वनों एवं फसलों पर आधारित कुटीर एवं लघु उद्योगों का विकास निश्चत रूप से स्थानीय विकास में सहायक सिद्ध होगा। जनसंख्या प्रतिनिधित्व एवं आवश्यकता नीति का निर्धारण वास्तविक रूप से आर्थिक विकास में निर्णायक भूमिका निभा सकती है।
‘जीवन निर्वाह कृषि’ हिमालयवासियों की आजीविका का मुख्य साधन है। सन 1991 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या की लगभग 72 प्रतिशत कार्मिक क्षमता मुख्य रूप से प्राथमिक व्यवसाय एवं उससे सम्बन्धित क्रियाकलापों में सन्निहित है। यद्यपि उद्यानिकी, कृषि व्यवसाय के समानान्तर अग्रसित है, तथापि कुल कृषि योग्य भूमि के अनुपात में यह व्यवसाय अत्यधिक कम है तथा प्राप्त उत्पाद घरेलू उपयोग तक ही सीमित है, परिणामस्वरूप इसका स्थान क्षेत्र के आर्थिक जगत में नगण्य है। मानव संसाधन के रूप में पुरुष वर्ग, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये सेवा या पुलिस में समर्पित है। जबकि महिलाएँ कृषि के क्षेत्र में मुख्य भूमिका निभाती हैं, जोकि सम्बन्धित क्षेत्र के आर्थिक विकास की रीढ़ की हड्डी हैं। पशुसंसाधन आर्थिक दृष्टि से खेत जोतने, खाद एवं दुग्ध उद्योग में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। यद्यपि जल-संसाधन बहुतायत मात्रा में उपलब्ध हैं क्योंकि देश की मुख्य उपजाऊ एवं विस्तृत नदियों, गंगा एवं यमुना का उद्गम स्थान इसी क्षेत्र में विद्यमान है तथापि आर्थिक दृष्टि से नदियाँ अनुपयोगी ही नहीं अपितु इस क्षेत्र की उपजाऊ भूमि को कम करने में सहायक सिद्ध हुई हैं।वन संसाधनों में निरंतर कमी का कारण यहाँ जनसंख्या की बढ़ती हुई दर रही है जोकि वन क्षेत्रों में निरन्तर दबाव डालकर उसे कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित कर रही है, यद्यपि देश के कुल कोणधारी वनों के प्रतिशत का 15.6 क्षेत्र गढ़वाल हिमालय में है जो जम्मू कश्मीर एवं अरुणाचल प्रदेश के बाद तीसरे स्थान पर है तथापि इन विस्तृत कोणधारी वनों का पूर्ण उपयोग, भौगोलिक असमानता के कारण सम्भव नहीं हो पाया, आर्थिक तन्त्र या तो ‘परम्परागत जीवन निर्वाह कृषि’ में या ‘धनादेश’ वितरण पर निर्भर है। देश की मुख्य धारा से दूरस्थ एवं प्रतिकूिल भौगोलिक परिस्थितियों के कारण यहाँ विकास की गति धीमी रही है, जोकि औद्योगिक विकास में बाधक सिद्ध हुई, कृषि क्षेत्र में नयी तकनीकी का अभाव मुख्य रूप से दो तथ्यों पर निर्भर रहा है, पहला, प्रतिकूल भौगोलिक परिस्थितियाँ तथा दूसरा यहाँ के निवासियों का परम्परागत कृषि शैली पर अटूट विश्वास। परिवहन मार्गों से दूरस्थ होने के कारण समुचित विकास नहीं हो पाया है।
गढ़वाल हिमालय, हिमालय पर्वत श्रेणी के मध्य में लगभग 29.260 पूर्वी देशान्तर से 80.60 पूर्वी देशान्तर, लगभग 300 मीटर से 700 मीटर समुद्र तल की ऊँचाई पर स्थित है, भौगोलिक परिवेश में यह तीन भागों में बाँटा गया है- (1) महान हिमालय, साल भर बर्फ से ढका हुआ (2) मध्य हिमालय एवं (3) शिवालिक की श्रेणी। मध्य हिमालय अन्य भागों में सबसे अधिक भूमि अधिग्रहण करता है। तथा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है जनसंख्या एवं कृषि योग्य भूमि का सापेक्षिक प्रतिशत इसी हिमालय में विद्यमान है, शिवालिक श्रेणियों में मुख्य रूप से दून तथा द्वार घाटियाँ सम्मिलित हैं, सपाट एवं उपजाऊ भूमि होने के कारण यहाँ उत्पादन भी अधिक है, तथा साथ ही साथ औद्योगिक दृष्टि से भी तुलनात्मक रूप में आगे रहा है। मिट्टी या तो हिमानीकृत है या नदियों द्वारा निक्षेपित है। जलोढ़ मिट्टी, असमान एवं तीव्र ढाल होने के कारण विकास कार्यों में बाधा पड़ती है।
