरे का उल्लेख करते हुए तेजी से पिघलते हिम ग्लेशियरों पर चिन्ता व्यक्त की गई है। निश्चित तौर पर इसका सीधा असर कृषि पर पड़ेगा और बाढ़, सूखा तथा उपजाऊ मिट्टी के क्षरण से भूख और कुपोषण की समस्या पैदा होगी। संयुक्त राष्ट्र ने भी यह चेतावनी दी है कि यदि जल का उचित प्रबंधन न किया जाए तो 2025 तक दुनिया की दो तिहाई आबादी को पानी की कमी की समस्या से जूझना पड़ेगा।

इसलिए उसने घटते जल स्रोतों के संरक्षण हेतु फौरी तौर पर विश्व से जल्दी से कार्रवाई करने की अपील की है। निःसंदेह पानी का संरक्षण आज की एक मुख्य चुनौती है। इसके लिए हमें पानी का समान वितरण, कुशल प्रयोग व गुणवत्ता पर बल देना होगा। लेकिन हमारे समक्ष इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न है कि जल कैसे बचे?

इस हेतु प्रत्येक ग्रामीण परिवार, पंचायत और ग्राम सभा, स्कूल-कॉलेजों आदि को इसके संरक्षण हेतु जन अभियान चलाना होगा। जल कमी वाले क्षेत्रों में किसानों, कृषक समितियों, पंचायतों तथा जिला प्रशासन को बाँधों तथा चेकडैम का निर्माण, तालाबों तथा कुओं से गाद निकालने, नहरों की मरम्मत तथा ड्रिप-स्प्रिंकलर जैसी पानी बचत करने वाली सिंचाई तकनीकों को अपनाना होगा। इन उपायों से निश्चित तौर पर गाँवों में बढ़ती जल समस्या से काफी हद तक मुक्ति मिलेगी।

(लेखिका स्वतन्त्र पत्रकार है।)
ई-मेल : bhagwati pande@yahoo.co.in