भारतवर्ष में ही नहीं अपितु विदेशों में भी प्रसिद्ध चार तीर्थ स्थल जोकि वस्तुतः ‘चार-धाम’ के नाम से जाने जाते हैं। यहीं विद्यमान हैं। ये धाम हैं- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री एवं यमुनोत्री। अवरोही क्रम में क्रमशः पूर्व से पश्चिम की ओर, पंच बद्रीश, पंचकेदार एवं साथ-साथ पवित्र गंगा एवं यमुना का उद्गम स्थान होने के फलस्वरूप गढ़वाल पवित्र स्थानों में अग्रणीय रहा है।
प्रशासनिक रूप से यह क्षेत्र पाँच जिलों चमोली, उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी एवं देहरादून से बना है। कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 51125 वर्ग कि.मी. है। चमोली जिला भौगोलिक क्षेत्र में सबसे बड़ा एवं देहरादून जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा जिला है।
संसाधन उपयोगिता प्रतिरूप
गढ़वाल हिमालय की वर्तमान संसाधन उपयोगिता प्रतिरूप स्थान-स्थान पर असमानताओं एवं विभिन्नताओं से प्रतिबिम्बित है। अत्यधिक ऊँचाई में स्थित क्षेत्रों में, देश की मुख्य धारा से अलग-थलग होने के कारण, संसाधनों का विदोहन नहीं हो पाया है। परिणामतः यहाँ के निवासियों का पूर्ण रूप से परम्परागत जीवन निर्वाह कृषि पर निर्भर हैं, जबकि शिवालिक श्रेणियों, मुख्य रूप से ‘दून एवं द्वार’ घाटियों एवं नदियों की निचली घाटियों में नगदी फसलों के निरन्तर विस्तार से आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन हुआ है, कृषि क्षेत्र में तकनीकी का प्रभाव आंतरित भागों में नगण्य रहा है, जबकि कुछ विस्तार तक दून एवं द्वार घाटियों में कृषि, तकनीकीकरण से प्रभावित हुई हैं, संसाधन उपयोगिता प्रतिरूप का व्यापक अध्ययन निम्नवत किया गया है:-
तालिका-1 गढ़वाल हिमालय में वनों के प्रकार एवं वितरण
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वन प्रकार | दून द्वार, शिवालिक | यमुना | नदी घाटियाँ भागीरथी | अलकनन्दा एवं मन्दाकिनी
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शुष्क पतझड़ | 74631 | 1509 | 17207 | - |
साल | 80684 | 1709 | 3700 | 398 |
चीड़ | 2829 | 51484 | 58491 | 60810 |
शीतोष्ण | 2082 | 37744 | 19296 | - |
कोणधारी | - | 17184 | 19296 | - |
कुल क्षेत्र | 160226 | 228922 | 310589 | 23811 |
प्रतिशत | 17.2 | 24.2 | 33.3 | 25.0 |
जल संसाधन, गढ़वाल हिमालय की प्राकृतिक धरोहर है, भारत की सबसे विशाल एवं उपजाऊ नदियों की उद्गम स्थली होने के कारण जल संसाधन एवं उससे सम्बन्धित उपयोगिता के लिये यह धनी है, अपवाह तंत्र की दृष्टि से इस क्षेत्र को दो भागों में बाँटा जा सकता है। (1) गंगा अपवाह तन्त्र एवं (2) यमुना अपवाह तन्त्र, गंगा अपनी अनेकों सहायक नदियों, भिलंगना, विष्णुगंगा, धौली, अलकनंदा, नन्दाकिनी एवं मंदाकिनी के साथ विशाल तंत्र का निर्माण करती है। जबकि यमुना, टोन्स, पाॅवर एवं कमल नदियों की सहायता से अपवाह तंत्र निर्मित करती है।
उपयोगिता की दृष्टि से इन नदियों का पूर्ण विदोहन नहीं हो पाया है, यद्यपि बाँधों के निर्माण से यहाँ विद्युत उत्पादन की अत्यधिक सम्भावनाएँ हैं क्योंकि बाँध निर्माण से सम्बंधित सभी भौगोलिक परिस्थितियाँ यहाँ मौजूद हैं, उदाहरण के लिये नदी घाटियों का अत्यधिक गहरा होना तथा ‘गार्ज’ का निर्माण करना और सम्बन्धित क्षेत्रों में क्वार्जाइट शैल का पाया जाना, तथापि बाँध निर्माण से सम्बन्धित कोई भी परियोजना सफल नहीं हो पायी है, इसके मुख्य दो कारण रहे हैं, (1) जब-जब बड़े बाँधों के निर्माण की बात किसी सरकार ने उठायी तभी पर्यावरणविदों ने इसके विपरीत आंदोलन किया। (2) इन परियोजनाओं का आकार इतना विशाल है कि उपर्युक्त सामग्री यथास्थान एवं समय पर उपलब्ध नहीं हो पाती, परिणामस्वरूप शीत ऋतु में जो भी सामग्री या निर्माण कार्य शुरू होता है वर्षा में वह बह जाता है। भूकम्प प्रभावित पेटियों में हिमालय पर्वत श्रेणी का स्थान अग्रणी है। मध्य हिमालय में स्थित होने के कारण गढ़वाल हिमालय की इस पेटी से बाहर गणना करना नामुमकिन है। जिसका जीता-जागता उदाहरण उत्तरकाशी भूकम्प है। अतः उक्त बातों को मद्देनजर रखते हुए वर्तमान में एक ऐसी योजना की आवश्यकता है जिससे क्षेत्र के आर्थिक विकास के साथ-साथ प्राकृतिक प्रकोपों से भी बचा सके एवं साथ ही साथ प्राकृतिक धरोहर को संरक्षण दिया जा सके। यह तभी सम्भव है जब छोटी-छोटी जल सरिताओं के जल को रोककर जलाशय बनाया जाये जो छोटे बाँधों के निर्माण में सहायक हो सके।
कुल औद्योगिक क्षेत्रफल का लगभग 70.5 प्रतिशत भाग वनों से ढका हुआ है जोकि राष्ट्रीय औसत (22.7 प्रतिशत) का लगभग तीन गुना अधिक है। वर्तमान में स्थानीय जनता अपनी ईंधन एवं इमारती लकड़ियों की आवश्यकताओं के लिये पूर्णतः वनों पर निर्भर है। सुदूर हिमालय की गोद में स्थित होने के कारण यहाँ पर आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से सम्न्धित सामग्री, गैस सिलेण्डर सौर ऊर्जा इत्यादि का प्रभाव नगण्य रहा है। यद्यपि यहाँ पर वनों से सम्बन्धित उद्योगों की अत्यधिक संभावनाएं हैं परन्तु आर्थिक एवं औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा होने के कारण ये उद्योग अपना स्थान ग्रहण नहीं कर सके। गढ़वाल हिमालय में वनों के प्रकार एवं वितरण को तालिका एक से स्पष्ट किया गया है।
उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि सम्पदा की दृष्टि से गढ़वाल हिमालय धनी है, परन्तु सन्तुलित विदोहन न होने के कारण स्थानीय लोग इसके उपयोग से लाभान्वित नहीं हो पाये। पारिस्थितिकी को मद्देनजर रखते हुए उन वनों के उपयोग सम्बंधी कार्यसूची बनाये जाने की आवश्यकता है जिनके माध्यम से क्षेत्र का विकास सम्भव हो सके।
मानव संसाधन पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण तत्व के रूप में अभिन्न अंग है, जोकि क्षेत्रीय विश्लेषण के लिये गहन भूमिका निभाती है, गढ़वाल की जलवायु विभिन्नता यहाँ जनसंख्या के असमान वितरण में उत्तरदायी रही है, कुल जनसंख्या का 9.5 प्रतिशत जनसंख्या 200 मीटर से अधिक ऊँचाई में निवास करती हैै, फिजियोलॉजिकल घनत्व (602) राष्ट्रीय औसत के (354) लगभग दुगुणा है।
ग्रामीण परिवेश से जनसंख्या प्रवास जनांकिकी परिवर्तन का मुख्य घटक रही है सीमित संसाधनों एवं उनके अपूर्ण विदोहन ने क्षेत्र के निवासियों को देश के अन्य भागों में प्रवासित किया है। अतः प्रतिभापलायन जनसंख्या घटक की मुख्य विशेषता रही है।
भूमि पर बढ़ता दबाव जनसंख्या वृद्धि का द्योतक रहा है। जिसके परिणामस्वरूप जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये यहाँ के निवासियों को प्रवासित होना पड़ा है। कृषि के परम्परागत तरीके यहाँ के आर्थिक विकास में अवरोध साबित हुए, जिससे उत्पादन एवं उत्पादकता में निरंतर कमी आयी। परम्परागत जीवन निर्वाह कृषि घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असक्षम साबित हुई है। पर्वतीय आंचल में स्थित होने के कारण कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 16.5 प्रतिशत भाग सदा बर्फ से ढका रहता है। कृषि के अन्तर्गत मात्र 9.6 प्रतिशत भूमि है।
गढ़वाल हिमालय के अधिकांश कृषक भूमि स्वामित्व की दृष्टि से मध्यम स्तर के हैं, इसके अतिरिक्त सिंचाई के साधनों का अभाव यहाँ के कृषिमय भूमि की कार्मिक क्षमताओं को प्रतिबन्धित करते हैं। दूरस्थ पर्वतीय भूमि से परिवहन की अत्यधिक लागत यहाँ के औद्योगिक विकास में बाधक है। इस क्षेत्र की जलवायु फलोत्पादन के लिये अनुकूल है। सन 1967 में उत्तर प्रदेश हिमालय ‘फलपेटियाँ’ उद्योग स्थापित करने की शुरुआत की थी, सम्पूर्ण क्षेत्र फलोत्पादन के अन्तर्गत कुल क्षेत्रफल 93892 हेक्टेयर है। परन्तु इसके व्यावसायिक उत्पादन का क्षेत्र नगण्य है।
पिछले दो दशकों में किये गये योजनाबद्ध विकास के परिणाम भारतीय अर्थव्यवस्था में अनुभव किये जा सकते हैं, परन्तु पश्चिमी हिमालय के इस भूखण्ड के आर्थिक विकास की गति अत्यंत धीमी रही है, जिसका कारण विकास योजनाओं में निर्धारण की मौलिकता का अभाव है। ब्रिटिश शासन में यह अनुभव कर लिया गया था कि हिमालय का पर्यावरण उद्यानिकी के विकास के लिये अनुकूल है तथा धीरे-धीरे कृषि भूमि को फलोत्पादन के अन्तर्गत ले जाना चाहिए। यहाँ पर प्रथम उद्यानिकी नर्सरी को स्थापित किये हुए पाँच दशक होने जा रहे हैं तथापि उद्यानिकी यहाँ की अर्थव्यवस्था में अपना समुचित स्थान नहीं बना पाई है। गढ़वाल हिमालय में उद्यानिकी विकास की दृष्टि से निम्न सुझाव महत्वपूर्ण हैं : -
(1) कृषि भूमि का बिखराव कम करने के लिये चकबन्दी लागू करना आवश्यक है जिससे कि उद्यानों का समुचित विकास हो सके।
(2) सामुदायिक बंजर भूमि को उद्यानिकीय विकास हेतु विकसित कर स्थानीय लोगों को आवंटित किया जाना चाहिए।
(3) विकास खण्ड के उद्यानिकी विभाग द्वारा प्रत्येक जलागम क्षेत्र के केन्द्र में स्थित गाँव को सघन उद्यानिकी विकास के लिये अपनाया जाये जिसमें भूमि विकास से लेकर उत्पादन के विक्रय तक के दायित्व का निर्वाह किया जाए।
(4) पारिस्थितिकी दृष्टि से यह क्षेत्र नींबू प्रजाति के फलों के लिये उपयुक्त है जिसका अधिकांश उत्पादन शीतकाल में होता है। जबकि इसकी मांग ग्रीष्म काल में अधिक होती है। इस स्थिति में इन फलों का सुरक्षित भंडारण मात्र शीत गृहों से ही संभव है जिससे ग्रीष्म काल में उचित लाभ उत्पादकों को प्राप्त हो सके। अतः उद्यानिकी विकास के लिये यह परम आवश्यक है कि फलों के भण्डारण के लिये इस क्षेत्र में फलोत्पादन बहुल क्षेत्रों में एक शीतगृह की स्थापना की जाये जिससे उच्च श्रेणी के फलों का भण्डारण किया जा सके।
तालिका-2 गढ़वाल में भूमि उपयोग, 1991 | ||||||
जनपद | देहरादून | टिहरी | उत्तरकाशी | पौड़ी | चमोली | गढ़वाल |
कुल भूमि (हे.) | 322788 | 574477 | 803694 | 720589 | 860360 | 328190 |
वन क्षेत्र (प्रति) | 70.0 | 69.0 | 88.3 | 63.2 | 61.2 | 70.0 |
बंजर एवं आकृषित भूमि | 0.6 | 1.4 | 0.7 | 3.5 | 20.6 | 6.6 |
कृषि के अतिरिक्त अन्य उपयोगी भूमि | 4.9 | 1.4 | 0.5 | 1.9 | 2.2 | 1.8 |
कृषि योग्य बेकार भूमि | 3.5 | 11.3 | 3.0 | 4.8 | 2.4 | 4.8 |
चरागाह | 0.004 | 2.5 | 2.4 | 4.4 | 3.1 | 2.8 |
उद्यानिकी | 1.4 | 0.1 | 0.5 | 6.5 | 4.9 | 2.9 |
परती भूमि | 1.9 | 0.9 | 0.3 | 1.4 | 0.2 | 0.8 |
एक से अधिक बार बोई गई भूमि | 57.06 | 63.02 | 49.11 | 54.10 |
| 55.59 |
सिंचित भूमि का प्रतिशत | 40.64 | 17.03 | 16.83 | 9.2 | 5.96 | 17.21 |
कृषि योग्य भूमि | 17.4 | 13.2 | 4.2 | 14.2 | 55.2 | 9.6 |
(5) इस क्षेत्र में नींबू प्रजाति के फलों में माल्टा उत्पादन का क्षेत्र सर्वाधिक है जबकि यह व्यावसायिक दृष्टि से लाभप्रद नहीं है। अतः उचित होगा कि माल्टा उत्पादन में कमी लाकर सन्तरे तथा कीनों के उत्पादन क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाये।
(6) बाजार की मांग, उपादेयता तथा परिवहन की दृष्टि से नींबू का उत्पादन अत्यन्त लाभकारी है। अतः इसके उत्पादन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
उपरोक्त वर्णित सुझावों से स्पष्ट है कि कृषि भूमि का स्थानांतरण या तो नगदी फसलों में किया जाये या पारिस्थितिकी दृष्टि से सुदृढ़ उद्यानिकी में, जिससे न केवल आर्थिक लाभ होगा बल्कि पर्यावरण संरक्षण की संभावनाएं भी बढ़ेगी। हिमालय की गोद में स्थित होने के कारण यह भूखण्ड प्राकृतिक धरोहर को अपने में समेटे हुए हैं। जम्मू-कश्मीर एवं अन्य पर्यटन स्थलों में आतंकवादी गतिविधियों की कर्मस्थली पर्यटन उद्योग को व्यवस्थित करने में अक्षम रही है। वर्तमान दशक में किये जा रहे प्रयासों में यह तो निश्चित हो चुका है कि आने वाले दशक में यह उद्योग अधिक विकसित होगा, परन्तु अभी भी इस ओर गहन अध्ययन की आवश्यकता है जोकि न केवल स्थानीय लोगों की आजीविका का साधन भी बनेगी बल्कि विदेशी मुद्रा अर्जित करने में सक्षम होगी।
संसाधन उपयोगिता प्रतिरूप के उपरोक्त विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस क्षेत्र के समुचित विकास के लिये संसाधनों का विदोहन करने में पारिस्थितिकी तन्त्र को दृष्टि में रखना आवश्यक है। वनों एवं फसलों पर आधारित कुटीर एवं लघु उद्योगों का विकास निश्चत रूप से स्थानीय विकास में सहायक सिद्ध होगा। जनसंख्या प्रतिनिधित्व एवं आवश्यकता नीति का निर्धारण वास्तविक रूप से आर्थिक विकास में निर्णायक भूमिका निभा सकती है।
डा. वी.पी. सती
पोस्ट डाक्टरेट रिसर्च फेलो, हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल)